Home जीवन परिचय चक्रवर्ती सम्राट राजा विक्रमादित्य (Vikramaditya)

चक्रवर्ती सम्राट राजा विक्रमादित्य (Vikramaditya)

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भारत में चक्रवर्ती सम्राट उसे कहा जाता है जिसका की संपूर्ण भारत में राज रहा है।

ऋषभदेव के पुत्र राजा भरत पहले चक्रवर्ती सम्राट थे, जिनके नाम पर ही इस अजनाभखंड का नाम भारत पड़ा।

उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य भी चक्रवर्ती सम्राट थे।

राजा विक्रमादित्य का जन्म

सम्राट विक्रमादित्य का जन्म 101 ईशा पूर्व हुआ था और इन्होंने लगभग 100 वर्ष तक राज किया।

महाराजा विक्रमादित्य का वर्णन स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में भी मिलता है।

विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। विक्रम वेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई है।

विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे ।

अपनी बुद्धि, अपने पराक्रम, अपने जूनून से इनका नाम आर्यावर्त के इतिहास में अमर है।

राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा का हाल-चाल देखने के लिए साधारण वस्त्रों में  या वेश बदलकरअपने राज्य का भ्रमण करते थे राजा विक्रमादित्य अपने न्याय व्यवस्था को मजबूत करने के लिए हर संभव प्रयास करते थे

उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य प्राचीन भारत के एक महान सम्राट हैं , जिन्हें अक्सर एक आदर्श राजा के रूप में जाना जाता है, उन्हें उनकी उदारता, साहस और विद्वानों के संरक्षण के लिए जाना जाता है।

विक्रमादित्य को सैकड़ों पारंपरिक भारतीय किंवदंतियों में चित्रित किया गया है, जिनमें बैयल पचीसी और सिंघासन बत्तीसी शामिल हैं, कई लोग उन्हें उज्जैन में अपनी राजधानी के साथ एक सार्वभौमिक शासक के रूप में वर्णित करते हैं ।

 उनके पराक्रम को देखकर ही उन्हें महान सम्राट कहा गया और उनके नाम की उपाधि कुल 14 भारतीय राजाओं को दी गई। “विक्रमादित्य” की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं।

राजा विक्रमादित्य नाम, ‘विक्रम’ और ‘आदित्य’ के समास से बना है जिसका अर्थ ‘पराक्रम का सूर्य’ या ‘सूर्य के समान पराक्रमी’ है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)।

राजा विक्रमादित्य का परिचय

विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2288 वर्ष पूर्व हुए थे।

नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। राजा गंधर्व सेन का एक मंदिर मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के आगे गंधर्वपुरी में बना हुआ है।

यह गांव बहुत ही रहस्यमयी गांव है। उनके पिता को महेंद्रादित्य भी कहते थे। उनके और भी नाम थे जैसे गर्द भिल्ल, गदर्भवेष।

गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमादित्य ब्रहरताहारी के छोटे भाई थे, जिन्होंने सांसारिक सुखों को त्याग दिया और शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में एक गुफा में तपस्या की।विक्रम की माता का नाम सौम्यदर्शना था जिन्हें वीरमती और मदनरेखा भी कहते थे।

उनकी एक बहन थी जिसे मैनावती कहते थे। 

उनकी पांच पत्नियां थी, मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी।

उनकी दो पुत्र विक्रमचरित और विनयपाल और दो पुत्रियां प्रियंगुमंजरी (विद्योत्तमा) और वसुंधरा थीं। गोपीचंद नाम का उनका एक भानजा था।

प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है। राज पुरोहित त्रिविक्रम और वसुमित्र थे। मंत्री भट्टि और बहसिंधु थे। सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे ।

कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया।  विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे।

विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।

राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव कार्य करते थे। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रीय राजाओं में से एक माने गए हैं।

कहा जाता है कि मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था। भर्तृहरित के शासन काल में शको का आक्रमण बढ़ गया था। भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो विक्रम सेना ने शासन संभाला और उन्होंने ईसा पूर्व 57-58 में सबसे पहले शको को अपने शासन क्षेत्र से बहार खदेड़ दिया।

इसी की याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्ति कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलाया।

कहते हैं कि उन्होंने अपनी सेना की फिर से गठन किया। उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बई गई थी, जिसने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति कर एक छत्र शासन को कायम किया।

कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी।

जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था।

नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।

 राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

 ईशु मसीह राजा विक्रमादित्य के ही समकालिक थे। राजा विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्त्र तक फैला हुआ था। प्राचीन अरब साहित्य में भी विक्रमादित्य का वर्णन मिलता है।

विक्रमादित्य प्राचीन भारतीय नगरी उज्जयिनी ( उज्जैन) के राजा थे और वो पूरे विश्व में अपनी उदारता, ज्ञान और वीरता के लिए प्रसिद्ध थे।

इन्होंने शको को हराया था। नेपाली राजवंशवाली के अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय में राजा विक्रमादित्य के नेपाल यात्रा का भी उल्लेख है।

राजा विक्रमादित्य के बाद में कई राजाओं ने ये उपाधि रख ली और ये बहुत ही सम्मान की उपाधि मानी जाती थी जैसे श्री हर्ष, शुद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

