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महान कवि बाबा भर्तृहरि जी (Bhartṛhari)

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राजा भर्तृहरि एक महान शासक, तपस्वी एवं संस्कृत साहित्य के महान ज्ञाताओं में से एक थे।

वे अपने समय में ही नहीं बल्कि आज भी शब्द विद्या के महान आचार्य कहे जाते हैं।

भर्तृहरि ने वैराग्य धारण करने के बाद संस्कृत के कई ऐसे ग्रंथों की रचना भी की थी जो आज भी पढ़े जाते हैं।

राजा भरथरी का जन्म गढ़ उज्जैन में हुआ था। उनसे जन्म के समय नामकरण के लिए काशी से ब्राह्मण आए थे।

उन्‍होनें ज्‍योतिष गणना करके बताया कि यह बालक बारह वर्ष तक राज करेगा उसके बाद तेरहवें वर्ष में यह योगी बना जायेगा।

बाबा भर्तृहरि जी संस्कृत साहित्य के एक ऐसे लोकप्रिय कवि हैं जिनके नाम से पढ़े लिखे अथवा अनपढ़ सभी भारतीय परिचित हैं।

इनका पूरा नाम गोपीचन्द भर्तृहरि था जो लोक में तथा लोकगाथाओं में गोपीचन्द भरथरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये ऐसे व्यक्ति थे जिन पर सरस्वती और लक्ष्मी की अपार कृपा थी।

कारण यह कि भर्तृहरि विद्वान् लेखक तो थे ही साथ ही वे उज्जैन (मध्यप्रदेश) के राजा भी थे। जनश्रुति के अनुसार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व भर्तृहरि जी मध्यप्रदेश में स्थित उज्जयिनी के राजा थे।

ये परमार वंश में उत्पन्न हुए थे तथा विक्रमादित्य इनके छोटे भाई थे। ये वही विक्रमादित्य माने जाते हैं, जिन्होंने 57 ई० पू० में विक्रम संवत् चलाया था।

विदेशी आक्रान्ताओं को भारत से भगाने के कारण विक्रमादित्य लोक कथाओं में वीर विक्रमाजीत के नाम से लोकविख्यात हुए हैं।

विक्रमादित्य भर्तृहरि के भाई होने के कारण उनके मन्त्री थे। बाद में विद्याविलासी एवं ईश्वरभक्त भर्तृहरि ने विक्रमादित्य को ही राजकाज सौंप दिया था।

धर्म और नीतिशास्त्र के लिए माने जाने वाले महान राजा से योगिराज बनने वाले उज्जैन के महान राजा भर्तृहरि, व्यक्तित्व के धनी, त्याग, वैराग्य और तप के प्रतिनिधि थे।

हिमालय से कन्याकुमारी तक उनकी रचनाएं और जीवनगाथा हर भाषा और हर क्षेत्र में योगियों और वैरागियों द्वारा सदियों से गाई जा रही हैं।

राजा भर्तृहरि ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले गुरु गोरखनाथ जी के संपर्क में आने के बाद वैराग्य धारण कर नाथ संप्रदाय की दीक्षा ले ली थी और तपस्या के लिए वन में चले गए थे।

इसलिए भर्तृहरि का एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी माना जाता है।

महान कवि भर्तृहरि को गोरख वंश के योगियों में गिना जाता है। इनकी कहानियाँ बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान में लोकप्रिय है।

छतीसगढ़ राज्य में रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवद्गीता की तरह ही भरथरी चरित भी काफी प्रचलित है। यह कथा गांवों में बुजुर्गों के मुख से पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित हो रही है।

इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।

प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है।

भर्तृहरि जी का स्थितिकाल

संस्कृत के अन्य विद्वानों की तरह ही भर्तृहरि जी ने भी अपने विषय में कुछ नहीं लिखा है। इसलिए विद्वानों ने आन्तरिक एवं बाह्य प्रमाणों का आश्रय लेकर इनके कालनिर्धारण का प्रयास किया है।

उनके जीवन से सम्बन्धित उपर्युक्तष किवदन्ती को यदि सत्य माना जाये तो इनका काल ईसा से कुछ वर्ष पूर्व माना जा सकता है क्योंकि भर्तृहरि के अनुज विक्रमादित्य ने ही 57 ई० पू० से विक्रम संवत् का प्रारम्भ किया था।

दूसरा मत डॉ. कीथ महोदय का है जो भर्तृहरि की मृत्यु 651 ई० के पास मानते हैं।

कीथ महोदय ने अपने मत की पुष्टि में चीनी यात्री इत्सिंग के उस कथन को प्रस्तुत किया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि मेरे भारत पहुँचने से चालीस वर्ष पूर्व प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि की मृत्यु हो चुकी थी।

चीनी यात्री इत्सिंग महोदय ने भारत की यात्रा 690 ई० के बाद की है, अतः भर्तृहरि का काल छठी शताब्दी का उत्तरार्थ और सप्तम का पूर्वार्ध माना जाता है।

