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ध्यान और आध्यात्मिक साधना

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आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।

‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है। ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक है।

आध्यात्मिक साधना में ‘ध्यान‘ की प्रमुख भूमिका है। आध्यात्मिक साधना चाहे जिस मार्ग की हो और उसकी पद्धति चाहे जो भी हो उसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है।

चित्त की एकाग्रता ही ध्यान की विशेषता और उपलब्धि है। यह एकाग्रता ही आध्यात्मिक साधना की आधार भूमि है।

आध्यात्मिक साधना का अर्थ-अन्तर्मुखी यात्रा के माध्यम से आत्मा और शुद्ध चैतन्य तक पहुंचना और संसार की अंतव्र्यवस्था का तात्विक बोध प्राप्त करना है।

इसके लिए भारत सहित अन्य देशों में भी बहुत सी साधनाओं की खोज की गयी है। भारत में दार्शनिक दृष्टिकोण से तीन महत्वपूर्ण साधनाओं की चर्चा की जाती है-ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। इनमें ध्यान का जितना अच्छा और उचित योग मिलेगा, सफलता उसी अनुपात में मिलेगी।

साधनात्मक पद्धति के दृष्टिकोण से हठयोग, लययोग, नाद योग, ध्यान योग और मंत्र योग की चर्चा आती है। इसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है, अगर इन योगों से ध्यान को हटा दिया जाय, तो सफलता मुश्किल है।

स्वर योग और कुण्डलिनी योग में भी ध्यान के माध्यम से ही प्रगति मिलती है। ध्यान जितना दृढ़ होगा, प्रगति और सफलता उतनी सुनिश्चित होगी। राज योग का तो मुख्य आधार ही ‘ध्यान‘ है।

ईश्वरवादी साधनाओं में तो ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका है। जबकि अनीश्वरवादी साधनाओं का कार्य भी ध्यान के बिना नहीं चलता।

अंतर्यात्रा तो ध्यान के बिना असंभव है। सभी साधनाओं में ध्यान की उपयोगिता के चलते इसे स्वीकारा गया हैं।

हठयोग, लययोग और नादयोग में विषय पर ज्यादा महत्व दिया जाता है, लेकिन इन योगों का लक्ष्य भी चित्त की एकाग्रता ही है।

चित्त की एकाग्रता के बिना अंतः संसार (पिण्ड) में प्रवेश नहीं मिलता है। अन्य माध्यमों में भी ध्यान की क्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न होती है।

कुण्डलिनी योग में मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक की यात्रा होती है। मेरूदण्ड के निचले छोर पर मूलाधार चक्र है।

कुण्डलिनी योग की पूरी साधना ध्यान योग से ही संपन्न होती है। साकार साधना में भक्तियोग का महत्वपूर्ण स्थान है, यहां पर किसी अपने आराध्य की उपासना की जाती है जब कि उपास्य में अपनेक देवी-देवता हैं। इनमें से किसी का कोई उपास्य हो सकता है।

इस साधना में भाव की प्रधानता होती है। कभी स्मरण, कभी सिमरन, कभी नाम जाप किया जाता है।

बौद्ध साधना में अनीश्वरवादी साधना है, यहां ध्यान की मुख्य भूमिका है। कोई भी उपास्य नहीं होता, परंतु विषय के रूप में सांसों को ग्रहण किया जाता है। अर्थात् श्वांस-प्रश्वांस पर ध्यान रखना पड़ता है।

यह ध्यान की स्वतंत्र प्रक्रिया ध्यान चागरण है, सुषुप्ति नहीं। इस प्रक्रिया में अतंर्यात्रा शुरू हो जाती है और विचार भी शांत हो जाते हैं।

सभी आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। ‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है।

ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक हैं।

जब तक साधक की अंतर्मुखी यात्रा नहीं होती, चित्त के गहरे तलों में नहीं उतरती तब तक उस साधना में विशिष्टता की अनुभूति नहीं होती है, और उसका परिणाम भी नहीं मिल पाता।

अनुभूति और परिणाम का प्रमुख कारण ‘ध्यान‘ ही है। ध्यान से ही सभी साधना पद्धतियों को गति मिलती है।

जहां ध्यान की कमी रहती है, वहां साधक को सिद्धि प्राप्त करने में कठिनाई आती है।

इस तरह यह स्पष्ट है कि किसी भी तरह की साधना में ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है। आध्यात्मिक साधनाएं तो ‘ध्यान‘ के बिना फलीभूत ही नहीं होती है।

मीराबाई जीवन परिचय

भारत अपनी संस्कृति के लिए पूरे विश्व में यूं ही इतना विख्यात नहीं है।

भारतभूमि पर ऐसे कई संत और महात्मा हुए हैं जिन्होंने धर्म और भगवान को रोम-रोम में बसा कर दूसरों के सामने एक आदर्श के रुप में पेश किया है।

मोक्ष और शांति की राह को भारतीय संतों ने सरल बना दिया है। भजन और स्तुति की रचनाएं कर आमजन को भगवान के और समीप पहुंचा दिया है।

ऐसे ही संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है।

नारी संतों में ईश्वर प्राप्ति हेतु लगी रहने वाली साधिकाओं में सर्वप्रथम नाम आता है मीरा जी का, उनका भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अन्य भक्तों का भी मार्ग दर्शन करता है।

मीरा जी के काव्य में सांसारिक बंधनों का त्याग एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव मिलता है। उसकी दृष्टि में सुख, वैभव, सम्मान, उच्च पद आदि मिथ्या हैं, यदि कोई सत्य है तो वह है गिरधर गोपाल।

कृष्ण को वह परमात्मा और अविनाशी मानती थी। उसकी भक्ति में ढोंग, आडंबर और मिथ्या मान्यताएँ दिखाई नहीं देती, बल्कि भक्ति का सरलतम मार्ग – स्मरण, नृत्य और गायन थे। मीरा ने ज्ञान पर उतना बल नहीं दिया जितना भावना और श्रद्धा पर ।

मीरा का काल, वह समय था जबकि हिन्दू मुस्लिम संस्कृतियों का संघर्ष, धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता पनप रही थी।

इसलिए उसने बल्लभ संप्रदाय के अनुयायियों से सत्संग तो किया, किन्तु आचार्य जी महाप्रभु की सेविका नहीं बनी। उसने ज्ञानी एवं योगियों से ज्ञान चर्चा तो की, परंतु कभी किसी संत महात्माओं की सेविका नहीं बनी।

उसने ज्ञानी एवं योगियों से ज्ञान चर्चा तो की, किन्तु जोगी होय जुगत न जाणी, उलट जनम री फाँसी को भी वह नहीं भूली। जीव गोस्वामी के पौरुष को ब्रजभाव के नारीत्व से तो रंगा, किन्तु स्वयं कृष्ण की दासी ही रही।

वह किसी संप्रदाय विशेष के घेरे में बंद नहीं हुई। डॉ.भगवानदास तिवारी के अनुसार, मीरा का भक्ति मार्ग साम्प्रदायिक पगडंडी न होकर स्वतंत्र राजमार्ग था।

उसके विचार अतीत और वर्तमान से संबंधित होकर भी मौलिक थे, परंपरा समर्थित होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र थे, व्यापक होकर भी सर्वथा व्यक्तिनिष्ठ थे।

मीराबाई जहां जाती थीं, वहां उन्हें लोगों का सम्मान मिलता था. मीराबाई कृष्ण की भक्ति में इतना खो जाती थीं कि भजन गाते-गाते वह नाचने लगती थीं।

यह कहा जाता है की मीराबाई का कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुंचा था।

मीराबाई के बचपन में एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहां बारात आई थी। सभी स्त्रियां छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं।

मीराबाई भी बारात देख रही थीं, बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? इस पर मीराबाई की माता ने कृष्ण की मूर्ति के तरफ इशारा कर कह दिया कि वही तुम्हारे दुल्हा हैं।

यह बात मीरा बाई के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई। और उसी दिन से वह श्री कृष्ण को अपना पति मानने लगी।

यदि मीरा के पदों का गहन अध्ययन किया जाय तो मीरा की आध्यात्मिक यात्रा तीन सोपानों में दिखाई देती है।

पहला सोपान, प्रारंभ में उसका कृष्ण के लिये लालायित रहने का है, जब वह व्यग्र होकर गा उठती है मैं विरहणी बैठी जागूँ, जग सोवे री आली तथा मिलन के लिए वह तङफ उठती है, दरस बिन दूखण लागे नैण।

दूसरा सोपान वह है जब उसे कृष्ण भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है,

पायोजी मैंने रामरतन धन पायो मीरा के ये उद्गार प्रसन्नता के सूचक हैं और प्रसन्नता में वह पुनः कहती है, साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा-जुगारी जोवता, वरहणी पिव पाया हो।

तीसरा और अंतिम सोपान है जब उसे आत्म बोध हो जाता है, अँसुवन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तो बेल फैल गयी आनंद फल होई।

सायुज्य भक्ति की चरम सीमा पर खङी मीरा बङे सहज भाव से कहती है मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई। मीरा अपने प्रियतम से मिलकर एकाकार हो गयी है।

भक्ति, ईश्वर के प्रति प्रेम रूपा है और प्रेम रूपा भक्ति को प्राप्त करने के बाद न किसी वस्तु की इच्छा रहती है, न शोक रहता है और न द्वेष रहता है और जिसे प्राप्त कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। मीरा ने वही पा लिया है और मीरा की भक्ति की चरम सीमा भी यही है।

मीरा की भक्ति सगुण थी अथवा निर्गुण, इस संबंध में विद्वानों में मिथ्या मतभेद हैं। कुछ विद्वानों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि मीरा योग अथवा नाथ पंथ से प्रभावित थी।

लेकिन मीरा के आराध्य के स्वरूप के विषय में कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए। मीरा का संपूर्ण प्रेम और भक्ति सगुण लीलाधारी कृष्ण के प्रति निवेदित हुआ है जिसका गिरधर नाम ही मीरा को सर्वाधिक प्रिय था।

ये ही गिरधर गोपाल मीरा के एकमात्र आराध्य देव थे। कुछ विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया है कि जैसे राम शब्द भक्तों और संतों के संदर्भ में सगुण और निर्गुण दोनों का ही वाचक है, वैसे ही क्या मीरा का गिरधर भी निर्गुण ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता?

किन्तु मीरा ने अपने अनेक पदों में उसी सगुण साकार कृष्ण को ही अपना आराध्य देव स्वीकार किया है तथा अपने आराध्य के सगुण स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहिनी मूरति सांवरी सूरति, नैना बने विसाल।
अधर सुधारस मुरली, राजति, उर वैजंती माल।।

अतः मीरा की सगुण भक्ति में हमें कोई संदेह नहीं है।

जहाँ कभी भी मीरा ने अपने गिरधर के लिये निर्गुण ब्रह्मवाची उपाधियों का प्रयोग किया है, वहाँ भी उसके साथ कृष्ण का सगुण स्वरूप अभिन्न संश्लिष्ट रहा है।

जोगी या जोगिया भी वस्तुतः प्रियतम का ही वाचक है। अतः इन शब्दों को लेकर मीरा का नाथ-पंथ या नाथ-संप्रदाय से संबंध जोङना भी निरर्थक है।

सगुणोपासना का क्षेत्र अधिक व्यापक और विस्तृत होता है। अतः कुछ सगुण भक्तों ने अपने आराध्य के गुणगान करने के लिये उसके विशुद्ध निर्गुण रूप का भी स्तवन किया है, किन्तु एकांगी निर्गुणोपासना में सगुण के लिये कोई स्थान हीं होता।

ऐसी स्थिति में यदि मीरा ने भज मन चरण कंवल अविनासी कहकर निर्गुण ब्रह्मवाची अविनासी शब्द का प्रयोग कर भी दिया तब भी उसकी सगुणोपासना पर कोई आँच नहीं आती, क्योंकि इसके साथ ही चरण कंवल शब्दों का प्रयोग भी किया है जिसमें सगुण कृष्ण की निर्मल छवि ही मुस्कराती है।

मीरा के समय सामंतवादी व्यवस्था अपने पूर्ण उत्कर्ष पर थी, जिसमें परंपरागत आचार-विचारों, रूढियों, जाति भेद तथा वर्ग भेद का महत्त्व था।

ऐसी अवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और नारी के समानाधिकार आदि मूल्यों को कोई स्थान नहीं था। उस प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध मीरा ने विद्रोह का शंखनाद किया जो जन संस्कृति की उत्कर्ष मूलक चेतना का प्रमाण है। अपने विद्रोही स्वर में मीरा ने कहा था –

चोरी करूँ न मारगी, नहीं मैं करूँ अकाज।
पुन्न के मारग चालतां, झक मारो संसार।।

इसमें झक मारो संसार अनीति व्यवस्था के विरुद्ध व्यक्ति स्वातंन्त्रय का स्वर कितनी तीव्रता से फूटा है। वस्तुतः मीरा की काव्य चेतना सामंती परिवेश में पलकर भी लोक धरातल पर विकसित हुई।

राजकुल में जन्म लेकर तथा राजकुल की वधु होकर भी मीरा का जीवन अन्तःपुर के प्रकोष्ठ में ही आबद्ध नहीं रहा, बल्कि अपनी व्यापक प्रेमानुभूति एवं भक्तिभावना के कारण उसका व्यक्तित्व अविनासी लोक के साथ एकरूप हो गया। 16 वीं शताब्दी में भक्ति की जिस सरिता का उद्मम मीरा ने किया था, आज भी वह उसी प्रभा से प्रवाहित हो रही है।

मीरा की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं. हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीरा के पद हमारे देश की अनमोल संपत्ति हैं। 

आंसुओं से गीले ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं।  मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है।

भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहजशैली की सरसता के कारण मीरा की व्यथासिक्त पदावली बरबस सबको आकर्षित कर लेती हैं।

कहा जाता है कि मीराबाई रणछोड़ जी में समा गई थीं। मीराबाई की मृत्यु के विषय में किसी भी तथ्य का स्पष्टीकरण आज तक नहीं हो सका है.

मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है. एक ऐसा स्थान जहां भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। दुनिया के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते।

एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। मीराजी की कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल हैं।

भजन और स्तुति की रचनाएँ कर आमजन को भगवान के और समीप पहुँचाने वाले संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है।

मीरा का सम्बन्ध एक राजपूत परिवार से था। वे राजपूत राजकुमारी थीं, जो मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह के एकमात्र संतान थी।

मीरा बाई एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त थीं। वे भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति-संतों में एक थीं।

भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं और श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। मीरा का जन्म राजस्थान के एक राजघराने में हुआ था।

फिर भी मीरा जी  राजसी ठाट बाट को अहमियत नहीं देती थी मीरा बाई के जीवन के बारे में तमाम पौराणिक कथाएँ और किवदंतियां प्रचलित हैं।

ये सभी किवदंतियां मीराबाई के बहादुरी की कहानियां कहती हैं और उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति को दर्शाती हैं। इनके माध्यम से यह भी पता चलता है की किस प्रकार से मीराबाई ने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं।

उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये।

श्री कृष्ण की दीवानी के रूप में मीराबाई को कौन नहीं जानता। मीराबाई एक मशहूर संत होने के साथ-साथ हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और भगवान कृष्णा की भक्त थी।

वे श्री कृष्ण की भक्ति और उनके प्रेम में इस कदर डूबी रहती थी कि दुनिया उन्हें श्री कृष्ण की दीवानी के रुप में जानती है।मीराबाई जी को श्री कृष्ण भक्ति के अलावा कुछ और नहीं सूझता था।

वह दिन-रात कृष्णा भक्ति में ही लीन रहती और उन्हें पूरा संसार कृष्णमय लगता था, इसलिए वे संसारिक सुखों और मोह-माया से दूर रहती थी, उनका मन सिर्फ  श्री कृष्ण लीला, संत-समागम, भगवत चर्चा आदि में ही लगता था।

भगवान कृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए संत मीराबाई हजारो भक्तिमय कविताओ की रचना की है। संत मीरा बाई की श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम और भक्ति, उनके द्वारा रचित कविताओं के पदों और छंदों मे साफ़ देखने को मिलती है। वहीं श्री कृष्ण के लिए मीरा बाई ने कहा है।

“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई जाके सर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई” संत मीरा बाई कहती हैं, मेरे तो बस ये श्री कृष्ण हैं।

जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरधर नाम पाया है। जिसके सर पे ये मोर के पंख का मुकुट है, मेरा तो पति सिर्फ यही है।”

मीराबाई जी, की श्री कृष्ण भक्ति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि, उन्हें अपनी कृष्ण भक्ति की वजह से अपने ससुराल वालों से काफी कष्ट भी सहना पड़ा था।

यहां तक की उन्हें कई बार मारने तक की कोशिश भी की गई, लेकिन मीराबाई को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उनकी आस्था दिन पर दिन अपने प्रभु कृष्ण के प्रति बढ़ती चली गई, उन्होंने खुद को पूरी तरह श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया था।

श्री कृष्ण को अपने पति के रुप में मानकर उन्होनें कृष्ण भक्ति के कई स्फुट पदों की भी रचना की है , इसके साथ ही उन्होंने श्री कृष्ण के सौंदर्य का बेहतरीन तरीके से अपनी रचनाओं में वर्णन किया है।

महान संत मीराबाई जी की कविताओं और छंदों में श्री कृष्ण के प्रति उनकी गहरी आस्था और प्रेम की अद्भुत झलक देखने को मिलती है, इसके साथ ही उनकी कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रति एक गहरी टीस दिखाई देती है, जो भक्ति के रंग में रंगकर और भी ज्यादा गहरी हो गई है।

प्रारंभिक जीवन

श्री कृष्ण  की सबसे बड़ी साधक एवं महान अध्यात्मिक कवियत्री मीराबाई जी के जीवन से सम्बंधित कोई भी विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं।

विद्वानों ने साहित्य और दूसरे स्रोतों से मीराबाई के जीवन के बारे में प्रकाश डालने की कोशिश की है। इन दस्तावेजों के अनुसार मीरा का जन्म राजस्थान के मेड़ता में सन 1498 ईसवी राजस्थान के जोधपुर जिले के बाद कुडकी गांव में रहने वाले एक राजघराने में हुआ था।

इनके पिता का नाम रत्नसिंह था, जो कि एक छोटे से राजपूत रियासत के राजा थे।मीराबाई जी जब बेहद छोटी थी तभी उनके सिर से माता का साया उठ गया था,मीरा इकलौती संतान थी।

बाल्यकाल में मीरा को न भाई-बहन का साथ मिला, न माता-पिता का दुलार।

उनके पिता रतन सिंह, राणा साँगा के साथ तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल और युद्धों को लेकर व्यस्त रहते थे, जिसके बाद

मीराजी का लालन-पालन उनके दादा के देख-रेख में हुआ जो भगवान् विष्णु के गंभीर उपासक थे और एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय भी थे और साधु-संतोंकाआना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था।

इस प्रकार अपने दादा जी के धार्मिक विचारों का मीराबाई पर गहरा असर पड़ा था। मीराबाई बचपन से ही श्री कृष्ण की भक्ति में रंग गई थीं।

शिक्षा

मीराबाई जी को संगीत, धर्म, राजनीति और प्राशासन जैसे विषयों की शिक्षा दी गयी। उन्होंने तीर-तलवार, शस्त्र-चालन, घुड़सवारी, रथ-चालन आदि के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी पाई।

विवाह

 राणा साँगा चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे। उनकी पत्नी रानी झाली झालावाड़ के राजा की कन्या रत्नकुँवरी भी प्रभु भक्त थी। वह काशी जाकर गुरु रविदास की शिष्या बन गई थी।

चित्तौड़ के राणा साँगा के परिवार ने आश्रम बनाकर गुरु रविदास को भेंट किया। मेड़ता से मीरा के दादा चित्तौड़ स्थित आश्रम में गुरु रविदास का उपदेश सुनने के लिए आते थे।

रानी झाली का पुत्र कुँवर भोजराज अपनी माता के समान शांत और निश्छल प्रकृति का युवक था। उस समय कुँवर भोजराज की आयु 18 वर्ष थी।

रानी झाली ने अपने पति राणा साँगा की सहमति एवं गुरु रविदास का आशीर्वाद लेकर कुँवर भोजराज के लिए मीरा का हाथ दादाजी से माँगा था।

मीराबाई के परिवार वालों को इस संबंध से कोई आपत्ति नहीं थी इसीलिए दोनों परिवार संबंध सूत्र में बँध गए।

गुरु रविदास की उपस्थिति में कुँवर भोजराज और मीरा का विवाह संपन्न हुआ।

मीरा की आयु उस समय 12 वर्ष की थी। इसके बाद ही मीरा ने अपने पति एवं अपनी सास रानी झाली की अनुमति से गुरु रविदास का शिष्यत्व ग्रहण किया।

समय परिवर्तनशील है। मीरा के भाग्य में गृहस्थ जीवन भोगना विधाता ने नहीं लिखा था। केवल 25 वर्ष की अल्पायु  में कुँवर भोजराज का अकस्मात्‌ देहांत हो गया।

ऐसा कहा जाता है कि उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु वे इसके लिए तैयार नही हुईं और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।

मीराबाई के पति की मृत्यु के बाद उनका ज्यादातर समय श्री कृष्ण की भक्ति में व्यतीत होता था।

वे श्री कृष्ण की भक्ति में इस कदर लीन रहती थीं, कि अपनी परिवारिक जिम्मेदारियों पर भी ध्यान नहीं दे पाती थी, यहां तक की मीराबाई ने एक बार अपने ससुराल में कुल देवी “देवी दुर्गा” की पूजा करने से यह कहकर मना कर दिया था कि, उनका मन गिरधर गोपाल के अलावा किसी औऱ भगवान की पूजा में नहीं लगता।

मीराबाई का रोम-रोम कृष्णमय था, यहां तक की वे हमेशा श्री कृष्ण के पद गाती रहती थी और साधु-संतों के साथ श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर नृत्य आदि भी किया करती थी, लेकिन मीराबाई का इस तरह नृत्य करना राजशाही परिवार को बिल्कुल पसंद नहीं था, वे उन्हें ऐसा करने से रोकते भी थे, और इसका उन्होंने काफी विरोध भी किया था।

मीराबाई के ससुराल वाले इसके पीछे यह तर्क देते थे, वे मेवाड़ की महारानी है, उन्हें राजसी परंपरा निभाने के साथ राजसी ठाठ-वाठ से रहना चाहिए और राजवंश कुल की मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए।

कई बार मीराबाई को अपनी कृष्ण भक्ति की वजह से काफी जिल्लतों का भी सामना करना पड़ा था, बाबजूद इसके मीराबाई ने श्री कृष्ण की आराधना करना नहीं छोड़ी।

मीराबाई की कृष्ण भक्ति को देख  कर उनके ससुराल वालों ने उन्हें मारने की कई बार कोशिशें की परंतु वह सभी कोशिशें नाकाम रही।

श्री कृष्ण भक्ति की वजह से मीराबाई जी के अपने ससुराल वालों से रिश्ते दिन पर दिन खराब होते जा रहे थे और फिर ससुराल वालों ने जब देखा कि किसी तरह भी मीराबाई की कृष्ण भक्ति कम नहीं हो रही है, तब उन्होंने कई बार विष देकर मीराबाई को जान से मारने की कोशिश भी की, लेकिन वे श्री कृष्ण भक्त का बाल भी बांका नहीं कर सके।

विक्रमजीतसिंह ने नाना प्रकार के उचित अनुचित साधनों से मीराबाई की इहलीला समाप्त करने की पूरी चेष्टा की। इन अत्याचारों का उल्लेख स्वयं मीरा ने अपने गीतों में किया है :

मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।
सांप पिटारा राणा भेज्यो,मीरा हाथ दियो जाय।।
न्हाय धोय जब देखण लागी ,सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या ,अमृत दीन्ह बनाय।।
न्हाय धोय जब पीवण लागी हो अमर अंचाय।
मीराबाई को दिया जहर का प्याला:

बड़े साहित्यकारों और विद्धानों के अनुसार एक बार हिन्दी साहित्य की महान कवियित्री मीराबाई के ससुराल वालों ने जब उनके लिए जहर का प्याला भेजा, तब मीराबाई ने श्री कृष्ण को जहर के प्याले का भोग लगाया और उसे खुद भी ग्रहण किया, ऐसा कहा जाता है कि, मीराबाई की अटूट भक्ति और निश्छल प्रेम के चलते विष का प्याला भी अमृत में बदल गया।

मारने के लिए फूलों को टोकरी में भेजा सांप

प्रख्यात संत मीराबाई की हत्या करने के पीछे एक और किवंदित यह भी प्रचलित है कि, जिसके मुताबिक एक बार मीराबाई के ससुराल वालों ने  उन्हें मारने के लिए फूलों की टोकरी में एक सांप रख कर मीरा के पास भेजा था, लेकिन जैसे ही मीरा ने टोकरी खोली, सांप फूलों का हार बन गया ।

