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जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।

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जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई ।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा ।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा ।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा ।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥

जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा ।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना ।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥

भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा ।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

दोहा:
जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह ।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥

Source

Ramcharit Manas Choupai

अच्छे अवसर के इंतजार में हमें सामने आए माैके को नहीं छोड़ना चाहिए।

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बहुत समय पहले की बात है एक युवक को गांव के एक किसान की पुत्री से प्रेम हो गया।

वह युवती को देखने बार-बार गांव आने लगा। धीरे धीरे बात युवती के पिता तक पहुंच गयी। युवती का पिता बहुत समझदार था।

उसने तक किया की वह पहले इस युवक को परखेगा और उसक बाद तय करेगा कि उसे अपनी पुत्री देनी है या नहीं।

इसलिए उसने युवक से मिलने की इच्छा व्यक्त की। अगले ही दिन वह युवक किसान के घर पंहुचा।

किसान ने उससे पूछा कि मेरी बेटी से प्रेम करते हो? युवक ने हां में जवाब दिया।

उससे शादी करना चाहते हो? युवक ने फिर हां कहा। किसान ने कहा कि तुम्हें परीक्षा देनी होगी।

युवक इसके लिए तैयार हो गया। उसने पूछा के मुझे क्या करना होगा? किसान ने कहा कि मैं एक-एक करके अपने तीन बैल छोडूंगा।

यदि तुमे तीनों में से किसी एक की भी पूंछ पकड़ ली तो तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओगे, लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं कर सके तो तुम्हें वापस जाना होगा।

किसान युवक को अपने खेत पर ले गया। युवक पूंछ पकड़ने के लिए तैयार था। किसान ने पहला बैल छोड़ा।

युवक ने जैसे ही विशाल बैल को देखा, उसकी आँखे फटी की फटी रह र्गइ। उसने सोचा की इसकी पूंछ पकड़ना खतरनाक हो सकता है, इसलिए इसे जाने देना चाहिए और वह दूसरे बैल के आनेकी प्रतीक्षा करने लगा।


जैसे ही दूसरा बैल निकला, वह पहले बैल से ज्यादा खतरनाक था। उसके नुकीले सींग देखकर युवक डर गया और सोचने लगा कि इससे पहले वाला ही सही था।

अवसर हाथ से निकल चुका था। वह तीसरे की प्रतीक्षा करने लगा। तभी तीसरा बैल बाड़े से बाहर निकला। वह एकदम कमजोर था।

उसे देखकर युवक खुश हो गया कि इसकी पूंछ तो वह पकड़ ही लेगा। लेकिन, जैसे ही वह इस बैल की पूंछ पकड़ने के लिए आगे बढ़ा तो पता चला उसकी तो पूंछ ही नहीं है।

अब युवक के पास हाथ मलने के अलावा र्कोइ चारा ही नहीं था। वह मुंह लटकाकर गांव से चला गया और फिर कभी वापस नहीं लाैटा।

हम भी अक्सर इसी तरह अच्छे अवसर की प्रतीक्षा में मिलने वाले उपयोगी क्षणों की और ध्यान नहीं दे पाते है और बाद में पछताते रहते है।

सीख- लोग अच्छे अवसर के इंतजार में जिंदगी बिता देते है और जो माैके हाथ आते हैं उन्हें छोड़ देते है। जिसे वे अच्छा अवसर समझते है, वह वास्तव में अवसर ही नहीं होता है। इस कहानी से यह समझें-

अच्छे अवसर के इंतजार में हमें सामने आए माैके को नहीं छोड़ना चाहिए।

Reference
Image Photo by Ales Krivec on Unsplash

Kaikeyi Ram Samvad

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सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी॥

तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू।
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥

संगीतमय रामकथा भजन, संकीर्तन मेरे राम राम राम राम राम राम राम राम राम मेरे राम राम राम राम राम राम राम राम राम

सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। कैकेयी-राम संवाद || Lyrics – Rajan Ji Maharaj

Reference:

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डाॅ. अर्चिका दीदी के अनमोल वचन

शरीर को ‘रोगी‘ बनाने वाले तो बहुत से लोग है, परन्तु मन से योगी बहुत कम लोग बन पाते है। जो मन से योगी बन जाता है, उसे आध्यात्मिक और भौतिक सम्पदा की प्राप्ति होती है।

जिसके मन में दया न हो और जो हमेशा दुविधा में जीता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए।

राजा, रोग और पाप ये तीनों दुर्बलों को ही खाते है। ऐसा वेद, स्मृतियां और ज्ञानी लोग भी कहते है।

काम, क्रोध, लोभ और मोह का समूल नाश होने पर ही ईश्वर की कृपा बरसती है।

यह पूरा संसार ही क्षणभंगुर है। एक दिन सूरज, चांद, धरती, आकाश, हवा और पानी सब नष्ट हो जायेंगें, अविनाशी ईश्वर का ही अस्तित्व रहेगा।

एकाग्रता से ज्ञान की प्राप्ति होती है, एकाग्रता ही सभी नश्वर सिद्धियों का शाश्वत रहस्य है। दुष्टों का बल हिंसा है, स्त्रियों का बल धैर्य है और गुणवानों का बल क्षमा है।

किसी भी समस्या के निराकरण के लिए जरूरी है कि पहले उसकी वजह को जाने

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इस कहानी से यह समझें-
भगवान बुद्ध अकसर अपने शिष्यों को प्रवचन देते थे।

लोग उनसे कई तरह के सवाल पूछते थे। इनमें से अधिकतर बातें लोगो की समस्याओं से जुड़ी होती थी और वे बुद्ध से इसका समाधान चाहते थे।