परन्तु इत्सिंग ने जिस भर्तृहरि का उल्लेख किया है; उसे बौद्ध बताया है जबकि गोपीचन्द भर्तृहरि बौद्ध प्रतीत नहीं होते हैं। अतः कीथ महोदय द्वारा निर्धारित काल से विद्वान् सहमत नहीं हैं।

भारतीय विद्वानों का कहना है कि कातन्त्र के व्याख्याकार दुर्गसिंह ने भर्तृहरि द्वारा रचित “वाक्यपदीय” से एक कारिका उद्धृत की है।

अत: भर्तृहरि दुर्गसिंह से बहुत पहले हुए होंगे। दुर्गसिंह का काल सातवीं शताब्दी से बहुत पहले का है। इसी प्रकार वाग्भट्ट के “अष्टांगसंग्रह” में भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीय’ के द्वितीय काण्ड से “संयोगोविप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता” आदि दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं।

वाग्भट्ट चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन थे। अतः भर्तृहरि का काल चौथी शताब्दी से भी पहले का निर्धारित होता है।

वैरागी भर्तृहरि शिव के परम भक्त थे।

यद्यपि डॉ० कीथ ने उन्हें बौद्ध बताया है तथापि उनकी रचनाओं में अनेक ऐसे प्रमाण हैं जहाँ उन्होंने शिव, एवं ब्रह्म का वर्णन किया है।

जैसे “शम्भु स्वयंभू हरयो हरिणेक्षणानाम्” शृंगार शतक के इस प्रथम पद्य में भर्तृहरि जी ने शिव, ब्रह्म और विष्णु का स्मरण किया है। इसी प्रकार वैराग्यशतक में एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि मेरी दृष्टि में ब्रह्म, विष्णु और महेश एक ही हैं। यथा

महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।
तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे॥

स्पष्ट है कि कि वे शैव थे। उनका शैव होना वैराग्यशतक के उनके निम्न पद्यांश से भी सिद्ध होता हैं जहाँ उन्होंने कहा है कि संसार में केवल शिव ही निर्भय के दाता है। यथा

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्।

इनके गुरु का नाम वसुरात था,

जिन्होंने “आगमसंग्रह” नामक व्याकरण की पुस्तक की रचना की थी।

इस तथ्य का संकेत भर्तृहरि जी ने स्वयं अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड में किया है।

इनके आविर्भाव काल के सम्बन्ध में मतभेद है। इनकी जीवनी विविधताओं से भरी है।

राजा भर्तृहरि ने भी अपने काव्य में अपने समय का निर्देश नहीं किया है।

अतएव दन्तकथाओं, लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों के आधार पर इनका जो जीवन-परिचय उपलब्ध है वह इस प्रकार है :

 फारसी ग्रंथ कलितौ दिमन: में पंचतंत्र का एक पद्य ‘शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्’ का भाव उद्धृत है।

पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवत: पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ ५७९ ई० से ५८१ ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था।

इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानत: ५५० ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आये थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये ‘विक्रमादित्य’ उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे।

इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे।

इन्होनें सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं।

इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका ऐक्य मानते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के ये ही प्रवर्तक थे।

चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था परन्तु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य थे।

चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि ६५१ ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण की मृत्यु हुयी थी।

इस प्रकार इनका सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में उल्लेख होने से संकेत मिलता है कि इत्सिंग द्वारा वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे।

सन्यासी बनने की लोककथाओं के विषय में किंवदन्तियाँ     

इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ किंवदन्तियाँ इस प्रकार है

एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिये गये हुए थे।

वहाँ काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया।

जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज ७ सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है।

इसलिये आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन को मार डाला जिससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा।

प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा- तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूँ उसका पालन करो।

मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे दो।

हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे।

रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की।

इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूँ कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।

अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित राजा भर्तृहरि के बैरागी बनने की कथा

प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा हुए। राजा भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर मोहित थे और वे उस पर अत्यंत विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे।

उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया।

इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।

यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है।

चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया।

रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी।

यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा।

रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया।

वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया।

ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी।

इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा।

यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।

राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहां से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है।

 जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गए कि रानी पिंगला उसे धोखा दे रही है।

पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। उस गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।

कहते हैं कि असल में यह सारी गुरु गोरखनाथ की लीला थी। बता दें राजा भर्तृहरि ने कई ग्रंथ लिखे जिसमें ‘वैराग्य शतक’ ‘श्रृंगार शतक’ और ‘नीति शतक’ काफी चर्चित हैं।

बता दें ये गुफा उज्जैन में भर्तृहरि या भरथरी की गुफा एक शहर के बाहर सुनसान क्षेत्र में स्थित है जिसके पास ही शिप्रा नदी है।

यहां पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से अधिक छोटी है। कहते हैं कि यह गुफा राजा भर्तृहरि के भतीजे गोपीचन्द की है।