विक्रम सम्वत का आरंभ भी राजा विक्रमादित्य ने 57 ईसा पूर्व शुरू किया।

राजा विक्रमादित्य के गुरु का नाम

राजा विक्रमादित्य ने गुरु गोरक्षनाथ से अपनी शिक्षा ग्रहण की थी राजा विक्रमादित्य श्री गुरु गोरक्षनाथ जी से गुरु दीक्षा लेकर राजपाट संभालने लगे और आज उन्हीं के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है और हमारी संस्कृति बची हुई है

राजा विक्रमादित्य का राज्य

विक्रमादित्य के शासन काल का नक्शा देख कर ही उनके शासन काल की भव्यता का अंदाजा लगा सकते हैं।

आज का पूरा भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्की, अफ्रीका, अरब, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, श्रीलंका, चीन और रोम तक राजा विक्रमादित्य का राज्य फैला हुआ था।

उन्होंने रोम के राजा और शक राजाओं को मिलाकर 95 देश जीते। लोकतंत्र की शुरुआत राजा विक्रमादित्य ने ही किया था। परमार वंश के राजपूत राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में सेनापति प्रजा खुद चुनती थी।

आजकल जो शक्ति अमेरिका या रूस के राष्ट्रपति के पास है वही शक्ति राजा विक्रमादित्य के सेनापति के पास होती थी लेकीन वो सारा काम विक्रमादित्य की आज्ञा से ही करते थे।

विक्रमादित्य ने खुद को राजा नही बल्कि प्रजा का सेवक घोषित कर रखा था।

पहला शक राजा मास था उसने ईशा की सदी से पूर्व गांधार को जीत लिया था। उसके बाद एजेस नाम का राजा ने गद्दी संभाली और उसने शक के राज्य को आगे बढ़ाकर पंजाब तक कर दिया।

शक राजा गवर्नर प्रणाली से राज्य चलाते थे। इन्हीं शक राजाओं से प्रेरित गवर्नर “क्षत्रप” कहलाते थे।

इन गवर्नरों ने तकशीला से मथुरा तक राज्य किया है, ये शक लोग विंधयाचल पार करके दक्षिण की ओर भी गए।

इसीलिए विक्रमादित्य को मालवा और गुजरात के आस पास शकों (क्षत्रापों) से लड़ना पड़ा। विक्रमादित्य ने इनको बुरी तरह हराया।

विक्रमादित्य मालव राजपूत जाति से थे जो आज परमार कहलाते हैं।

इनका वर्णन हरिवंश पुराण में है इनको चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा जाता था। मालव वंश के लोगों ने महाभारत में कौरवों का साथ दिया था।

अभी भी कुछ मल्ल वंशी क्षत्रिय नेपाल की तराई में रहते हैं। विक्रमादित्य ने शकों, हूणो को मारकर अरब तक खदेड़ दिया और शकारी की उपाधि ग्रहण की।

विक्रमादित्य ने अरब में मक्केश्वर महादेव की स्थापना की। अरब साहित्य और अरब इतिहास में इसका वर्णन है।

हालंकि मुस्लिम शासकों ने बहुत जगह से उनका वर्णन हटा दिया है। ऐसा कहा जाता है कि ‘अरब’ का वास्तविक नाम ‘अरबस्थान’ है।

‘अरबस्थान’ शब्द आया संस्कृत शब्द ‘अटवस्थान’ से, जिसका अर्थ होता है ‘घोड़ों की भूमि, और हम सभी को पता है कि ‘अरब’ घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है।

विक्रमादित्य ने तत्कालीन रोमन सम्राट को बंदी बना लिया था।

राजा विक्रमादित्य की वीरता

शुग वंश के बाद शकों ने पंजाब के रास्ते भारत में प्रवेश किया और भारत को तहस नहस कर डाला था।

विक्रमादित्य ने इन शकों को पंजाब के रास्ते वापस भगाया और पुष्यमित्र शुंग की मृत्यू के बाद जो हिंदु शकों का शिकार हो रहे थे उनको फिर से संगठित करके नई जान डाल दी।

विक्रमादित्य जमीन पर सोते थे और अल्पाहार ही लेते थे इन्होंने योग के बल पर अपना शरीर वज्र सा बना दिया था।

राजा विक्रमादित्य का व्यक्तित्व

कलर राज तरंगिणी के अनुसार 14 ईसवी केआसपास कश्मीर में अंतर युधिस्टर वंश के राजा हिरणयक के निसंतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी जिसको लेकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मात्र गुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था ।

नेपाली राज वंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशु बर्मन के समय उज्जैन के राजा विक्रमादित्य नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।

राजा विक्रम का भारत के संस्कृत ,प्राकृतिक ,अर्थ मांगती ,हिंदी ,गुजराती, मराठी ,आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है उनकी वीरता, उतारता ,दया ,क्षमा आदि गुणों की अनेक कथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी है सम्राट विक्रमादित्य का इतिहास

इनके सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे। भगवान श्री राम के बाद सबसे प्रभावशाली राजा विक्रमादित्य ही हुए हैं जिन्होंने भारत में राम राज की स्थापना की।

एक समय ऐसा था जब बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार के कारण पूरे भारत में लोगों ने अहिंसा का मार्ग अपना लिया था। विदेशी लगातार हमले कर रहे थे और भारत के लोग बहुत परेशान थे।

शक, हूण और कुषाण शासकों ने आक्रमण करके खूब आतंक मचा रखा था। ऐसे में विक्रमादित्य ने इन सबको हराकर भारत की प्रजा को बचाए रखा। बनारस के शिव मन्दिर का पुनः निर्माण भी विक्रमादित्य ने करवाया।