राणा विक्रम सिंह ने भेजी कांटों की सेज

श्री कृ्ष्ण की दीवानी मीराबाई को मारने की कोशिश में एक अन्य किवंदति के मुताबिक एक बार राणा विक्रम सिंह ने उन्हें मारने के लिए कांटो की सेज (बिस्तर) भेजा, लेकिन, ऐसा कहा जाता है कि, उनके द्धारा भेजा गया कांटो का सेज भी फूलों के बिस्तर में बदल गया।

श्री कृष्ण की अनन्य प्रेमिका और कठोर साधक मीराबाई की हत्या के सारे प्रयास विफल होने के पीछे लोगों का यह मानना है कि, भगवान श्री कृष्ण अपनी परम भक्त की खुद आकर सुरक्षा करते थे, कई बार तो श्री कृष्ण ने उन्हें साक्षात दर्शन भी दिए थे।

द्वारिका में वास

इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: मेवाड़ छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया।

अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: द्वारिका में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

सन्‌ 1543 ई. के पश्चात मीरा द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति के सन्मुख नृत्य-कीर्तन करने लगीं। सन्‌ 1546 ई. में चित्तौड़ से कतिपय ब्राह्मण उन्हें बुलाने के लिए द्वारिका भेजे गए।

कहते हैं कि मीरा रणछोड़ से आज्ञा लेने गईं और उन्हीं में अंतर्धान हो गईं। जान पड़ता है कि ब्राह्मणों ने अपनी मर्यादा बचाने के लिए यह कथा गढ़ी थी।

सन्‌ 1554 ई. में मीरा के नाम से चित्तौड़ के मंदिर में गिरिधरलाल की मूर्ति स्थापित हुई। यह मीरा का स्मारक और उनके इष्टदेव का मंदिर दोनों था।

गुजरात में मीरा की पर्याप्त प्रसिद्धि हुई। हित हरिवंश तथा हरिराम व्यास जैसे वैष्णव भी उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लगे।                       

 मान्यताएँ

एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं।

उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था।

विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए।

बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-

“आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥”

मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक साधु मीरा के घर पधारे।

उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की माँ ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया।

मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं।

इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।

मीरा जी की गोस्वामी जी से भेंट

एक प्रचलित कथा के अनुसार मीराबाई वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे।

उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया और अन्दर से ही कहला भेजा कि- “हम स्त्रियों से नहीं मिलते”। इस पर मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था।

उन्होंने कहा कि “वृंदावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहाँ आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है”।

मीराबाई का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है-

मीराबाई द्वारा लिखा गया महान तुलसीदास जी को  पत्र

मीराबाई जी ने अपने परिवार वालों के व्यवहार से पीड़ित औरबहुत ज्यादा दुखी होकर  द्वारका और फिर वृंदावन आ गई थीं। वह जहाँ भी जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता।

लोग उन्हें देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।

परंतु मीराबाई जी के मन में कुछ प्रशन थे जिनका उन्हें समाधान नहीं मिल रहा था अपने प्रश्नों का समाधान ढूंढने के लिएउन्होंने तुलसीदास को एक पत्र लिखा ।

 जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार है –

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई। साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई। हमको कहा उचित करीबो है, सो लिखिए समझाई।।

इस पत्र के माध्यम से मीराबाई ने तुलसीदास जी से सलाह मांगी कि, मुझे  अपने परिवार वालों के द्धारा श्री कृष्ण की भक्ति छोड़ने के  लिए प्रताडि़त किया जा रहा है, लेकिन मै श्री कृष्ण को अपना सर्वस्व मान चुकी हैं, वे मेरी आत्मा और रोम-रोम में बसे हुए हैं।

नंदलाल को छोड़ना मेरे लिए देह त्यागने के जैसा है, मैं कृष्ण के बिना जीवित नहीं रह सकती कृपया ऐसी असमंजस से निकालने के लिए मुझे सलाह दें, और मेरी मदद करें।

जिसके बाद भक्ति शाखा की महान कवियित्री मीराबाई के पत्र का जबाव हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसी दास ने इस तरह दिया था –

“जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।

अर्थात तुलसीदास जी ने मीराबाई जी से कहा कि, जिस तरह भगवान विष्णु की भक्ति के लिए प्रहलाद ने अपने पिता को छोड़ा, राम की भक्ति की लिए विभीषण ने अपने भाई को छोड़ा, बाली ने अपने गुरु को छोड़ा और गोपियों ने अपने पति को छोड़ा उसी तरह आप भी अपने सगे-संबंधियों को छोड़ दो जो आपको और श्री कृष्ण के प्रति आपकी अटूट भक्ति को नहीं समझ सकते एवं भगवान राम और कृष्ण की आराधना नहीं करते।

क्योंकि भगवान और भक्त का रिश्ता अनूठा होता है, जो अजर-अमर है और इस दुनिया में सभी संसारिक रिश्तों को मिथ्या बताया है।सांसारिक रिश्ते सब झूठे हैं केवल ईश्वर का रिश्ता ही परमसत्य है।

मीराबाई जी के गुरु

मीराबाई संत रविदास की महान शिष्या तथा संत कवयित्री थीं। अधिकतर विद्वानों ने मीराबाई को गुरु रविदास जी की शिष्या स्वीकार किया है।

काशीनाथ उपाध्याय ने भी लिखा है- “इस विषय पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता कि मीराबाई गुरु रविदास जी की शिष्या थीं, क्योंकि मीराबाई ने स्वयं अपने पदों में बार-बार गुरु रविदास जी को अपना गुरु बताया है।”

खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी। सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर। मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास। चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस। जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी। सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय। गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।

इस प्रकार मीराबाई की वाणी से स्पष्ट है कि वह गुरु रविदास के समकालीन संत श्रेणी में आती थीं और गुरु रविदास को ही उन्होंने गुरु की उपाधि प्रदान की थी।

अतः मीराबाई गुरु रविदास की विधिवत शिष्या बनीं और साथ ही नाम सबद, संगीत व तंबूरा, जिसे मीराबाई बजाती थीं, गुरु रविदास से ही पाया था।

इसीलिए सम्भवत: यह लगता है कि गुरु दक्षिणा के रूप में उन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में ‘रविदास छत्तरी’का निर्माण करवाया था।

मीराबाई ने भी अपनी वाणी को रागों में ही उच्चारित किया है, जिसमें अधिकतर शब्दों में भैरवी राग को देखा जा सकता है

मीराबाई की काव्य भाषा

मीराबाई के कुछ पदों की भाषा पूर्ण रूप से गुजराती है तो कुछ की शुद्ध ब्रजभाषा। कहीं-कहीं पंजाबी का प्रयोग भी दिखाई देता है।

शेष पद मुख्य रूप से राजस्थानी में ही पाए जाते हैं, इनमें ब्रजभाषा का भी पुट मिला हुआ ये चार बोलियाँ हैं- राजस्थानी, गुजराती, ब्रजभाषा और पंजाबी।

इन बोलियों में मीरांबाई के पदों के उदाहरण भी देखिए –

राजस्थानी

थारी छूँ रमैया मोसूँ नेह निभावो। थारो कारण सब सुख छोड़या, हमकूँ क्यूँ तरसावौ।।

गुजराती

मुखड़ानी माया लागी रे मोहन प्यारा। मुखड़ँ में जोयुँ तारू सर्व जग थायुँ खारू।।

पंजाबी

आवदा जांवदा नजर न आवै।अजब तमाशा इस दा नी।।

ब्रजभाषा

सखी मेरी नींद नसानी हो,
पिय को पंथ निहारत, सिगरी रैन बिहानी हो।
सब सखियन मिलि सीख दई मन एक न मानी हो।।

मीराबाई जी की भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। मारवाड़ी भाषा में स्थान की अन्य भाषा-छवियाँ भी विद्यामान हैं।

मीराबाई की भाषा में गुजराती, ब्रज और पंजाबी भाषा के प्रयोग भी मिलते भी हैं। मीराबाई अन्य संतों नामदेव, कबीर, रैदास आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती थी।

मीराबाई की साहित्यिक देन

मीराबाई,सगुण भक्ति धारा की महान अध्यात्मिक कवियत्री थी, इन्होंने श्री कृष्ण के प्रेम रस में डूबकर कई कविताओं, पदों एवं छंदों की रचना की।

मीराबाई जी की रचनाओं में उनका श्री  कृष्ण के प्रति अटूट  प्रेम, श्रद्धा, तल्लीनता, सहजता एवं आत्मसमर्पण का भाव साफ दिखते हैं ।

मीराबाई ने अपनी रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषा शैली में की है। 

सच्चे प्रेम से परिपूर्ण मीराबाई जी की रचनाओं  एवं उनके भजनों को आज भी पूरा संसार तन्मयता से गाता हैं।

मीराबाई जी ने अपनी रचनाओं में बेहद शानदार तरीके से अलंकारों का भी इस्तेमाल किया है।

मीराबाई ने बेहद सरलता और सहजता के साथ अपनी रचनाओं में अपने प्रभु श्री कृष्ण के प्रति प्रेम का वर्णन किया है।

इसके साथ ही उन्होंने प्रेम पीड़ा को भी व्यक्त किया है। आपको बता दें कि मीराबाई जी की रचनाओं में श्री कृष्ण के प्रति इनके ह्रदय के अपार  प्रेम देखने को मिलता है,

भारतीय परंपरा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में लिखी गई हजारों भक्तिपरक कविताओं का सम्बन्ध मीरा के साथ जोड़ा जाता है पर विद्वान ऐसा मानते हैं कि इनमें से कुछ कवितायेँ ही मीरा द्वारा रचित थीं बाकी की कविताओं की रचना 18वीं शताब्दी में हुई प्रतीत होती है।

ऐसी ढेरों कवितायेँ जिन्हें मीराबाई द्वारा रचित माना जाता है, दरअसल उनके प्रसंशकों द्वारा लिखी मालूम पड़ती हैं। ये कवितायेँ ‘भजन’ कहलाती हैं और उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं।

मीराबाई की रचनाएं

मीराबाई द्धारा लिखी गईं कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के नाम नीचे लिखी गए हैं, जो कि इस प्रकार है –

  1. नरसी जी का मायरा
  2. मीराबाई की मलार
  3. गीत गोविंन्द टिका
  4. राग सोरठ के पद
  5. राग गोविन्दा
  6. राग विहाग
  7. गरबा गीत

इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रंथ में किया गया है।।

मीराबाई का साहित्य में स्थान

कृष्ण को आराध्य मानकर कविता करने वाली मीराबाई की पदावलियाँ हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल हैं। कृष्ण के प्रति मीरा की विरह वेदना सूरदास की गोपियों से कम नहीं है तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि

 ‘‘मीराबाई राजपूताने के मरूस्थल की मन्दाकिनी हैं।’’ ‘हेरी मैं तो प्रेम दीवाणी, मेरो दर्द न जाने कोय।’ प्रेम दीवाणी मीरा का दरद हिन्दी में सर्वत्र व्याप्त है।

मीराबाई का केन्द्रीय भाव

मीरा के पदों का वैशिष्ट्य उनकी तीव्र आत्मानुभूति में निहित है। मीरा के काव्य का विषय है- श्रीकृष्ण के प्रति उनका अनन्यप्रेम और भक्ति ।

मीरा ने प्रेम के मिलन (संयोग) तथा विरह (वियोग) दोनों पक्षों की सुंदर अभिव्यक्ति की है। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम में मीरा किसी भी प्रकार की बाधा या यातना से विकल नहीं होती।

लोक का भय अथवा परिवार की प्रताड़ना दोनों का ही वे दृढ़ता के साथ सामना करती हैं।

मीरा बाई की कविताएँ

हरि आप हरो जन री पीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।

बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुञ्जर पीर। दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी पीर॥

चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण पास्यू खरची। भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी।

मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजंती माला। बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।

मीराबाई का प्रसिद्ध पद –

“बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।”

मीराबाई की जयंती

हिन्दू कलैंडर के मुताबिक शरद पूर्णिमा के दिन मीराबाई जी की जयंती मनाई जाती है।

मीराबाई को आज भी लोग श्री कृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त के रुप में जानते हैं इसके साथ ही उनके प्रेम रस में डूबे भजन को गाते हैं।

इसके साथ ही कई हिन्दी फिल्मों में भी मीराबाई के पदों का इस्तेमाल किया गया है।

अर्थात मीराबाई ने जिस तरह तमाम कष्ट झेलते हुए एकाग्र होकर अपने प्रभु को चाहा, वो वाकई सराहनीय है, अर्थात हर किसी को सच्चे मन के साथ प्रभु में आस्था रखनी चाहिए और अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहना चाहिए।

“जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।। दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।”

मीराबाई द्वारा प्रयुक्त सांगितिक पद्धति

संगीत की दृष्टि से मीराबाई मध्य काल में प्रचलित संगीत की राग-रागिनी पद्धति से भली प्रकार से परिचत थीं तथा वाणी का उच्चारण रागों में करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जो कि वर्तमान में शोध का विषय बन कर सामने आया है।

गुरु प्यारी साध संगत जी, ऐसा सर्वविदित है कि समस्त जगत नाद के अधीन है तथा संगीत नाद का सबसे बड़ा रूप है, जिसे मीराबाई ने 45 रागों के रूप में अपनाते हुए अपनी वाणी को रागों में बद्धित किया और ईश्वर की प्राप्ति में दोनों नादों का प्रयोग किया।

नाद दो प्रकार के माने गए हैं

अनाहत नाद – इसे संतो ने ‘अनहत सबद बजावणया’ की संज्ञा दी। यह योगियों द्वारा ध्यान से मन मस्तिष्क में सुनी जाती है, जिसे मध्य काल के संतों ने खोजा है।

आहत नाद – यह नाद आघात द्वारा पैदा होती है। संगीत इसी का एक रूप है। इसीलिए मीराबाई ने नाम शब्दों से ध्यान लगाया तथा अपनी वाणी को संगीत (रागों) के रूप में उच्चारित किया।

संगीत को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति तथा देवी-देवताओं के काल से चला आ रहा अध्यात्म और मनोरंजन का आलौकिक साधन है, जिसे अति प्राचीन काल और प्राचीन काल से लेकर जन-साधारण और विद्वानों द्वारा प्रर्युक्त कई विधाओं को जन्म मिला तथा आते-आते मध्य काल में यह राग-रागिनी पद्धति बनकर सामने आया, जोकि तत्कालीन समय के प्रत्येक संगीत विद्वान द्वारा अपनाई गई पद्धति थी।

इसी प्रकार मध्य काल के संत-महात्माओं ने भी गायन के लिए इसी पद्धति का प्रयोग कर अपनी वाणी रचनाओं को उद्धृत किया। यह पद्धति मुख्यतः सांगीतिक ग्रन्थों में शिव-मत, भरत, कल्लिनाथ, हनुमत, नारद मुनि, पुण्डरीक विठ्ठल आदि द्वारा अपनाई गई थी।

अतः संगीत को अपनाना मीराबाई की संगीत जगत के लिए सराहनीय योगदान है। इस काल में कई महान संत, जैसे- संत रविदास, संत कबीर, संत सदना, संत सैन, संत नामदेव, संत धन्ना, संत बैणी, संत भीखा, संत पीपा, संत त्रिलोचन तथा संत जयदेव आदि हुए, जो कि अधिकतर निम्न संप्रदाय से संबंध रखने वाले थे।

इन सभी संतों ने सामाजिक कुरीतियों का खण्डन कर भेदभावों का भी विरोध किया जो कि समाज को दीमक के समान खोखला करने पर तुले हुए थे। इन सभी संतों ने अपनी वाणी को रागों में उच्चारा है।

मीराबाई की वाणी लगभग 45 रागों में उपलब्ध होती है-

1.राग झिंझोटी 2.राग काहन्ड़ा 3.राग केदार 4.राग कल्याण 5.राग खट 6.राग गुजरी 7.राग गोंड 8.राग छायानट 9.राग ललित 10.राग त्रिबेणी 11.राग सूहा 12.राग सारंग 13.राग तोड़ी 14.राग धनासरी 15.राग आसा 16.राग बसंत 17.राग बिलाबल 18.राग बिहागड़ो 19.राग भैरों 20.राग मल्हार 21.राग मारु 22.राग रामकली 23.राग पीलु 24.राग सिरी 25.राग कामोद 26.राग सोरठि 27.राग प्रभाती 28.राग भैरवी 29.राग जोगिया 30.राग देष 31.राग कलिंगडा़ 32.राग देव गंधार 33.राग पट मंजरी 34.राग काफी 35.राग मालकौंस 36.राग जौनपुरी 37.राग पीलु 38.राग श्याम कल्याण 39.राग परज 40.राग असावरी 41.राग बागेश्री 42.राग भीमपलासी 43.राग पूरिया कल्याण 44.राग हमीर 45.राग सोहनी

अतः इस प्रकार वाणी का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि मीराबाई ने अपनी वाणी में छन्द, अलंकार, रस और संगीत का पूर्णतया प्रयोग किया और इसे आध्यात्म का मार्ग बनाया, जो कि वर्तमान के लिए प्रेरणा है।

मीराबाई ने ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ को संजोए रखने में एक अनोखी कड़ी जोड़ दी, जिसका प्रमाण तथा पुष्टि विभिन्न ग्रन्थों के अवलोकन करने पर स्पष्ट होती है।

अतः इस पद्धति को मीराबाई ने अपनाया और अपनी वाणी को संगीत के साथ जोड़कर आध्यात्म के साथ-साथ संगीत का भी प्रचार-प्रसार किया, साथ ही संगीत को जीवित रखने में भी अपनी सहमति तथा हिस्सेदारी पाई।

मीराबाई की मृत्यु

स्पष्ट रूप से मीराबाई की मृत्यु के विषय में विवरण उपलब्ध नहीं हैं. उनकी मृत्यु आज भी एक रहस्य है इस सम्बन्ध में अलग अलग कहानियां प्रचलित हैं. विद्वानों की राय भी मीरा बाई की मौत के बारे में अलग अलग हैं.

लूनवा के भूरदान का मानना हैं कि मीरा का मृत्यु वर्ष 1546 में हुई जबकि एक अन्य इतिहासकार डॉ शेखावत मीराबाई की मृत्यु का साल 1548 बताते हैं.

मृत्यु स्थान के बारे में सभी की राय लगभग एक ही हैं, मीरा ने अपना आखिरी वक्त द्वारिका में बिताया और वही उनकी मृत्यु हो गई. वर्ष 1533 के आसपास मीरा ने मेड़ता में रहना शुरू किया, अगले ही वर्ष बहादुरशाह ने चित्तौड पर आक्रमण कर दिया|

मीराबाई राजभवन का त्याग कर वृंदावन की यात्रा पर चली गई। लम्बे समय तक ये उत्तर भारत में यात्रा करती रही.

वर्ष 1546 में ये द्वारिका चली गई। सर्वाधिक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार वो द्वारिका में कृष्ण भक्ति में लीन रही और यही मूर्ति में समा गई।

मीरा के बारे में यह भी मान्यता हैं कि वह पूर्व जन्म में कृष्ण की प्रेमिका गोपी व राधा की सहेली थी।

राधा से कृष्ण ने विवाह किया तो मीरा ने स्वयं को घर में बंद कर दिया और तडप तडप कर जान दे दी।

अगले जन्म में कृष्ण की प्रेयसी के रूप में इन्होने मेड़ता में जन्म लिया, स्वयं मीराबाई अपने एक दोहे में उल्लेख किया है।।व

श्रीराम जन्म स्तुति (भये प्रगट कृपाला दीनदयाला)

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भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी .
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ..

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी .
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ..

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता .
माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ..

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता .
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयौ प्रकट श्रीकंता ..

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै .
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ..

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै .
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ..

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा .
कीजे सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ..

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा .
यह चरित जे गावहि हरिपद पावहि ते न परहिं भवकूपा ..

जय जय सुरनायक जन सुखदायक
संगीतमय श्रीरामचरितमानस चौपाईया
Jay Jay Surnayak With Lyrics in Hindi Rajan Ji Maharaj Bhajan
Reference: Youtube

Image Reference https://hariharji.blogspot.com

तप के आगे गौण है, स्वर्ग के उपभोग

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महात्मा बुद्ध का सौतेला भाई राजा नंद हमेशा राजसी सुख में मग्न रहता था।

प्रजा की भलाई के लिए वह कोई कार्य नहीं करता था, जिससे प्रजा की दशा दिनोदिन खराब होती जा रही थी।

भ्रष्ट राजा के अधीनस्थ मंत्रीगण भी प्रजा को कष्ट देते थे और भ्रष्टाचार करते थे।

एक बार जब महात्मा बुद्ध का कपिलवस्तु में आगमन हुआ तो लोग उनके पास पहुँचे और उनसे अपनी व्यथा कह सुनाई।


भगवान बुद्ध, नंद से मिलने गए। नंद उस समय राजमहल में नृत्य संगीत का आनंद का आनंद ले रहा था।

बुद्धदेव राजदरबार में बहुत देर तक प्रतीक्षा करते रहे, फिर लौट आए। जब थोड़ी देर बाद एक दासी ने उनके वापस जाने की बात नंद को बताई तो उसे दुःख हुआ और उसने बुद्धदेव से माफी माँगने का निश्चय किया।

जाने से पहले जब वर रानी के पास गया तो वह उस समय हाथों पर सुगंधित लेप लगा रही थी। उसने अनमने ढंग से कहा- ‘‘जाइए, मगर मेरे हाथों का लेप सूखने से पहले लौट आइए।‘‘


राजा नंद, बुद्धदेव के पास पहुँचा और उसने उनसे अपनी धृष्टता के लिए क्षमा माँगी। तथागत ने कहा-‘‘नंद यदि तुम्हें सचमुच दुःख है तो मेरा उपदेश ग्रहण करो।‘‘

नंद को रह-रहकर रानी की बात याद आ रही थी- ‘मेरे हाथों का लेप सूखने से पहले लौट आइए।‘

परंतु साथ ही उसे यह भी भान था कि भगवान बुद्ध एक महापुरूष हैं और इसलिए वह उनके सम्मुख पुनः धृष्टता नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने तथागत का उपदेश ग्रहण करने के लए हामी भर दी।


तथागत ने स्नेहपूर्वक उसे ज्ञानोपदेश दिया, किंतु नंद का उस ओर बिलकुल ध्यान न था।

बुद्ध ने कहा- ‘‘‘नंद! तुम सुख और आराम का जीवन व्यतीत करना चाहते हो तो आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग लिए चलता हूँ।‘‘ उनका इतना कहना ही था कि सारा दृश्य बदल गया।

अब उसे एक प्रकाशित मार्ग दिखाई पड़ा। उस प्रकाशित मार्ग के दूसरे सिरे पर ऐश्वर्यों से युक्त स्वर्गलोक था।


स्वर्ग की समृद्धि देख उसकी आँखें चैंधिया गई। वहाँ की सुंदी अप्सराओं को देखकर उसे अपना राजमहल फीका लगने लगा। स्वर्ग का यह सुख प्राप्त करने लिए उसका मन छटपटा उठा। बुद्धदेव से उसकी यह मानसिक दशा छिप न सकी।

उन्होंने उससे पूछा- ‘‘ नंद! क्या तुम स्वर्ग के इस सुख को पाना चाहते हो?