गुफा में राजा भर्तृहरि की एक प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है। प्रतिमा के पास एक और गुफा का रास्ता है।

जिसके बारे में कहा जाता है ऐसा कि ये चारों धामों तक जाने का रास्ता है।

उज्जैन में आज भी राजा भर्तृहरि की गुफा दर्शनीय स्थल के रूप में स्थित है।

राजा भर्तृहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है।

राजा भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की।

यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।

क्या पत्नी के वियोग में हो गए थे सन्यासी

एक कथा के अनुसार भृतहरि की पत्नी पिंगला जब किसी और पुरुष से प्यार करने लगती है, भृतहरि सन्यासी बनकर राज्य छोड़कर दूर चले जाते हैं।

और दूसरी कहानी बिल्कुल इसके विपरीत है जिसमें रानी पिंगला पति से बेहद प्रेम करती है। कहानी में राजा भृतहरि एक बार शिकार खेलने गए थे।

उन्होंने वहाँ देखा कि एक पत्नी ने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपनी जान दे दी। राजा भृतहरि बहुत ही आश्चर्य चकित हो गए उस पत्नी का प्यार देखकर।

वे सोचने लगे कि क्या मेरी पत्नी भी मुझसे इतना प्यार करती है। अपने महल में वापस आकर राजा भृतहरि जब ये घटना अपनी पत्नी पिंगला से कहते हैं, पिंगला कहती है कि वह तो यह समाचार सुनने से ही मर जाएगी।

चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। राजा भृतहरि सोचते हैं कि वे रानी पिंगला की परीक्षा लेकर देखेंगे कि ये बात सच है कि नहीं।

फिर से भृतहरि शिकार खेलने जाते हैं और वहाँ से समाचार भेजते हैं कि राजा भृतहरि की मृत्यु हो गई। ये खबर सुनते ही रानी पिंगला मर जाती है।

राजा भृतहरि बिल्कुल टूट जाता है, अपने आप को दोषी ठहराते हैं और विलाप करते हैं।

पर गोरखनाथ की कृपा से रानी पिंगला जीवित हो जाती है।

और इस घटना के बाद राजा भृतहरि गोरखनाथ के शिष्य बन ने चले जाते हैं।

भर्तृहरिनाथ जी की तपस्या

भर्तृहरि जी ने स्वर्ण आभूषण और राशि परिधानों का त्याग कर दिया और शरीर में भस्म मेकला, श्रृंगी, रुद्राक्ष और कथा धारण कर अपना योग श्रृंगार किया और वह बैरागी, त्यागी, फक्कड़ महात्मा भर्तृहरिनाथ बन गए।

उन्होंने अपने चित्त को स्थिर समाधि में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया।

उन्होंने समझ लिया, कि वास्तविक शांति का पथ वैराग्य है। मैंने आज तक नश्वर सुख और वस्तुओं में अपना जीवन खो दिया है।

मैंने यह कार्य नहीं किया, जिसके लिए संसार में जन्म लिया है।

उन्होंने विचार किया कि जीव हिंसा से निवृत्त रहना, परिधान हरण से दूर रहना, तृष्णा के प्रभाव को रोक लेना, विनम्र रहना, प्राणी मात्र के प्रति दया करना, शास्त्र चिंतन करना और नित्य अच्छे कर्म करना ही वास्तविक कल्याण का पथ है।

उज्जैन स्थित इस गुफा में योगीराज भर्तृहरि (भरथरी) नाथ जी ने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की

राजा भरतरी का शिकार और सिद्ध गोरखनाथ जी से भेंट

एक दिन राजा भरतरी जंगल में शिकार खेलने गये हुऐ थे।

उन्होंनेएक हिरण को तीर से मार दिया। उसी समय श्री गोरख नाथ जी सिद्ध वहां से जा रहे थे। उसने राजा से कहा कि निर्दोष को मारने से महा पाप लगता है।

राज के मद में अंधा न हो प्राणी! संसार छोड़कर भी जाना है। राजा में अहंकार अधिक होता है। वह अपनी क्रिया में बाधा तथा किसी की शिक्षा स्वीकार नहीं करता।

यदि श्री गोरखनाथ जी संत वेश में न होते तो इसी बात पर उन्हें भी वही तीर से मार देता। फिर भी अपनी दुष्टता व्यक्त करते हुए कहा कि यदि इतना जीवो के प्रति दयावान है तो इस मृग को जीवित कर दे, नहीं तो यह संत वेशभूषा उतार कर रख दे।

श्री गोरखनाथ जी ने शर्त रखी कि यदि मैं इसी हिरण को जीवित कर दूं तो आपको मेरा चेला बनना पड़ेगा। राजा भरथरी ने कहा कि ठीक है।

श्री गोरखनाथ जी ने उसी समय कान पकड़कर हिरण को खड़ा कर दिया। राजा से कहा कि उत्तर घोड़े से नीचे। राजा घोड़े से नीचे उतरा और संत के पैर पकड़कर क्षमा याचना की और कहा कि मुझे कुछ समय और राज्य करने दो।