भारत की संस्कृति अगर सुरक्षित है तो वो विक्रमादित्य के कारण। अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया था इस कारण भारत में सनातन धर्म लगभग समाप्ति की कगार पर आ गया था। क्योंकी लोग बौद्ध और जैन धर्म में परिवर्तित रहे थे।

रामायण, महाभारत और गीता जैसे ग्रन्थ खोने लगे थे। विक्रमादित्य ने उनको पुनः खोज करवा कर स्थापित करवाया। विक्रमादित्य ने पूरे विश्व में विष्णु और शिव जी के मन्दिर बनवाए।

अगर विक्रमादित्य सनातन धर्म की रक्षा ना करते तो शायद आज भारत पर एक भी हिंदू ना बचता क्युकी सारे लोग बौद्ध होने लगे थे और बौद्ध होने के कारण सब अहिंसा का पालन करते हुए कोई भी अस्त्र शस्त्र या सेना नही रखते थे।

जिसके कारण विदेशी आक्रमण बहुत हो रहे थे। विक्रमदित्य ने ही फिर से सनातन धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया। विक्रमादित्य ने भी श्री गुरु गोरक्ष नाथ जी से दीक्षा ली थी।

भारत बना सोने की चिड़िया

विक्रमादित्य के काल में भारत का कपड़ा विदेशी व्यापारी सोने के वजन से खरीदते थे इससे भारत में इतना सोना आ गया की विक्रमादित्य के काल में सोने के सिक्के चलते थे।

विदेशी व्यापारी कई चीजों के बदले सोना देते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं की पद्मनाभमान स्वामी के मंदिर का खजाना, कोहिनूर हीरा, मोर सिंघाहन आदि में कितना खज़ाना था।

भारत हमेशा से कृषि प्रधान देश रहा है तो अन्न की कमी नहीं थी जो भी अधिक उत्पादन होता था उसे बाहर भेज दिया जाता था। भारत में अनेक खदाने थी जिससे हथियार, सिक्के और अन्य धातु बनाने में उपयोग में लाया जाता था।

कैलेंडर भी विक्रमादित्य का स्थापित किया हुआ है। ज्योतिष गड़ना जैसे: हिंदी सम्वत, वार, तिथियां, राशि, नक्षत्र, गोचर आदि उन्ही के काल में अच्छी तरह उपयोग की गई। कालीदास, धनवंतरी, वराहमिहिर जैसे विद्वान विक्रमादित्य के दरबार में थे।

विक्रमादित्य का शासन और कार्य

विक्रमादित्य का शासन अरब तक था और रोमन के सम्राट से उनकी प्रतिद्वंद्धा चलती थी। विक्रमादित्य ने रोम के शासक जूलियस सीजर को हराया था

जूलियस सीजर ने विक्रम सम्वत का प्रचलन रोक दिया था और येरुशलम, मिस्त्र और अरब पर आक्रमण कर दिया था।

रोमन ने अपनी इस हार को छुपाने के लिए इस घटना को इतिहास में बहुत घुमा फिरा कर प्रस्तुत किया जिसमे रोमानो ने बताया की जल दस्यु ने सीजर का अपहरण कर लिया और बाद में जूलियस सीजर अपनी वीरता से वापस आने में सफल हुआ।

रोमानों ने विक्रम संवत की नकल करके नया रोमन कैलेंडर भी बनाया जिसको ईसाइयों ने यीशु के जन्म के बाद अपना लिया। जिसे हम आज ईसा पूर्व और ईसा बाद मानते हैं।

विक्रमादित्य के समय में अरब में यमन, इराक आसुरी, ईरान में पारस्य और भारत में आर्य सभ्यता के लोग रहते थे। यह असुर शब्द असुरी से बना है और जो इराक के पास सीरिया है वह भी असुरिया से प्रेरित है।

विक्रमादित्य के काल में विश्व भर में शिवलिंगों का जीर्णो उद्धार किया गया। कर्क रेखा पर निर्मित ज्योतिर्लिंग में प्रमुख थे गुजरात का सोमनाथ, उज्जैन का महाकालेश्वर और काशी में विश्वनाथ मन्दिर।

विक्रमादित्य ने कर्क रेखा के आस पास 108 शिवलिंगों का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य ने ही नेपाल के पशुपतिनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ मंदिरो को फिर से बनवाया। इसके लिए उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों, खगोल वैज्ञानिक और वास्तुविदो से भरपूर मदत ली थी।

बौद्ध, मुगल, अंग्रेज आदि के द्वारा नष्ट करने के बाद भी भारत की संस्कृति के प्रमाण अन्य,अन्य भाषाओं और प्राचीन जगहों पर मिल जाते है। हालंकि मुगलों और अंग्रेजो ने हमारी संस्कृति का 80% से भी ज्यादा प्रमाण नष्ट कर दिया था।

विक्रमादित्य द्वारा सेना का गठन

राजा विक्रमादित्य ने अपनी भूमि को विदेशी राजाओं से मुक्त कराने के लिए एक सेना का गठन किया उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई थी जिसने सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर विदेशी और अत्याचारी राजाओं से अपनी भूमि को मुक्त करा कर एकक्षेत्र शासन को कायम किया।

महाकवि कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदभरण के अनुसार उनके पास 30 मिलियन सैनिकों, 100 मिलियन विभिन्न वाहनों, 25 हजार हाथी और 400 हजार समुद्री जहाजों की एक सेना थी।

