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धर्म क्या है ?| What is Dharma

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धर्म का शाब्दिक अर्थ : धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। ध + र् + म = धर्म।

ध देवनागरी वर्णमाला 19वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है।

संस्कृत (धातु) धा + ड विशेषण- धारण करने वाला, पकड़ने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है।

पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इसका मतलब धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!।

अर्थात जो सबको संभाले हुए है। वही धर्म है।

ध्यान देने योग्य यह है कि धर्म का स्पष्ट अर्थ है कल्याण करना। मनुष्य एक प्राणी है अत: उसके धर्म अनेक नहीं हो सकते।

विश्व के किसी धर्म में ऐसा कोई मौलिक अंतर नहीं जिससे उसे अलग धर्म कहा जा सके। अनादि सनातन धर्म ही मानव धर्म है।

धर्म का प्राप्य: जिससे अलौकिक उन्नति तथा पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति हो वह धर्म है। धर्म से ही लोक और समाज का धारण होता है।

अनुशासनहीन समाज या व्यक्ति पतन के गर्त में गिरेगा ही अतएव धर्म से ही अभ्युदय होता है। हमारे सत्कर्म ही प्रारब्ध बनते हैं और वही दूसरे जन्म के ऐश्वर्य, वैभव, सुख के कारण होते हैं।

इसके विपरीत अधर्म को धारण करने वाले दु:ख पीड़ा को प्राप्त होते हैं।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:

अर्थात  धर्म का जो नाश करेगा, धर्म उसका विनाश कर देगा और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। भारतीय संस्कृति में जीवन के प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य धर्म के आधार पर व्यवस्थित होते हैं। धर्म पर ही यह संस्कृति अवलंबित है। धर्म की उपेक्षा से ही मनुष्य समाज का पतन होना आरंभ होता है।

संस्कृति में धर्म

संस्कृति में जीवन का मूलाधार धर्म है। यह भी कह सकते हैं कि धर्म संस्कृति का प्राण है।

धर्म एक ऐसा व्यापक शब्द है जो समाज का इतिहास और जीवन की भूमिका प्रस्तुत करने में पूरी तरह समर्थ है। धर्म से मनुष्य का संपूर्ण जीवन प्रभावित होता है।

सामाजिक कार्यक्त्रम धर्म के आधार पर ही तय हुए हैं। मनुष्य का कर्म धर्म पर ही निर्भर है, धर्म के बिना कर्म की सार्थकता नहीं है।

अत: मनुष्य से जुड़े सभी कर्म धर्म से समाहित हैं। ऐसा इसलिए है कि मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त हो सके, जिससे धर्मानुकूल आचरण करता रहे।

धर्म की महत्ता के बारे में महर्षि कणाद ने कहा है कि जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं।

अभ्युदय के द्वारा भौतिक सिद्धि तथा नि:श्रेयस द्वारा आध्यात्मिक सिद्धि होती है। महाभारत में भी कहा गया है-नष्ट किया गया धर्म उस नष्टकर्ता को ही नष्ट कर देता है।

जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए मनुष्य को धर्म का हनन नहीं करना चाहिए। हमारे समाज में सामाजिक कार्यो में धर्म की अधिकता है। जो उसकी स्थित को सुदृढ़ करने में सहायक होता है।

मनुष्य के जीवन में सुख की अनुभूति धर्म से होती है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों सुखों की प्राप्ति कर्म से संभव है।

वाल्मीकि रामायण में यह उल्लेख है कि चरित्र इस प्रकार आदर्शमय होना चाहिए कि वह देवत्व तक पहुंच जाए।

इसके अनुसार चरित्र ही धर्म है। भारतीय विचारकों ने आत्मा को उन्नत बनाने के लिए जो आचरण किए वही धर्म है।

धर्म उसी का नाम है जो उन्नति की तरफ ले जाए। इतिहास व पुरातत्व इसके साक्षी हैं, हमारे यहां ऋषियों को केवल धार्मिक एवं नैतिक जीवन का ही नहीं वरन व्यावहारिक जीवन का भी निर्देशक स्वीकार किया गया है और वे सभी समाज के पथ प्रदर्शक रहे हैं।

संस्कृति के मूल में अध्यात्म ज्ञान, धर्म, दर्शन आदि समाहित हैं। वहां सौंदर्य की उदात्त भावना भी समन्वित है।

धर्म के अनुरूप धारण करने योग्य

प्रत्येक मनुष्य को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, क्षमा आदी को धारण करना चाहिए।.