‘‘ नंद ने हामी भरी। नंद के हामी भरने पर भगवान बुद्ध बोले-‘‘स्वर्ग की प्राप्ति तपस्या से अर्जित पुण्य के फलस्वरूप होती है। यदि तुम स्वर्ग के भोग चाहते हो तो तुम्हें इसके लिए कठिन तप करना पड़ेगा। क्या तुम तप करने के लिए तैयार हो?‘‘
राजा नंद का मन स्वर्ग के ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए इतना विकल था कि वह तुरंत तप की विधि समझने के लिए तत्परी हो उठाा।

भगवान बुद्ध ने उसे तप का मार्ग। बस, उस दिन से नंद ईश्वर के ध्यान में मग्न रहने लगा। स्वर्ग का सुख पाने के लिए वह इतना अधीर था कि उसे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था।

धीरे-धीरे उसे तपस्या में आनंद मिलने लगा। उसने महसूस किया मानो उसके ज्ञानचक्षु खुल गए हैं।


बहुत दिनों बाद एक दिन भगवान बुद्ध, नंद के पास गए तो उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-‘‘नंद तुम्हारी तपस्या पूरी हो गई।

अब तुम स्वर्ग का सुख पा सकते हो।‘‘ सुनते ही नंद ने हाथ जोड़कर कहा-‘‘प्रभु! क्षमा करें, अब मुझे स्वर्ग का सुख नहीं चाहिए। मेरी अंतर्दृष्टि खुल गई है।

मुझे सच्चा ज्ञान प्राप्त हो गया है। सच्चा सुख भोग में नहीं, योग में है; तप में है, ध्यान में है, भक्ति में है।

अब मैं भोग-विलास त्यागकर तप, ध्यान में ही आनंद प्राप्त करना चाहता हँू, साथ ही अपना प्रजा की सेवा भी।

‘‘ बुद्धदेव मुस्कराए और नंद से बोले-‘‘अभी तुम्हारा, तुम्हारी पत्नी के प्रति कर्म शेष है। उस जिम्मेदारी से मुक्त होओ।

उसे भी ज्ञान का मार्ग दिखाओ।‘‘ नंद ने इस हेतु सहर्ष हामी भरी। तब से प्राप्त ज्ञान को लेकर वह अपने राज्य को लौटा और उसने अपनी पत्नी सहित सभी के कल्याण का पथ प्रशस्त किया।

चक्रवर्ती सम्राट राजा विक्रमादित्य (Vikramaditya)

भारत में चक्रवर्ती सम्राट उसे कहा जाता है जिसका की संपूर्ण भारत में राज रहा है।

ऋषभदेव के पुत्र राजा भरत पहले चक्रवर्ती सम्राट थे, जिनके नाम पर ही इस अजनाभखंड का नाम भारत पड़ा।

उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य भी चक्रवर्ती सम्राट थे।

राजा विक्रमादित्य का जन्म

सम्राट विक्रमादित्य का जन्म 101 ईशा पूर्व हुआ था और इन्होंने लगभग 100 वर्ष तक राज किया।

महाराजा विक्रमादित्य का वर्णन स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में भी मिलता है।

विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। विक्रम वेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई है।

विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे ।

अपनी बुद्धि, अपने पराक्रम, अपने जूनून से इनका नाम आर्यावर्त के इतिहास में अमर है।

राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा का हाल-चाल देखने के लिए साधारण वस्त्रों में  या वेश बदलकरअपने राज्य का भ्रमण करते थे राजा विक्रमादित्य अपने न्याय व्यवस्था को मजबूत करने के लिए हर संभव प्रयास करते थे

उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य प्राचीन भारत के एक महान सम्राट हैं , जिन्हें अक्सर एक आदर्श राजा के रूप में जाना जाता है, उन्हें उनकी उदारता, साहस और विद्वानों के संरक्षण के लिए जाना जाता है।

विक्रमादित्य को सैकड़ों पारंपरिक भारतीय किंवदंतियों में चित्रित किया गया है, जिनमें बैयल पचीसी और सिंघासन बत्तीसी शामिल हैं, कई लोग उन्हें उज्जैन में अपनी राजधानी के साथ एक सार्वभौमिक शासक के रूप में वर्णित करते हैं ।

 उनके पराक्रम को देखकर ही उन्हें महान सम्राट कहा गया और उनके नाम की उपाधि कुल 14 भारतीय राजाओं को दी गई। “विक्रमादित्य” की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं।

राजा विक्रमादित्य नाम, ‘विक्रम’ और ‘आदित्य’ के समास से बना है जिसका अर्थ ‘पराक्रम का सूर्य’ या ‘सूर्य के समान पराक्रमी’ है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)।

राजा विक्रमादित्य का परिचय

विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2288 वर्ष पूर्व हुए थे।

नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। राजा गंधर्व सेन का एक मंदिर मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के आगे गंधर्वपुरी में बना हुआ है।

यह गांव बहुत ही रहस्यमयी गांव है। उनके पिता को महेंद्रादित्य भी कहते थे। उनके और भी नाम थे जैसे गर्द भिल्ल, गदर्भवेष।

गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमादित्य ब्रहरताहारी के छोटे भाई थे, जिन्होंने सांसारिक सुखों को त्याग दिया और शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में एक गुफा में तपस्या की।विक्रम की माता का नाम सौम्यदर्शना था जिन्हें वीरमती और मदनरेखा भी कहते थे।

उनकी एक बहन थी जिसे मैनावती कहते थे। 

उनकी पांच पत्नियां थी, मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी।

उनकी दो पुत्र विक्रमचरित और विनयपाल और दो पुत्रियां प्रियंगुमंजरी (विद्योत्तमा) और वसुंधरा थीं। गोपीचंद नाम का उनका एक भानजा था।

प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है। राज पुरोहित त्रिविक्रम और वसुमित्र थे। मंत्री भट्टि और बहसिंधु थे। सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे ।

कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया।  विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे।

विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।

राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव कार्य करते थे। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रीय राजाओं में से एक माने गए हैं।

कहा जाता है कि मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था। भर्तृहरित के शासन काल में शको का आक्रमण बढ़ गया था। भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो विक्रम सेना ने शासन संभाला और उन्होंने ईसा पूर्व 57-58 में सबसे पहले शको को अपने शासन क्षेत्र से बहार खदेड़ दिया।

इसी की याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्ति कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलाया।

कहते हैं कि उन्होंने अपनी सेना की फिर से गठन किया। उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बई गई थी, जिसने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति कर एक छत्र शासन को कायम किया।

कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी।

जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था।

नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।

 राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

 ईशु मसीह राजा विक्रमादित्य के ही समकालिक थे। राजा विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्त्र तक फैला हुआ था। प्राचीन अरब साहित्य में भी विक्रमादित्य का वर्णन मिलता है।

विक्रमादित्य प्राचीन भारतीय नगरी उज्जयिनी ( उज्जैन) के राजा थे और वो पूरे विश्व में अपनी उदारता, ज्ञान और वीरता के लिए प्रसिद्ध थे।

इन्होंने शको को हराया था। नेपाली राजवंशवाली के अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय में राजा विक्रमादित्य के नेपाल यात्रा का भी उल्लेख है।

राजा विक्रमादित्य के बाद में कई राजाओं ने ये उपाधि रख ली और ये बहुत ही सम्मान की उपाधि मानी जाती थी जैसे श्री हर्ष, शुद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

विक्रम सम्वत का आरंभ भी राजा विक्रमादित्य ने 57 ईसा पूर्व शुरू किया।

राजा विक्रमादित्य के गुरु का नाम

राजा विक्रमादित्य ने गुरु गोरक्षनाथ से अपनी शिक्षा ग्रहण की थी राजा विक्रमादित्य श्री गुरु गोरक्षनाथ जी से गुरु दीक्षा लेकर राजपाट संभालने लगे और आज उन्हीं के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है और हमारी संस्कृति बची हुई है

राजा विक्रमादित्य का राज्य

विक्रमादित्य के शासन काल का नक्शा देख कर ही उनके शासन काल की भव्यता का अंदाजा लगा सकते हैं।

आज का पूरा भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्की, अफ्रीका, अरब, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, श्रीलंका, चीन और रोम तक राजा विक्रमादित्य का राज्य फैला हुआ था।

उन्होंने रोम के राजा और शक राजाओं को मिलाकर 95 देश जीते। लोकतंत्र की शुरुआत राजा विक्रमादित्य ने ही किया था। परमार वंश के राजपूत राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में सेनापति प्रजा खुद चुनती थी।

आजकल जो शक्ति अमेरिका या रूस के राष्ट्रपति के पास है वही शक्ति राजा विक्रमादित्य के सेनापति के पास होती थी लेकीन वो सारा काम विक्रमादित्य की आज्ञा से ही करते थे।

विक्रमादित्य ने खुद को राजा नही बल्कि प्रजा का सेवक घोषित कर रखा था।

पहला शक राजा मास था उसने ईशा की सदी से पूर्व गांधार को जीत लिया था। उसके बाद एजेस नाम का राजा ने गद्दी संभाली और उसने शक के राज्य को आगे बढ़ाकर पंजाब तक कर दिया।

शक राजा गवर्नर प्रणाली से राज्य चलाते थे। इन्हीं शक राजाओं से प्रेरित गवर्नर “क्षत्रप” कहलाते थे।

इन गवर्नरों ने तकशीला से मथुरा तक राज्य किया है, ये शक लोग विंधयाचल पार करके दक्षिण की ओर भी गए।

इसीलिए विक्रमादित्य को मालवा और गुजरात के आस पास शकों (क्षत्रापों) से लड़ना पड़ा। विक्रमादित्य ने इनको बुरी तरह हराया।

विक्रमादित्य मालव राजपूत जाति से थे जो आज परमार कहलाते हैं।

इनका वर्णन हरिवंश पुराण में है इनको चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा जाता था। मालव वंश के लोगों ने महाभारत में कौरवों का साथ दिया था।

अभी भी कुछ मल्ल वंशी क्षत्रिय नेपाल की तराई में रहते हैं। विक्रमादित्य ने शकों, हूणो को मारकर अरब तक खदेड़ दिया और शकारी की उपाधि ग्रहण की।

विक्रमादित्य ने अरब में मक्केश्वर महादेव की स्थापना की। अरब साहित्य और अरब इतिहास में इसका वर्णन है।

हालंकि मुस्लिम शासकों ने बहुत जगह से उनका वर्णन हटा दिया है। ऐसा कहा जाता है कि ‘अरब’ का वास्तविक नाम ‘अरबस्थान’ है।

‘अरबस्थान’ शब्द आया संस्कृत शब्द ‘अटवस्थान’ से, जिसका अर्थ होता है ‘घोड़ों की भूमि, और हम सभी को पता है कि ‘अरब’ घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है।

विक्रमादित्य ने तत्कालीन रोमन सम्राट को बंदी बना लिया था।

राजा विक्रमादित्य की वीरता

शुग वंश के बाद शकों ने पंजाब के रास्ते भारत में प्रवेश किया और भारत को तहस नहस कर डाला था।

विक्रमादित्य ने इन शकों को पंजाब के रास्ते वापस भगाया और पुष्यमित्र शुंग की मृत्यू के बाद जो हिंदु शकों का शिकार हो रहे थे उनको फिर से संगठित करके नई जान डाल दी।

विक्रमादित्य जमीन पर सोते थे और अल्पाहार ही लेते थे इन्होंने योग के बल पर अपना शरीर वज्र सा बना दिया था।

राजा विक्रमादित्य का व्यक्तित्व

कलर राज तरंगिणी के अनुसार 14 ईसवी केआसपास कश्मीर में अंतर युधिस्टर वंश के राजा हिरणयक के निसंतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी जिसको लेकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मात्र गुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था ।

नेपाली राज वंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशु बर्मन के समय उज्जैन के राजा विक्रमादित्य नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।

राजा विक्रम का भारत के संस्कृत ,प्राकृतिक ,अर्थ मांगती ,हिंदी ,गुजराती, मराठी ,आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है उनकी वीरता, उतारता ,दया ,क्षमा आदि गुणों की अनेक कथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी है सम्राट विक्रमादित्य का इतिहास

इनके सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे। भगवान श्री राम के बाद सबसे प्रभावशाली राजा विक्रमादित्य ही हुए हैं जिन्होंने भारत में राम राज की स्थापना की।

एक समय ऐसा था जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार के कारण पूरे भारत में लोगों ने अहिंसा का मार्ग अपना लिया था। विदेशी लगातार हमले कर रहे थे और भारत के लोग बहुत परेशान थे।

शक, हूण और कुषाण शासकों ने आक्रमण करके खूब आतंक मचा रखा था। ऐसे में विक्रमादित्य ने इन सबको हराकर भारत की प्रजा को बचाए रखा। बनारस के शिव मन्दिर का पुनः निर्माण भी विक्रमादित्य ने करवाया।

भारत की संस्कृति अगर सुरक्षित है तो वो विक्रमादित्य के कारण। अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया था इस कारण भारत में सनातन धर्म लगभग समाप्ति की कगार पर आ गया था। क्योंकी लोग बौद्ध और जैन धर्म में परिवर्तित रहे थे।

रामायण, महाभारत और गीता जैसे ग्रन्थ खोने लगे थे। विक्रमादित्य ने उनको पुनः खोज करवा कर स्थापित करवाया। विक्रमादित्य ने पूरे विश्व में विष्णु और शिव जी के मन्दिर बनवाए।

अगर विक्रमादित्य सनातन धर्म की रक्षा ना करते तो शायद आज भारत पर एक भी हिंदू ना बचता क्युकी सारे लोग बौद्ध होने लगे थे और बौद्ध होने के कारण सब अहिंसा का पालन करते हुए कोई भी अस्त्र शस्त्र या सेना नही रखते थे।

जिसके कारण विदेशी आक्रमण बहुत हो रहे थे। विक्रमदित्य ने ही फिर से सनातन धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया। विक्रमादित्य ने भी श्री गुरु गोरक्ष नाथ जी से दीक्षा ली थी।

भारत बना सोने की चिड़िया

विक्रमादित्य के काल में भारत का कपड़ा विदेशी व्यापारी सोने के वजन से खरीदते थे इससे भारत में इतना सोना आ गया की विक्रमादित्य के काल में सोने के सिक्के चलते थे।

विदेशी व्यापारी कई चीजों के बदले सोना देते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं की पद्मनाभमान स्वामी के मंदिर का खजाना, कोहिनूर हीरा, मोर सिंघाहन आदि में कितना खज़ाना था।

भारत हमेशा से कृषि प्रधान देश रहा है तो अन्न की कमी नहीं थी जो भी अधिक उत्पादन होता था उसे बाहर भेज दिया जाता था। भारत में अनेक खदाने थी जिससे हथियार, सिक्के और अन्य धातु बनाने में उपयोग में लाया जाता था।

कैलेंडर भी विक्रमादित्य का स्थापित किया हुआ है। ज्योतिष गड़ना जैसे: हिंदी सम्वत, वार, तिथियां, राशि, नक्षत्र, गोचर आदि उन्ही के काल में अच्छी तरह उपयोग की गई। कालीदास, धनवंतरी, वराहमिहिर जैसे विद्वान विक्रमादित्य के दरबार में थे।

विक्रमादित्य का शासन और कार्य

विक्रमादित्य का शासन अरब तक था और रोमन के सम्राट से उनकी प्रतिद्वंद्धा चलती थी। विक्रमादित्य ने रोम के शासक जूलियस सीजर को हराया था

जूलियस सीजर ने विक्रम सम्वत का प्रचलन रोक दिया था और येरुशलम, मिस्त्र और अरब पर आक्रमण कर दिया था।

रोमन ने अपनी इस हार को छुपाने के लिए इस घटना को इतिहास में बहुत घुमा फिरा कर प्रस्तुत किया जिसमे रोमानो ने बताया की जल दस्यु ने सीजर का अपहरण कर लिया और बाद में जूलियस सीजर अपनी वीरता से वापस आने में सफल हुआ।

रोमानों ने विक्रम संवत की नकल करके नया रोमन कैलेंडर भी बनाया जिसको ईसाइयों ने यीशु के जन्म के बाद अपना लिया। जिसे हम आज ईसा पूर्व और ईसा बाद मानते हैं।

विक्रमादित्य के समय में अरब में यमन, इराक आसुरी, ईरान में पारस्य और भारत में आर्य सभ्यता के लोग रहते थे। यह असुर शब्द असुरी से बना है और जो इराक के पास सीरिया है वह भी असुरिया से प्रेरित है।

विक्रमादित्य के काल में विश्व भर में शिवलिंगों का जीर्णो उद्धार किया गया। कर्क रेखा पर निर्मित ज्योतिर्लिंग में प्रमुख थे गुजरात का सोमनाथ, उज्जैन का महाकालेश्वर और काशी में विश्वनाथ मन्दिर।

विक्रमादित्य ने कर्क रेखा के आस पास 108 शिवलिंगों का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य ने ही नेपाल के पशुपतिनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ मंदिरो को फिर से बनवाया। इसके लिए उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों, खगोल वैज्ञानिक और वास्तुविदो से भरपूर मदत ली थी।

बौद्ध, मुगल, अंग्रेज आदि के द्वारा नष्ट करने के बाद भी भारत की संस्कृति के प्रमाण अन्य,अन्य भाषाओं और प्राचीन जगहों पर मिल जाते है। हालंकि मुगलों और अंग्रेजो ने हमारी संस्कृति का 80% से भी ज्यादा प्रमाण नष्ट कर दिया था।

विक्रमादित्य द्वारा सेना का गठन

राजा विक्रमादित्य ने अपनी भूमि को विदेशी राजाओं से मुक्त कराने के लिए एक सेना का गठन किया उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई थी जिसने सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर विदेशी और अत्याचारी राजाओं से अपनी भूमि को मुक्त करा कर एकक्षेत्र शासन को कायम किया।

महाकवि कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदभरण के अनुसार उनके पास 30 मिलियन सैनिकों, 100 मिलियन विभिन्न वाहनों, 25 हजार हाथी और 400 हजार समुद्री जहाजों की एक सेना थी।

कहते हैं कि उन्होंने ही विश्‍व में सर्व प्रथम 1700 मील की विश्व की सबसे लंबी सड़क बनाई थी जिसके चलते विश्व व्यापार सुगम हो चला था।

विक्रमादित्य का स्वभाव

राजा विक्रमादित्य बहुत ही उदारवादी ,दयालु और कर्तव्यनिष्ठ थे वह हर एक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचते थे उन्होंने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया उन्होंने सूरज से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा की शिक्षा का उजाला फैल सके इन विद्वानों ने भगवान की उपस्थिति और सत्य के मार्ग को बता कर हमारे ऊपर एक परोपकार किया यह विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश के अनुसार यहां शिक्षा देने के लिए आए थे

विक्रम संवत के प्रवर्तक

देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं।

इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।

विक्रम संवत की शुरुआत

राजा विक्रमादित्य को इतिहास में न्यायप्रिय और लोकप्रिय राजाओं मे से एक माने गए हैं मालवा में इनके भाई भर्तृहरि का शासन था।

भरथरी के शासनकाल में शकुं का आक्रमण बढ़ गया था इसके बाद इनके भाई ने वैराग्य धारण कर राजपाट त्याग दिया

इसके बाद विक्रमादित्य ने ही शासन संभाला  विक्रमादित्य ने 78 के  आसपास शकुं शासक को पराजित किया और क्रूर नाम के एक स्थान पर उस शासक की हत्या कर दी और शकुं को 57-58 के बीच अपने शासन क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिया इसी की याद में उन्होंने  विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया

राजा विक्रमादित्य की शिक्षा

एक बार राजा विक्रमादित्य ने ऐलान कराया कि कल सुबह जब मेरे महल का मुख्य दरवाजा खोला जाएगा, तब जिसने महल में जिस भी चीज को हाथ लगा दिया, वह चीज उसकी हो जाएगी।

यह ऐलान सुनकर सभी लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं तो सबसे कीमती चीज को हाथ लगाऊंगा। दूसरे दिन सुबह जब महल का मुख्य दरवाजा खुला, तो सभी लोग अपनी-अपनी मनपसंद चीजों को पाने के लिए दौड़ने लगे।

सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद चीजों को हाथ लगा दूं, ताकि वह चीज हमेशा के लिए मेरी हो जाए। राजा विक्रमादित्य अपनी जगह पर बैठे सबको देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे।

उसी समय उस भीड़ में से एक समझदार युवक राजा विक्रमादित्य की तरफ बढ़ने लगा और राजा के करीब पहुंच कर उसने उनको छू लिया।

हाथ लगाते ही राजा विक्रमादित्य उसके हो गए और राजा की हर चीज भी उसकी हो गई। यह नजारा देख राज्य के कुलगुरु के साथ राज्य की प्रजा भी हैरान हो गई।

फिर कुलगुरु उठे और सबको समझाते हुए बोले, ‘जिस तरह राजा विक्रमादित्य ने सारी प्रजा को जो मौका दिया था, उस मौके का सही फायदा उठाने में लगभग सारी की सारी प्रजा ने ही गलतियां कीं।

ठीक इसी तरह सारी दुनिया का मालिक भी हम सबको हर रोज मौका देता है, लेकिन अफसोस कि हम लोग भी हर रोज गलतियां करते हैं। हम प्रभु को पाने की बजाय उस परमपिता की बनाई हुई दुनिया की चीजों की कामना करते हैं।

लेकिन कभी भी हम लोग इस बात पर गौर नहीं करते कि क्यों न दुनिया को बनाने वाले प्रभु को ही पा लिया जाए।’ कुलगुरु के वचनों को सुनकर समस्त प्रजा को समझ आ गया कि यह उनकी परीक्षा थी।

वह एक न्यायप्रिय और परोपकारी राजा था और इतने प्रसिद्ध थे कि उनकी प्रशंसा सभी देशों में गाई जाती थी, एक अरबी कविता इस प्रकार चलती है जैसे सैर-उल-ओकुल पृष्ठ 315 यह कविता जिरहाम बिन्तोई की थी। यह पुस्तक कथित रूप से तुर्की पुस्तकालय में उपलब्ध है जिसे मख्तब-ए-सुल्तानिया के नाम से जाना जाता है, जिसे पश्चिम एशियाई साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह माना जाता है।

इस प्रकार कविता की पहली पंक्ति चलती है

इत्रशप्ताई संतुल बिक्रमतुल फेहलामीन करीमुन

(जिसका अनुवाद किया गया है, भाग्यशाली वे हैं जो राजा बिक्रम (विक्रम) के शासनकाल के दौरान पैदा हुए और रहते थे) …

राजा विक्रमादित्य की गौरव गाथाएं

बृहत्कथा –

बृहतकथाओं में इनकी काफ़ी गौरव गाथाएं संगृहीत हैं. ये दसवीं से बारहवीं सदी के बीच रचित ग्रन्थ है. इसमें प्रथम महान गाथा विक्रमादित्य और परिष्ठाना के राजा के बीच की दुश्मनी की है।

इसमें राजा विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन की जगह पाटलिपुत्र दी गयी है. एक कथा के अनुसार राजा विक्रमादित्य बहुत ही न्यायप्रिय राजा थे. उनकी न्यायप्रियता और अन्य करने की बुद्धि से स्वर्ग के राजा इंद्र ने उन्हें स्वर्ग बुलाया था।

उन्होंने अपनी एक न्याय प्रणाली में राजा विक्रमादित्य से राय ली थी. स्वर्ग के राजा इन्द्र ने उन्हें स्वर्ग में हो रही एक सभा में भेजा, वहाँ पर दो अप्सराओं के बीच नृत्य की प्रतियोगिता थी।

ये दो अप्साराएँ थीं रम्भा और उर्वशी. भगवन इंद्र ने राजा विक्रमादित्य से पूछा कि उन्हें कौन सी अप्सरा बेहतर नर्तकी लगती है. राजा को एक तरकीब सूझी उन्होंने दोनों अप्साराओं के हाथ में एक –एक फूल का गुच्छा दिया और उसपर एक एक बिच्छु भी रख दिया।

राजा ने दोनों नर्तकियों को कहा कि नृत्य के दौरान ये फूल के गुच्छे यूँ ही खड़े रहने चाहिए. रम्भा ने जैसे ही नाचना शुरू किया उसे बिच्छु ने काट लिया।

रम्भा ने फूल का गुच्छा हाथ से फेंक कर नाचना बंद कर दिया।

वहीँ दूसरी तरफ़ जब उर्वशी ने नाचना शुरू किया तो वह बहुत ही अच्छी तरह अति सुन्दर मुद्राओं में नाची. फूल पर रखे बिच्छु को कोई तकलीफ नहीं हो रही थी, जो बहुत आराम से सो गया और उर्वशी को बिच्छु का डंक नहीं सहना पड़ा. राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उर्वशी ही बहुत काबिल और रम्भा से बेहतर नर्तकी है।

न्याय की इस बुद्धि और विवेकशीलता को देख कर भगवान् इंद्र उनसे बहुत ही प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुए. उन्होंने राजा विक्रमादित्य को 32 बोलने वाली मूर्तियाँ भेंट की।

ये मुर्तिया अभिशप्त थीं और इनका शाप किसी चक्रवर्ती राजा के न्याय से ही कट सकता था।

इन 32 मूर्तियों के अपने नाम थे. इनके नाम क्रमशः रत्नमंजरी, चित्रलेखा, चन्द्रकला, कामकंदला, लीलावती, रविभामा, कौमुधे, पुष्पवती, मधुमालती, प्रभावती, त्रिलोचना, पद्मावती, कीत्रिमती, सुनैना, सुन्दरवती सत्यवती, विध्यति, तारावती, रूप रेखा, ज्ञानवती, चन्द्रज्योति, अनुरोधवती, धर्मवती, करुणावती, त्रिनेत्र, मृगनयनी, वैदेही, मानवती, जयलक्ष्मी, कौशल्या, रानी रूपवती थे, इन प्रतिमाओं की सुन्दरता का वर्णन समस्त ब्रम्हाण्ड में विख्यात था।

राजा विक्रमादित्य की गाथाएं संस्कृत के साथ कई अन्य भाषाओँ की कहानियों में भी देखने मिलते हैं।

उनके नाम कई महागाथाओं और कई ऐतिहासिक मीनारों में देखने मिलते हैं, जिनका ऐतिहासिक विवरण तक नहीं मिल पाता है।

इन कहानियों मे विक्रम बैताल और सिहासन बत्तीसी की कहानियाँ अति रोचक महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक है. इन काहनियो में कहीं कहीं अलौकिक घटनाएँ भी देखने मिलती हैं।

इन घटनों पर हालाँकि 21 वीं सदी में विश्वास करना कुछ नामुमकिन सा लगता है,  लेकिन इन कहानियों का मूल सरोकार न्याय की स्थापना से था. बैताल पच्चीसी में कुल 25 कहानियाँ हैं और सिंहासन बत्तीसी में कुल बत्तीस न्यायपूर्ण कहानियां हैं.