कहते हैं कि उन्होंने ही विश्‍व में सर्व प्रथम 1700 मील की विश्व की सबसे लंबी सड़क बनाई थी जिसके चलते विश्व व्यापार सुगम हो चला था।

विक्रमादित्य का स्वभाव

राजा विक्रमादित्य बहुत ही उदारवादी ,दयालु और कर्तव्यनिष्ठ थे वह हर एक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचते थे उन्होंने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया उन्होंने सूरज से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा की शिक्षा का उजाला फैल सके इन विद्वानों ने भगवान की उपस्थिति और सत्य के मार्ग को बता कर हमारे ऊपर एक परोपकार किया यह विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश के अनुसार यहां शिक्षा देने के लिए आए थे

विक्रम संवत के प्रवर्तक

देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं।

इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।

विक्रम संवत की शुरुआत

राजा विक्रमादित्य को इतिहास में न्यायप्रिय और लोकप्रिय राजाओं मे से एक माने गए हैं मालवा में इनके भाई भर्तृहरि का शासन था।

भरथरी के शासनकाल में शकुं का आक्रमण बढ़ गया था इसके बाद इनके भाई ने वैराग्य धारण कर राजपाट त्याग दिया

इसके बाद विक्रमादित्य ने ही शासन संभाला  विक्रमादित्य ने 78 के  आसपास शकुं शासक को पराजित किया और क्रूर नाम के एक स्थान पर उस शासक की हत्या कर दी और शकुं को 57-58 के बीच अपने शासन क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिया इसी की याद में उन्होंने  विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया

राजा विक्रमादित्य की शिक्षा

एक बार राजा विक्रमादित्य ने ऐलान कराया कि कल सुबह जब मेरे महल का मुख्य दरवाजा खोला जाएगा, तब जिसने महल में जिस भी चीज को हाथ लगा दिया, वह चीज उसकी हो जाएगी।

यह ऐलान सुनकर सभी लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं तो सबसे कीमती चीज को हाथ लगाऊंगा। दूसरे दिन सुबह जब महल का मुख्य दरवाजा खुला, तो सभी लोग अपनी-अपनी मनपसंद चीजों को पाने के लिए दौड़ने लगे।

सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद चीजों को हाथ लगा दूं, ताकि वह चीज हमेशा के लिए मेरी हो जाए। राजा विक्रमादित्य अपनी जगह पर बैठे सबको देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे।

उसी समय उस भीड़ में से एक समझदार युवक राजा विक्रमादित्य की तरफ बढ़ने लगा और राजा के करीब पहुंच कर उसने उनको छू लिया।

हाथ लगाते ही राजा विक्रमादित्य उसके हो गए और राजा की हर चीज भी उसकी हो गई। यह नजारा देख राज्य के कुलगुरु के साथ राज्य की प्रजा भी हैरान हो गई।

फिर कुलगुरु उठे और सबको समझाते हुए बोले, ‘जिस तरह राजा विक्रमादित्य ने सारी प्रजा को जो मौका दिया था, उस मौके का सही फायदा उठाने में लगभग सारी की सारी प्रजा ने ही गलतियां कीं।

ठीक इसी तरह सारी दुनिया का मालिक भी हम सबको हर रोज मौका देता है, लेकिन अफसोस कि हम लोग भी हर रोज गलतियां करते हैं। हम प्रभु को पाने की बजाय उस परमपिता की बनाई हुई दुनिया की चीजों की कामना करते हैं।

लेकिन कभी भी हम लोग इस बात पर गौर नहीं करते कि क्यों न दुनिया को बनाने वाले प्रभु को ही पा लिया जाए।’ कुलगुरु के वचनों को सुनकर समस्त प्रजा को समझ आ गया कि यह उनकी परीक्षा थी।

वह एक न्यायप्रिय और परोपकारी राजा था और इतने प्रसिद्ध थे कि उनकी प्रशंसा सभी देशों में गाई जाती थी, एक अरबी कविता इस प्रकार चलती है जैसे सैर-उल-ओकुल पृष्ठ 315 यह कविता जिरहाम बिन्तोई की थी। यह पुस्तक कथित रूप से तुर्की पुस्तकालय में उपलब्ध है जिसे मख्तब-ए-सुल्तानिया के नाम से जाना जाता है, जिसे पश्चिम एशियाई साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह माना जाता है।

इस प्रकार कविता की पहली पंक्ति चलती है

इत्रशप्ताई संतुल बिक्रमतुल फेहलामीन करीमुन

(जिसका अनुवाद किया गया है, भाग्यशाली वे हैं जो राजा बिक्रम (विक्रम) के शासनकाल के दौरान पैदा हुए और रहते थे) …

राजा विक्रमादित्य की गौरव गाथाएं

बृहत्कथा –

बृहतकथाओं में इनकी काफ़ी गौरव गाथाएं संगृहीत हैं. ये दसवीं से बारहवीं सदी के बीच रचित ग्रन्थ है. इसमें प्रथम महान गाथा विक्रमादित्य और परिष्ठाना के राजा के बीच की दुश्मनी की है।

इसमें राजा विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन की जगह पाटलिपुत्र दी गयी है. एक कथा के अनुसार राजा विक्रमादित्य बहुत ही न्यायप्रिय राजा थे. उनकी न्यायप्रियता और अन्य करने की बुद्धि से स्वर्ग के राजा इंद्र ने उन्हें स्वर्ग बुलाया था।