बहुत से लोग कहते हैं कि धर्म के नियमों का पालन करना ही धर्म को धारण करना है जैसे ईश्वर प्राणिधान, संध्या वंदन, श्रावण माह व्रत, तीर्थ चार धाम, दान, मकर संक्रांति-कुंभ पर्व, पंच यज्ञ, सेवा कार्य, पूजा पाठ, 16 संस्कार और धर्म प्रचार आदि।

… लेकिन उत्त सभी कार्य व्यर्थ है जबकि आप सत्य के मार्ग पर नहीं हो। सत्य को जाने से अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौचादि सभी स्वत: ही जाने जा सकते हैं।

अत: सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है।…जो संप्रदाय, मजहब, रिलिजन और विश्वास सत्य को छोड़कर किसी अन्य रास्ते पर चल रही है वह सभी अधर्म के ही मार्ग हैं। इसीलिए हित्दुत्व में कहा गया है सत्यंम शिवम सुंदरम।

सनातन धर्म

धर्म के आचरण से भोग वृत्ति का नाश होता है। हृदय की शुद्धि होती है।सनातन धर्म , हिंदू धर्म में , वर्ग, जाति या संप्रदाय की परवाह किए बिना, सभी हिंदुओं पर “शाश्वत” या कर्तव्यों को पूर्ण रूप से या धार्मिक रूप से निर्धारित प्रथाओं को निरूपित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है ।

अलग-अलग ग्रंथ कर्तव्यों की अलग-अलग सूचियां देते हैं, लेकिन सामान्य तौर पर सनातन धर्म में ईमानदारी, जीवों को चोट पहुंचाने से बचना, पवित्रता, सद्भावना, दया, धैर्य, सहनशीलता, आत्मसंयम, उदारता और तपस्या जैसे गुण शामिल हैं ।

सनातन धर्म को स्वधर्म , किसी के “स्वयं के कर्तव्य” या किसी व्यक्ति पर उसके वर्ग या जाति और जीवन के चरण के अनुसार दिए गए विशेष कर्तव्यों के विपरीत माना जाता है।

सनातन धर्म के नियमानुसार जीवन निर्वाह ही मनुष्य का धर्म है। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही हुई। कहना अनुचित नहीं कि वेद धर्म का संविधान हैं।

इनकी आज्ञा है कि प्राणीमात्र का प्रयत्न दुखहीन शाश्वत सुख पाने के लिए है। अत: दुख हीन शाश्वत सुख पाने का भ्रांतिहीन प्रयत्न ही वास्तविक धर्म है।

जो प्रयत्न अंतर्मुखता की प्रेरणा दे, वह धर्म है और जो बहिर्मुख करे वह अधर्म है यही सार्वभौम सार्वकालिक धर्म की परिभाषा है।

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है।

ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है।

वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है।

मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है।

मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है।

वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥

(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किए गए अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण ), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (आंतरिक और बहारी शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); ये दस धर्म के लक्षण हैं।)

दरअसल, धर्म मूल स्वभाव की खोज है। धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है।

जब भी हम धर्म कहते हैं तो यह ध्वनीत होता है कि कुछ है जिसे जानना जरूरी है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म है अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना।

हिन्दू संप्रदाय में धर्म को जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को।

दुनिया के तमाम विचारकों ने -जिन्होंने धर्म पर विचार किया है, अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। इस नजरिए से वैदिक ऋषियों का विचार सबसे ज्यादा उपयुक्त लगता है कि सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं।

धर्म की आवश्यकता क्यों है

जीवन की सफलता सत्यता में है। सत्यता का नाम धर्म है। जीवन की सफलता के लिए अत्यन्त सावधान होकर प्रत्येक कर्म करना पड़ता है, यथा – मैं क्या देखूॅं, क्या न देखूॅं, क्या सुनॅूं, क्या न सुनूॅं, क्या जानॅंू, क्या न जानूॅं, क्या करुॅं अथवा क्या न करूॅं।

क्योंकि मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, जब मनुष्य किसी भी पदार्थ को देखता है तब उसके मन में उस पदार्थ के प्रति भाव विचारद्ध उत्पन्न होते हें।

क्योंकि यही मनुष्य होने का लक्षण है, इसीलिए निरुक्तकार यास्क ने मनुष्य का निर्वचन करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ अर्थात् मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है।

यही मनन की प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो केवल देखता है और बिना चिन्तन मनन के विषय में प्रवृत्त हो जाता है।

मनुष्य जब किसी पदार्थ को देखकर कार्य की ओर अग्रसर होता है तब चिन्तन उसको घेर लेता है, ऐसे समय में धर्म बताता है कि आपको किस दिशा में कार्य करना है, यही धर्म की आवश्यकता है।

यदि धर्म जीवन में होगा तब जाकर श्रेष्ठ कर्म को कर सकेंगे अथवा पदार्थ का यथायोग्य व्यवहार (कर्म) कर सकेंगे।

काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मद और मोह ये मानव जीवन में मनःस्थिति को दूषित करने वाले हैं। ये षड्रिपु मनुष्य की उन्नति के सर्वाधिक बाधक होते हैं इनका नाश मनुष्य धर्मरूपी अस्त्र से कर सकता है।

इन विध्वंसमूलक प्रवृत्तियों को जीतना ही जितेन्द्रियता तथा शूरवीरता कहलाता है। यदि व्यक्ति के अन्दर धर्म नहीं है तो वह इनके वशीभूत होकर स्वयं तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाता है।

इन पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए परमावश्यक होता है कि व्यक्ति विवेकशील हो और विवेकशील होने के लिए आवश्यक है अच्छे सद् चरित्रवान् मित्रों का संग करें तथा अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें।

आज हमारी युवा पीढ़ी धर्म के अभाव में पतन की ओर अग्रसरित होती चली जा रही है, ऐसे में लोगों की चिन्तन क्षमता समाप्त हो गयी है। नित्य नये-नये मानवीय ह्रासता के कृत्य दिखायी देते हैं, ऐसा क्यों है?