बैताल पच्चीसी

अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है।

संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी (“पिशाच की 25 कहानियां”) और सिंहासन-द्वात्रिंशिका (“सिंहासन की 32 कहानियां” जो सिहांसन बत्तीसी के नाम से भी विख्यात हैं)।

इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।

पिशाच (बेताल) की कहानियों में बेताल, पच्चीस कहानियां सुनाता है, जिसमें राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है और वह राजा को उलझन पैदा करने वाली कहानियां सुनाता है और उनका अंत राजा के समक्ष एक प्रश्न रखते हुए करता है।

वस्तुतः पहले एक साधु, राजा से विनती करते हैं कि वे बेताल से बिना कोई शब्द बोले उसे उनके पास ले आएं, नहीं तो बेताल उड़ कर वापस अपनी जगह चला जाएगा|

राजा केवल उस स्थिति में ही चुप रह सकते थे, जब वे उत्तर न जानते हों, अन्यथा राजा का सिर फट जाता| दुर्भाग्यवश, राजा को पता चलता है कि वे उसके सारे सवालों का जवाब जानते हैं; इसीलिए विक्रमादित्य को उलझन में डालने वाले अंतिम सवाल तक, बेताल को पकड़ने और फिर उसके छूट जाने का सिलसिला चौबीस बार चलता है।

इन कहानियों का एक रूपांतरण कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता है।

सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन के क़िस्से, विक्रमादित्य के उस सिंहासन से जुड़े हुए हैं जो खो गया था और कई सदियों बाद धार के परमार राजा भोज द्वारा बरामद किया गया था।

स्वयं राजा भोज भी काफ़ी प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है। इस सिंहासन में 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो बोल सकती थीं और राजा को चुनौती देती हैं कि राजा केवल उस स्थिति में ही सिंहासन पर बैठ सकते हैं, यदि वे उनके द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में विक्रमादित्य की तरह उदार हैं।

इससे विक्रमादित्य की 32 कोशिशें (और 32 कहानियां) सामने आती हैं और हर बार भोज अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंत में पुतलियां उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं।

विक्रमादित्य की 32 पुतलियों के नाम

रतन मंजरी, चित्रलेखा, चंद्रकला, काम कांधला, लीलावती, रवि भामा, कौमुदी, पुष्पावती, मधुमालती, प्रभावती, त्रिलोचना, पद्मावती,  कीर्ति मती, सुनयना,सुंदरवती, सत्यवती, विद्यावती, तारावती, रूपरेखा, ज्ञानवती, चंद्र ज्योति, अनुरोध वती, धर्मवती, करुणावती, त्रिनेत्री, मृगनयनी, मलयवती ,वैदेही, मानवती, जय लक्ष्मी, कौशल्या, रानी रूपवती

सिंघासन बत्तीसी में वर्णित विक्रमादित्य के 32 गुण क्या हैं?

यह गुण भगवत गीता में लिखे गए हैं जिन्हें “देवी संपति” के नाम से भी जाना जाता है। जिसके पास यह गुण है वह व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है और इस पृथ्वी (माया) पर खुशी से रहेगा।

गुण हैं:

अहिंसा (अहिंसा)

सत्य (सत्य)

क्रोध मत करो (क्रुध न कर्ण)

जाने देने की भावना (त्याग)

मन में शांति (मान की शांति)

किसी के बारे में बुरा मत कहो (नींदा ना कर्ण)

नरम दिल व्यक्ति (दया)

क्षमा (माफी)

खुशी की ओर आकर्षित न हों (सुख के प्रति एक कर्षित न होना)

स्मार्टनेस (तेज)

धैर्य (धिराज)

मन की शुद्धि (शरिर की शुद्ध ता)

अहंकार और वृत्ति न रखें (अहंकार न कर्ण)

बिना वजह कोई काम नहीं करना (बिना करना कोई कार्य न करना)

ईमानदारी/सच्चाई को मत भूलना; गलत रास्ते पर मत चलो (धर्म का धोरो ना कर्ण)

किसी चीज से या किसी से मत डरो (निर्भयता)

कोमल / अच्छी आत्मा (अंदर नी शुद्धि)

ध्यान/प्रार्थना/आध्यात्मिकता (आध्यात्मिक ध्यान)

अपने आप पर नियंत्रण रखें

सादगी

शांत

हर किसी के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहे वह आपका दोस्त हो या दुश्मन।

शर्मीलापन (लज्जा)

इसी तरह सिंहासन बत्तीसी में राजा विक्रमादित्य के राज्य को जीतने की कहानी है.

विक्रमादित्य के नवरत्न

नवरत्नों को रखने की परंपरा महान सम्राट विक्रमादित्य से ही शुरू हुई है

हमारे इतिहास में अकबर के नौरत्न का जिक्र हर जगह है और विक्रमादित्य के नौ रत्नों का जिक्र कहीं नहीं किया गया।

विक्रमादित्य के राज्य में नौ रत्न थे जिनके बारे में हमको बहुत अधूरा सा पता है।

सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि कहे जाते हैं।

राजा विक्रमादित्य के दरबार में नौ बहुत महान विद्वान् थे, ये सभी अपने अपने क्षेत्र के महान विद्वान् थे।

वराहमिहिर आयुर्वेद के महान ज्ञाता थे, कालिदास महान कवि, वररुचि वैदिक ग्रंथों के ज्ञाता, भट्टी राज्नीत्विद थे.इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कवि, गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे।

 कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी।

वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना “नीति-प्रदीप” (“आचरण का दीया”) का श्रेय दिया है।

विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि

धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।

ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥

.धनवंतरी

धनवंतरी ऋषि को आर्युवेद का जनक माना गाय है। इन्ही के नाम पर धनवंतरी के माता पिता ने इनका नाम धनवंतरी रखा। इन्होंने आयुर्वेद के नौ ग्रंथो को रचा।  धनवंतरी ऋषि और धनवंतरी  दोनो अलग अलग है। धनवंतरी ऋषि विष्णु जी का रूप थे जबकि धनवंतरी जी विक्रमादित्य के शासन काल में आयुर्वेद के बहुत योग्य चिकित्सक थे

महाराज विक्रमादित्य के नवरत्न में से एक धन्वंतरि वैद्य और औषध वैज्ञानिक थे। उन्हें धन्वंतरि से उपमा दी गई है।

2) छड़पक

ये एक संन्यासी थे इन्होंने ही भिक्षाटन और नानार्थकोश की रचना की

3) अमर सिंह

ये एक प्रकांड विद्वान थे। इनके बारे में बोधगया में कई शिलालेख भी मिले है। इन्होंने अमरकोष ग्रन्थ की रचना की।

4) शंकु

ये संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। इनका काव्यग्रंथ भुवनाभुदायम बहुत प्रसिद्ध था। इसके बारे में आज भी पुरातत्वविद खोज कर रहे हैं और पड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

5) वेताल भट्ट

विक्रम और बेताल कहानी के रचियता यही थे और उन्होंने इसे संस्कृत में रचा था

6) घटखपर्र

माना जाता है की इनकी प्रतिज्ञा थी की जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे घड़े से पानी भरेंगे। इन्होंने घटखपर्र और नीतिसार का संस्कृत में रचना की।

7) कालीदास

कालीदास जी के बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं है। मां काली के दर्शन के कारण ही इनका नाम कालीदास पड़ा। इन्होंने बहुत से ग्रंथो ( अभिज्ञान शकुंतलम, विक्रमोवर्षियम, रघुवंशम, कुमारसम्भव, मेघदूत, रितुसंहार) और काव्यों की रचना की। जिसमे से शकुंतला उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है।

8) वराहमिहिर

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। सूर्य सिद्धांत, ब्रस्पति संहिता, पंच सिद्धांति, लघु जातक, समास संहिता, विवाह पटल, योग यात्रा आदि की रचना की।

9) वर्रुची

कालीदास की भांति ही वर्रुचि भी महान काव्यकर्ता थे। सादुक्ततिकर्नामृत, शुबाशितावाली, सारडर्र संहिता आदि की रचना की। अब तक आप समझ गए होगें की हमारा भारतीय इतिहास कितना गौरवपूर्ण रहा है।

किंतु मुस्लिम आक्रमणकारियों और अंग्रेजो द्वारा हमारे सम्पूर्ण इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया और बहुत से मूल ग्रंथ नष्ट कर दिए गए अन्यथा हिंदु धर्म की वैज्ञानिकता और विशालता का अनुमान लगाना भी कठिन हो जाता।

भविष्यत् पुराण की मान्यताओं के आधार पर भगवान शिव ने विक्रमादित्य को पृथ्वी पर भेजा था. शिव की पत्नी पार्वती ने बेताल को उनकी रक्षा के लिए और उनके सलाहकार के रूप में भेजा।

बैताल की कहानियों को सुनकर राजा ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया, उस यज्ञ के बाद उस घोड़े को विचरने के लिए छोड़ दिया गया, जहाँ जहाँ वह घोड़ा गया राजा का राज्य वहाँ तक फ़ैल गया।

पश्चिम में सिन्धु नदी, उत्तर में बद्रीनाथ, पूर्व में कपिल और दक्षिण मे रामेश्वरम तक इस राजा का राज्य फ़ैल गया. राजा ने उस समय के चार अग्निवंशी राजाओं की राजकुमारियों से विवाह कर अपने राज्य को और मजबूत कर लिया।

राजा विक्रमादित्य द्वारा स्थापित राज्य में कुल 18 राज्य थे।

विक्रमादित्य की इस सफलता पर सभी सूर्यवंशी खुश थे और चंद्रवंशी राज्यों में कोई ख़ुशी नहीं थी. इसके बाद राजा ने स्वर्ग का रुख किया.

ऐसा माना जाता है कि राजा विक्रमादित्य कलियुग के आरम्भ में कैलाश की ओर से पृथ्वी पर आये थे. उन्होंने महान साधुओं का एक दल बनाया जो पुराण और उप पुराण का पाठ किया करते थे।

इन साधुओं में गोरखनाथ, भर्तृहरि, लोमहर्सन, सौनाका आदि प्रमुख थे. इस तरह न्याय प्रिय राजा विक्रमादित्य ने अपने पराक्रम से लोगों की रक्षा भी की और साथ ही सदा धर्म स्थापना के कार्य में लगे रहे.

राजा विक्रमादित्य की मृत्यु कैसे हुई, उनकी मृत्यु के बाद उनके स्वर्ण सिंहासन का क्या हुआ, क्या वह आज भी धरती के अन्दर दबा हुआ है

इकत्तिस्वें दिन राजा भोज जब स्वर्ण सिंहासन की तरफ बढ़े तो उनके क़दमों को इकत्तीसवीं पुतली कौशल्या ने रोक लिया |

फिर उसने राजा विक्रमादित्य की जो कथा उन्हें सुनायी वो इस प्रकार थी ‘राजा विक्रमादित्य अब वृद्ध हो गए थे तथा अपने योगबल से उन्होंने यह भी जान लिया था कि उनका अन्त अब काफी निकट ही है ।

रहस्यमय प्रकाश का दिखाई पड़ना

वे राज-काज और धर्म कार्य दोनों में अपने को लगाए रखते थे । उन्होंने वन में भी साधना के लिए एक कुटिया बना रखी थी ।

एक दिन उसी कुटिया में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा । उन्होंने ध्यान से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा था ।

इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ सुन्दर सा भवन दिखाई पड़ा ।

उनके मन में भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने माँ काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया ।

उनके आदेश पर दोनों बेताल उन्हें पहाड़ी पर ले आए और उनसे बोले कि वे इसके आगे नहीं जा सकते ।

कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस भवन के चारों ओर एक योगी महात्मा ने तंत्र शक्ति का घेरा डाल रखा है तथा उस भवन में उनका निवास है ।

उन घेरों के भीतर वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उन योगी से अधिक हो ।

विक्रम ने वास्तविकता जानकर भवन की ओर कदम बढ़ा दिया । वे देखना चाहते थे कि उनका पुण्य उन योगी से अधिक है या नहीं ।

चलते-चलते वे भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए । तभी एकाएक कहीं से चलकर एक अग्नि पिण्ड आया और उनके पास स्थिर हो गया ।

उसी समय महल के भीतर से किसी का आज्ञाभरा स्वर सुनाई पड़ा । वह अग्निपिण्ड लगभग फिसलता हुआ पीछे चला गया और प्रवेश द्वार साफ़ हो गया ।

विक्रम अन्दर घुसे तो वही आवाज़ उनसे उनका परिचय पूछने लगी । उन्होंने कहा कि सब कुछ साफ़-साफ़ बताया जाए नहीं तो वह आने वाले को श्राप से भस्म कर देंगे ।

विक्रमादित्य तब तक कक्ष में पहुँच चुके थे और उन्होंने देखा कि एक योगी उन्हें देख कर उठ खड़े हुए । उन्होंने जब उन योगी को बताया कि वे विक्रमादित्य हैं तो योगी ने अपने को भाग्यशाली बताया ।

उन योगी महात्मा ने बताया कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे यह आशा उन्हें नहीं थी । योगी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा विक्रम से कुछ माँगने को बोले । राजा विक्रमादित्य ने उनसे तमाम सुविधाओं सहित वह भवन माँग लिया ।

विक्रमादित्य को वह भवन प्रसन्नता पूर्वक सौंपकर वह योगी महात्मा उसी वन में कहीं चले गए । चलते-चलते वह योगी काफी दूर पहुंचे तो उनकी भेंट उनके गुरु से हुई ।

उनके गुरु ने उनसे इस तरह भटकने का कारण जानना चाहा तो वह बोले कि भवन उन्होंने राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया है। उनके गुरु को हँसी आ गई ।

उन्होंने कहा कि इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ दानवीर को वह क्या दान करेंगे और उन्होंने उन्हें विक्रमादित्य के पास जाकर ब्राह्मण रूप में अपना भवन फिर से माँग लेने को कहा ।

वह योगी वेश बदलकर उस कुटिया में विक्रम से मिले जिसमें वे साधना करते थे । उन योगी ने रहने की जगह की याचना की । विक्रम ने उनसे अपनी इच्छित जगह माँगने को कहा तो उन्होंने वह भवन माँगा ।

विक्रम ने मुस्कुराकर कहा कि वह भवन ज्यों का त्यों छोड़कर वे उसी समय आ गए थे । उन्होंने बस उनकी परीक्षा लेने के लिए उनसे वह भवन मांग लिया था ।

इस कथा को सुनाने के बाद भी इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कथा खत्म नहीं की ।

राजा विक्रमादित्य की मृत्यु कैसे हुई, उनकी मृत्यु के बाद उनके स्वर्ण सिंहासन का क्या हुआराजा विक्रमादित्य की मृत्यु

वह बोली “राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, किन्तु वे थे तो मानव ही ।

मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने इहलीला त्याग दी । उनके मरते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया । उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी ।

जब उनकी चिता सजी तो उनकी चिता पर देवताओं ने फूलों की वर्षा की ।

विक्रमादित्य ने अपने जीवन काल में पूर्व और पश्चिम से आने वाली बर्बर जातियों को, जिन्होंने भारत वर्ष के अलग-अलग भागों में अपने पाँव जमा लिए थे, पूरे भारतवर्ष से उखाड़ फेंका |

उन्हें इतनी दूर तक खदेड़ा कि फिर सैकड़ों वर्षों तक उनकी भारतवर्ष की तरफ आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं पड़ी |

उनके राजपुरोहित और महामंत्री ने इस शुभ अवसर पर एक नया सम्वत प्रारम्भ करने का परामर्श दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और ‘विक्रम सम्वत’ का शुभारम्भ हुआ |

उनकी मृत्य के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को सम्राट घोषित किया गया । उसका धूमधाम से राज तिलक हुआ ।

मगर अश्चार्यजनक रूप से वह उनके सिंहासन पर नहीं बैठ सका । कहते हैं कि जब भी वह उस सिंहासन पर बैठने जाता, कुछ अदृश्य शक्तियां उसे रोक लेती, उसे आगे बढ़ने ही नहीं देती |

उसको पता नहीं चला कि पिता के सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है । वह उलझन में पड़ा था कि एक दिन स्वप्न में विक्रम खुद आए ।

उन्होंने अपने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा ।

उन्होंने उसे कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य-प्रताप तथा पुरुषार्थ से उस सिंहासन पर बैठने के योग्य हो जाएगा तो वे खुद उसे स्वप्न में आकर बता देंगे ।

किन्तु विक्रमादित्य उसके सपने में नहीं आए तो उसे नहीं सूझा कि इस सिंहासन का अब किया क्या जाए । उसने अपने राज्य के विद्वानों से परामर्श किया |

पंडितों और विद्वानों के परामर्श पर वह एक दिन पिता का स्मरण करके सोया तो विक्रम उसके सपने में आए

सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को ज़मीन में गहरे गड़वा देने के लिए कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी ।

उन्होंने कहा कि

जब भी पृथ्वी पर सर्वगुण सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन स्वयं धरती से बाहर आएगा और उसके पुरुषार्थ से उसके अधिकार में चला जाएगा ।

पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने सुबह में ही श्रमिकों को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया तथा उस सिंहासन को उसमें समाहित करवा दिया ।

इसके बाद वह खुद अम्बावती को अपनी नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा ।

विक्रमादित्य ने इस नश्वर संसार को त्याग दिया लेकिन आज भी, भगवान् राम के बाद अगर कोई सम्राट भारतीय जान मानस के ह्रदय पर राज करता है, तो वो विक्रमादित्य ही हैं |

 केदारनाथ मंदिर ((Kedarnath Temple)

केदारनाथ मंदिर हिंदू देवता भगवान शिव का सबसे पूजनीय मंदिर है।

भारतीय राज्य उत्तराखंड में गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक सर्वोच्च केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर हैं।

इस संपूर्ण क्षेत्र को केदारनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। यह स्थान छोटा चार धाम में से एक है। ।केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर है।

उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धामऔर पंच केदार में से भी एक है।

यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्‍य ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डवों के पौत्र महाराजा जन्मेजय ने कराया था।

यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ धाम शिव के उपासकों के लिए सबसे प्रमुख स्थानों में से एक है।

हिमालय की निचली पर्वत श्रृंखला के विशाल बर्फ से ढके चोटियों, मनमोहक घास के मैदानों और जंगलों के बीच हवा भगवान शिव के नाम से गूंजती हुई प्रतीत होती है

इस क्षेत्र का ऐतिहासिक नाम “केदार खंड” है और किंवदंती कहती है, महाभारत के पांडवों ने कौरवों को हराने के बाद, इतने सारे लोगों को मारने का दोषी महसूस किया और भगवान शिव से मोचन के लिए आशीर्वाद मांगा।

भगवान ने उन्हें बार-बार भगाया और बैल के रूप में केदारनाथ में शरण ली। भगवान ने केदारनाथ में सतह पर अपना कूबड़ छोड़ते हुए जमीन में डुबकी लगाई।

भगवान शिव के शेष भाग चार अन्य स्थानों पर प्रकट हुए और उनके स्वरूप के रूप में उनकी पूजा की जाती है। भगवान की भुजाएँ तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, पेट मदमहेश्वर में और उनके बाल कल्पेश्वर में प्रकट हुए।

केदारनाथ और चार उपर्युक्त तीर्थ श्रद्धेय पंच केदार तीर्थ यात्रा सर्किट बनाते हैं ।

हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र मंदिरों में से एक, केदारनाथ मंदिर, और बारहवां ज्योतिर्लिंग भारत में उत्तराखंड के केदारनाथ में मंदाकिनी नदी के पास गढ़वाल हिमालय पर्वतमाला के ऊपर 12000 फीट की ऊंचाई पर रुद्र हिमालय रेंज के सुरम्य परिवेश में स्थित है।

केदारनाथ के पास मंदाकिनी नदी का स्रोत है जो रुद्रप्रयाग में अलकनंदा से मिलती है।

केदारनाथ  भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल मण्डल के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित एक नगर है।

यह ज़िले के मुख्यालय, रुद्रप्रयाग से 86 किमी दूर है। यह केदारनाथ धाम के कारण प्रसिद्ध है, जो हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए पवित्र स्थान है।

यहाँ स्थित केदारनाथ मंदिर का शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है, और हिन्दू धर्म के चारधाम और पंच केदार में गिना जाता है

यहां स्थापित प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केदारनाथ मंदिर अति प्राचीन है। कहते हैं कि भारत की चार दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद जगतगुरु शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में यहीं श्री केदारनाथ धाम में समाधि ली थी।

उन्हीं ने वर्तमान मंदिर बनवाया था। यहां एक झील है जिसमें बर्फ तैरती रहती है इस झील के बारे में प्रचलित है इसी झील से युधिष्ठिर स्वर्ग गये थे।

श्री केदारनाथ धाम से छह किलोमीटर की दूरी चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है यहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं तथा इस ताल का पानी काफी ठंडा होता है।

यहां गौरी कुण्ड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनि, पंच केदार आदि दर्शनीय स्थल हैं।

चरम मौसम की स्थिति के कारण, शिव के ज्योतिर्लिंगम को स्थापित करने वाला केदारनाथ मंदिर केवल अप्रैल के अंत से नवंबर की शुरुआत के बीच खुला रहता है।

यहां शिव को केदारनाथ, ‘केदार खंड के भगवान’ के रूप में पूजा जाता है, जो इस क्षेत्र का ऐतिहासिक नाम है।

परंपरा यह है कि केदारनाथ यात्रा करते समय, तीर्थयात्री पहले यमुनोत्री और गंगोत्री जाते हैं और अपने साथ यमुना और गंगा नदियों के स्रोतों से पवित्र जल लाते हैं और केदारेश्वर को चढ़ाते हैं।

पारंपरिक तीर्थ मार्ग हरिद्वार – ऋषिकेश – टिहरी (चंबा) – धरासु – यमुनोत्री – उत्तर काशी – गंगोत्री – फाटा – सोनप्रयाग- गौरीकुंड और केदारनाथ है।

ऊंचे हिमालय में स्थित, केदारनाथ मंदिर भारत में सबसे प्रसिद्ध शिवस्थलों में से एक है और इसे देश के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि केदारेश्वर की पूजा करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। मंदिर के महत्व को इस मान्यता से और समझा जा सकता है कि द्वापर में पांडवों ने यहां भगवान शिव की पूजा की थी।

यहां तक ​​कि आध्यात्मिक नेता आदि शंकराचार्य भी केदारनाथ से निकटता से जुड़े हुए हैं।

केदारनाथ भारत के उत्तराखंड राज्य में रुद्रप्रयाग जिले का एक शहर है और केदारनाथ मंदिर के कारण इसे महत्व मिला है । यह जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से लगभग 86 किलोमीटर दूर है ।

यह रुद्रप्रयाग जिले में एक नगर पंचायत है। केदारनाथ चार छोटा चार धाम तीर्थ स्थलों में सबसे दूरस्थ है। यह हिमालय में समुद्र तल से लगभग 3,583 मीटर (11,755 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है, जो चोराबाड़ी ग्लेशियर के पास है, जो मंदाकिनी नदी का स्रोत है।

यह शहर बर्फ से ढकी चोटियों से घिरा है, जिनमें सबसे प्रमुख रूप से केदारनाथ पर्वत है। निकटतम सड़क प्रमुख लगभग 16 किमी दूर गौरीकुंड में है।

जून 2013 के दौरान उत्तराखंड राज्य में मूसलाधार बारिश के कारण अचानक आई बाढ़ से शहर को व्यापक विनाश का सामना करना पड़ा ।

केदारनाथ (Kedarnath) ६ महीने के लिए बंद रहता है कपाट

हर साल छह महीने के लिए केदारनाथ कपाट को बंद कर दिया जाता है क्योंकि ठंडे मौसम में यहां बर्फ गिरने लगा है और ठंड बढ़ जाती है।

इसके बाद अप्रैल-मई के महीने में अक्षय तृतीया को यहां का कपाट दर्शन के लिए खोला जाता है। इस बीच केदारनाथ बाबा को गुप्तकाशी के पास उखीमाठ में रखा जाता है।

इसके बाद तीन दिन की पैदल यात्रा के बाद बाबा केदार की उत्सव डोली केदारधाम पहुंचती है।केदारनाथ का मंदिर वर्ष के केवल छह महीने खुलता है जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है और वृश्चिक पूर्ण ग्रहण में होता है।

केदारनाथ (Kedarnath) मंदिर वास्तुशिल्प

यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है।

बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, कहा जाता है कि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने करवाया था।

मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है १.गर्भ गृह , २.मध्यभाग  ३. सभा मण्डप ।

गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्री यंत्र विद्यमान है ।

ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यगयोपवित और ज्योतिर्लिंग के पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को आसानी से देखा जा सकता है ।

श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विधमान है इस कारण इस ज्योतिर्लिंग को नव लिंग केदार भी कहा जाता है स्थानीय लोक गीतों से इसकी पुष्टि होती है ।