उन्होंने अपनी एक न्याय प्रणाली में राजा विक्रमादित्य से राय ली थी. स्वर्ग के राजा इन्द्र ने उन्हें स्वर्ग में हो रही एक सभा में भेजा, वहाँ पर दो अप्सराओं के बीच नृत्य की प्रतियोगिता थी।

ये दो अप्साराएँ थीं रम्भा और उर्वशी. भगवन इंद्र ने राजा विक्रमादित्य से पूछा कि उन्हें कौन सी अप्सरा बेहतर नर्तकी लगती है. राजा को एक तरकीब सूझी उन्होंने दोनों अप्साराओं के हाथ में एक –एक फूल का गुच्छा दिया और उसपर एक एक बिच्छु भी रख दिया।

राजा ने दोनों नर्तकियों को कहा कि नृत्य के दौरान ये फूल के गुच्छे यूँ ही खड़े रहने चाहिए. रम्भा ने जैसे ही नाचना शुरू किया उसे बिच्छु ने काट लिया।

रम्भा ने फूल का गुच्छा हाथ से फेंक कर नाचना बंद कर दिया।

वहीँ दूसरी तरफ़ जब उर्वशी ने नाचना शुरू किया तो वह बहुत ही अच्छी तरह अति सुन्दर मुद्राओं में नाची. फूल पर रखे बिच्छु को कोई तकलीफ नहीं हो रही थी, जो बहुत आराम से सो गया और उर्वशी को बिच्छु का डंक नहीं सहना पड़ा. राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उर्वशी ही बहुत काबिल और रम्भा से बेहतर नर्तकी है।

न्याय की इस बुद्धि और विवेकशीलता को देख कर भगवान् इंद्र उनसे बहुत ही प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुए. उन्होंने राजा विक्रमादित्य को 32 बोलने वाली मूर्तियाँ भेंट की।

ये मुर्तिया अभिशप्त थीं और इनका शाप किसी चक्रवर्ती राजा के न्याय से ही कट सकता था।

इन 32 मूर्तियों के अपने नाम थे. इनके नाम क्रमशः रत्नमंजरी, चित्रलेखा, चन्द्रकला, कामकंदला, लीलावती, रविभामा, कौमुधे, पुष्पवती, मधुमालती, प्रभावती, त्रिलोचना, पद्मावती, कीत्रिमती, सुनैना, सुन्दरवती सत्यवती, विध्यति, तारावती, रूप रेखा, ज्ञानवती, चन्द्रज्योति, अनुरोधवती, धर्मवती, करुणावती, त्रिनेत्र, मृगनयनी, वैदेही, मानवती, जयलक्ष्मी, कौशल्या, रानी रूपवती थे, इन प्रतिमाओं की सुन्दरता का वर्णन समस्त ब्रम्हाण्ड में विख्यात था।

राजा विक्रमादित्य की गाथाएं संस्कृत के साथ कई अन्य भाषाओँ की कहानियों में भी देखने मिलते हैं।

उनके नाम कई महागाथाओं और कई ऐतिहासिक मीनारों में देखने मिलते हैं, जिनका ऐतिहासिक विवरण तक नहीं मिल पाता है।

इन कहानियों मे विक्रम बैताल और सिहासन बत्तीसी की कहानियाँ अति रोचक महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक है. इन काहनियो में कहीं कहीं अलौकिक घटनाएँ भी देखने मिलती हैं।

इन घटनों पर हालाँकि 21 वीं सदी में विश्वास करना कुछ नामुमकिन सा लगता है,  लेकिन इन कहानियों का मूल सरोकार न्याय की स्थापना से था. बैताल पच्चीसी में कुल 25 कहानियाँ हैं और सिंहासन बत्तीसी में कुल बत्तीस न्यायपूर्ण कहानियां हैं.

बैताल पच्चीसी

अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है।

संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी (“पिशाच की 25 कहानियां”) और सिंहासन-द्वात्रिंशिका (“सिंहासन की 32 कहानियां” जो सिहांसन बत्तीसी के नाम से भी विख्यात हैं)।

इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।

पिशाच (बेताल) की कहानियों में बेताल, पच्चीस कहानियां सुनाता है, जिसमें राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है और वह राजा को उलझन पैदा करने वाली कहानियां सुनाता है और उनका अंत राजा के समक्ष एक प्रश्न रखते हुए करता है।

वस्तुतः पहले एक साधु, राजा से विनती करते हैं कि वे बेताल से बिना कोई शब्द बोले उसे उनके पास ले आएं, नहीं तो बेताल उड़ कर वापस अपनी जगह चला जाएगा|

राजा केवल उस स्थिति में ही चुप रह सकते थे, जब वे उत्तर न जानते हों, अन्यथा राजा का सिर फट जाता| दुर्भाग्यवश, राजा को पता चलता है कि वे उसके सारे सवालों का जवाब जानते हैं; इसीलिए विक्रमादित्य को उलझन में डालने वाले अंतिम सवाल तक, बेताल को पकड़ने और फिर उसके छूट जाने का सिलसिला चौबीस बार चलता है।

इन कहानियों का एक रूपांतरण कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता है।

सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन के क़िस्से, विक्रमादित्य के उस सिंहासन से जुड़े हुए हैं जो खो गया था और कई सदियों बाद धार के परमार राजा भोज द्वारा बरामद किया गया था।