क्या हमने कभी विचार व चिन्तन किया है? आज हमारी सोचने की क्षमता इतनी कम क्यों हो गयी है, क्योंकि हम धर्म को समझ ही नहीं पा रहे हैं।

हम धर्म को एकमात्र कर्मकाण्ड का रूप स्वीकार करते हैं। आज हमें धर्म को स्वयं के अन्दर धारण करना होगा। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध इन दश प्रमुख कर्तव्यों को स्वयं के लिए धारण करने का नाम धर्म बताया है।

धर्म की परिभाषा करने वाले विभिन्न आचार्यों के अपने-अपने मत हैं। संसार में मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना लिए हैं, जैसे- कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए है, कोई केश व दाढ़ी दोनों ही बढ़ाये हुए है, कोई पॉंच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है, कोई चन्दन का तिलक लगाए हुए है, कोई माथे पर अनेक रेखाओं को अंकित किये हुए है और न जाने धर्म के नाम पर क्या-क्या करते हैं।

किन्तु ये सभी धर्म से सम्बन्ध नहीं रखते हैं क्योंकि कहा भी है – ‘न लिंग धर्मकारणम्’ अर्थात् धर्म का कारण कोई चिह्न विशेष नहीं होता है।

यदि हम धर्म को जानना चाहते हैं तो हमें धर्मशास्त्र की इस पंक्ति को समझना होगा-

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः

जो व्यक्ति धर्म को जानना चाहता है, उसे वेद को प्रमुखता के साथ जानना होगा।

धर्म धारण करने का नाम है इसी लिए कहते हैं ‘धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः’।

जो किसी भी कार्य को करने में सत्य-असत्य का निर्णय कराये, चिन्तन व मनन कराये उसे धर्म कहते हैं। हम धर्म को धारण करते हैं तथा उसको व्यवहार रूप में प्रस्तुत करते हैं।

धर्म ज्ञान के लिए वेद ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सर्वज्ञ होने से उसके ज्ञान में भ्रान्ति अथवा अधूरापन का लेशमात्र भी निशान नहीं है।

वेदज्ञान सृष्टि के आदि का है तथा सभी का मूल है, अतः हम मूल को छोड़ पत्तों अथवा टहनियों को समझने में अपना समय व्यर्थ न करें।

इसीलिए धर्म का ज्ञान और उस पर आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है, यह हमारी उन्नति व सुख का आधार है। मनुष्य के परम लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि में परमसहायक है।

वेद मनुष्य को आदेश देता है मा मृत्योरुदगा वशम् मनुष्य को प्रतिक्षण सर्तक रहकर अपने चारों ओर फैले मृत्यु के भयंकर पाशों से बचने का प्रयास करना चाहिए।

उपनिषद् का ऋषि प्रार्थना करता है-‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे प्रभो ! मुझे इन मृत्युपाशों से बचाकर अमरता का पथिक बनाइए।

इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए ही धर्मशास्त्रकार घोषणा करता है-धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है और जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसको नष्ट कर देता है।

जीवन में हताशा और किंकर्त्तव्यमूढ़ता धार्मिक पक्ष के निर्बल होने पर ही आती है।

जीवन में अधर्म की वृद्धि ही व्यक्ति को निराश तथा दुर्बल बना देती है अतः धर्म की वृद्धि करके व्यक्ति को सबल व सशक्त रहना चाहिये जिससे अधर्म के कारण क्षीणता न आ सके।

धर्म से परस्पर प्रीति व सहानुभूति के भावों की वृद्धि होती है।

आचार्य चाणक्य ने लिखा है-‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।

’अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल -इन्द्रियों को संयम में रखना है। संसार में प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती।

अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।

संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-‘धर्म एकोऽनुगच्छति’ आर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है।

संस्कृत के नीतिकार कहते है-

धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।

देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।

अर्थात् समस्त भौतिक धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बंधे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते हैं एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।

हमे धर्म को यथार्थ में जानकर व्यवहार रूप में स्वयं के लिए धारण करने की आवश्यकता है। धर्म ही एकमात्र हमारा अस्त्र तथा शस्त्र है, जिसका प्रयोग कर हम इह लोक से पारलौकिक यात्रा को पूर्ण करें। हम सबको मिलकर धर्म को धारण करना चाहिए।

धर्म ज्ञान 

सनातन धर्म की प्रमुख 6 मान्यताएं

हिंदू धर्म, सनातन धर्म का ही एक प्रचलित नाम है। सनातन का अर्थ होता है, जो पृथ्वी या ब्रह्मांड के अस्तित्व के समय से ही अस्तित्व में हो।

वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित जीवन पद्धति को सनातन धर्म के नाम से जाना जाता था। यह धर्म जीवन जीने के तरीकों का ही संकलन है, जिसमें मानवीय मूल्यों को विशेष महत्व दिया गया है।

आइए, आज खुद का ही टेस्ट लेते हैं और जानते हैं कि हमें भारत के इस धर्म के बारे में कितना पता है….