श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारों ओर विशालकाय चार स्तंभ विद्यमान है जिनको चारों वेदों का धोतक माना जाता है , जिन पर विशालकाय कमलनुमा मन्दिर की छत टिकी हुई है ।

ज्योतिर्लिंग के पश्चिमी ओर एक अखंड दीपक है जो कई हजारों सालों से निरंतर जलता रहता है जिसकी हेर देख और निरन्तर जलते रहने की जिम्मेदारी पूर्व काल से तीर्थ पुरोहितों की है ।

गर्भ गृह की दीवारों पर सुन्दर आकर्षक फूलों और कलाकृतियों को उकर कर सजाया गया है । गर्भ गृह में स्थित चारों विशालकाय खंभों के पीछे से स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान श्री केदारेश्वर जी की परिक्रमा की जाती है ।

पूर्व काल में श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारो ओर सुन्दर कटवे पत्थरों से निर्मित जलेरी बनाई गई थी ।

मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है।

प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है।

इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं।

चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है।

इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था।

साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है।

मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है।

केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं।

केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किलोमीटर की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है।

मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर घारे अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं।

शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है।

मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है

केदारनाथ (Kedarnath)

केदारनाथ समुद्र तल से 11,746 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के उद्गगम स्‍थल के समीप है। यमुनोत्री से केदारनाथ के ज्‍योतिर्लिंग पर जलाभिषेक को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है।

वायुपुराण के अनुसार भगवान विष्‍णु मानव जाति की भलाई के लिए पृथ्वि पर निवास करने आए। उन्‍होंने बद्रीनाथ में अपना पहला कदम रखा।

इस जगह पर पहले भगवान शिव का निवास था। लेकिन उन्‍होंने नारायण के लिए इस स्‍थान का त्‍याग कर दिया और केदारनाथ में निवास करने लगे।

इसलिए पंच केदार यात्रा में केदारनाथ को अहम स्‍थान प्राप्‍त है। साथ ही केदारनाथ त्‍याग की भावना को भी दर्शाता है।

यह वही जगह है जहां आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्‍होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल (मुख्‍य पुरोहित) नियुक्‍त किया था।

वर्तमान में केदारनाथ मंदिर 337वें नंबर के रावल द्वारा उखीमठ, जहां जाड़ों में भगवान शिव को ले जाया जाता है, से संचालित हो रहा है।

इसके अलावा गुप्‍तकाशी के आसपास निवास करनेवाले पंडित भी इस मंदिर के काम-काज को देखते हैं।

प्रशासन के दृष्टिकोण इस स्‍थान को इन पंडितों के मध्‍य विभिन्‍न भागों में बांट दिया गया है। ताकि किसी प्रकार की परेशानी पैदा न हो।

केदारनाथ मंदिर न केवल आध्‍यात्‍म के दृष्टिकोण से वरन स्‍थापत्‍य कला में भी अन्‍य मंदिरों से भिन्‍न है। यह मंदिर कात्‍युरी शैली में बना हुआ है।

यह पहाड़ी के चोटि पर स्थित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्‍थरों का प्रयोग बहुतायत में किया गया है। इसका छत लकड़ी का बना हुआ है जिसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है।

मंदिर के बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी का विशालकाय मूर्ति बना हुआ है। चारधाम यात्रा में तीसरा प्रमुख धाम केदारनाथ धाम है। केदारनाथ धाम 12 ज्योतिर्लिंगों की सूची में, है और पंच-केदार में सबसे महत्वपूर्ण मंदिर है।

यह धाम हिमालय की गोद में और मंदाकिनी नदी के तट के पास स्थित है जो 8 वीं ईस्वी में आदि-शंकराचार्य द्वारा निर्मित है।

किंवदंतियों के अनुसार, कुरुक्षेत्र की महान लड़ाई के बाद पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे, और इन पापो से मुक्त होने के लिये उन्होंने शिव की खोज शुरू की ।

परन्तु भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे।

उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे । पांडवों से छिपने के लिए, शिव ने खुद को एक बैल में बदल दिया और जमीन पर अंतर्ध्यान हो गए।

लेकिन भीम ने पहचान लिया कि बैल कोई और नहीं बल्कि शिव है और उन्होंने तुरंत बैल के पीठ का भाग पकड़ लिया। पकडे जाने के डर से बैल जमीन में अंतर्ध्यान हो जाता है और पांच अलग-अलग स्थानों पर फिर से दिखाई देता है- ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ ( जो आज पशुपतिनाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है), शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए।

इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है।

दीपावली के बाद, सर्दियों में मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते है और शिव की मूर्ति को उखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में ले जाया जाता है जो अगले छह महीनों तक उखीमठ में रहती है।

ऊंचाई – 11,755 ft. सर्वश्रेष्ठ समय – मई-जून और सितंबर-नवंबर दर्शन समय – दोपहर 3:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक बंद रहता है और बाकी घंटों के लिए खुला रहता है।

घूमने के स्थान – भैरव नाथ मंदिर, वासुकी ताल (8 किमी ट्रेक), त्रिजुगी नारायण, आदि कैसे पहुंचे – गौरीकुंड अंतिम पड़ाव है जहाँ कोई भी परिवहन वाहन जा सकता है।

और गौरीकुंड से केदारनाथ पहुंचने के लिए आपको 16 किमी की ट्रेकिंग करनी होगी। अगर आप ट्रेकिंग से बचना चाहते हैं तो आप एक विकल्प यह है कि आप गुप्तकाशी / फाटा / गौरीकुंड आदि से हेलीकॉप्टर की उड़ान ले सकते हैं।(हेलीकाप्टर द्वारा चारधाम यात्रा) यात्रा मार्ग – रुद्रप्रयाग – गुप्तकाशी – फाटा- रामपुर – सीतापुर – सोनप्रयाग – गौरीकुंड – केदारनाथ (16 किमी)

केदारनाथ बाबा के दर्शन से स्वर्ग की प्राप्ति

केदारनाथ मंदिर तक पहुंचने के लिए लोगों को खतरनाक इलाकों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि यह चार धामों में एक सबसे पवित्र धामों में माना जाता है।

शिव पुराण में कहा गया है कि केदारनाथ में जो तीर्थयात्री जाते है उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है और अपने सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं।

केदारनाथ के पानी को अत्यंत धार्मिक महत्व दिया जाता है। लोगों का कहना है कि यदि आप मंदिर में अपनी प्रार्थना के बाद पानी पीते हैं, तो आप अपने सभी पापों से मुक्ती मिल जाएगी।

काफी ऊंचाई पर हैं केदारनाथ बाबा

केदारनाथ पहुंचना सबसे ज्यादा कठिन माना जाता है, क्योंकि यह 11,755 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

वहीं, किसी अन्य स्थान से केदारनाथ के लिए कोई सीधा सड़क संपर्क नहीं है। यहां पहुंचने के सिर्फ दो तरीके हैं।

पहला पैदल चलकर जाएं जिसके लिए 14 किमी का लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा या दूसरा खच्चरों और घोड़ों का इस्तेमाल करें। हालांकि तीसरा विकल्प हेलिकॉप्टर भी है जिसकी सेवा ली जा सकती है जो देहरादून से मिलता है।

कैसे पड़ा केदारनाथ का नाम

केदारनाथ नाम कहा से आया इसे लेकर के कई लोगों के अलग-अलग कहानी है, लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है वो है कि सतयुग में शासन करने वाले राजा केदार के नाम पर इस स्थान का नाम केदार पड़ा।

मंदिर की बनावट

यह मंदिर एक छह फीट ऊंचे चौकोर प्लेटफार्म पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है।

बाहर प्रांगण में नंदी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हां ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने की।

मंदिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगोंमें से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिंड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है।

तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है।

उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं।

केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं। शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।

शब्द-साधन

“केदारनाथ” नाम का अर्थ “क्षेत्र के भगवान” है। यह संस्कृत के शब्द केदार (“क्षेत्र”) और नाथ (“भगवान”) से लिया गया है।

काशी केदार महात्म्य पाठ में कहा गया है कि इसे तथाकथित इसलिए कहा जाता है क्योंकि ” मुक्ति की फसल ” यहाँ उगती है। केदार नाम का अर्थ शक्तिशाली भगवान शिव का एक और नाम रक्षक और संहारक है।

मंदिर के चारों ओर का सुंदर वातावरण ऐसा लगता है जैसे स्वर्ग में काफी शांति है, ध्यान करने के लिए एक सुंदर जगह है।

यहां का मुख्य आकर्षण शिव मंदिर है, जो एक लोकप्रिय हिंदू मंदिर और तीर्थ है, जो दुनिया भर से भक्तों को आकर्षित करता है।

शिव को सभी जुनूनों का अवतार माना जाता है प्रेम, घृणा, भय, मृत्यु और रहस्यवाद जो उनके विभिन्न रूपों के माध्यम से व्यक्त किए जाते हैं।

क्षेत्र में ही भगवान शिव को समर्पित 200 से अधिक मंदिर हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण केदारनाथ है।

केदारनाथ मंदिर की विशेषता

केदारनाथ मंदिर 85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौडा है। मंदिर को 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बनाया गया है और आश्चर्य की बात यह है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी।

पत्थरों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तरीके का इस्तेमाल किया गया है। इस मज़बूती के कारण ही मंदिर आज भी अपने उसी स्वरूप में खड़ा है।

यह मंदिर तीनों तरफ से पहाडों से घिरा हुआ है और यहाँ पाँच नदियों का संगम भी होता है। उनके नाम मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी आदि है।

इन नदियों में से कुछ का अस्तित्व अब नहीं रहा, लेकिन अलकनंदा और मंदाकिनी आज भी मौजूद है।

रुचि के स्थान

केदारनाथ मंदिर के अलावा, शहर के पूर्वी हिस्से में भैरवनाथ मंदिर है, और माना जाता है कि इस मंदिर के देवता, भैरवनाथ , सर्दियों के महीनों के दौरान शहर की रक्षा करते हैं।

शहर से लगभग 6 किमी ऊपर की ओर, चोराबारी ताल, एक झील सह ग्लेशियर है जिसे गांधी सरोवर भी कहा जाता है।  केदारनाथ के पास, भैरव झाम्प नामक एक चट्टान है। 

अन्य दर्शनीय स्थलों में केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य , आदि शंकराचार्य समाधि और रुद्र ध्यान गुफा शामिल हैं।

जलवायु

केदारनाथ मंदिर सर्दियों के महीनों में भारी बर्फबारी के कारण बंद रहता है। छह महीने के लिए, नवंबर से अप्रैल तक, केदारनाथ और मध्यमहेश्वर मंदिर के उत्सव मूर्ति (मूर्ति) के साथ पालकी को गुप्तकाशी के पास ऊखीमठ में ओंकारेश्वर मंदिर में लाया जाता है ।

पुजारी और अन्य गर्मी के समय के निवासी भी सर्दी से निपटने के लिए आसपास के गांवों में चले जाते हैं। 55 गांवों और आसपास के अन्य गांवों के तीर्थ पुरोहित के लगभग 360 परिवार आजीविका के लिए कस्बे पर निर्भर हैं।

कोपेन -गीजर जलवायु वर्गीकरण प्रणाली के अनुसार, केदारनाथ की जलवायु मानसून-प्रभावित उपनगरीय जलवायु  है, जो हल्के, बरसाती ग्रीष्मकाल और ठंडे, बर्फीले सर्दियों के साथ एक समान वर्षा उप -आर्कटिक जलवायु  की सीमा बनाती है।

निरंतर बदलती रहती है यहां की प्रकृति :

केदारनाथ धाम में एक तरफ करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदार, दूसरी तरफ 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड का पहाड़।

न सिर्फ 3 पहाड़ बल्कि 5 नदियों का संगम भी है यहां- मं‍दाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है।

इसी के किनारे है केदारेश्वर धाम। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी रहता है। यहां कब बादल फट जाए और कब बाढ़ आ जाए कोई नहीं जानता।

मंदिर का इतिहास

केदारनाथ प्राचीन काल से एक तीर्थस्थल रहा है। मंदिर के निर्माण का श्रेय महाभारत में वर्णित पांडव भाइयों को दिया जाता है । 

हालांकि, महाभारत में केदारनाथ नामक किसी स्थान का उल्लेख नहीं है। केदारनाथ के शुरुआती संदर्भों में से एक स्कंद पुराण (सी। 7 वीं -8 वीं शताब्दी) में मिलता है, जिसमें केदार (केदारनाथ) का नाम उस स्थान के रूप में रखा गया है जहां भगवान शिव ने अपने उलझे हुए बालों से गंगा के पवित्र जल को छोड़ा था जिसके परिणामस्वरूप इसका निर्माण हुआ था।

केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही महत्व है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।

केदारनाथ (Kedarnath) मंदिर
केदारनाथ (Kedarnath) मंदिर

इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे।

एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है।

केदारनाथ जी के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं, उनके पूर्वज ऋषि-मुनि भगवान नर-नारायण के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा करते आ रहे हैं, जिनकी संख्या उस समय ३६० थी।

पांडवों के पोते राजा जनमेजय ने उन्हें इस मंदिर में पूजा करने का अधिकार दिया था, और वे तब से तीर्थयात्रियों की पूजा कराते आ रहे हैं।

आदि गुरु शंकराचार्य जी के समय से यहां पर दक्षिण भारत से जंगम समुदाय के रावल व पुजारी मंदिर में शिव लिंग की पूजा करते हैं, जबकि यात्रियों की ओर से पूजा इन तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों द्वारा की जाती है मंदिर के सामने पुरोहितों की अपने यजमानों एवं अन्य यात्रियों के लिये पक्की धर्मशालाएं हैं, जबकि मंदिर के पुजारी एवं अन्य कर्मचारियों के भवन मंदिर के दक्षिण की ओर हैं ।

किंवदंती है कि, “नर और नारायण ने पृथ्वी से बने शिवलिंग के सामने घोर तपस्या की थी”।

केदारनाथ भगवान शिव भक्तों के लिए एक प्रसिद्ध मंदिर है और केदारनाथ मंदिर का इतिहास लगभग 1000 वर्ष से भी अधिक पुराना है।

किंवदंती कहती है कि उन्होंने शिव से ज्योतिर्लिंगम के रूप में एक स्थायी निवास स्थान लेने का अनुरोध किया। केदारेश्वर एक ऐसा स्थान है जहां पांडवों ने शिव का आशीर्वाद मांगा था।

एक अन्य किंवदंती के अनुसार, देवी पार्वती ने अर्धनारीश्वर के रूप में शिव के साथ एकजुट होने के लिए केदेश्वर की पूजा की। भैरों एक मंदिर है जो भैरोनाथजी को समर्पित है जिनकी केदारनाथ मंदिर के उद्घाटन और समापन पर औपचारिक रूप से पूजा की जाती है।

मान्यता है कि मंदिर के बंद होने के समय भैरवनाथजी इस भूमि की बुराई से रक्षा करते हैं। केदारनाथ 12 ज्योतिर्लिंगों या ब्रह्मांडीय प्रकाश में से एक है।

मंदिर एक हजार साल से अधिक पुराना है और रुद्र हिमालय, उत्तरी भारत में स्थित है। यह दुनिया के सबसे ऊंचे ज्योतिर्लिंग केदारनाथ लिंगम का घर है।

केदारनाथ (Kedarnath) शिवलिंग उत्पत्ति का रहस्य

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार शृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे।

उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।

पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे।

इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे।

भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले।

वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले।

पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया।

अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा।

तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए।

उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ।

अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है।

शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है।

यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।

केदारनाथ और पशुपति नाथ मिलकर पूर्ण शिवलिंग बनता है : केदारनाथ मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। इसे अर्द्धज्योतिर्लिंग कहते हैं।

नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर को मिलाकर यह पूर्ण होता है। यहां स्थित स्वयंभू शिवलिंग अतिप्राचीन है। यहां के मंदिर का निर्माण जन्मेजय ने कराया था और जीर्णोद्धार आदिशंकराचार्य ने किया था।

एक रेखा पर बने हैं केदारनाथ और रामेश्‍वरम मंदिर केदारनाथ मंदिर को रामेश्वरम मंदिरकी सीध में बना हुआ माना जाता है। उक्त दोनों मंदिरों के बीच में कालेश्वर (तेलंगाना), श्रीकालाहस्ती मंदिर (आंध्रा), एकम्बरेश्वर मंदिर (तमिलनाडु), अरुणाचल मंदिर (तमिलनाडु), तिलई नटराज मंदिर (चिदंबरम्) और रामेश्वरम् (तमिलनाडु) आता है। ये शिवलिंग पंचभूतों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

केदार घाटी में दो पहाड़ हैं-

नर और नारायण पर्वत। विष्णु के 24 अवतारों में से एक नर और नारायण ऋषि की यह तपोभूमि है। दूसरी ओर बद्रीनाथ धाम है जहां भगवान विष्णु विश्राम करते हैं।

कहते हैं कि सतयुग में बद्रीनाथ धाम की स्थापना नारायण ने की थी। इसी आशय को शिवपुराण के कोटि रुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है।

दर्शन का समय

केदारनाथ जी का मन्दिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 6:00 बजे खुलता है।

दोपहर तीन से पाँच बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।

केदारनाथ जी का मन्दिर
केदारनाथ जी का मन्दिर

पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है।

पाँच मुख वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके 7:30 बजे से 8:30 बजे तक नियमित आरती होती है।

रात्रि 8:30 बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।

शीतकाल में केदारघाटी बर्फ़ से ढँक जाती है। यद्यपि केदारनाथ-मन्दिर के खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है, किन्तु यह सामान्यत: नवम्बर माह की 15 तारीख से पूर्व (वृश्चिक संक्रान्ति से दो दिन पूर्व) बन्द हो जाता है और छ: माह *बाद अर्थात वैशाखी (13-14 अप्रैल) के बाद कपाट खुलता है।

ऐसी स्थिति में केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ‘उखीमठ’ में लाया जाता हैं। इसी प्रतिमा की पूजा यहाँ भी रावल जी करते हैं।

केदारनाथ में जनता शुल्क जमा कराकर रसीद प्राप्त करती है और उसके अनुसार ही वह मन्दिर की पूजा-आरती कराती है अथवा भोग-प्रसाद ग्रहण करती है।

पूजा का क्रम

भगवान की पूजाओं के क्रम में प्रात:कालिक पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिषेक, लघु रुद्राभिषेक, षोडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पाण्डव पूजा, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वती जी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम आदि प्रमुख हैं।

शाम के वक्त सहस्रनामम पथ, महिमस्तोत्र पथ, ताण्डवस्तोत्र पथ पूजा की जाती है।मन्दिर-समिति द्वारा केदारनाथ मन्दिर में पूजा कराने हेतु जनता से जो दक्षिणा (शुल्क) लिया जाता है, उसमें समिति समय-समय पर परिर्वतन भी करती है।

मान्यताएं

6 माह तक नहीं बुझता है दीपक

दीपावली महापर्व के दूसरे दिन के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक मंदिर के अंदर दीपक जलता रहता है।

पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं, तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है।

6 माह मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है। लेकिन आश्चर्य की बा‍त कि 6 माह तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट खुलने के बाद यह भी आश्चर्य का विषय है कि वैसी की वैसी ही साफ-सफाई मिलती है, जैसी कि छोड़कर गए थे।

तूफान और बाढ़ में भी रहता है सुरक्षित

 16 जून 2013 की रात प्रकृति ने कहर बरपाया था। जलप्रलय से कई बड़ी-बड़ी और मजबूत इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढहकर पानी में बह गईं, लेकिन केदारनाथ के मंदिर का कुछ नहीं बिगड़ा।

आश्चर्य तो तब हुआ, जब पीछे पहाड़ी से पानी के बहाव में लुढ़कती हुई विशालकाय चट्टान आई और अचानक वह मंदिर के पीछे ही रुक गई!

उस चट्टान के रुकने से बाढ़ का जल 2 भागों में विभक्त हो गया और मंदिर कहीं ज्यादा सुरक्षित हो गया। इस प्रलय में लगभग 10 हजार लोगों की मौत हो गई थी।

केदारनाथ (Kedarnath) मंदिर की संरचना

कैसे बना होगा यह मंदिर अभी भी रहस्य बरकरार  यह मंदिर कटवां पत्थरों के भूरे रंग के विशाल और मजबूत शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है।

6 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़े 85 फुट ऊंचे, 187 फुट लंबे और 80 फुट चौड़े मंदिर की दीवारें 12 फुट मोटी हैं। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर व तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी? खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई? पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है।

लुप्त हो जाएगा केदारनाथ

पुराणों की भविष्यवाणी के अनुसार इस समूचे क्षेत्र के तीर्थ लुप्त हो जाएंगे। माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा और भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे।

पुराणों के अनुसार वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य में भविष्यबद्री’ नामक नए तीर्थ का उद्गम होगा।

केदारनाथ के पास पर्यटन स्थल

केदारनाथ अपने आप में एक पर्यटन स्थल है किलेकिन केदारनाथ धाम के पास, कई अन्य तीर्थ और पर्यटक आकर्षण हैं, जिनमें उच्च ऊंचाई वाली झीलें और ट्रेकिंग भ्रमण शामिल हैं।

केदारनाथ यात्रा के दौरान त्रियुगीनारायण, गुप्तकाशी, चोपता, देवरिया ताल, पंच केदार, चंद्रशिला, कालीमठ और अगस्त्यमुनि जैसे स्थानों की भी यात्रा की जा सकती है।

त्रियुगीनारायण वह प्रसिद्ध स्थान है जहाँ भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था, और यह इस क्षेत्र के खिंचाव का अनुभव करने के लिए देखने लायक है। चोपता और देवरिया तलारे को गढ़वाल क्षेत्र की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक माना जाता है। यह हिमालय की पहाड़ियों का शानदार नजारा पेश करता है और आपको स्वर्ग का अहसास कराता है।

केदारनाथ, मदमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर जैसे मंदिर गढ़वाल हिमालय में भगवान शिव के पांच सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों के दर्शन करने चाहिए।

स्थानीय लोग इन्हें पंच केदार के नाम से जानते हैं। उत्तराखंड में पंच केदार का बहुत महत्व है। पवित्र अनुभव के अलावा, यदि किसी की वास्तुकला में गहरी रुचि है, तो उन्हें अगस्तेश्वर महादेव मंदिर जाना चाहिए जो ऋषि अगस्त्य को समर्पित है और पुरातात्विक महत्व का भी है, देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं पत्थरों पर उकेरा गया है। इसके अलावा, अधिक अद्भुत और सांस लेने वाले दृश्यों के लिए केदार मासिफ पर जाएं। यह तीन प्रमुख पहाड़ों केदार गुंबद, भारतेकुंठ और केदारनाथ द्वारा निर्मित एक उत्कृष्ट पुंजक है। कालीमठ।

धर्म

केदारनाथ हिंदू चार धाम यात्रा (तीर्थयात्रा) मंदिर स्थलों में से एक है। पृथ्वी पर शिव-लोक (पृथ्वी) कहा जाता है, इस ज्योतिर्लिंग को पूरे भारत में 12 श्रद्धेय ज्योतिर्लिंगम स्थलों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

चरम मौसम की स्थिति के कारण, केदारनाथ मंदिर छह महीने का शीतकालीन अवकाश लेता है जो दिवाली के समय भाई दूज के त्योहार से शुरू होता है और अप्रैल के अंत या मई की शुरुआत में अक्षय तृतीया त्योहार के बाद भक्तों के लिए फिर से खोल दिया जाता है।

उस समय के दौरान, मूर्ति को उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में ऊखीमठ ले जाया जाता है और पुजारी केदारनाथ लौटने तक अगले 6 महीनों तक वहां पूजा करते हैं।

केदारनाथ मंदिर के बारे में अनोखे तथ्य हैं:

मंदिर संरक्षित और अविनाशी है।

2013 में विनाशकारी बादल फटने से उत्तराखंड में भीषण आपदा आई थी। जबकि राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में विनाशकारी भूस्खलन और बाढ़ का सामना करना पड़ा, पहाड़ के नीचे एक विशाल शिलाखंड आने के बावजूद मंदिर को बचा लिया गया।

अजीब तरह से, जैसे ही यह पहाड़ से नीचे आया, विशाल ढीला, लुढ़कता हुआ शिलाखंड मंदिर से कुछ ही मीटर की दूरी पर रुक गया और वास्तव में उस आपदा में भी किसी भी विनाश से बचा लिया। फुटेज से पता चलता है कि मंदिर के पीछे एक बड़ी चट्टान ने मंदिर की ओर आने वाले पानी की भारी बाढ़ को मोड़ दिया।

 पांडव और आदि शंकराचार्य

सनातन धर्म (हिंदू धर्म) के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक केदारनाथ मंदिर मंदिर उच्च ऊंचाई पर स्थित है, जिसका निर्माण महाभारत के पांडवों द्वारा किया गया था, जो युद्ध में मारे गए असंख्य निर्दोष व्यक्तियों के लिए  क्षमा मांग रहे थे। 