स्वयं राजा भोज भी काफ़ी प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है। इस सिंहासन में 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो बोल सकती थीं और राजा को चुनौती देती हैं कि राजा केवल उस स्थिति में ही सिंहासन पर बैठ सकते हैं, यदि वे उनके द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में विक्रमादित्य की तरह उदार हैं।

इससे विक्रमादित्य की 32 कोशिशें (और 32 कहानियां) सामने आती हैं और हर बार भोज अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंत में पुतलियां उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं।

विक्रमादित्य की 32 पुतलियों के नाम

रतन मंजरी, चित्रलेखा, चंद्रकला, काम कांधला, लीलावती, रवि भामा, कौमुदी, पुष्पावती, मधुमालती, प्रभावती, त्रिलोचना, पद्मावती,  कीर्ति मती, सुनयना,सुंदरवती, सत्यवती, विद्यावती, तारावती, रूपरेखा, ज्ञानवती, चंद्र ज्योति, अनुरोध वती, धर्मवती, करुणावती, त्रिनेत्री, मृगनयनी, मलयवती ,वैदेही, मानवती, जय लक्ष्मी, कौशल्या, रानी रूपवती

सिंघासन बत्तीसी में वर्णित विक्रमादित्य के 32 गुण क्या हैं?

यह गुण भगवत गीता में लिखे गए हैं जिन्हें “देवी संपति” के नाम से भी जाना जाता है। जिसके पास यह गुण है वह व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है और इस पृथ्वी (माया) पर खुशी से रहेगा।

गुण हैं:

अहिंसा (अहिंसा)

सत्य (सत्य)

क्रोध मत करो (क्रुध न कर्ण)

जाने देने की भावना (त्याग)

मन में शांति (मान की शांति)

किसी के बारे में बुरा मत कहो (नींदा ना कर्ण)

नरम दिल व्यक्ति (दया)

क्षमा (माफी)

खुशी की ओर आकर्षित न हों (सुख के प्रति एक कर्षित न होना)

स्मार्टनेस (तेज)

धैर्य (धिराज)

मन की शुद्धि (शरिर की शुद्ध ता)

अहंकार और वृत्ति न रखें (अहंकार न कर्ण)

बिना वजह कोई काम नहीं करना (बिना करना कोई कार्य न करना)

ईमानदारी/सच्चाई को मत भूलना; गलत रास्ते पर मत चलो (धर्म का धोरो ना कर्ण)

किसी चीज से या किसी से मत डरो (निर्भयता)

कोमल / अच्छी आत्मा (अंदर नी शुद्धि)

ध्यान/प्रार्थना/आध्यात्मिकता (आध्यात्मिक ध्यान)

अपने आप पर नियंत्रण रखें

सादगी

शांत

हर किसी के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहे वह आपका दोस्त हो या दुश्मन।

शर्मीलापन (लज्जा)

इसी तरह सिंहासन बत्तीसी में राजा विक्रमादित्य के राज्य को जीतने की कहानी है.

विक्रमादित्य के नवरत्न

नवरत्नों को रखने की परंपरा महान सम्राट विक्रमादित्य से ही शुरू हुई है

हमारे इतिहास में अकबर के नौरत्न का जिक्र हर जगह है और विक्रमादित्य के नौ रत्नों का जिक्र कहीं नहीं किया गया।

विक्रमादित्य के राज्य में नौ रत्न थे जिनके बारे में हमको बहुत अधूरा सा पता है।

सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि कहे जाते हैं।

राजा विक्रमादित्य के दरबार में नौ बहुत महान विद्वान् थे, ये सभी अपने अपने क्षेत्र के महान विद्वान् थे।

वराहमिहिर आयुर्वेद के महान ज्ञाता थे, कालिदास महान कवि, वररुचि वैदिक ग्रंथों के ज्ञाता, भट्टी राज्नीत्विद थे.इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कवि, गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे।

 कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी।

वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना “नीति-प्रदीप” (“आचरण का दीया”) का श्रेय दिया है।

विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि

धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।

ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥

.धनवंतरी

धनवंतरी ऋषि को आर्युवेद का जनक माना गाय है। इन्ही के नाम पर धनवंतरी के माता पिता ने इनका नाम धनवंतरी रखा। इन्होंने आयुर्वेद के नौ ग्रंथो को रचा।  धनवंतरी ऋषि और धनवंतरी  दोनो अलग अलग है। धनवंतरी ऋषि विष्णु जी का रूप थे जबकि धनवंतरी जी विक्रमादित्य के शासन काल में आयुर्वेद के बहुत योग्य चिकित्सक थे

महाराज विक्रमादित्य के नवरत्न में से एक धन्वंतरि वैद्य और औषध वैज्ञानिक थे। उन्हें धन्वंतरि से उपमा दी गई है।

2) छड़पक

ये एक संन्यासी थे इन्होंने ही भिक्षाटन और नानार्थकोश की रचना की

3) अमर सिंह

ये एक प्रकांड विद्वान थे। इनके बारे में बोधगया में कई शिलालेख भी मिले है। इन्होंने अमरकोष ग्रन्थ की रचना की।

4) शंकु

ये संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। इनका काव्यग्रंथ भुवनाभुदायम बहुत प्रसिद्ध था। इसके बारे में आज भी पुरातत्वविद खोज कर रहे हैं और पड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