सत्य ही शाश्वत है

हिंदू धर्म में सच या सत्य वचन को शाश्वत माना गया है। तभी कहा भी जाता है कि सौ झूठ बोलने से भी सच नहीं मिटता।

सच उसी तरह चमकता रहता है, जिस तरह सूरज की रोशनी। जो बादलों के कारण कुछ समय के लिए छिप जरूर जाती है लेकिन फिर उसी दिव्यता के साथ संपूर्ण जगत में छा जाती है।

ब्रह्म ही सत्य है

ब्रह्म अर्थात ब्रह्मा इस ब्रह्मांड का सबसे बड़ा सच हैं। वैदिक धर्म-ग्रंथों के अनुसार, इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना ब्रह्मदेव ने की है और संसार में जितने भी जीव हैं, उन सभी में ब्रह्मा का अंश है।

वेद ही अधिष्ठाता हैं

वेदों का लेखन स्वयं ईश्वर द्वारा किया गया है। ऋषि वेदव्यास ने वाचन किया और स्वयं भगवान गणपति ने वेदों का लेखन किया।

पौराणिक कथा के अनुसार वेदव्यासजी को संपूर्ण ब्रह्मांड में गणपति से उचित लेखन नहीं मिले। इसलिए उन्होंने गणेशजी से प्रार्थना की कि भगवन आपको ही लेखन कार्य करना होगा क्योंकि आपसे शीघ्र गति से यह कार्य कोई और नहीं कर सकता।

तब ऋषि वेदव्यास और भगवान गणपति के मध्य यह निश्चित हुआ कि अगर कहीं वेदव्यास जी अटके तो भगवान वहीं लिखना बंद कर देंगे।

लेकिन वेदव्यास का ज्ञान अतुलनीय था और उन्होंने बोलना जारी रखा तो गणपति लिखते रहे। ऐसे में वेदों में कही गई बातें स्वयं ईश्वर का आदेश मानी जाती हैं।

हां, यह बात ध्यान देने योग्य है कि वैदिक काल से आज तक वेदों में मानव ने अपने हिसाब से क्या जोड़ा और क्या हटाया इस बात पर हमें विचार कर ही अनुसरण करना चाहिए।

हर किसी को धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए

हिंदू धर्म में धर्म को जीवन जीने की कला के रूप में अपनाया गया है। सत्य के मार्ग पर चलना, दूसरों को कष्ट न देना, जीवों पर दया करना, जैसे विचारों को जीवन में उतारना सिखाया जाता है।

ऐसे कार्यों को निंदनीय माना जाता है, जिनसे धर्म की हानि होती हो या समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हो।

हर आत्मा अमर है

सनातन धर्म में आत्मा को अमर माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता के उपदेश में यही कहा है कि आत्मा अमर है और अग्नि, जल, वायु इत्यादि का इस पर कोई प्रभाव नहीं होता है।

जिस प्रकार मनुष्य पुराने कपड़ों का त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, इसी प्रकार आत्मा भी पुराने पड़ चुके शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।

हर आत्मा का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है

अजर और अमर होने के साथ ही मानव या अन्य जीव के शरीर में जन्म लेने के बाद हर आत्मा का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति होता है।

इसीलिए कहा जाता है कि अपने कर्म सही रखें, धर्म का पालन करें ताकि आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो सके और वह परब्रह्म में लीन हो सके।

प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का निर्वाह करना चाहिए एक

 पिता का धर्म क्या होना चाहिए ?

भारतीय संस्कृति मे सोलह संस्कारो का जो विधि विधान है उनका मनोवैज्ञानिक प्रभाव मनुष्य को सन्मार्गगामी बनने की प्रेरणा देना है ।

इसलिए यहा विधिवत विवाह का प्रावधान किया गया है ,एवं विवाह का उद्देश्य ही संतानोत्पति रखा गया है । माता पिता को सुसंसकारी होना चाहिए , गर्भ एक कौतुक नहीं बल्कि एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है ,उसे समझा जाए और गर्भ के माध्यम से जो जीव धरती पर आने को उत्सुक है ,उसे ईश्वर का प्रतिनिधि मान कर उसके स्वागत की तैयारी करनी चाहिए ।

मनुष्य के सोलह संस्कारों मे पनदरह तो उसके माता पिता ही सम्पन्न कराते हैं । प्रत्येक संस्कार मनुष्य को एक पूर्ण मानव बनने की प्रेरणा देता है ।

 शास्त्रो के मुताबिक एक कुशल एवं योग्य पिता को अपने संतान के पालन पोषण मे ज्यादा सतर्क रहना चाहिए ।

उसे बेहतर परिवेश मिले ,पौष्टिक आहार मिले ,उसका अन्य व्यक्ति द्वारा किसी प्रकार का शारीरिक ,आर्थिक ,मानसिक शोषण न होना चाहिए । उसके मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए उसकी शिक्षा दीक्षा का सही समय पर प्रबंध करना चाहिए ।

    कहा गया है कि ‘लालयेत पाँच वर्षानि दस वर्षानी ताडयेत ,प्रापते तू शोड़से वरखे पुत्र मित्राणी समाचरेत’ । यानि कि लालन पालन मे ताड़न का भी महत्व है