फिर आपका शिष्य अवश्य बन जाऊंगा। अभी मेरी पत्नी रो रो कर मर जाएगी। वह मेरे बिना नहीं रह सकती। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि:-

बाण आले की बाण ना जावे चाहे चारों वेद पढाले त्रिया अपनी ना होती चाहे कितने लाड लडाले।।

परंतु भरथरी तो अपनी दुष्ट पत्नी को देवी मानता था। उसने अपनी पत्नी की बहुत वकालत की। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपकी इच्छा हो और संसार से मन दुखी हो जाए तब आ जाना।

कुछ समय बाद जब राजा भरतरी जी के सामने पिंगला की सच्चाई आई तो उनका मन विचलित हो गया और वह सब कुछ राजपाट छोड़कर गुरु गोरखनाथ  के पास चले गए।

हैंभाई जो गुरु वचन पर डट गए कट गए फंद चौरासी के राजा भरथरी की कथा

अलवर शहर के राजा के किले में पत्थर ढोने की नौकरी करना।।

गोपीचन्द भारतीय लोककथाओं के एक प्रसिद्ध पात्र हैं। वे प्राचीन काल में रंगपुर (बंगाल) के राजा थे और भर्तृहरि की बहन मैनावती के पुत्र कहे जाते हैं।

इन्होंने अपनी माता से उपदेश पाकर अपना राज्य छोड़ा और वैराग्य लिया था ।

एक समय श्री गोरखनाथ जी से गोपीचंद तथा भरतरी जी ने कहा कि गुरुदेव! हमारा मोक्ष इसी जन्म में हो ऐसी कृपा करें।

आप जो भी साधना बताओगे हम करेंगे। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि राजस्थान प्रांत में एक अलवर शहर है। वहां का राजा अपने किले का निर्माण करवा रहा है।

तुम दोनों उस राजा के किले का निर्माण पूरा होने तक उसमें पत्थर ढोने का निशुल्क कार्य करो। अपने खाने के लिए कोई अन्य मजदूरी सुबह शाम करो।

उसी दिन दोनों भक्त आत्मा गुरु जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। उस किले का निर्माण 12 वर्ष तक चला। कोई मेहनताना का रुपया पैसा नहीं लिया अपने भोजन के लिए उसी नगरी के एक कुम्हार के पास उसकी मिट्टी खोदने तथा उसके मटके बनाने योग्य गारा तैयार करने लगे।

उसके बदले में सुबह शाम केवल रोटी खाते कुम्हार की धर्मपत्नी अच्छे संस्कारों की नहीं थी। कुम्हार ने कहा कि दो व्यक्ति बेघर घूम रहे थे।

वे मेरे पास मिट्टी खोदने तथा गारा तैयार करते हैं। केवल रोटी रोटी की मजदूरी लेंगे।

आज तीन व्यक्तियों का भोजन लेकर आना। मटके बनाने तथा पकाने वाला स्थान नगर से कुछ दूरी पर जंगल में था। कुम्हारी दो व्यक्तियों की रोटी लेकर गई और बोली कि इससे अधिक नहीं मिलेगी।

भोजन रख कर घर लौट आई। कुम्हार ने कहा कि बेटा! इन्हीं में काम चलाना पड़ेगा। तीनों ने बांट कर रोटी खाई। कई वर्ष ऐसा चला।

अंत के वर्ष में तो केवल एक व्यक्ति का भोजन भेजने लगी। तीनों उसी में संतोष कर लेते थे। किले का कार्य 12 वर्ष चला। कुम्हार ने अपने घड़े पकाने के लिए आवे में रख दिए।

अंत के वर्ष की बात है। गोपीचंद तथा भरतरी ने कुम्हार से आज्ञा ली कि पिताजी! हमारी साधना पूरी हुई।

अब हम अपने गुरु श्री गोरखनाथ जी के पास वापस जा रहे हैं।

मेरा नाम गोपीचंद है। इनका नाम भरथरी है। उस समय कुम्हार की पत्नी भी उपस्थित थी मटको की और एक हाथ से आशीर्वाद देते हुए दोनों ने एक साथ कहा

गोपीचंद भर्तुहरी का कुम्हार को आशीर्वाद

पिता का हेत माता का कुहेत आधा कंचन आधा रेत।।

यह वचन बोलकर दोनों चले गए। जिस समय मटके निकालने लगे तो कुम्हार तथा कुम्हारी दोनों निकाल रहे थे।

देखा तो प्रत्येक मटका आधा सोने (गोल्ड का) था, आधा कच्चा था। हाथ लगते ही रेत बनने लगा। कुम्हार ने कहा, भाग्यवान वे तो कोई देवता थे। तेरी