5) वेताल भट्ट

विक्रम और बेताल कहानी के रचियता यही थे और उन्होंने इसे संस्कृत में रचा था

6) घटखपर्र

माना जाता है की इनकी प्रतिज्ञा थी की जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे घड़े से पानी भरेंगे। इन्होंने घटखपर्र और नीतिसार का संस्कृत में रचना की।

7) कालीदास

कालीदास जी के बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं है। मां काली के दर्शन के कारण ही इनका नाम कालीदास पड़ा। इन्होंने बहुत से ग्रंथो ( अभिज्ञान शकुंतलम, विक्रमोवर्षियम, रघुवंशम, कुमारसम्भव, मेघदूत, रितुसंहार) और काव्यों की रचना की। जिसमे से शकुंतला उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है।

8) वराहमिहिर

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। सूर्य सिद्धांत, ब्रस्पति संहिता, पंच सिद्धांति, लघु जातक, समास संहिता, विवाह पटल, योग यात्रा आदि की रचना की।

9) वर्रुची

कालीदास की भांति ही वर्रुचि भी महान काव्यकर्ता थे। सादुक्ततिकर्नामृत, शुबाशितावाली, सारडर्र संहिता आदि की रचना की। अब तक आप समझ गए होगें की हमारा भारतीय इतिहास कितना गौरवपूर्ण रहा है।

किंतु मुस्लिम आक्रमणकारियों और अंग्रेजो द्वारा हमारे सम्पूर्ण इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया और बहुत से मूल ग्रंथ नष्ट कर दिए गए अन्यथा हिंदु धर्म की वैज्ञानिकता और विशालता का अनुमान लगाना भी कठिन हो जाता।

भविष्यत् पुराण की मान्यताओं के आधार पर भगवान शिव ने विक्रमादित्य को पृथ्वी पर भेजा था. शिव की पत्नी पार्वती ने बेताल को उनकी रक्षा के लिए और उनके सलाहकार के रूप में भेजा।

बैताल की कहानियों को सुनकर राजा ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया, उस यज्ञ के बाद उस घोड़े को विचरने के लिए छोड़ दिया गया, जहाँ जहाँ वह घोड़ा गया राजा का राज्य वहाँ तक फ़ैल गया।

पश्चिम में सिन्धु नदी, उत्तर में बद्रीनाथ, पूर्व में कपिल और दक्षिण मे रामेश्वरम तक इस राजा का राज्य फ़ैल गया. राजा ने उस समय के चार अग्निवंशी राजाओं की राजकुमारियों से विवाह कर अपने राज्य को और मजबूत कर लिया।

राजा विक्रमादित्य द्वारा स्थापित राज्य में कुल 18 राज्य थे।

विक्रमादित्य की इस सफलता पर सभी सूर्यवंशी खुश थे और चंद्रवंशी राज्यों में कोई ख़ुशी नहीं थी. इसके बाद राजा ने स्वर्ग का रुख किया.

ऐसा माना जाता है कि राजा विक्रमादित्य कलियुग के आरम्भ में कैलाश की ओर से पृथ्वी पर आये थे. उन्होंने महान साधुओं का एक दल बनाया जो पुराण और उप पुराण का पाठ किया करते थे।

इन साधुओं में गोरखनाथ, भर्तृहरि, लोमहर्सन, सौनाका आदि प्रमुख थे. इस तरह न्याय प्रिय राजा विक्रमादित्य ने अपने पराक्रम से लोगों की रक्षा भी की और साथ ही सदा धर्म स्थापना के कार्य में लगे रहे.

राजा विक्रमादित्य की मृत्यु कैसे हुई, उनकी मृत्यु के बाद उनके स्वर्ण सिंहासन का क्या हुआ, क्या वह आज भी धरती के अन्दर दबा हुआ है

इकत्तिस्वें दिन राजा भोज जब स्वर्ण सिंहासन की तरफ बढ़े तो उनके क़दमों को इकत्तीसवीं पुतली कौशल्या ने रोक लिया |

फिर उसने राजा विक्रमादित्य की जो कथा उन्हें सुनायी वो इस प्रकार थी ‘राजा विक्रमादित्य अब वृद्ध हो गए थे तथा अपने योगबल से उन्होंने यह भी जान लिया था कि उनका अन्त अब काफी निकट ही है ।

रहस्यमय प्रकाश का दिखाई पड़ना

वे राज-काज और धर्म कार्य दोनों में अपने को लगाए रखते थे । उन्होंने वन में भी साधना के लिए एक कुटिया बना रखी थी ।

एक दिन उसी कुटिया में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा । उन्होंने ध्यान से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा था ।

इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ सुन्दर सा भवन दिखाई पड़ा ।

उनके मन में भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने माँ काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया ।

उनके आदेश पर दोनों बेताल उन्हें पहाड़ी पर ले आए और उनसे बोले कि वे इसके आगे नहीं जा सकते ।

कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस भवन के चारों ओर एक योगी महात्मा ने तंत्र शक्ति का घेरा डाल रखा है तथा उस भवन में उनका निवास है ।

उन घेरों के भीतर वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उन योगी से अधिक हो ।

विक्रम ने वास्तविकता जानकर भवन की ओर कदम बढ़ा दिया । वे देखना चाहते थे कि उनका पुण्य उन योगी से अधिक है या नहीं ।

चलते-चलते वे भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए । तभी एकाएक कहीं से चलकर एक अग्नि पिण्ड आया और उनके पास स्थिर हो गया ।