अनुशासन सीखने के लिए दंड या भय आवश्यक है ,जो बच्चे  को सही और गलत मार्ग का एहसास कराता है । जिस प्रकार एक नाजुक पौधे की रक्षा के लिए उसके इर्द गिर्द एक सुरक्षात्मक घेरा डाल दिया जाता है जिससे पशुओ,आदि से उसकी रक्षा होती है ,जब वह बड़ा होकर विशाल वृक्ष बनता है तब उसे भयंकर तूफान भी नहीं हिला सकती है {शहरो वाले पेड़ नहीं} साथ ही वह कितनों का अपने फल,फूल, छाया लकड़ी आदि के माध्यम से कितनों का सहारा भी बनता है उसी प्रकार पिता अपने बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए एक मजबूत रक्षा कवच है ।

सत्यनिष्ठा ,पवित्रता, ईमानदारी ,सच्चरित्रता ,दया ,करुणा ,क्षमा ,विनम्रता ,मैत्री , सेवा ,त्याग आदि  मानवीय  गुण मनुष्य परिवार मे ही सिखाता है ।

इस लिए पिता का कर्तव्य बहुत व्यापक हो जाता है ।

सदाचार का पाठ पढाने वाला पिता ही होता है ,यदि बच्चे ज्यादा उदण्ड हों या पिता के पास कोई और मजबूरी होऔर वैसे भी ,  वह उनके लिए योग्य गुरु निर्धारित करता है जो उन्हें सही शिक्षा देकर ,सभ्य समाज मे जीने लायक बनाता है ।

यानि कभी भी  उन्हें  बेलगाम नहीं छोड़ता । उसके इर्द गिर्द सपनों का सुनहरा जाल बुनने वाला,स्वर्णिम भविष्य का निर्माण करने वाला पिता ही होता है ।

वह क्या पढ़ रहा है ,किसके संगत मे है ,कैसी सोच विचार रख ने लगा है यह जानना पिता का अधिकार है ।

   पिता का यह भी कर्तव्य है कि  उचित उम्र प्राप्त करने पर शादी ब्याह करके एक सद गृहस्थ के रूप मे जीवन यापन करने की  प्रेरणा दे ।

अगर पिता सही और सुंदर आचरण वाला होगा तो उसके रक्त से एक अच्छे भविष्य का ही निर्माण होगा ॥

चूंकि आज के इस परिवर्तित समाज मे बेटियो को भी बेटो के समान दर्जा हासिल है ,अत; पिता का कर्तव्य और भी ज्यादा बढ़ गया है । सिर्फ नसीहत से नहीं बल्कि आचरण से उन्हे बताना होगा कि जीवन का लक्ष्य ‘असतो मा सदगमय ,होना चाहिए ।

जो ब्रह्मविघा जाने वह ब्राह्मण, जो युद्ध करे वह क्षत्रिय, लेन—देन हिसाब—किताब करे वह वैश्य, जो सेवा करे वह सेवक है।

ब्राह्मण का धर्म

ब्राह्मण माँस शराब का सेवन जो धर्म के विरुद्ध हो वो काम नहीं करते हैं। ब्राह्मण सनातन धर्म के नियमों का पालन करते हैं।

जैसे वेदों का आज्ञापालन, यह विश्वास कि मोक्ष तथा अन्तिम सत्य की प्राप्ति के अनेक माध्यम हैं, यह कि ईश्वर एक है किन्तु उनके गुणगान तथा पूजन हेतु अनगिनत नाम तथा स्वरूप हैं जिनका कारण है हमारे अनुभव, संस्कृति तथा भाषाओं में विविधताएँ।

ब्राह्मण सर्वेजनासुखिनो भवन्तु (सभी जन सुखी तथा समॄद्ध हों) एवं वसुधैव कुटुम्बकम (सारी वसुधा एक परिवार है) में विश्वास रखते हैं।

सामान्यत: ब्राह्मण केवल शाकाहारी होते हैं ।

हिन्दू ब्राह्मण अपनी धारणाओं से अधिक धर्माचरण को महत्व देते हैं। यह धार्मिक पन्थों की विशेषता है। धर्माचरण में मुख्यतः है यज्ञ करना।

दिनचर्या इस प्रकार है – स्नान, सन्ध्यावन्दनम्, जप, उपासना, तथा अग्निहोत्र। अन्तिम दो यज्ञ अब केवल कुछ ही परिवारों में होते हैं। ब्रह्मचारी अग्निहोत्र यज्ञ के स्थान पर अग्निकार्यम् करते हैं। अन्य रीतियाँ हैं अमावस्य तर्पण तथा श्राद्ध।

ब्राह्मण अपने जीवनकाल में सोलह प्रमुख संस्कार करते हैं। जन्म से पूर्व गर्भधारण, पुन्सवन (गर्भ में नर बालक को ईश्वर को समर्पित करना), सीमन्तोन्नयन संस्कार।

बाल्यकाल में जातकर्म (जन्मानुष्ठान), नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्ण, कर्णवेध। बालक के शिक्षण-काल में विद्यारम्भ, उपनयन अर्थात यज्ञोपवीत्, वेदारम्भ, केशान्त अथवा गोदान, तथा समवर्तनम् या स्नान (शिक्षा-काल का अन्त)। वयस्क होने पर विवाह तथा मृत्यु पश्चात अन्त्येष्टि प्रमुख संस्कार हैं