तेरी त्रुटि के कारण आधा मटका रेत रह गया। मिट्टी की मिट्टी रह गई। आधा स्वर्ण का हो गया। कुम्हारी को अपनी कृतघ्नता का एहसास हुआ तथा रोने लगी। बोली कि मुझे पता होता तो उनकी बहुत सेवा करती। राजा भरथरी की कथा

कबीर करता था तब क्यों किया अब करके क्यों पछताय। बोवे पेड़ बबूल का आम कहां से होय।

इस प्रकार गोपीचंद और भरतरी जी अपने गुरु जी के वचन का पालन करके सफल हुए।

जो अमरत्व उस साधना से मिलना था, वह भी अटल विश्वास करके साधना करने से ही हुआ। यदि विवेक हीन तथा विश्वासहीन होते तो विचार करते कि यह कैसी भक्ति?

यह कार्य तो सारा संसार कर रहा है। मोक्ष के लिए तो तपस्या करते हैं या अन्य कठिन व्रत करते हैं। परंतु उन्होंने गुरु जी को गुरु मानकर प्रत्येक साधना की।

गुरुजी के कार्य या आदेश में दोष नहीं निकाला तो सफल हुए। गोरखनाथ जी ने उनको जो नाम जाप करने का मंत्र दे रखा था, उसका जाप वे दोनों पत्थर उठाकर निर्माण स्थान तक ले जाते तथा लौटकर पत्थरों को तरास (काट छांट कर के सीधा कर) रहे थे, वहां तक आते समय करते रहते थे।

दोनों युवा थे। कार्य के परिश्रम तथा पूरा पेट न भरने के कारण मन में स्त्री के प्रति विकार नहीं आया और सफलता पाई। गुरु एक वैध (डॉक्टर) होता है।

उसे पता होता है। कि किस रोग को क्या परहेज देना है? क्या खाने को बताना है? यानी पथ्य अपथ्य डॉक्टर ही जानता है। रोगी यदि उसका पालन करता है। तथा औषधि सेवन (भक्त नाम जाप) करता है तो स्वस्थ हो जाता है यानी मोक्ष प्राप्त करता है।

इसी प्रकार गोपीचंद तथा भरतरी जी ने अपने गुरु जी के आदेश का पालन करके जीवन सफल किया। इसी प्रकार सत्य लोक प्राप्ति के लिए हमने भी अपनी साधना करनी है।

काव्य शैली       

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है।

इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर,रसपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

भर्तृहरि की रचनाएँ (शतकत्रयम्)

भर्तृहरि की रचनाओं को पढ़ने वाले पंडितों और शोधकर्ताओं और अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि उनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है।

भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

काशी के प्रसिद्ध आर्यसमाजी विद्वान् युधिष्ठिर मीमांसक ने अपनी ‘संस्कृतव्याकरणसाहित्य का इतिहास’ नामक में भर्तृहरि की निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख किया है

1.महाभाष्यदीपिका-यह महर्षि पाणिनि विरचित अष्टाध्यायी की व्याख्या है।

2.वाक्यपदीय-यह भी संस्कृत व्याकरण का उच्चकोटि का ग्रन्थ है।

3.वाक्यपदीय टीका-यह ग्रन्थ अपने ही अत्यन्त क्लिष्ट ग्रन्थ वाक्यपदीय पर भर्तृहरि द्वारा स्वयं लिखी गयी टीका है। जो वाक्यपदीय के तीन काण्डों में से पहले दो पर ही लिखी गयी है।

4.मीमांसाभाष्य-मीमांसाभाष्य महर्षि गौतमविरचित मीमांसा सूत्रों की व्याख्या है।

5.वेदान्तसूत्रवृत्ति-यह ग्रन्थ महर्षि वेदव्यासविरचित वेदान्तसूत्रों की व्याख्या है

6.शब्दधातुसमीक्षा- यह भी व्याख्या सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें संस्कृतव्याकरण के शब्दों एवं धातुओं की स्वतन्त्र समीक्षा की गयी है। उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त भर्तृहरि की प्रसिद्धि का आधार उनके तीन शतक “शृंगारशतक, नीतिशतक और वैराग्यशतक” हैं।

ये तीनों शतक खण्डकाव्य हैं तथा उनके अनुभव पर आधारित रचनाएँ हैं। उन्होंने युवावस्था में शृंगार का जो अनुभव किया उसे शृंगारशतक में तथा राज्य-संचालन में नीति का जो स्वरूप देखा उसे नीतिशतक में एवं सांसारिक भोगों में अरुचि हो जाने पर वैराग्य का जो अनुभव किया उसे वैराग्यशतक में वर्णित किया है। इनके तीनों शतकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

शृंगारशतक

शृंगारशतक में शताधिक पद्य हैं। यह मुक्तक काव्यों की श्रेणी में आता है। क्योंकि इसका प्रत्येक पद्य स्वयं में स्वतन्त्र अर्थ का द्योतक है।