उसी समय महल के भीतर से किसी का आज्ञाभरा स्वर सुनाई पड़ा । वह अग्निपिण्ड लगभग फिसलता हुआ पीछे चला गया और प्रवेश द्वार साफ़ हो गया ।

विक्रम अन्दर घुसे तो वही आवाज़ उनसे उनका परिचय पूछने लगी । उन्होंने कहा कि सब कुछ साफ़-साफ़ बताया जाए नहीं तो वह आने वाले को श्राप से भस्म कर देंगे ।

विक्रमादित्य तब तक कक्ष में पहुँच चुके थे और उन्होंने देखा कि एक योगी उन्हें देख कर उठ खड़े हुए । उन्होंने जब उन योगी को बताया कि वे विक्रमादित्य हैं तो योगी ने अपने को भाग्यशाली बताया ।

उन योगी महात्मा ने बताया कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे यह आशा उन्हें नहीं थी । योगी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा विक्रम से कुछ माँगने को बोले । राजा विक्रमादित्य ने उनसे तमाम सुविधाओं सहित वह भवन माँग लिया ।

विक्रमादित्य को वह भवन प्रसन्नता पूर्वक सौंपकर वह योगी महात्मा उसी वन में कहीं चले गए । चलते-चलते वह योगी काफी दूर पहुंचे तो उनकी भेंट उनके गुरु से हुई ।

उनके गुरु ने उनसे इस तरह भटकने का कारण जानना चाहा तो वह बोले कि भवन उन्होंने राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया है। उनके गुरु को हँसी आ गई ।

उन्होंने कहा कि इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ दानवीर को वह क्या दान करेंगे और उन्होंने उन्हें विक्रमादित्य के पास जाकर ब्राह्मण रूप में अपना भवन फिर से माँग लेने को कहा ।

वह योगी वेश बदलकर उस कुटिया में विक्रम से मिले जिसमें वे साधना करते थे । उन योगी ने रहने की जगह की याचना की । विक्रम ने उनसे अपनी इच्छित जगह माँगने को कहा तो उन्होंने वह भवन माँगा ।

विक्रम ने मुस्कुराकर कहा कि वह भवन ज्यों का त्यों छोड़कर वे उसी समय आ गए थे । उन्होंने बस उनकी परीक्षा लेने के लिए उनसे वह भवन मांग लिया था ।

इस कथा को सुनाने के बाद भी इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कथा खत्म नहीं की ।

राजा विक्रमादित्य की मृत्यु कैसे हुई, उनकी मृत्यु के बाद उनके स्वर्ण सिंहासन का क्या हुआराजा विक्रमादित्य की मृत्यु

वह बोली “राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, किन्तु वे थे तो मानव ही ।

मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने इहलीला त्याग दी । उनके मरते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया । उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी ।

जब उनकी चिता सजी तो उनकी चिता पर देवताओं ने फूलों की वर्षा की ।

विक्रमादित्य ने अपने जीवन काल में पूर्व और पश्चिम से आने वाली बर्बर जातियों को, जिन्होंने भारत वर्ष के अलग-अलग भागों में अपने पाँव जमा लिए थे, पूरे भारतवर्ष से उखाड़ फेंका |

उन्हें इतनी दूर तक खदेड़ा कि फिर सैकड़ों वर्षों तक उनकी भारतवर्ष की तरफ आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं पड़ी |

उनके राजपुरोहित और महामंत्री ने इस शुभ अवसर पर एक नया सम्वत प्रारम्भ करने का परामर्श दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और ‘विक्रम सम्वत’ का शुभारम्भ हुआ |

उनकी मृत्य के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को सम्राट घोषित किया गया । उसका धूमधाम से राज तिलक हुआ ।

मगर अश्चार्यजनक रूप से वह उनके सिंहासन पर नहीं बैठ सका । कहते हैं कि जब भी वह उस सिंहासन पर बैठने जाता, कुछ अदृश्य शक्तियां उसे रोक लेती, उसे आगे बढ़ने ही नहीं देती |

उसको पता नहीं चला कि पिता के सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है । वह उलझन में पड़ा था कि एक दिन स्वप्न में विक्रम खुद आए ।

उन्होंने अपने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा ।

उन्होंने उसे कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य-प्रताप तथा पुरुषार्थ से उस सिंहासन पर बैठने के योग्य हो जाएगा तो वे खुद उसे स्वप्न में आकर बता देंगे ।

किन्तु विक्रमादित्य उसके सपने में नहीं आए तो उसे नहीं सूझा कि इस सिंहासन का अब किया क्या जाए । उसने अपने राज्य के विद्वानों से परामर्श किया |

पंडितों और विद्वानों के परामर्श पर वह एक दिन पिता का स्मरण करके सोया तो विक्रम उसके सपने में आए

सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को ज़मीन में गहरे गड़वा देने के लिए कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी ।

उन्होंने कहा कि

जब भी पृथ्वी पर सर्वगुण सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन स्वयं धरती से बाहर आएगा और उसके पुरुषार्थ से उसके अधिकार में चला जाएगा ।

पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने सुबह में ही श्रमिकों को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया तथा उस सिंहासन को उसमें समाहित करवा दिया ।

इसके बाद वह खुद अम्बावती को अपनी नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा ।

विक्रमादित्य ने इस नश्वर संसार को त्याग दिया लेकिन आज भी, भगवान् राम के बाद अगर कोई सम्राट भारतीय जान मानस के ह्रदय पर राज करता है, तो वो विक्रमादित्य ही हैं |