पति और पत्नी का धर्म

परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है। इसके दो स्तंभ हैं – स्त्री और पुरुष। परिवार को सुचारू रूप देने में दोनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।

समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है। कई पुरानी परंपराओं, रूढ़िवादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ है।

महिलाएं अब घर से बाहर आने लगी हैं, कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दे रही हैं, अपनी इच्छा शक्ति के कारण सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही हैं।

पति धर्म क्या है ” – जब एक शादीशुदा पुरुष अपनी पत्नी से जुड़ी हर ज़िम्मेवारी को निष्ठा , प्रेम और सच्चाई से निभाता है एवं अपने कर्तव्यों को पूरा करता है उसे ही पति धर्म कहा जाता है।

इसके साथ ही पति का भी यह कर्तव्य होता है कि वह ऐसा कोई कार्य न करे जो पत्नी के सम्मान को ठेस पहुंचाए और उसे दुख दे।

इसके अनुसार जो पत्नी जीवन में पति एवं उसके परिवार के हित के लिए कार्य करे, जीवन में शुभ कर्मों को स्थान दे, अपने पत्नीधर्म का पालन करे, यही उसका धर्म है।

हिन्दू धर्म में पत्नी को पति का एक अहम हिस्सा माना गया है। पत्नी ही उसके जीवन को पूरा करती है, उसे खुशहाली प्रदान करती है, उसके परिवार का ख्याल रखती है और उसे वह सभी सुख प्रदान करती है जिसके वह योग्य है।

घर परिवार की जिम्मेवारी अच्छे से निभाना पत्नी धर्म हैं

घर परिवार की जिम्मेवारी अच्छे से निभाना पत्नी का कर्तव्य होता हैं। जितना प्यार वह अपने पति से करती हैं उतना ही प्यार परिवार से भी करना पत्नी धर्म हैं।

परिवार के हर जरूरतों का ख्याल रखना पत्नी का धर्म होता हैं। पति को अनुचित कार्य करने से रोकना पत्नी का सर्वप्रथम धर्म है

पति परायणा महिला अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करती और ही ऐसा कोई कार्य करती है जिससे पति को दुख हो। इसके साथ ही पति का भी यह कर्तव्य होता है कि वह ऐसा कोई कार्य करे जो पत्नी के सम्मान को ठेस पहुंचाए और उसे दुख दे। दोनों को एकदूसरे की प्रगति प्रसन्नता के लिए कार्य करना चाहिए।

आइए, जानें एक आदर्श पतिपत्नी के रिश्ते में क्या खूबियां होती हैं :

1. एकदूसरे के प्रति सम्मान :

आपका साथी आपसे किसी भी मामले में चाहे वह शिक्षा हो, उसकी आर्थिक स्थिति हो या कोई काम उसे नहीं आता हो अथवा किसी गुण में ही वो आपसे कम क्यों हो, फिर भी आप उसकी दूसरी अच्छी बातों के लिए उसका सम्मान करते हो। आपके लिए अपने साथी के सम्मान के लिए केवल इतना ही काफी हो कि उनका ओहदा आपके जीवन में बहुत पवित्र और बड़ा है, आपके जीवनसाथी होने का ओहदा।

2.एकदूसरे के प्रति सच्चा प्रेम भाव हो :

अपने साथी के रंगरूप बाहरी आवरण पर अधिक ध्यान देते  हुए जब आप उनकी आंतरिक सुंदरता की कद्र करें। निःस्वार्थ रूप से उनसे प्रेम बनाए रखने की कोशिश करते हो तब आपका रिश्ता एक आदर्श है।

3. अपने स्वार्थ से पहले अपने साथी की इच्छाओं को महत्व देना :

एक आदर्श रिश्ता वह है जब आप अपनी कोई भी जरूरत अपने साथी की सहमति से ही पूरी करते हों। जब आप अपने स्वार्थ से पहले अपने साथी की इच्छाओं को महत्व देते हो। आपके रिश्ते में सब्र का होना एक आदर्श रिश्ते की पहचान है।

4.एकदूसरे पर इल्ज़ाम लगाना :

चाहे कठिन से कठिन परिस्थिति हो आप किसी भी छोटी या बड़ी गलती होने पर अपने साथी पर पूरा दोष नहीं मढ़ते हो और खुद भी उस स्थिति के लिए अपनी जिम्मेदारी लेते हो। जब आप खुद भी ये सोचते हो कि कहां आपसे कोई कमी कर गई अथवा गलती हुई है और उसे सुधारने की पहल करते हो तब आपका रिश्ता आदर्श है।

5. एकदूसरे की अलग सोच का भी आदर करना उसे अपनाने की कोशिश करना :

एक आदर्श पतिपत्नी के रिश्ते में साथी एकदूसरे की सोच का अनादर नहीं करते, ना ही पति अपने पति होने के कारण अपनी पत्नी पर अपनी इच्छाएं थोपते हैं। वे अपनी पत्नी को अपने बराबरी पर रखते हैं और अपनी पत्नी को उनकी सोच के आधार पर व्यवहार करने की छूट देते हुए उनका साथ देते हैं।

 6. सहयोग के भाव :