कुरुक्षेत्र के महान युद्ध के बाद पांडवों ने भगवान शिव की तलाश में काशी की यात्रा की और भोले शंकर भगवान हैं, खुद को एक बैल के रूप में बदलकर उत्तराखंड भाग गए। पांडवों ने यह सुना और काशी से उत्तराखंड की यात्रा की।

जल्द ही उन्होंने भगवान शिव को उनके बैल रूप में पाया और प्रार्थना करने लगे। वे कहते हैं कि गुप्तकाशी वह स्थान है जहां पांडवों ने शिव को बैल के रूप में पाया – जिन्होंने जल्द ही उन्हें आशीर्वाद दिया।

बाबा भैरों नाथ

बाबा भैरवनाथ केदारनाथ मंदिर की रक्षा करते हैं

ऐसा माना जाता है कि भगवान भैरों नाथ जी, जिनका मंदिर इस हिमालय क्षेत्र में निकटता में स्थित है, केदारनाथ मंदिर की रखवाली करते हैं। भैरों नाथ को “क्षेत्रपाल” के रूप में भी जाना जाता है, जो भगवान शिव के उग्र अवतार हैं जो तबाही और विनाश से जुड़े हैं।

स्थानीय लोगों का कहना है कि यह भैरों नाथ जी हैं जो बुरी आत्माओं को दूर भगाते हैं और मंदिर को किसी भी तरह के नुकसान से मुक्त रखते हैं।

भैरों बाबा मंदिर, यह केदारनाथ मंदिर के दक्षिण में स्थित है और जो लोग केदारनाथ मंदिर जाते हैं उन्हें भी भैरों बाबा का मंदिर जाना पड़ता है।

 कर्नाटक के पुजारी यहां कन्नड़ में पूजा करते हैं

केदारनाथ मंदिर के हिंदू मंदिर की उत्तर-दक्षिण एकता के एक दिलचस्प उदाहरण में, कर्नाटक के वीरा शैव संगम समुदाय से संबंधित रावल समुदाय के सदस्यों द्वारा अनुष्ठान किया जाता है।

10वीं शताब्दी ईस्वी से, यहां पूजा कन्नड़ भाषा में और उसी पैटर्न और क्रम में की गई है। रावल, या प्रधान पुजारी, मंदिर के अंदर अनुष्ठान नहीं करते हैं, बल्कि इस जिम्मेदारी को अपने सहायकों को सौंपते हैं।

जब सर्दियों के मौसम में देवता को ऊखीमठ ले जाया जाता है, तो रावल मुख्य देवता के साथ अपना आधार बदल लेते हैं। मंदिर के पुजारियों के पैनल में पांच प्रधान पुजारी हैं, और उनमें से प्रत्येक को बारी-बारी से प्रधान पुजारी की उपाधि दी जाती है।

“16 जून, 2013 को केदारनाथ मंदिर के ऊपर पहाड़ों पर बैठी चोराबाड़ी झील के फटने के साथ एक विशाल बादल फट गया, जिससे पानी की एक अकल्पनीय मात्रा नीचे आ गई, जिसने अंततः असंख्य गांवों को नष्ट कर दिया और हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

सभी  विनाश के बावजूद वह मंदिर अपनी जमीन पर खड़ा था। यह एक विशाल शिलाखंड के कारण था जो नीचे लुढ़क गया और इसे मंदिर के ठीक पीछे खड़ा कर दिया और इसकी रक्षा की .. तीर्थयात्रियों की सभी प्रार्थनाओं और विश्वास और शिव की शक्ति ने इसे संभव बनाया

जनसांख्यिकी

2001 तकभारत की जनगणना के अनुसार, केदारनाथ की जनसंख्या 2021 तक 612 है। पुरुष जनसंख्या का 99% और महिलाओं का 1% है।

केदारनाथ की औसत साक्षरता दर 63% है: पुरुष साक्षरता 63% है और महिला साक्षरता 36% है। केदारनाथ में कोई भी आबादी छह साल से कम उम्र की नहीं है। हर साल मई से अक्टूबर तक तैरती आबादी प्रति दिन 5000 से अधिक है।

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श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर (Shree Somnath Jyotirlingas)

Welcome To Shri Badarinath Kedarnath Yatra

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कुम्भ मेला (Kumbh Mela) इतिहास महत्व और आयोजन

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आइये जानते है कुम्भ मेला (Kumbh Mela) इतिहास महत्व और आयोजन के बारे में

सनातन धर्म में कुंभ

कुंभ (Kumbh Mela) सनातन धर्म का महत्वपूर्ण पर्व है। जिसे “धार्मिक रूप से दुनिया के तीर्थयात्रियों की सबसे बड़ी मंडली” के रूप में जाना जाता है।

कुंभ मेले (Kumbh Mela) का इतिहास काफी साल पुराना है। भारत में यह मेला बहुत अनूठा है ।जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं ।

कुंभ मेला (Kumbh Mela) आस्था का विशाल हिन्दू तीर्थ है। जिसमें हिंदू एक पवित्र नदी में स्नान करने के लिए इकट्ठा होते हैं।

केवल भारत के हिंदू ही नहीं बल्कि यहां विदेशी पर्यटक भी, इस तीर्थ स्थान के मेले में इस समय उपस्थित होते हैं । मुख्य रूप से इसमें दुनिया भर के, साधु संत जो कि भगवा वस्त्र पहनते हैं ,तपस्वी तीर्थयात्री आदि भक्तगण भाग लेते हैं।

कुंभ मेला (Kumbh Mela) दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है।इसे हिंदू धर्म संस्कृति का भी महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है।  इसका अपना ही धार्मिक महत्व है ।

कुम्भ मेला का अर्थ

कुंभ मेले में कुंभ का शाब्दिक अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। यह वैदिक ग्रंथों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता के अमृत के बारे में बताया जाता है।

मेला शब्द का अर्थ है,किसी एक स्थान पर एकजुट होना, शामिल होना, मिलना, एक साथ चलना, सभा में या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना।

यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिंदू ग्रंथों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुंभ मेले का अर्थ है “एक सभा -मिलन, मिलन” जो “जल या अमरत्व का अमृत” है।

कुंभ मेले में, पहले स्नान का नेतृत्व संतों द्वारा किया जाताहै, जिसे कुंभ के शाही स्नान के रूप में जाना जाता है और यह सुबह 3 बजे शुरू होता है।

संतों के शाही स्नान के बाद आम लोगों को पवित्र नदी में स्नान करने की अनुमति मिलती है।

कुंभ मेले में शाही स्नान के साथ साथ अन्य गतिविधियां भी होती हैं, जैसे प्रवचन, कीर्तन और महा प्रसाद आदि।

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि जो इन पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाते हैं, वे अनंत काल तक धन्य हो जाते हैं. और वह सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं और उन्हें मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

कुंभ मेला (Kumbh Mela) आस्था का विशाल हिन्दू तीर्थ है। कुंभ मेला हिंदू धर्म में एक प्रमुख तीर्थ और त्योहार के रूप में मनाया जाता है।

 कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में किया जाता है. इनमें प्रत्येक स्थान पर हर 12 वर्ष के अंतराल पर कुंभ मेला (Kumbh Mela) लगता है।

हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर, प्रयागराज में गंगा-यमुना और सरस्वती के सामूहिक के संगम पर, उज्‍जैन में शिप्रा नदी और नासिक में गोदावरी नदी के तट पर लोग कुंभ में डुबकी लगाते हैं।

कुंभ मेला (Kumbh Mela) का मुख्य अनुष्ठान शहर में पवित्र नदी के तट पर स्नान करना है। इसमें शामिल अन्य गतिविधियाँ हैं धार्मिक चर्चा, पवित्र पुरुषों और महिलाओं का सामूहिक भोजन और गरीबों, भक्ति गीतों को गाना और धार्मिक सभाओं को आयोजित करना।

लोग बड़ी संख्या में कुंभ मेले में जाते हैं ताकि इस मेगा कार्यक्रम के धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष पहलुओं का अनुभव किया जा सके।

साधु यहां इसलिए आते हैं ताकि खुद को हिंदुओं के बड़े जनसमूह के लिए उपलब्ध करा सकें, जिन्हें वे आध्यात्मिक जीवन के बारे में निर्देश और सलाह दे सकें। कुंभ मेलों में शिविर आयोजित किए जाते हैं, ताकि हिंदू श्रद्धालु इन साधुओं तक पहुंच सकें।

कुंभ में गुरु, सूर्य और चंद्रमा ग्रह का विशेष महत्व माना गया है. कुंभ के आयोजन में भी इन ग्रहों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।

जिन लोगों के जीवन में गुरु, सूर्य और चंद्रमा से जुड़ी कोई समस्या बनी हुई है वे यदि कुंभ में शुभ तिथियों में स्नान करते हैं तो उनकी समस्याएं दूर होती हैं.

 कुम्भ मेला (Kumbh Mela) का इतिहास

भारतीय सनातन संस्कृति में कुंभ विश्वास, आस्था, सौहार्द और संस्कृतियों के मिलन का सबसे बड़ा पर्व है।

कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था। मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ‘सभा‘ या ‘मिलना‘।

इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है।

पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी।

कुंभ के शुरुआत के पीछे की कहानी

कुंभ मेला की कहानी उस समय की है जब देवता पृथ्वी पर निवास करते थे. वे ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कमजोर हो गए थे और राक्षस पृथ्वी पर तबाही मचा रहे थे.

कुंभ से जुड़ी एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण स्वर्ग से सभी प्रकार का ऐश्वर्य, धन, वैभव खत्म हो गया। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए।

विष्णुजी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने की सलाह दी और कहा कि समुद्र मंथन से जो अमृत निकलेगा उसे पी कर सभी देवता अमर हो जाएंगे।

देवताओं ने असुरों के राजा बलि को समुद्र मंथन के लिए तैयार किया। इस मंथन में वासुकि नाग की नेती बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र को मथा गया था।

समुद्र मंथन में 14 रत्न निकले थे। इन रत्नों में कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, महालक्ष्मी, वारुणी देवी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, भगवान धनवंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर निकले थे।

जब अमृत कलश निकला तो देवताओं के साथ असुर भी उसका पान करने को आतुर हो गए और इसक कारण देवताओं और दानवों में युद्ध होने लगा।

इस दौरान कलश से अमृत की बूंदें चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिरी थीं। ये युद्ध 12 वर्षों तक चला था, इसलिए इन चारों स्थानों पर हर 12-12 वर्ष में एक बार कुंभ मेला (Kumbh Mela) लगता है।

इस मेले में सभी अखाड़ों के साधु-संत आते हैं  ।

कुंभ मेले (Kumbh Mela) का महत्व

कुंभ मेला पृथ्वी पर सबसे बड़े तीर्थस्थलों में से एक है। विशेष दिनों में, गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों में स्नान मुख्य अनुष्ठान है।

यह माना जाता है कि इस तरह का बपतिस्मा जन्म से विरासत में मिले पापों को धो देगा। भारत के विभिन्न हिस्सों से और जीवन के सभी क्षेत्रों से लाखों नागा संत, दिगंबरन, अखोरी, योगी के रूप में जाने जाते हैं।

 वहआम लोगों की बजाय कहीं दूर से आते हैं और केवल कुंभ मेले के दौरान सभ्यता का दौरा करते हैं, पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और कहीं छिप जाते हैं। फिर वह कभी दिखाई नहीं देते हैं।

खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिकता, पारंपरिक प्रथाओं, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं और अन्य प्रथाओं को कुंभ मेले के अनुभव  बहुत समृद्ध बनाते हैं।

कुंभ मेले का आध्यात्मिक आनंद और रुक-रुक कर जप, अखाड़ों का दिल को लुभाने वाला ताल और नृत्य, हाथियों, घोड़ों और रथों पर बपतिस्मा के लिए आने वाले नागा गरीबों की शानदार तलवारें और अनुष्ठान, साथ ही साथ कई आकर्षक सांस्कृतिक कार्यक्रम, हम सभी को यादों और अनुभवों का महत्वपूर्ण अनुभव देते हैं।

कुंभ स्नान करते समय विशेषतौर पर ध्यान रखना चाहिए कि नदी में पांव रखने से पहले नदी को प्रणाम करें, उसमें पुष्प और अपनी इच्छा शक्ति मुद्रा डालें।

इसके बाद नदी में स्नान करें। स्नान करने के पश्चात किसी साधु को वस्त्र आदि का दान जरूर करें।

सनातन संस्कृति में दान का बहुत महत्व माना गया है, इसके अनुसार यदि किसी को भी कुंभ स्नान करना हो तो उसके बाद कुछ न कुछ दान करके ही जाएं।

कुंभ स्नान से शनि की अशुभता और राहु केतु से बनने वाले दोषों से भी निजात मिलती है। कुंभ में स्नान, दान और पूजा से जीवन में सुख शांति और समृद्धि आती है।

मान्यताओं के अनुसार कुंभ में स्नान करने से कई प्रकार की बाधाओं से छुटकारा मिलता है।

खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं।

मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को “कुम्भ स्नान-योग” कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार

खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है।

इसका हिन्दू धर्म मे बहुत ज्यादा महत्व है। जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं।

कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है ।कुंभ स्नान का हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है कुंभ स्नान से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है

 हिंदू धर्म में कुंभ को तीर्थ के समान दर्जा दिया गया है कुंभ स्नान से पितृपक्ष भी शांत होते हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं यह मान्यता है कि मनुष्य को अपने जीवन में कुंभ स्नान जरूर करना चाहिए क्योंकि हिंदू धर्म में कुंभ स्नान के समान  किसी भी स्नान को नहीं माना जाता है।

कुंभ मेले को रोजगार का भी प्रमुख स्रोत माना गया है।कुंभ मेले से रोजगार के अवसर भी प्रदान होते है।

कुंभ में सभी देवी-देवता प्रवासी के रूप में निवास करते हैं. कुंभ में सबसे श्रेष्ट प्रयाग के कुंभ को माना गया है. तीर्थराज कहा गया है।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कुंभ में स्नान करने से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती हैं।

कुम्भ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं।

इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष में इस पर्व का आयोजन होता है। मेला प्रत्येक तीन वर्षो के बाद नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है।

इलाहाबाद में संगम के तट पर होने वाला आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है। इस मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है। ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है।

 हिंदू धर्म मे जिस तरह से चारधाम यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है, उसी तरह कुंभ स्नान का भी महत्व है। हर चार वर्ष में अर्धकुंभ लगता है और 12 वर्ष में महाककुंभ लगता है।

कुंभ मेले (Kumbh Mela) के बारे में कुछ रोचक तथ्य

चार शहरों में से प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन, प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेला सबसे पुराना है।

.कुंभ मेले को यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत‘ में शामिल किया गया है.।

कुंभ मेला उन तिथियों पर लगता है जब अमृत पवित्र कलश से इन नदीयों में गिरा था. हर साल, तिथियों की गणना बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा की राशि के पदों के संयोजन के अनुसार की जाती है।

कुंभ का अर्थ है ‘अमृत’ कलश से. कुंभ मेला की कहानी उस समय की है जब देवता पृथ्वी पर निवास करते थे. वे ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कमजोर हो गए थे और राक्षस पृथ्वी पर तबाही मचा रहे थे|

कुंभ मेला उन तिथियों पर लगता है जब अमृत पवित्र कलश से इन नदीयों में गिरा था.  इस अवसर पर नदियों के किनारे भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं।

अतीत के कुंभ मेले, विभिन्न क्षेत्रीय नामों के साथ, बड़ी उपस्थिति को आकर्षित करते हैं और सदियों से हिंदुओं के लिए धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि, वे हिंदू समुदाय के लिए एक धार्मिक आयोजन से अधिक रहे हैं।

आमतौर पर यह माना जाता है कि जो लोग प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के पवित्र जल में डुबकी लगाते हैं, वे सभी पापों से छुटकारा पा लेते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं |

यह त्योहार दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक समारोहों में से एक है क्योंकि यह नदियों के पवित्र संगम – गंगा, यमुना और सरस्वती में स्नान करने के लिए 48 दिनों के दौरान करोड़ों तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है।

पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो, ज्योतिषियों के अनुसार कुंभ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुंभ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है।

ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है।

यही कारण है ‍कि अपनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।

जिस कुंभ राशि में कुंभ पर्व मुख्य रूप से जुड़ा है, उस राशि में बृहस्पति केवल हरिद्वार कुंभ मेले के दौरान ही प्रवेश करते हैं। वहीं प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में आयोजित होने वाले कुंभ मेले के दौरान बृहस्पति कुंभस्थ नहीं होते हैं।

ऐसी धार्मिक व पौराणिक मान्यता है कि हरिद्वार में बृहस्पति के कुंभस्थ होने के कारण ही ऐसा माना जाता है कि चारों कुंभ नगरों में पहला कुंभ महापर्व हरिद्वार में आयोजित हुआ था।

हरिद्वार में महाकुंभ आयोजित होने के बाद शेष तीन धार्मिक नगरों में कुंभ मेले का आयोजन शुरू हुआ।

पौराणिक धर्मशास्त्रों में एक घटना का भी जिक्र मिलता है। धर्मशास्त्रों के मुताबिक जिस समय चार नगरों में कुंभ कलश छलके, उस समय कलश की सुरक्षा की जिम्मेदारी बृहस्पति और सूर्य पर थी।

ये दोनों ग्रह राशियों के लिहाज से चारों कुंभ नगरों में कुंभ के आजोजन होने का कारण बने। बृहस्पति को कुंभ राशि में आने का परम मुहूर्त सौभाग्य केवल हरिद्वार में प्राप्त हुआ।

ऐसे में हरिद्वार ही एकमात्र ऐसी कुंभ नगरी है, जहां बृहस्पति के कुंभ और सूर्य के मेष राशि में आने पर कुंभ महापर्व लगता है।

वहीं प्रयाग में बृहस्पति के वृष और सूर्य के मकर राशि में आ जाने पर कुंभ पर्व का महायोग आता है।

ठीक इसी प्रकार उज्जैन कुंभ मेला तब संपन्न होता है, जब बृहस्पति का सिंह राशि में और सूर्य का मेष राशि में प्रवेश हो जाता है।

इसी प्रकार नासिक में भी बृहस्पति के सिंह और सूर्य के भी सिंह राशि में पर कुंभ का मेला आयोजित होता है।

सूर्य जहां 12 महीनों में सभी 12 राशियों की यात्रा पूरी कर लेते हैं, वहीं बृहस्पति को एक राशि से दूसरी में जाने में 12 वर्ष लगते हैं।

यही कारण है कि कुंभ मेला एक स्थान पर 12 वर्ष बाद आता है।

खगोलीय गणित और राशि प्रवेश पर निर्भर कुंभ मेला केवल हरिद्वार में ही कुम्भस्थ होता है। प्रयाग कुंभ को वृषस्थ, उज्जैन और नासिक कुंभ मेलों को सिंहस्थ कहते हैं।

जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होअर्धकुंभता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थीवहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है। 

कुंभ में माने गए महत्वपूर्ण ग्रह

सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है।

जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की।

इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.

हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है।

इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है।

144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.

कुंभ मेलों के प्रकार (Types of Kumbh Mela)

ज्योतिषि शास्त्रों के अनुसार, देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के बराबर होते है।

इस तरह कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं। शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं। देवलोक में होने वाले कुंभ देवताओं के लिए होते है।

कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है।

लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.।

महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.

पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.

अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.

माघ कुंभ मेला: इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है।

कुंभ मेले के आयोजन के स्थान का चुनाव

कुंभ मेले का आयोजन चार नगरों में होता है:- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। चारों नगरों के आने वाले कुंभ की स्थिति विशेष होती है।

एक ओर जहां नासिक और उज्जैन के कुंभ को आमतौर पर सिंहस्थ कहा जाता है तो अन्य नगरों में कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ का आयोजन होता है।

अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है।

कुम्भ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है।

प्रत्येक 12 वर्ष में पूर्णकुंभ का आयोजन होता है। जैसे मान लो कि उज्जैन में कुंभ का अयोजन हो रहा है, तो उसके बाद अब तीन वर्ष बाद हरिद्वार, फिर अगले तीन वर्ष बाद प्रयाग और फिर अगले तीन वर्ष बाद नासिक में कुंभ का आयोजन होगा।

उसके तीन वर्ष बाद फिर से उज्जैन में कुंभ का आयोजन होगा। इसी तरह जब हरिद्वार, नासिक या प्रयागराज में 12 वर्ष बाद कुंभ का आयोजन होगा तो उसे पूर्णकुंभ कहेंगे।

हिंदू पंचांग के अनुसार देवताओं के बारह दिन अर्थात मनुष्यों के बारह वर्ष माने गए हैं इसीलिए पूर्णकुंभ का आयोजन भी प्रत्येक बारह वर्ष में ही होता है।

जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है।

जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।

जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है।

जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है।

यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं।

गायत्री मंत्र (Gayatri mantra) इतिहास अर्थ फायदे और रोचक तथ्य

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जानिए क्यों जरुरी है गायत्री मंत्र का जप आज के आधुनिक युग मे|

क्या आपको भी हर समय तनाव महसूस होता है? क्या आप पर अपार दबाव है? क्या आप अपने जीवन में सुखी और समृद्ध होना चाहते हैं?