इसके श्लोकों का अर्थ जानने के लिए पूर्वापर सन्दर्भ की आवश्यकता नहीं होती है।

इसके प्रथम श्लोक में सौन्दर्य के देवता कामदेव को नमस्कार किया।वैः खलु बन्धनं स्त्रियः।

इसी प्रसंग में स्त्रियों के आभूषणों एवं पुरुषों को आकृष्ट करने वाले उनके भ्रूकटाक्ष, मधुरवाक्, लज्जापूर्णहास, धीमी चाल, आदि हाव-भावों का वर्णन किया है।

भर्तृहरि कहते हैं कि लाल कमल सदृश आँखों वाली मृगनयनी तरुणियाँ सभी का मन हर लेती हैं। यथा”कुर्वन्ति कस्य न मनो विवशं तरुण्यो” कवि कहते हैं कि नारी की देह वैरागियों को भी क्षुब्ध कर देती है। जैसे

मुक्तानां सतताधिवासरुचिरं वक्षोजकुंभद्वय

मित्थं तन्विवपुः प्रशान्तमपि ते क्षोभं करोत्येव न॥

भर्तृहरि जी कहते हैं कि इन मृगनयनी स्त्रियों के विना संसार शून्यस्वरूप ही है, वस्तुतः ये ही वास्तविक स्वर्गस्वरूपा हैं।

कवि ने उन्हें ही घर का सौन्दर्य तथा उनके शरीर के भोग को ही परमपुण्य कहा है। साथ ही विरहीजनों की दशा का वर्णन किया है और कहा है कि प्रेमोन्मत्त नारियों को ब्रह्मा भी नहीं रोक पाता है। यथा

उन्मत्तप्रेम संरम्भादारभन्ते यदंगनाः।

तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः॥

इस प्रकार शृंगारशतक में स्त्री सौन्दर्य, यौवन की उपभोग इच्छा एवं काम की दुर्वार्यता का वर्णन किया गया है।

यह भर्तृहरि के यौवन के अनुभवों की रचना प्रतीत होती है। कवि ने काम को विवेक का हन्ता कहकर समाज को इससे बचने का उपदेश भी दिया है।

नीतिशतक

नीतिशतक भर्तृहरि की विख्यात कृति है। शायद विरला ही कोई संस्कृतज्ञ होगा जिसे इस लोकविश्रुत शतक के पद्य कंठस्थ न हों।

यह शतक ही वस्तुतः भर्तृहरि की कीर्ति का स्तम्भ है। इसमें उनके वे अनुभव संकलित प्रतीत होते हैं, जो उन्होंने राज्य संचालन में अनुभूत किये होंगे।

यह भी मुक्तक काव्य है तथा इसमें 122 तक पद्य उपलब्ध होते हैं।

-नीतिशतक में सर्वप्रथम भर्तृहरि ब्रह्म को प्रणाम करते हैं। उसके पश्चात् उन्होंने वह प्रसिद्ध श्लोक लिखा है जिसके आधार पर उनके जीवनचरित की कल्पना की गयी है। यथा

यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता

साप्यन्यमिच्छति जनं जनोऽन्यसक्तः।

अस्मत्कृते परितुष्यति काचिदन्या

धिक् तां तं मदनं इमां मां च॥

इसमें समस्त शृंगारिक भावों का खण्डन किया गया है।

आगे नीति के विषय को दुर्जन- निन्दा, विद्वत्प्रसंशा, सत्संग का महत्त्व, धन का समुचित प्रयोग, तेजस्वी का स्वभाव, सेवाधर्म की कठिनाई, भाग्य की अटलता एवं परोपकार की प्रशंसा आदि पर केन्द्रित किया है।

यहाँ कतिपय विषयों पर उनके विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

दुर्जननिन्दा-भर्तृहरि जी का मानना है कि दुर्जन दुराग्रही होते हैं उन्हें किसी भी प्रकार प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। मनुष्य मगरमच्छ की दाढ़ों से मणि निकाल सकता है, विकट तरंगों से युक्त समुद्र को भी तैर कर पार कर सकता है परन्तु मूर्ख को प्रसन्न करना अतीव कठिन है। वे कहते हैं कि

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्

तु प्रतिनिविष्ट मूर्खजन चित्तमाराधयेत्।

भर्तृहरि जी ने मूर्खता को छिपाने की एक ही विधि उनके लिए सर्वश्रेष्ठ बतायी है और वह है मौन रहना। यथा विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥

कवि जी का मानना है कि विश्व में हर रोग का निदान है, हर समस्या का हल है परन्तु मूर्ख को सुधारने की कोई औषधि नहीं है यथा

सर्वस्यौषधमस्तिशास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्॥

इसलिए भर्तृहरि जी का समाज को उपदेश है कि दुर्जन का संग न करें चाहे वह विद्याविभूषित ही क्यों न हो। यथा