एक आदर्श पतिपत्नी किसी भी काम का बोझ सिर्फ अपने साथी पर नहीं डालते। वे एकदूसरे के हर काम में सहयोग करते हुए जीवनयापन करते हैं।

माता पिता के प्रति पुत्र का धर्म

हमारे माता-पिता हमारे लिए आदरणीय होते हैं l उन्होंने हमें जन्म दिया है, हमारा पालन-पोषण किया है l उन्होंने हम पर अनगिनत उपकार किये हैं, जिसका बदला चुका पाना असंभव है वे हमारे पहले गुरु होते हैं l

भगवान से भी पहले उनकी पूजा की जाती है l हमारे माता-पिता भगवान का ही रूप होते हैं l भगवान ने हमारी रक्षा के लिए हमारे माता-पिता को भेजा है l

माता-पिता की सेवा भगवान की ही सेवा है l माता-पिता की सेवा से भगवान खुश होते हैं l माता-पिता के क़दमों में स्वर्ग होता है, उनके आशीर्वाद से हमें हर क्षेत्र में सफलता मिलती है l

उनके आशीर्वाद से हमें हर मुसीबत से छुटकारा मिलता है l उनका आदर करना और अपने से बड़ों का सम्मान करना हमारा सबसे पहला और सबसे बड़ाधर्म है l

संसार का सुन्दरतम शब्द “माँ”:- संसार का सबसे सुन्दरतम व प्यारा शब्द “माँ” है। सबसे प्यारा, सबसे सुन्दरतम शब्द संसार में है– “माँ” l

इसमें इतनी मीठास भरी हुई है ! माँ का पूरा स्नेह, पूरा प्यार. ! माँ या पिता, यानि दोनों का प्यार l माँ और पिता का जो दर्जा है वो सचमुच देवताओं से भी कहीं बढ़कर है l

हमने परमात्मा को नहीं देखा, हमने भगवान को नहीं देखा, लेकिन हमने अपने माता-पिता को साकार देखा है l

हमारे माता-पिता इस संसार में हमारे लिए भगवान का ही रूप हैं l परमात्मा इस सृष्टि का पालन-पोषण करता है, यह हम जानते हैं l लेकिन वो किस ज़रिये से करता है, किस तरीके से करता है?

शास्त्रों में माता-पिता के लिए कहा जाता है – “मातृ देवो: भव:”, माँ देवता के समान है l “पितृ देवो: भव:”, पिता देवता के समान है और “आचार्य देवो: भव:”, हमारे जो आचार्य हैं वो देवता के समान हैं।

रामचरितमानस में महिमा बखानी गयी :-श्री रामचरितमानस में एक सारगर्भित प्रभावकारी चौपाई आती है

मात पिता गुरु प्रभ के बानी l बिनहि विचार कहिये शुभ जानी ll”

माता-पिता और गुरु की आज्ञा को हितकारी समझ कर उनकी पालना करनी चाहिए l ये सदैव हितकारी वचन बोलते हैं, आपकी भलाई के लिए बोलते हैं, इसलिए उनको देवता-तुल्य माना गया है l

माता-पिता की परिक्रमा करने का भी विधान है l परिक्रमा आप समझते हैं? परिक्रमा का मतलब होता है – प्रदक्षिणा, पुण्य प्रदक्षिणा जिसे कहा जाता है l

परिक्रमा हमारी हिंदू संस्कृति का बहुत महत्वपूर्ण अंग है l आपने अगर कभी देखा हो कि हम मंदिरों की पूजा करते हैं, यज्ञ की पूजा करते हैं और जिस स्थान पर किसी महापुरुष के चरण पड़े हैं यानी गंगा जैसे स्थान की हम परिक्रमा करते हैं l

उस स्थान को पवित्र जानकर उसकी परिक्रमा की जाती है l अधिकतर मंदिरों के बाहर परिक्रमा का एक पथ बना होता है, रास्ता बना होता है, इसलिए इसे ”प्रदक्षिणा” कहा जाता है l

माता-पिता की प्रदक्षिणा को बहुत उत्तम गिना जाता है l जब उनके चारों तरफ परिक्रमा की जाती है, उनके चरणों का स्पर्श भी किया जाता है l

माता-पिता के चरणों का स्पर्श करने से या बड़े-बुजुर्गों के चरणों का स्पर्श करने से “बल, बुद्धि, विद्या और आयु” मिलते हैं l

बल यानि पावर या शक्ति, बुद्धि यानि विद्या मतलब पढ़ाई, आयु मतलब उम्र. ये चारों चीज़ें माता-पिता के चरणों को स्पर्श करते ही सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं lवर्तमान समय के पुत्र माता-पिता की कैसी सेवा करने वाले और कैसे भक्त हैं, यह तो प्रत्येक विवेकी व्यक्ति समझ सकता है।

शास्त्रों का तो कथन है कि ‘संसार में बसने वाली आत्मा यदि क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने माता-पिता की अवज्ञा करे तो उसके समान कोई दुष्ट नहीं है।’

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि व्यक्ति की मरणोपरांत दाह संस्कार एवं पिंड दान का कार्य तथा उसके उपरांत प्रतिवर्ष श्राद्ध आदि कार्य पुत्र के द्वारा ही किए जाने चाहिए अन्यथा व्यक्ति (जीवात्मा) की मुक्ति नहीं होती।

शास्त्रों में तो पुत्र के लिए कर्तव्य बताया गया है कि स्वयं सुमार्ग पर चलकर मातापिता को भी सुमार्ग की ओर, धर्म की ओर मोडे तो ही उनके उपकार का बदला चुकाया जा सकता है। मातापिता मोहवश पुत्र को सुमार्ग पर जाने से रोके तो एक बार उनकी अवज्ञा कर के भी स्वयं सुमार्ग पर दृढ हों और फिर उन्हें भी सुमार्ग की ओर उन्मुख करें।

एक बेटे के क्या कर्तव्य होते हैं?