हाँ आप यह चाहते हैं। लेकिन सवाल यह है कि ये चीजें आपके साथ हो रही हैं। अगर नहीं तो आप सही जगह पर हैं।

आज हम आपके लिए इन सभी चीजों को प्राप्त करने के सर्वोत्तम तरीके के बारे में जानने जा रहे हैं इस तरह से आपको अपने जीवन के सभी तनाव और दबाव से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी।

क्या आपको लगता है कि यह योगा है, नहीं यह तरीका योगा नहीं है यह योगा से  ज्यादा शक्तिशाली तरीका है, पवित्र तरीका। ये एक ऐसा तरीका है जिसे भारत के सबसे प्राचीन और ज्ञान बढाने वाली किताबों की भी माता कहा जाता है।

ये एक ऐसा तरीका है जिसे अगर हम धर्म से ऊपर उठ कर अपनाए तो इससे न केवल उस आदमी का को इसे कर रहा है बल्कि उन सबका फायदा होगा जो उस आदमी के सम्पर्क में हैं।

क्या आपको उत्सुकता नहीं हो रही की वो तरीका कों सा है। तो हम आपको बता दे की वो तरीका है हज़ारों साल पुराना गायत्री माता का मंत्र जिसे हम सब गायत्री मंत्र भी कहते हैं।

हां मुझे पता है आप चौंक गए होंगे , क्या एक मंत्र, एक मंत्र हमारी कैसे मदद कर सकता है शांति और कामयाबी पाने में।

लेकिन ये कोई साधारण मंत्र नहीं है दोस्तों ये गायत्री मंत्र है और ये वो हथियार है जिसके इस्तेमाल से आप जिंदगी की हर जंग जीत जाएंगे।

तो आइए हमारे साथ और जानिए कि क्या है गायत्री मंत्र के फायदे और क्यों है ये इतनी फायदेमंद और क्यों इसे क्या है इसका रहस्य। आज हम इन सब चीजों के बारे में जानेंगे।

गायत्री मंत्र का मतलब हिंदी में (Gayatri mantra meaning in hindi)

ॐ भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि । धियोयो नः प्रचोदयात् ।।

Gayatri Mantra

= इश्वर

 भूर = प्राण प्रदाण करने वाला।

 भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला।

स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला।

तत  = वह

सवितुर  = सूर्य की भांति उज्जवल।

वरेण्यं = सबसे उत्तम।

भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला।

 देवस्य = प्रभु।

 धीमहि = ध्यान।

 धियो = बुद्धि।

यो = जो।

 नः = हमारी

 प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें।

अर्थात्: हे प्राण प्रदान करने वाले, समस्त दुखों का नाश करने वाले, सुख प्रदान करने वाले सूर्य की भांती उज्वल तेज वाले इश्वर हमें सद्मार्ग पर चलने की बुद्धि प्रदान कर।

Gayatri Mantra by Anuradha Padwal 1008 Times I गायत्री मंत्र I ANURADHA PAUDWAL, KAVITA PAUDWAL I Full Audio Song gayatri mantra words

आखिर कहां से आया गायत्री मंत्र

तो सबसे पहले बात करतें है की गायत्री मंत्र आया कहां से।

तो इसका जवाब है की गायत्री मंत्र  ब्रम्हा जी के पास था जिसे उन्होंने बाद में गायत्री माता को समर्पित कर दिया।

उन्होंने अपने चारों मुखो से गायत्री मंत्र का उच्चारण कर के कर वेदों की रचना की।

क्योंकी चारों वेदों की रचना गायत्री मंत्र के उच्चारण से हुई थी इसलिए इनका नाम वेदमाता भी पड़ गया। ऐसा माना जाता है की गायत्री मंत्र का ज्ञान होने से ही मनुष्य को चारों वेदों का ज्ञान हो जाता है।

ऋग्वेद के अनुसार गायत्री मंत्र पहले सिर्फ देवताओं के पास था और देवता इस पर सिर्फ अपना अधिकार बताते थे।

परन्तु  महर्षि विश्वामित्र ने कठोर तपस्या करके इसे मनुस्यों के लिए उपलब्ध करवाया था।

बस उसी वक्त से ये एक प्रसिद्ध ओर फायदेमंद मंत्र साबित हुआ।

गायत्री मंत्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 62वें सुक्त में मौजूद 10वां श्लोक है

क्या है गायत्री मंत्र जाप करने के फायदे

गायत्री मंत्र क जाप करने के अनेक फायदे हैं। इतने फायदे की कोई सोच भी नहीं सकता।

वो फायदे क्या है ये जानने के लिए आप अवश्य ही बात उत्सुक होंगें। तो वो फायदे कुछ इस तरह से हैं:-

  • गायत्री मंत्र का पहला शब्द है ॐ। ये सब अपने में ही बहुत शक्तिशाली और पवित्र है। हिन्दू मान्यता के अनुसार ये एक ऐसा शब्द है जिसमे सारे विश्व को उर्जा है। ये शब्द भगवान शिव का शब्द है। भगवान शिव जी त्रिदेव ( ब्रह्मा, विष्णु, शिव) में से एक हैं उनकी पूजा में इस्तेमाल किए जाने वाला शब्द है।
  • गायत्री मंत्र क उच्चारण बच्चों के लिए बहुत अच्छा होता है। जैसा कि सब जानते हैं, बच्चों के लिए आज के समय में ध्यान केंद्रित करना जीतना जरूरी हो गया है उतना ही कठिन भी हो गया है। बहुत सी ऐसी चीज़ें आ गई है जिससे बच्चों का ध्यान केंद्रित  नहीं रह पाता और जिस कारण बच्चे पढाई में ध्यान नहीं लगा पाते। लेकिन अगर कोई बच्चा नियमित रूप से गायत्री मंत्र क उच्चारण करता है तो उसका मन केन्द्रित रहता है साथ मे उसका दिमाग भी स्वच्छ व तरोताजा रहता है। इसके अलावा इस मंत्र का उच्चारण करने से याद करने की और समझने की सकती भी बढ़ती है साथ ही दिमाग भी तेज होता है।
  • जवान लोगो पर भी ये मंत्र उतना ही असरदार है। इस मंत्र का जाप करने से गुस्सा काबू में रहता है साथ ही लोगो के दिमाग में जो तनाव रहता है वो भी कम होता है जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ता है।
  • बुजुर्गों के लिए भी गायत्री मंत्र के उतने ही फायदे हैं जितना किसी अन्य के लिए। उमर के उस पराव में गायत्री मंत्र बुजुर्गों को शांति और खुशहाली प्रदान करता है  साथ ही उनका मन भी अच्छा और उनको स्वस्त रखता है।

विज्ञान ने भी माना गायत्री मंत्र के फायदेमंद

इस मंत्र को ना केवल शास्त्र बल्कि विज्ञान ने भी फायदेमंद बताया है। भारत की सबसे विश्वसनीय और अच्छी स्वास्थ्य संबंधी संस्था (A I I M S) इस पर पिछले 22  सालों से सोध कर रहा है।

सन 1998 से ही इस पर शोध में लगा है और अब वह काफी नयी- नयी खोजें दुनिया के सामने रखता जा रहे है।

एक शोध के अनुसार जब (A I I M S) ने बहुत बड़ी लोगों की संख्या को दो हिस्सो में विभाजित करने के बाद जब एक हिस्से के लोगो से गायत्री मंत्र का जाप कराया गया और दूसरे हिस्से को जाप नहीं कराया गया।

इस प्रयोग के आंकड़ों को जब दो हफ़्तों तक दर्ज किया गया तब ये पाया गया कि जो लोग गायत्री मंत्र का जाप कर रहे थे उनकी मानसिकता उन लोगों से अच्छी पायी गई जिन्होंने गायत्री मंत्र का जाप नहीं किया था।

जिन लोगों ने गायत्री मंत्र का जाप किया उनके दिमाग में तरेंगें एकदम सीधी चल रही थी, लेकिन जिन लोगो ने गायत्री मंत्र का जाप नहीं किया था उनके दिमाग में ये तरंगें बहुत बिखरी हुई थीं।

जिस से ये पता चला कि जो लोग गायत्री मंत्र का जाप कर रहे थे उन लोगों की मन को केंद्रित करने की सकती दूसरे लोगों से ज्यादा थी।

A I I M S के डॉक्टरों के अनुसार गायत्री मंत्र का जाप करने से दिमाग के एक हिस्से जिसे प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स कहा जाता है उसका वीकास होता है।

दिमाग के इस हिस्से का काम होता है योजना बनाना, जागरूक  रहना और परेशानियों का समाधान करना।

मतलब ये बात यहां जाहिर हो गई की गायत्री मंत्र का है दिन जाप करने से इंसान की योजना बनाने और दिक्कतों का सामना करने में किस तरह से सहायक है।

इसके अलावा इस मंत्र के जाप करने वालो में खुशी बढ़ाने वाले रसायन बढ़ाता है। ऐसा ही एक रसायन है गाबा जिसके कम होने पर नींद आना बन्द या कम हो जाता है और आदमी डिप्रेसेन का शिकार होने लगता है।

लेकिन ये पाया गया की को लोग गायत्री मंत्र का जाप कर रहे थे उनमें गाबा का निर्माण बढ़ गया।

इसके अलावा अन्य मानसिक रसायन भी तेज़ी से बनने लगे। इतना ही नहीं बल्कि जर्मनी के प्रसिद्ध हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में भी गायत्री मंत्र पर शोध चल रही है।

इसके अलावा अमेरिका के एक जाने मैने वैज्ञानिक होवार्ड स्टेंगेरिल ने पूरे संसार से जब मन्त्रों को इकठठा किया और फिजियोलॉजी विभाग में सबका विशलेषण किया तो उन्होंने गायत्री मंत्र को सबसे शक्तिशाली मंत्र बताया।

उनके अनुसार गायत्री मंत्र से हर सैकंड में 1 लाख 10 ध्वनि तरंगें उत्पन्न हुई। यह सारे शोध और खोजों से ये पता चलता है की गायत्री मंत्र कितना लाभकारी है इस बात पर विज्ञान को भी कोई संदेह नहीं है।

तो जिनका ऐसा मानना है की ये शास्त्र आदि झूठी बातें है उन्हे तो यें बातें ध्यान से पढ़नी चाहिए।

The Glory of Gayatri Mantra | गायत्री मंत्र की महिमा By Zee News DNA

विज्ञान के अनुसार इस तरह से भी लाभकारी है गायत्री मंत्र क उच्चारण।:-

  • इस मंत्र के पहले अक्षर ॐ के है विषय में वैज्ञानिकों को ऐसा मानना है कि मनुष्य के आवाज़  में जितनी भी आवृत्ति है वो बस इस एक शब्द में समाई हुई है। इस एक शब्द का ही अगर हम रोज उच्चारण करें तो हमारी आवाज़ की पेठी जो गले में होती है वो हमेशा अच्छे से काम करेगी और हमें बोलने में कभी भी कोई दिक्कत नहीं होगी।
  • वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है की इस मंत्र का नियमित रूप से उच्चारण करने से हमारे शरीर में खून का बहाव भी अच्छे धंग से होता है। इसके अलावा ये रक्तचाप जैसी बीमारियों के मरीजों कर लिए भी लाभकारी है।
  • वैज्ञानिकों के अनुसार इस मंत्र का उच्चारण करने से दिमाग उस स्थिती में पहुंच जाता है जिस में दिमाग पूरी तरह से शांत हो जाता है और हर तरह की चिंता से मुक्त हो जाता है।
  • इसके अलावा ये मंत्र शरीर के उन सातों चक्रों को जागृत भी करने में सहायता करता  है जिनके ऊपर पूरे शरीर का संतुलन तय होता है और जिनको जागृत कर लेने वाला परम ज्ञानी बन जाता है।

 अब हम ये तो जानते हैं की गायत्री मंत्र बहुत लाभकारी है और इसे करने से सबको बहुत लाभ मिलता है लेकिन कुछ ऐसे तरीके हैं जिन्हें अगर हम अपनाए तो इन मन्त्रों से होने वाले फायदे का सबसे ज्यादा लाभ उठा सकते है।

तो आइए जानते है ऐसी कुछ बातें जिससे की हम इसका ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सकें।:-

  1. सुबह सूरज उगने से पहले , दोपहर में, और शाम को गायत्री मंत्र का जाप करना सबसे ज्यादा सुभ और फायदेमंद माना जाता है। खास तौर से सुबह 4 बजे का समय तो सबसे अच्छा समय होता है।
  2.  गायत्री मंत्र का जाप करने वाले को ये ध्यान रखना चाहिए कि अगर वो सुबह के समय जाप कर रहा है तो उसका चेहरा पूर्व दिशा की तरफ हो ।
  3. अगर कोई आदमी शाम के समय गायत्री मंत्र का जाप कर रहा है तो उसका चेहरा पश्चिम दिशा की तरफ होना चाहिए।
  4. ये मंत्र हमेशा शांत जगह और वातावरण में ही करें।
  5. जिस जगह जाप कर रहें है वो जगह स्वच्छ होना चाहिए।
  6. मंत्र का जप तन की शुद्धि और मन की एकाग्रता के साथ करे।
  7. जाप करते समय सफेद रंग या हल्के रंग के हल्के कपड़े पहने जाए तो ज्यादा अच्छा रहता है।
  8. जाप करने वाले का खाना पीना भी उतना ही आवश्यक है। जाप करने वाले को तेल मसाले के बिना बना हुआ या कम तेल मसाले में बना हुआ शाकाहारी भोजन ही खाना चाहिए।
  9. गायत्री मंत्र का जाप नियमित रूप से करना चाहिए।
  10. गायत्री मंत्र का जाप करते समय मन को शांत और केंद्रित रखना चाहिए।

ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनका ध्यान रखने से हम गायत्री मंत्र से होने वाले फायदों का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सकते हैं।

गायत्री मंत्र के बारे में क्या कहते है जानी मानी हस्तियों

जानी मानी हस्तियों का गायत्री मंत्र के बारे में क्या कहना है ये भी जानने में बहुत लोगों की उत्सुकता होती है। तो आइए जानते है कि इन हस्तियों का क्या मानना है इस बारे में।:-

  1. महात्मा गांधी:- इनके अनुसार ये मंत्र इतना उपयोगी है कि अगर इसे कोई बीमार आदमी भी शांत मन से जपे तो उसे उस रोग से मुक्ति मिल सकती है। इसके साथ साथ यह आत्मा को भी शुद्ध के देती है।
  2. मदन मोहन मालवीय:- इनके अनुसार ये मंत्र ऋषियों का दिया हुआ एक रत्ना है जो बुद्धि को बढ़ाने में बहुत उपयोगी है।
  3. रविन्द्र नाथ टैगोर:- ये कहते हैं कि गायत्री मंत्र इतना सरल है की एक स्वास में ही बोला जा सके लेकिन इसकी सकती इतनी है जो पूरे भारत को जागृत के सकती है।

इसके अलावा बहुत सारे महात्मा और लोगों ने इसके प्रयोग को लाभकारी बताया है। यहां तक कि भारत के लोगों ने है नहीं बल्कि विदेशों में भी लोग इसका इस्तेमाल कर रहे है और इसपर शोध चल रही है

गायत्री मंत्र के बारे में हमारा सार

तो कुल मिलाके हम यह पाते है कि पुराने समय से ही इस मंत्र का उपयोग होता आ रहा है और ये आज भी उतना ही लाभकारी है जितना कि तब था।

विज्ञान और शास्त्र दोनों ही इसकी पुष्टि करतें हैं। तो अगर आप भी अपने जीवन को शान्त, सुखी, स्वस्थ और महान बनना चाहते हैं तो इस मंत्र की ताकत को कम ना समझें  और अपने जीवन का हिस्सा बना लें आप भी इसके प्रभावों को देख कर हैरान हो जाएंगे।

महान कवि बाबा भर्तृहरि जी (Bhartṛhari)

राजा भर्तृहरि एक महान शासक, तपस्वी एवं संस्कृत साहित्य के महान ज्ञाताओं में से एक थे।

वे अपने समय में ही नहीं बल्कि आज भी शब्द विद्या के महान आचार्य कहे जाते हैं।

भर्तृहरि ने वैराग्य धारण करने के बाद संस्कृत के कई ऐसे ग्रंथों की रचना भी की थी जो आज भी पढ़े जाते हैं।

राजा भरथरी का जन्म गढ़ उज्जैन में हुआ था। उनसे जन्म के समय नामकरण के लिए काशी से ब्राह्मण आए थे।

उन्‍होनें ज्‍योतिष गणना करके बताया कि यह बालक बारह वर्ष तक राज करेगा उसके बाद तेरहवें वर्ष में यह योगी बना जायेगा।

बाबा भर्तृहरि जी संस्कृत साहित्य के एक ऐसे लोकप्रिय कवि हैं जिनके नाम से पढ़े लिखे अथवा अनपढ़ सभी भारतीय परिचित हैं।

इनका पूरा नाम गोपीचन्द भर्तृहरि था जो लोक में तथा लोकगाथाओं में गोपीचन्द भरथरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये ऐसे व्यक्ति थे जिन पर सरस्वती और लक्ष्मी की अपार कृपा थी।

कारण यह कि भर्तृहरि विद्वान् लेखक तो थे ही साथ ही वे उज्जैन (मध्यप्रदेश) के राजा भी थे। जनश्रुति के अनुसार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व भर्तृहरि जी मध्यप्रदेश में स्थित उज्जयिनी के राजा थे।

ये परमार वंश में उत्पन्न हुए थे तथा विक्रमादित्य इनके छोटे भाई थे। ये वही विक्रमादित्य माने जाते हैं, जिन्होंने 57 ई० पू० में विक्रम संवत् चलाया था।

विदेशी आक्रान्ताओं को भारत से भगाने के कारण विक्रमादित्य लोक कथाओं में वीर विक्रमाजीत के नाम से लोकविख्यात हुए हैं।

विक्रमादित्य भर्तृहरि के भाई होने के कारण उनके मन्त्री थे। बाद में विद्याविलासी एवं ईश्वरभक्त भर्तृहरि ने विक्रमादित्य को ही राजकाज सौंप दिया था।

धर्म और नीतिशास्त्र के लिए माने जाने वाले महान राजा से योगिराज बनने वाले उज्जैन के महान राजा भर्तृहरि, व्यक्तित्व के धनी, त्याग, वैराग्य और तप के प्रतिनिधि थे।

हिमालय से कन्याकुमारी तक उनकी रचनाएं और जीवनगाथा हर भाषा और हर क्षेत्र में योगियों और वैरागियों द्वारा सदियों से गाई जा रही हैं।

राजा भर्तृहरि ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले गुरु गोरखनाथ जी के संपर्क में आने के बाद वैराग्य धारण कर नाथ संप्रदाय की दीक्षा ले ली थी और तपस्या के लिए वन में चले गए थे।

इसलिए भर्तृहरि का एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी माना जाता है।

महान कवि भर्तृहरि को गोरख वंश के योगियों में गिना जाता है। इनकी कहानियाँ बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान में लोकप्रिय है।

छतीसगढ़ राज्य में रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवद्गीता की तरह ही भरथरी चरित भी काफी प्रचलित है। यह कथा गांवों में बुजुर्गों के मुख से पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित हो रही है।

इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।

प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है।

भर्तृहरि जी का स्थितिकाल

संस्कृत के अन्य विद्वानों की तरह ही भर्तृहरि जी ने भी अपने विषय में कुछ नहीं लिखा है। इसलिए विद्वानों ने आन्तरिक एवं बाह्य प्रमाणों का आश्रय लेकर इनके कालनिर्धारण का प्रयास किया है।

उनके जीवन से सम्बन्धित उपर्युक्तष किवदन्ती को यदि सत्य माना जाये तो इनका काल ईसा से कुछ वर्ष पूर्व माना जा सकता है क्योंकि भर्तृहरि के अनुज विक्रमादित्य ने ही 57 ई० पू० से विक्रम संवत् का प्रारम्भ किया था।

दूसरा मत डॉ. कीथ महोदय का है जो भर्तृहरि की मृत्यु 651 ई० के पास मानते हैं।

कीथ महोदय ने अपने मत की पुष्टि में चीनी यात्री इत्सिंग के उस कथन को प्रस्तुत किया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि मेरे भारत पहुँचने से चालीस वर्ष पूर्व प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि की मृत्यु हो चुकी थी।

चीनी यात्री इत्सिंग महोदय ने भारत की यात्रा 690 ई० के बाद की है, अतः भर्तृहरि का काल छठी शताब्दी का उत्तरार्थ और सप्तम का पूर्वार्ध माना जाता है।

परन्तु इत्सिंग ने जिस भर्तृहरि का उल्लेख किया है; उसे बौद्ध बताया है जबकि गोपीचन्द भर्तृहरि बौद्ध प्रतीत नहीं होते हैं। अतः कीथ महोदय द्वारा निर्धारित काल से विद्वान् सहमत नहीं हैं।

भारतीय विद्वानों का कहना है कि कातन्त्र के व्याख्याकार दुर्गसिंह ने भर्तृहरि द्वारा रचित “वाक्यपदीय” से एक कारिका उद्धृत की है।

अत: भर्तृहरि दुर्गसिंह से बहुत पहले हुए होंगे। दुर्गसिंह का काल सातवीं शताब्दी से बहुत पहले का है। इसी प्रकार वाग्भट्ट के “अष्टांगसंग्रह” में भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीय’ के द्वितीय काण्ड से “संयोगोविप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता” आदि दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं।

वाग्भट्ट चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन थे। अतः भर्तृहरि का काल चौथी शताब्दी से भी पहले का निर्धारित होता है।

वैरागी भर्तृहरि शिव के परम भक्त थे।

यद्यपि डॉ० कीथ ने उन्हें बौद्ध बताया है तथापि उनकी रचनाओं में अनेक ऐसे प्रमाण हैं जहाँ उन्होंने शिव, एवं ब्रह्म का वर्णन किया है।

जैसे “शम्भु स्वयंभू हरयो हरिणेक्षणानाम्” शृंगार शतक के इस प्रथम पद्य में भर्तृहरि जी ने शिव, ब्रह्म और विष्णु का स्मरण किया है। इसी प्रकार वैराग्यशतक में एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि मेरी दृष्टि में ब्रह्म, विष्णु और महेश एक ही हैं। यथा

महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।
तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे॥

स्पष्ट है कि कि वे शैव थे। उनका शैव होना वैराग्यशतक के उनके निम्न पद्यांश से भी सिद्ध होता हैं जहाँ उन्होंने कहा है कि संसार में केवल शिव ही निर्भय के दाता है। यथा

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्।

इनके गुरु का नाम वसुरात था,

जिन्होंने “आगमसंग्रह” नामक व्याकरण की पुस्तक की रचना की थी।

इस तथ्य का संकेत भर्तृहरि जी ने स्वयं अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड में किया है।

इनके आविर्भाव काल के सम्बन्ध में मतभेद है। इनकी जीवनी विविधताओं से भरी है।

राजा भर्तृहरि ने भी अपने काव्य में अपने समय का निर्देश नहीं किया है।

अतएव दन्तकथाओं, लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों के आधार पर इनका जो जीवन-परिचय उपलब्ध है वह इस प्रकार है :

 फारसी ग्रंथ कलितौ दिमन: में पंचतंत्र का एक पद्य ‘शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्’ का भाव उद्धृत है।

पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवत: पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ ५७९ ई० से ५८१ ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था।

इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानत: ५५० ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आये थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये ‘विक्रमादित्य’ उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे।

इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे।

इन्होनें सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं।

इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका ऐक्य मानते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के ये ही प्रवर्तक थे।

चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था परन्तु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य थे।

चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि ६५१ ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण की मृत्यु हुयी थी।

इस प्रकार इनका सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में उल्लेख होने से संकेत मिलता है कि इत्सिंग द्वारा वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे।

सन्यासी बनने की लोककथाओं के विषय में किंवदन्तियाँ     

इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ किंवदन्तियाँ इस प्रकार है

एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिये गये हुए थे।

वहाँ काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया।

जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज ७ सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है।

इसलिये आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन को मार डाला जिससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा।

प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा- तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूँ उसका पालन करो।

मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे दो।

हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे।

रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की।

इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूँ कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।

अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित राजा भर्तृहरि के बैरागी बनने की कथा

प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा हुए। राजा भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित थे और वे उस पर अत्यंत विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे।

उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया।

इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।

यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है।

चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया।

रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी।

यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा।

रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया।

वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया।

ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी।

इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा।

यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।

राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहां से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है।

 जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गए कि रानी पिंगला उसे धोखा दे रही है।

पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। उस गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।

कहते हैं कि असल में यह सारी गुरु गोरखनाथ की लीला थी। बता दें राजा भर्तृहरि ने कई ग्रंथ लिखे जिसमें ‘वैराग्य शतक’ ‘श्रृंगार शतक’ और ‘नीति शतक’ काफी चर्चित हैं।

बता दें ये गुफा उज्जैन में भर्तृहरि या भरथरी की गुफा एक शहर के बाहर सुनसान क्षेत्र में स्थित है जिसके पास ही शिप्रा नदी है।

यहां पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से अधिक छोटी है। कहते हैं कि यह गुफा राजा भर्तृहरि के भतीजे गोपीचन्द की है।

गुफा में राजा भर्तृहरि की एक प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है। प्रतिमा के पास एक और गुफा का रास्ता है।

जिसके बारे में कहा जाता है ऐसा कि ये चारों धामों तक जाने का रास्ता है।

उज्जैन में आज भी राजा भर्तृहरि की गुफा दर्शनीय स्थल के रूप में स्थित है।

राजा भर्तृहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है।

राजा भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की।

यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।

क्या पत्नी के वियोग में हो गए थे सन्यासी

एक कथा के अनुसार भृतहरि की पत्नी पिंगला जब किसी और पुरुष से प्यार करने लगती है, भृतहरि सन्यासी बनकर राज्य छोड़कर दूर चले जाते हैं।

और दूसरी कहानी बिल्कुल इसके विपरीत है जिसमें रानी पिंगला पति से बेहद प्रेम करती है। कहानी में राजा भृतहरि एक बार शिकार खेलने गए थे।

उन्होंने वहाँ देखा कि एक पत्नी ने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपनी जान दे दी। राजा भृतहरि बहुत ही आश्चर्य चकित हो गए उस पत्नी का प्यार देखकर।

वे सोचने लगे कि क्या मेरी पत्नी भी मुझसे इतना प्यार करती है। अपने महल में वापस आकर राजा भृतहरि जब ये घटना अपनी पत्नी पिंगला से कहते हैं, पिंगला कहती है कि वह तो यह समाचार सुनने से ही मर जाएगी।

चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। राजा भृतहरि सोचते हैं कि वे रानी पिंगला की परीक्षा लेकर देखेंगे कि ये बात सच है कि नहीं।

फिर से भृतहरि शिकार खेलने जाते हैं और वहाँ से समाचार भेजते हैं कि राजा भृतहरि की मृत्यु हो गई। ये खबर सुनते ही रानी पिंगला मर जाती है।

राजा भृतहरि बिल्कुल टूट जाता है, अपने आप को दोषी ठहराते हैं और विलाप करते हैं।

पर गोरखनाथ की कृपा से रानी पिंगला जीवित हो जाती है।

और इस घटना के बाद राजा भृतहरि गोरखनाथ के शिष्य बन ने चले जाते हैं।

भर्तृहरिनाथ जी की तपस्या

भर्तृहरि जी ने स्वर्ण आभूषण और राशि परिधानों का त्याग कर दिया और शरीर में भस्म मेकला, श्रृंगी, रुद्राक्ष और कथा धारण कर अपना योग श्रृंगार किया और वह बैरागी, त्यागी, फक्कड़ महात्मा भर्तृहरिनाथ बन गए।

उन्होंने अपने चित्त को स्थिर समाधि में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया।

उन्होंने समझ लिया, कि वास्तविक शांति का पथ वैराग्य है। मैंने आज तक नश्वर सुख और वस्तुओं में अपना जीवन खो दिया है।

मैंने यह कार्य नहीं किया, जिसके लिए संसार में जन्म लिया है।

उन्होंने विचार किया कि जीव हिंसा से निवृत्त रहना, परिधान हरण से दूर रहना, तृष्णा के प्रभाव को रोक लेना, विनम्र रहना, प्राणी मात्र के प्रति दया करना, शास्त्र चिंतन करना और नित्य अच्छे कर्म करना ही वास्तविक कल्याण का पथ है।

उज्जैन स्थित इस गुफा में योगीराज भर्तृहरि (भरथरी) नाथ जी ने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की