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलड्कृतोऽपि सन्।

मणिना भूषितः सर्पः किमसौ भयंकरः॥

विद्या एवं शिष्टाचार का महत्त्व-भर्तृहरि जी का मानना था कि मनुष्य वही है जो सुशिक्षित, सुशील, गुणी व धार्मिक तथा तपस्वी एवं दानी हो। जिनमें ये गुण नहीं है वे तो पृथ्वी पर भारस्वरूप हैं तथा मनुष्य के आकार में पशुओं की तरह जीवनव्यतीत करते हैं। यथा

येषां विद्या तपो दानं, ज्ञानं शीलं गुणो धर्मः

ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चन्ति॥

तो साहित्य-संगीत आदि कलाओं से विरहित मनुष्य को पशु ही मानते थे। उन्होंने लिखा है कि

साहित्यसंगीतकला विहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ विषाणहीनः॥

नीतिनिपुण बनने के लिए भर्तृहरि जी ने मधुरवाणी की अहं भूमिका मानी है। वे लिखते हैं कि मनुष्य की शोभा किसी भी आभूषण से उतनी नहीं हो सकती है जितनी वाणी से होती है। यथा

केयूराणि भूषयन्ति पुरुषं हारा चन्द्रोज्ज्वला

..क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥

वाणी के साथ-साथ विद्या को उन्होंने कुरूपों का रूप माना है। यथा

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं

विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरुणां गुरुः।

विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं

विद्या राजसु पूज्यते तु धनं विद्याविहीनः पशुः॥

सत्संगति का महत्त्व-भर्तृहरि जीवन में सत्संग को अतीव महत्त्व देते थे। उनका मानना है कि सत्संग से बुद्धि निर्मल होती है, वाणी में सत्य का संचार होता है, मान सम्मान बढ़ता है, अवगुण दूर होते हैं तथा चित्त प्रसन्न और यश………की है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि सत्संगति मनुष्य के लिए सब कुछ प्राप्त कराती है। इसीलिए नीतिशतक में लिखा है कि-“सत्संगतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्।

धन का महत्त्व-मनुष्य चाहे कितना भी विद्वान्, गुणवान् और सुशील क्यों न हो यदि उसके पास धन नहीं है,तो समाज में उसे उचित मान-सम्मान नहीं मिल पाता है। इसीलिए उन्होंने कहा है कि

यस्यास्ति वित्तं नरः कुलीनः, पण्डितः श्रुतवान्गुणज्ञः।

एव वक्ता दर्शनीयः सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति॥

धन को उन्होंने यद्यपि समस्त गुणों का आश्रय तो कहा है तथापि वे जानते थे कि धनमद में मनुष्य अनेकानेक बुराइयों को अपना लेता है। इसलिए उन्होंने धन के समुचित प्रयोग का वर्णन भी किया है। वे कहते हैं कि

दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

यो ददाति भुक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति॥

नीतिशतक में इन विषयों के अतिरिक्त नीति एवं लोकव्यवहार के अनेक विषयों का वर्णन किया है। भर्तृहरि जी ने भाग्य को अनिवार्य और अपरिहार्य माना है। सेवाधर्म को एक दुष्कर कार्य कहा है। यथा

सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।

क्रोध को वे मनुष्य का शत्रु मानते हैं, जो अपने को भी पराया बना देता है। इसलिए भर्तृहरि चाहते थे कि मनुष्य धैर्य, क्षमा, वाक्चातुर्य, शूरवीरता, यश:कामना, अध्ययन में रुचि आदि उन गुणों को अपनायें जो महापुरुषों के स्वाभाविक गुण हैं।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाजोपयोगी मनुष्य बनने हेतु नीतिशतक का अध्ययन प्रत्येक मनुष्य के लिए परमोपयोगी है।

वैराग्यशतक

शतक परम्परा में भर्तृहरि की यह तृतीया रचना प्रतीत होती है। युवावस्था के भोगपरक जीवन और शासक के नीतिनैपुण्य के जो अनुभव थे, उन सबका सार वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है।

वैराग्यशतक में भी विभिन्न छन्दों में संकलित शताधिक पद्य हैं।

वैराग्यशतक में तृष्णा की दुष्वारता, प्रमाद की हानियों, भोगों की दुःखान्तता, वृद्धावस्था में मृत्युभय, विषयों के त्याग में सुख, राजा से त्यागी की श्रेष्ठता, राजा और विद्वान् की तुलना, बुद्धिमान् के कर्त्तव्य करालकाल की महिमा, सुखी-जीवन की परिभाषा, मन की चंचलता और संसार की अनित्यता आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है।

भोगों की अनन्तता और तृष्णा की अनन्तता का वर्णन मनोरंजक ढंग से वैराग्यशतक में उपलब्ध होता है। यथा

भोगा भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो तप्तं वयमेव तप्ताः।

कालो यातो वयमेव यातास्तृष्णा जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥

संसार के समस्त सुखों को नि:सार पाकर भर्तृहरि जी कहते हैं कि केवल शिवभक्ति ही परम सुखदायी है। यथासर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शम्भोः पदं निर्भयम्॥” इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह विषय भोगों के पीछे भागते हुए मतवाले मन को अपने वश में करने का प्रयत्न करे। यथा