माता पिता की सेवा किस तरह करनी चाहिए और कैसी करनी चाहिए?

उन्हें आप स्वयं स्नान कराएं, उन्हें खिलाकर खाएं, उन्हें नींद आने पर आप सोएं, उनसे पहले आप जग जाएं, जब वे सोएं तब उनकी चरण-सेवा करें, उठते समय भी उनकी चरण-सेवा करें, मधुर स्वर में उन्हें जगाएं और तुरन्त चरणों में नमस्कार करें।

क्या यह सब आप करते हैं? आप तो यदि खाने की कोई उत्तम वस्तु लाते हैं, तो स्वयं खा जाते हैं और ऊपर से यह कहते हैं कि ‘उस बुड्ढे को क्या खिलाना है?’

माता-पिता के लिए राज्य-सिंहासन को ठोकर मार देने के भी शास्त्रों में दृष्टांत हैं। माता-पिता चौबीसों घण्टे धर्म की आराधना कर सकें, ऐसी व्यवस्था पुत्रों को अवश्य करनी ही चाहिए।

यहां जो बात है वह आत्म-कल्याण संबंधी है।

यदि मोह घटाना हो तो ही माता-पिता से बिछुडने की बात है। स्वार्थ वश माता-पिता की आज्ञा का उलंघन कर के अलग रहने वाले पुत्र तो कृतघ्नी ही होते हैं। माता पिता के प्रत्येक सपने को पूरा करना ।

सदा उनकी आज्ञा मानना

उन्हें अकेला नही छोड़ना

उनकी गरिमा बनाएँ रखना

हमेशा उनका सम्मान करना

यह कर्तव्य सभी आयु वर्ग के बच्चों को अपने माता-पिता के huलिए पूरा करना चाहिए

एक बेटे को अपनी जिम्मेदारियां समझनी चाहिए। उसे अपने माँ बाप का ध्यान रखना चाहिए।

बड़ो का सम्मान करना चाहिए। हमेशा अपने माता पिता की इज्जत करनी चाहिए उनका हित और प्रसन्नता जिस कार्य, दिशा, संदेश, आदेश में हो, वह बिना किसी हिचक के तत्परतापूर्वक करना हमारा उनके प्रति कर्तव्य है।

धर्म का फल मनुष्य को तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति निष्ठापूर्वक धर्म का आचरण करता है। जब वह दया, प्रेम, करुणा आदि गुणों को जीवन में अमल में लाकर मानव सेवा में तत्पर होता है।

जो कार्य मानवता के कल्याण के लिए हो, उसी का दूसरा नाम धर्म है।

जो व्यक्ति धार्मिक है, जिसकी वृत्तियां श्रेष्ठ हैं उसे परमात्मा की अनुभूति में देर नहीं लगती है।

धर्म है गिरतों को उठाना, भूखे को भोजन कराना, प्यासे को पानी पिलाना। धर्म वह नहीं, जो सिर्फ धार्मिक स्थलों पर पूजा-पाठ के द्वारा ही दिख सकता है, बल्कि इसे नित्यप्रति के जीवन में उतारना आवश्यक है।

मानव सेवा करना मानव धर्म है तो वहीं राष्ट्र के प्रति समर्पित होना राष्ट्र धर्म है। एक धर्म गृहस्थ का भी है।

धार्मिक व्यक्ति वह है, जो प्रेम, शांति और करुणा को जीवन में महत्व देता है। जो अपने खाने की चिंता तो दूर अपने साथ-साथ न जाने कितने लोगों का उद्धार करता है।

धर्म वह है, जो किसी के आंख के आंसू पोंछ सके, किसी के चेहरे पर मुस्कराहट ला सके। ऐसा धार्मिक व्यक्ति दीपक जलाते समय इस बात का ध्यान रखता है कि वह दीपक से और दीपक प्रदीप्त करे।

धरा से अंधेरा मिटे, और लोगों में जाग्रति आए। स्वयं के प्रति और समाज के प्रति। धार्मिक व्यक्ति जीवन में कुछ ऐसा कर गुजरता है कि लोग उसके जाने के बाद भी उसे याद करते हैं।

धर्म का संबंध ईश्वर में मनुष्य की आस्था से है। यह जीवन का आधार है। मानव समाज को यथार्थ ज्ञान देकर जीवन के सही मूल्यों को समझाना धर्म है।

धर्म विराट है। इसकी व्यापकता को चारदिवारी में नहीं बांध सकते हैं। धर्म में रहना मनुष्य का जीवन का मूल मंत्र है ।