राजा भरतरी का शिकार और सिद्ध गोरखनाथ जी से भेंट

एक दिन राजा भरतरी जंगल में शिकार खेलने गये हुऐ थे।

उन्होंनेएक हिरण को तीर से मार दिया। उसी समय श्री गोरख नाथ जी सिद्ध वहां से जा रहे थे। उसने राजा से कहा कि निर्दोष को मारने से महा पाप लगता है।

राज के मद में अंधा न हो प्राणी! संसार छोड़कर भी जाना है। राजा में अहंकार अधिक होता है। वह अपनी क्रिया में बाधा तथा किसी की शिक्षा स्वीकार नहीं करता।

यदि श्री गोरखनाथ जी संत वेश में न होते तो इसी बात पर उन्हें भी वही तीर से मार देता। फिर भी अपनी दुष्टता व्यक्त करते हुए कहा कि यदि इतना जीवो के प्रति दयावान है तो इस मृग को जीवित कर दे, नहीं तो यह संत वेशभूषा उतार कर रख दे।

श्री गोरखनाथ जी ने शर्त रखी कि यदि मैं इसी हिरण को जीवित कर दूं तो आपको मेरा चेला बनना पड़ेगा। राजा भरथरी ने कहा कि ठीक है।

श्री गोरखनाथ जी ने उसी समय कान पकड़कर हिरण को खड़ा कर दिया। राजा से कहा कि उत्तर घोड़े से नीचे। राजा घोड़े से नीचे उतरा और संत के पैर पकड़कर क्षमा याचना की और कहा कि मुझे कुछ समय और राज्य करने दो।

फिर आपका शिष्य अवश्य बन जाऊंगा। अभी मेरी पत्नी रो रो कर मर जाएगी। वह मेरे बिना नहीं रह सकती। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि:-

बाण आले की बाण ना जावे चाहे चारों वेद पढाले त्रिया अपनी ना होती चाहे कितने लाड लडाले।।

परंतु भरथरी तो अपनी दुष्ट पत्नी को देवी मानता था। उसने अपनी पत्नी की बहुत वकालत की। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपकी इच्छा हो और संसार से मन दुखी हो जाए तब आ जाना।

कुछ समय बाद जब राजा भरतरी जी के सामने पिंगला की सच्चाई आई तो उनका मन विचलित हो गया और वह सब कुछ राजपाट छोड़कर गुरु गोरखनाथ  के पास चले गए।

हैंभाई जो गुरु वचन पर डट गए कट गए फंद चौरासी के राजा भरथरी की कथा

अलवर शहर के राजा के किले में पत्थर ढोने की नौकरी करना।।

गोपीचन्द भारतीय लोककथाओं के एक प्रसिद्ध पात्र हैं। वे प्राचीन काल में रंगपुर (बंगाल) के राजा थे और भर्तृहरि की बहन मैनावती के पुत्र कहे जाते हैं।

इन्होंने अपनी माता से उपदेश पाकर अपना राज्य छोड़ा और वैराग्य लिया था ।

एक समय श्री गोरखनाथ जी से गोपीचंद तथा भरतरी जी ने कहा कि गुरुदेव! हमारा मोक्ष इसी जन्म में हो ऐसी कृपा करें।

आप जो भी साधना बताओगे हम करेंगे। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि राजस्थान प्रांत में एक अलवर शहर है। वहां का राजा अपने किले का निर्माण करवा रहा है।

तुम दोनों उस राजा के किले का निर्माण पूरा होने तक उसमें पत्थर ढोने का निशुल्क कार्य करो। अपने खाने के लिए कोई अन्य मजदूरी सुबह शाम करो।

उसी दिन दोनों भक्त आत्मा गुरु जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। उस किले का निर्माण 12 वर्ष तक चला। कोई मेहनताना का रुपया पैसा नहीं लिया अपने भोजन के लिए उसी नगरी के एक कुम्हार के पास उसकी मिट्टी खोदने तथा उसके मटके बनाने योग्य गारा तैयार करने लगे।

उसके बदले में सुबह शाम केवल रोटी खाते कुम्हार की धर्मपत्नी अच्छे संस्कारों की नहीं थी। कुम्हार ने कहा कि दो व्यक्ति बेघर घूम रहे थे।

वे मेरे पास मिट्टी खोदने तथा गारा तैयार करते हैं। केवल रोटी रोटी की मजदूरी लेंगे।

आज तीन व्यक्तियों का भोजन लेकर आना। मटके बनाने तथा पकाने वाला स्थान नगर से कुछ दूरी पर जंगल में था। कुम्हारी दो व्यक्तियों की रोटी लेकर गई और बोली कि इससे अधिक नहीं मिलेगी।

भोजन रख कर घर लौट आई। कुम्हार ने कहा कि बेटा! इन्हीं में काम चलाना पड़ेगा। तीनों ने बांट कर रोटी खाई। कई वर्ष ऐसा चला।

अंत के वर्ष में तो केवल एक व्यक्ति का भोजन भेजने लगी। तीनों उसी में संतोष कर लेते थे। किले का कार्य 12 वर्ष चला। कुम्हार ने अपने घड़े पकाने के लिए आवे में रख दिए।

अंत के वर्ष की बात है। गोपीचंद तथा भरतरी ने कुम्हार से आज्ञा ली कि पिताजी! हमारी साधना पूरी हुई।

अब हम अपने गुरु श्री गोरखनाथ जी के पास वापस जा रहे हैं।

मेरा नाम गोपीचंद है। इनका नाम भरथरी है। उस समय कुम्हार की पत्नी भी उपस्थित थी मटको की और एक हाथ से आशीर्वाद देते हुए दोनों ने एक साथ कहा

गोपीचंद भर्तुहरी का कुम्हार को आशीर्वाद

पिता का हेत माता का कुहेत आधा कंचन आधा रेत।।

यह वचन बोलकर दोनों चले गए। जिस समय मटके निकालने लगे तो कुम्हार तथा कुम्हारी दोनों निकाल रहे थे।

देखा तो प्रत्येक मटका आधा सोने (गोल्ड का) था, आधा कच्चा था। हाथ लगते ही रेत बनने लगा। कुम्हार ने कहा, भाग्यवान वे तो कोई देवता थे। तेरी

तेरी त्रुटि के कारण आधा मटका रेत रह गया। मिट्टी की मिट्टी रह गई। आधा स्वर्ण का हो गया। कुम्हारी को अपनी कृतघ्नता का एहसास हुआ तथा रोने लगी। बोली कि मुझे पता होता तो उनकी बहुत सेवा करती। राजा भरथरी की कथा

कबीर करता था तब क्यों किया अब करके क्यों पछताय। बोवे पेड़ बबूल का आम कहां से होय।

इस प्रकार गोपीचंद और भरतरी जी अपने गुरु जी के वचन का पालन करके सफल हुए।

जो अमरत्व उस साधना से मिलना था, वह भी अटल विश्वास करके साधना करने से ही हुआ। यदि विवेक हीन तथा विश्वासहीन होते तो विचार करते कि यह कैसी भक्ति?

यह कार्य तो सारा संसार कर रहा है। मोक्ष के लिए तो तपस्या करते हैं या अन्य कठिन व्रत करते हैं। परंतु उन्होंने गुरु जी को गुरु मानकर प्रत्येक साधना की।

गुरुजी के कार्य या आदेश में दोष नहीं निकाला तो सफल हुए। गोरखनाथ जी ने उनको जो नाम जाप करने का मंत्र दे रखा था, उसका जाप वे दोनों पत्थर उठाकर निर्माण स्थान तक ले जाते तथा लौटकर पत्थरों को तरास (काट छांट कर के सीधा कर) रहे थे, वहां तक आते समय करते रहते थे।

दोनों युवा थे। कार्य के परिश्रम तथा पूरा पेट न भरने के कारण मन में स्त्री के प्रति विकार नहीं आया और सफलता पाई। गुरु एक वैध (डॉक्टर) होता है।

उसे पता होता है। कि किस रोग को क्या परहेज देना है? क्या खाने को बताना है? यानी पथ्य अपथ्य डॉक्टर ही जानता है। रोगी यदि उसका पालन करता है। तथा औषधि सेवन (भक्त नाम जाप) करता है तो स्वस्थ हो जाता है यानी मोक्ष प्राप्त करता है।

इसी प्रकार गोपीचंद तथा भरतरी जी ने अपने गुरु जी के आदेश का पालन करके जीवन सफल किया। इसी प्रकार सत्य लोक प्राप्ति के लिए हमने भी अपनी साधना करनी है।

काव्य शैली       

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है।

इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर,रसपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

भर्तृहरि की रचनाएँ (शतकत्रयम्)

भर्तृहरि की रचनाओं को पढ़ने वाले पंडितों और शोधकर्ताओं और अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि उनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है।

भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

काशी के प्रसिद्ध आर्यसमाजी विद्वान् युधिष्ठिर मीमांसक ने अपनी ‘संस्कृतव्याकरणसाहित्य का इतिहास’ नामक में भर्तृहरि की निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख किया है

1.महाभाष्यदीपिका-यह महर्षि पाणिनि विरचित अष्टाध्यायी की व्याख्या है।

2.वाक्यपदीय-यह भी संस्कृत व्याकरण का उच्चकोटि का ग्रन्थ है।

3.वाक्यपदीय टीका-यह ग्रन्थ अपने ही अत्यन्त क्लिष्ट ग्रन्थ वाक्यपदीय पर भर्तृहरि द्वारा स्वयं लिखी गयी टीका है। जो वाक्यपदीय के तीन काण्डों में से पहले दो पर ही लिखी गयी है।

4.मीमांसाभाष्य-मीमांसाभाष्य महर्षि गौतमविरचित मीमांसा सूत्रों की व्याख्या है।

5.वेदान्तसूत्रवृत्ति-यह ग्रन्थ महर्षि वेदव्यासविरचित वेदान्तसूत्रों की व्याख्या है

6.शब्दधातुसमीक्षा- यह भी व्याख्या सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें संस्कृतव्याकरण के शब्दों एवं धातुओं की स्वतन्त्र समीक्षा की गयी है। उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त भर्तृहरि की प्रसिद्धि का आधार उनके तीन शतक “शृंगारशतक, नीतिशतक और वैराग्यशतक” हैं।

ये तीनों शतक खण्डकाव्य हैं तथा उनके अनुभव पर आधारित रचनाएँ हैं। उन्होंने युवावस्था में शृंगार का जो अनुभव किया उसे शृंगारशतक में तथा राज्य-संचालन में नीति का जो स्वरूप देखा उसे नीतिशतक में एवं सांसारिक भोगों में अरुचि हो जाने पर वैराग्य का जो अनुभव किया उसे वैराग्यशतक में वर्णित किया है। इनके तीनों शतकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

शृंगारशतक

शृंगारशतक में शताधिक पद्य हैं। यह मुक्तक काव्यों की श्रेणी में आता है। क्योंकि इसका प्रत्येक पद्य स्वयं में स्वतन्त्र अर्थ का द्योतक है।

इसके श्लोकों का अर्थ जानने के लिए पूर्वापर सन्दर्भ की आवश्यकता नहीं होती है।

इसके प्रथम श्लोक में सौन्दर्य के देवता कामदेव को नमस्कार किया।वैः खलु बन्धनं स्त्रियः।

इसी प्रसंग में स्त्रियों के आभूषणों एवं पुरुषों को आकृष्ट करने वाले उनके भ्रूकटाक्ष, मधुरवाक्, लज्जापूर्णहास, धीमी चाल, आदि हाव-भावों का वर्णन किया है।

भर्तृहरि कहते हैं कि लाल कमल सदृश आँखों वाली मृगनयनी तरुणियाँ सभी का मन हर लेती हैं। यथा”कुर्वन्ति कस्य न मनो विवशं तरुण्यो” कवि कहते हैं कि नारी की देह वैरागियों को भी क्षुब्ध कर देती है। जैसे

मुक्तानां सतताधिवासरुचिरं वक्षोजकुंभद्वय

मित्थं तन्विवपुः प्रशान्तमपि ते क्षोभं करोत्येव न॥

भर्तृहरि जी कहते हैं कि इन मृगनयनी स्त्रियों के विना संसार शून्यस्वरूप ही है, वस्तुतः ये ही वास्तविक स्वर्गस्वरूपा हैं।

कवि ने उन्हें ही घर का सौन्दर्य तथा उनके शरीर के भोग को ही परमपुण्य कहा है। साथ ही विरहीजनों की दशा का वर्णन किया है और कहा है कि प्रेमोन्मत्त नारियों को ब्रह्मा भी नहीं रोक पाता है। यथा

उन्मत्तप्रेम संरम्भादारभन्ते यदंगनाः।

तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः॥

इस प्रकार शृंगारशतक में स्त्री सौन्दर्य, यौवन की उपभोग इच्छा एवं काम की दुर्वार्यता का वर्णन किया गया है।

यह भर्तृहरि के यौवन के अनुभवों की रचना प्रतीत होती है। कवि ने काम को विवेक का हन्ता कहकर समाज को इससे बचने का उपदेश भी दिया है।

नीतिशतक

नीतिशतक भर्तृहरि की विख्यात कृति है। शायद विरला ही कोई संस्कृतज्ञ होगा जिसे इस लोकविश्रुत शतक के पद्य कंठस्थ न हों।

यह शतक ही वस्तुतः भर्तृहरि की कीर्ति का स्तम्भ है। इसमें उनके वे अनुभव संकलित प्रतीत होते हैं, जो उन्होंने राज्य संचालन में अनुभूत किये होंगे।

यह भी मुक्तक काव्य है तथा इसमें 122 तक पद्य उपलब्ध होते हैं।

-नीतिशतक में सर्वप्रथम भर्तृहरि ब्रह्म को प्रणाम करते हैं। उसके पश्चात् उन्होंने वह प्रसिद्ध श्लोक लिखा है जिसके आधार पर उनके जीवनचरित की कल्पना की गयी है। यथा

यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता

साप्यन्यमिच्छति जनं जनोऽन्यसक्तः।

अस्मत्कृते परितुष्यति काचिदन्या

धिक् तां तं मदनं इमां मां च॥

इसमें समस्त शृंगारिक भावों का खण्डन किया गया है।

आगे नीति के विषय को दुर्जन- निन्दा, विद्वत्प्रसंशा, सत्संग का महत्त्व, धन का समुचित प्रयोग, तेजस्वी का स्वभाव, सेवाधर्म की कठिनाई, भाग्य की अटलता एवं परोपकार की प्रशंसा आदि पर केन्द्रित किया है।

यहाँ कतिपय विषयों पर उनके विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

दुर्जननिन्दा-भर्तृहरि जी का मानना है कि दुर्जन दुराग्रही होते हैं उन्हें किसी भी प्रकार प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। मनुष्य मगरमच्छ की दाढ़ों से मणि निकाल सकता है, विकट तरंगों से युक्त समुद्र को भी तैर कर पार कर सकता है परन्तु मूर्ख को प्रसन्न करना अतीव कठिन है। वे कहते हैं कि

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्

तु प्रतिनिविष्ट मूर्खजन चित्तमाराधयेत्।

भर्तृहरि जी ने मूर्खता को छिपाने की एक ही विधि उनके लिए सर्वश्रेष्ठ बतायी है और वह है मौन रहना। यथा विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥

कवि जी का मानना है कि विश्व में हर रोग का निदान है, हर समस्या का हल है परन्तु मूर्ख को सुधारने की कोई औषधि नहीं है यथा

सर्वस्यौषधमस्तिशास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्॥

इसलिए भर्तृहरि जी का समाज को उपदेश है कि दुर्जन का संग न करें चाहे वह विद्याविभूषित ही क्यों न हो। यथा

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलड्कृतोऽपि सन्।

मणिना भूषितः सर्पः किमसौ भयंकरः॥

विद्या एवं शिष्टाचार का महत्त्व-भर्तृहरि जी का मानना था कि मनुष्य वही है जो सुशिक्षित, सुशील, गुणी व धार्मिक तथा तपस्वी एवं दानी हो। जिनमें ये गुण नहीं है वे तो पृथ्वी पर भारस्वरूप हैं तथा मनुष्य के आकार में पशुओं की तरह जीवनव्यतीत करते हैं। यथा

येषां विद्या तपो दानं, ज्ञानं शीलं गुणो धर्मः

ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चन्ति॥

तो साहित्य-संगीत आदि कलाओं से विरहित मनुष्य को पशु ही मानते थे। उन्होंने लिखा है कि

साहित्यसंगीतकला विहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः॥

नीतिनिपुण बनने के लिए भर्तृहरि जी ने मधुरवाणी की अहं भूमिका मानी है। वे लिखते हैं कि मनुष्य की शोभा किसी भी आभूषण से उतनी नहीं हो सकती है जितनी वाणी से होती है। यथा

केयूराणि भूषयन्ति पुरुषं हारा चन्द्रोज्ज्वला

..क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥

वाणी के साथ-साथ विद्या को उन्होंने कुरूपों का रूप माना है। यथा

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं

विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरुणां गुरुः।

विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं

विद्या राजसु पूज्यते तु धनं विद्याविहीनः पशुः॥

सत्संगति का महत्त्व-भर्तृहरि जीवन में सत्संग को अतीव महत्त्व देते थे। उनका मानना है कि सत्संग से बुद्धि निर्मल होती है, वाणी में सत्य का संचार होता है, मान सम्मान बढ़ता है, अवगुण दूर होते हैं तथा चित्त प्रसन्न और यश………की है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि सत्संगति मनुष्य के लिए सब कुछ प्राप्त कराती है। इसीलिए नीतिशतक में लिखा है कि-“सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्।

धन का महत्त्व-मनुष्य चाहे कितना भी विद्वान्, गुणवान् और सुशील क्यों न हो यदि उसके पास धन नहीं है,तो समाज में उसे उचित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है। इसीलिए उन्होंने कहा है कि

यस्यास्ति वित्तं नरः कुलीनः, पण्डितः श्रुतवान्गुणज्ञः।

एव वक्ता दर्शनीयः सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति॥

धन को उन्होंने यद्यपि समस्त गुणों का आश्रय तो कहा है तथापि वे जानते थे कि धनमद में मनुष्य अनेकानेक बुराइयों को अपना लेता है। इसलिए उन्होंने धन के समुचित प्रयोग का वर्णन भी किया है। वे कहते हैं कि

दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

यो ददाति भुक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति॥

नीतिशतक में इन विषयों के अतिरिक्त नीति एवं लोकव्यवहार के अनेक विषयों का वर्णन किया है। भर्तृहरि जी ने भाग्य को अनिवार्य और अपरिहार्य माना है। सेवाधर्म को एक दुष्कर कार्य कहा है। यथा

सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।

क्रोध को वे मनुष्य का शत्रु मानते हैं, जो अपने को भी पराया बना देता है। इसलिए भर्तृहरि चाहते थे कि मनुष्य धैर्य, क्षमा, वाक्चातुर्य, शूरवीरता, यश:कामना, अध्ययन में रुचि आदि उन गुणों को अपनायें जो महापुरुषों के स्वाभाविक गुण हैं।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाजोपयोगी मनुष्य बनने हेतु नीतिशतक का अध्ययन प्रत्येक मनुष्य के लिए परमोपयोगी है।

वैराग्यशतक

शतक परम्परा में भर्तृहरि की यह तृतीया रचना प्रतीत होती है। युवावस्था के भोगपरक जीवन और शासक के नीतिनैपुण्य के जो अनुभव थे, उन सबका सार वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है।

वैराग्यशतक में भी विभिन्न छन्दों में संकलित शताधिक पद्य हैं।

वैराग्यशतक में तृष्णा की दुष्वारता, प्रमाद की हानियों, भोगों की दुःखान्तता, वृद्धावस्था में मृत्युभय, विषयों के त्याग में सुख, राजा से त्यागी की श्रेष्ठता, राजा और विद्वान् की तुलना, बुद्धिमान् के कर्त्तव्य करालकाल की महिमा, सुखी-जीवन की परिभाषा, मन की चंचलता और संसार की अनित्यता आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है।

भोगों की अनन्तता और तृष्णा की अनन्तता का वर्णन मनोरंजक ढंग से वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है। यथा

भोगा भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो तप्तं वयमेव तप्ताः।

कालो यातो वयमेव यातास्तृष्णा जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥

संसार के समस्त सुखों को नि:सार पाकर भर्तृहरि जी कहते हैं कि केवल शिवभक्ति ही परम सुखदायी है। यथासर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्॥” इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह विषय भोगों के पीछे भागते हुए मतवाले मन को अपने वश में करने का प्रयत्न करे। यथा

क्षीवस्यान्तःकरणकरिण: संयमालानलीलाम्॥

चित्त को संसार से समेट कर ब्रह्म में आसक्त करें क्योंकि यही संसाररूपी सागर को पार करने का एकमात्र साधन है। यथा

ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भव भवाम्भोधिपारं तरितुम्॥

संक्षेप में कहा जा सकता है कि वैराग्यशतक के अनुसार प्रभुशरण ही जीवन के वास्तविक सुख का आधार है।

अपने जीवन काल में उन्होंने शृंगार, नीति शास्त्रों की तो रचना की ही थी, अब उन्होंने वैराग्य शतक की रचना भी कर डाली और विषय वासनाओं की कटु आलोचना की।

इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का परम प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय भी उनके महान पाण्डित्य का परिचायक है। वह शब्द विद्या के मौलिक आचार्य थे।

शब्द शास्त्र ब्रह्मा का साक्षात् रुप है। अतएव वे शिवभक्त होने के साथ-साथ ब्रह्म रूपी शब्दभक्त भी थे। शब्द ब्रह्म का ही अर्थ रुप नानात्मक जगत-विवर्त है।

योगीजन शब्द ब्रह्म से तादात्म्य हो जाने को ही मोक्ष मानते हैं। भर्तृहरि शब्द ब्रह्म के योगी थे। उनका वैराग्य दर्शन परमात्मा के साक्षात्कार का पर्याय है।

सह कारण है कि आज भी शब्दो की दुनिया के रचनाकार सदा के अमर हो जाते है। भर्तृहरि एक महान् संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक ) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।

प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था, इसलिए इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी है।

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है।

इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है।

इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है।

भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है।

भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

वाक्यपदीय

संस्कृत व्याकरण का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसे त्रिकाण्डी भी कहते हैं। वाक्यपदीय, व्याकरण शृंखला का मुख्य दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता नीतिशतक के रचयिता महावैयाकरण तथा योगिराज भर्तृहरि हैं।

इनके गुरु का नाम वसुरात था। भर्तृहरि को किसी ने तीसरी, किसी ने चौथी तथा छठी या सातवी सदी में रखा है। वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने भाषा (वाच्) की प्रकृति और उसका वाह्य जगत से सम्बन्ध पर अपने विचार व्यक्त किये हैं।

यह ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है जिन्हें “कांड” कहते हैं। यह समस्त ग्रंथ पद्य में लिखा गया है। प्रथम “ब्रह्मकांड” है जिसमें 157 कारिकाएँ हैं, दूसरा “वाक्यकांड है जिसमें 493 कारिकाएँ हैं और तीसरा “पदकांड” के नाम से प्रसिद्ध है।

इसका प्रथम काण्ड ब्रह्मकाण्ड है जिसमें शब्द की प्रकृति की व्याख्या की गयी है। इसमें शब्द को ब्रह्म माना गया है और ब्रह्म की प्राप्ति के लिये शब्द को प्रमुख साधन बताया गया है।

दूसरे काण्ड में वाक्य के विषय में भर्तृहरि ने विभिन्न मत रखे हैं।

तीसरे काण्ड में अन्य दार्शनिक रीतियों के विषयों, जैसे – जाति, द्रव्य, काल आदि की चर्चा की गयी है।

इसमें भर्तृहरि यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि विविध मत, एक ही वस्तु के अलग-अलग आयामों को प्रकाशित करते हैं।

इस प्रकार वे सभी दर्शनों को अपने व्याकरण आधारित दर्शन द्वारा एकीकरण करने का प्रयास कर रहे

इंद्र भी हो गए थे भयभीत

राजा भृतहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भृतहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे।

यह सोचकर इंद्र ने भृतहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भृतहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे।

इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भृतहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भृतहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है।

यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भृतहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।

यहां है गुफा

उज्जैन में भृतहरि की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भृतहरि ने तपस्या की थी। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है।

भरथरी की गुफा या भर्तृहरि की गुफाएं उज्जैन शहर का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। भर्तृहरि की गुफाएं गोरखनाथ मठ के द्वारा प्रबंधित की जाती है।

यहां पर दो गुफाएं है। इनमें से एक गुफा भूमिगत है। भूमिगत गुफा में जाने के लिए बहुत सकरा रास्ता है और नीचे जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है।

आप गुफा के नीचे जाएंगे। तो नीचे एक बड़ा सा हॉल है और भगवान शिव का शिवलिंग विराजमान है।

एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भृतहरि का भतीजा था।

गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है।

गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।

अंतिम समय राजस्थान में

राजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर (राजस्थान) के जंगल में है।

उसके सातवें दरवाजे पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति माना जाता है।

भर्तृहरि महान शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए।

विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है।