क्षीवस्यान्तःकरणकरिण: संयमालानलीलाम्॥

चित्त को संसार से समेट कर ब्रह्म में आसक्त करें क्योंकि यही संसाररूपी सागर को पार करने का एकमात्र साधन है। यथा

ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भव भवाम्भोधिपारं तरितुम्॥

संक्षेप में कहा जा सकता है कि वैराग्यशतक के अनुसार प्रभुशरण ही जीवन के वास्तविक सुख का आधार है।

अपने जीवन काल में उन्होंने शृंगार, नीति शास्त्रों की तो रचना की ही थी, अब उन्होंने वैराग्य शतक की रचना भी कर डाली और विषय वासनाओं की कटु आलोचना की।

इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का परम प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय भी उनके महान पाण्डित्य का परिचायक है। वह शब्द विद्या के मौलिक आचार्य थे।

शब्द शास्त्र ब्रह्मा का साक्षात् रुप है। अतएव वे शिवभक्त होने के साथ-साथ ब्रह्म रूपी शब्दभक्त भी थे। शब्द ब्रह्म का ही अर्थ रुप नानात्मक जगत-विवर्त है।

योगीजन शब्द ब्रह्म से तादात्म्य हो जाने को ही मोक्ष मानते हैं। भर्तृहरि शब्द ब्रह्म के योगी थे। उनका वैराग्य दर्शन परमात्मा के साक्षात्कार का पर्याय है।

सह कारण है कि आज भी शब्दो की दुनिया के रचनाकार सदा के अमर हो जाते है। भर्तृहरि एक महान् संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक ) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।

प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था, इसलिए इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी है।

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है।

इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है।

इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।

उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही

भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है।

भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है।

भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।

वाक्यपदीय

संस्कृत व्याकरण का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसे त्रिकाण्डी भी कहते हैं। वाक्यपदीय, व्याकरण शृंखला का मुख्य दार्शनिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता नीतिशतक के रचयिता महावैयाकरण तथा योगिराज भर्तृहरि हैं।

इनके गुरु का नाम वसुरात था। भर्तृहरि को किसी ने तीसरी, किसी ने चौथी तथा छठी या सातवी सदी में रखा है। वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने भाषा (वाच्) की प्रकृति और उसका वाह्य जगत से सम्बन्ध पर अपने विचार व्यक्त किये हैं।

यह ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है जिन्हें “कांड” कहते हैं। यह समस्त ग्रंथ पद्य में लिखा गया है। प्रथम “ब्रह्मकांड” है जिसमें 157 कारिकाएँ हैं, दूसरा “वाक्यकांड है जिसमें 493 कारिकाएँ हैं और तीसरा “पदकांड” के नाम से प्रसिद्ध है।

इसका प्रथम काण्ड ब्रह्मकाण्ड है जिसमें शब्द की प्रकृति की व्याख्या की गयी है। इसमें शब्द को ब्रह्म माना गया है और ब्रह्म की प्राप्ति के लिये शब्द को प्रमुख साधन बताया गया है।

दूसरे काण्ड में वाक्य के विषय में भर्तृहरि ने विभिन्न मत रखे हैं।

तीसरे काण्ड में अन्य दार्शनिक रीतियों के विषयों, जैसे – जाति, द्रव्य, काल आदि की चर्चा की गयी है।

इसमें भर्तृहरि यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि विविध मत, एक ही वस्तु के अलग-अलग आयामों को प्रकाशित करते हैं।

इस प्रकार वे सभी दर्शनों को अपने व्याकरण आधारित दर्शन द्वारा एकीकरण करने का प्रयास कर रहे

इंद्र भी हो गए थे भयभीत

राजा भृतहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भृतहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे।

यह सोचकर इंद्र ने भृतहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भृतहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे।

इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भृतहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भृतहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है।

यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भृतहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।

यहां है गुफा

उज्जैन में भृतहरि की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भृतहरि ने तपस्या की थी। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है।

भरथरी की गुफा या भर्तृहरि की गुफाएं उज्जैन शहर का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। भर्तृहरि की गुफाएं गोरखनाथ मठ के द्वारा प्रबंधित की जाती है।

यहां पर दो गुफाएं है। इनमें से एक गुफा भूमिगत है। भूमिगत गुफा में जाने के लिए बहुत सकरा रास्ता है और नीचे जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है।

आप गुफा के नीचे जाएंगे। तो नीचे एक बड़ा सा हॉल है और भगवान शिव का शिवलिंग विराजमान है।

एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भृतहरि का भतीजा था।

गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है।

गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।

अंतिम समय राजस्थान में

राजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर (राजस्थान) के जंगल में है।

उसके सातवें दरवाजे पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति माना जाता है।

भर्तृहरि महान शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए।

विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है।