बुद्ध उनसे काफी समय तक बात करते थे और इसके बाद ही समाधान बताते थे।

एक दिन शिष्यों ने उनसे पूछा कि गुरूजी आप समस्या लेकर आने वाले लोगों से इतनी लंबी बातें क्यों करते हैं, जबकि आप उन्हें तुरंतभी समाधान बता सकते है।

बुद्ध ने उनसे कहा कि वह जवाब कल देंगे। अगले दिन ज बवह प्रवचन के लिए आए तो उनके हाथ में एक रस्सी थी।

बुद्ध ने किसी से कुछ कहे बिना रस्सी में गांठें लगानी शुरू कर दीं। यह देखकर शिष्यों में उत्सुकता होने लगी की वे अब क्या कहेंगे।

तभी बुद्ध ने एक प्रश्न किया कि ‘मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं यह जानना चाहता हंू कि क्या यह वही रस्सी है, जो गांठें लगाने से पूर्व थी?‘ शिष्य सोच में पड़ गए। एक शिष्य ने कहा कि गुरूजी यह देखने के तरीके पर निर्भर है।

पहली बात यह है कि रस्सी तो वही है, जो पहले थी और दूसरी बात यह है कि अब इसमें तीन गांठें लगी हैं और यह पहले जैसी नहीं है। यानी रस्सी बाहर से भले अलग दिखाई दे रही है, लेकिन अंदर से तो इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।


बुद्ध ने सहमति में सिर हिलाया और कहा कि अब ‘मैं इन गांठों को खोल रहा हंू।‘ ऐसा कहकर वे रस्सी के दोनों सिरे पकड़कर उसे एक दूसरे से दूर खींचने लगे।

एक शिष्य ने कहा कि गुरूजी इस तरह से तो येे गांठें खुलने की जगह और उलझ जाएंगी। इससे इन्हें खोलना भी मुश्किल हो जाएगा।


भगवान बुद्ध ने पूछा कि फिर इन्हें खोलने के लिए क्या करना चाहिए। एक शिष्य ने कहा इसके लिए हमंे सबसे पहले यह पहचानना होगा कि इन गांठों को लगाया किस तरह से गया है।

इसके बाद हम इन्हें खोलने की कोशिश कर सकते है। बुद्ध ने कहा कि मैं यहीं सुनना चाहता था।

उन्होंने कहा कि कोई भी जिस समस्या में फंसे होता है, अगर उसकी वजह ही नहीं पता तो उसका निराकरण भी संभव नहीं है।

मेरे पास आने वाले लोग भी मुझसे सीधे उनकी समस्या का निराकरण चाहंते है।

लेकिन, जब तक मुझे या उनको संबंधित समस्या की वजह ही नहीं पता नहीं होगी तो उसका निराकरण नहीं हो सकता ।

एक बार समस्या की उचित वजह जान लें तो निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा।

सीखः- अधिकतर लोग अपनी समस्या का सीधे समाधान चाहते है, जबकि किसी भी समस्या का उचित व आसान हल पाने के लिए समस्या की वजह जानना जरूरी है।

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प्रार्थना कैसे करे आचार्य सुधांशु

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प्रार्थना


हे
प्रभु! सत्कर्म करने के लिए सद्विचार की शक्ति हमारे भीतर बनी रहे।

हे ज्योतिर्मय! हे शुद्ध, बुद्ध, प्रदाता! हम सभी भक्तों का श्रद्धा भरा प्रणाम आपके श्रीचरणों में समर्पित है।

प्रभु! जीवन में अनेक आवश्यकताएं, इच्छाएं, मनुष्य में सर्वप्रथम विचार स्तर पर जागती हैं, तत्पश्चात वे कर्म में बदलती हैं।

उन कर्मों के कारण मनुष्य इस संसार में तरह-तरह के सुख-दुख से जुड़ता है, कर्म दूषित हुए तो वह भटकता है, भ्रमित होता है और दुःख भोगता है।

इसीलिए हे नाथ जो इच्छा व विचार हमारी अंतः शक्ति जगाए, हमें आपका प्रेम दिला सके, हमारे अंदर शंति ला सके, हमारा अपना और दूसरों का उद्धार कर सके, उस इच्छा शक्ति को ही आप हमें प्रदान कीजिए।


हे प्रभु! आप हमें वह सुबुद्धि प्रदान कीजिए, जिसके प्रकाश में हम उचित निर्णय लेकर उत्तम पथ पर अग्रसर हो सके।

हे प्रभु! ऐसी विवेकपूर्ण सुमति प्रदान कीजिए कि हम अच्छे-बुरे का भेद कर सके और सत्कर्म करने की शक्ति हमारे अन्दर बनी रहे।

हे नारायण! हे दयानिधान! आप ऐसी कृपा करें कि जिससे जीवने के अन्तिम क्षण तक हमारा शरीर कर्मशील बना रहे, कर्मठ बना रहे, हम सेवार करते रहें, लेकिन सेवा कराएं नहीं।

सदैव चेहरे पर मुस्कान, माथे पर शीतलता, अंतः में शांति-सदभाव और पूर्ण होते रहे, साथ ही हमें भक्ति और प्रसन्नता का दान देना।


हे प्रभु! आंखों में ऐसी प्रेम दृष्टि देना जिससे कि हम द्वेष और घृणा से ऊपर उठकर जी सके। हम कभी भी वैर के बीज को संसार में न फैलाएं, न फैलने दें।

बस केवल शांति की सुखद छाया चारों ओर फैला सकें, ऐसा हमें आशीर्वाद प्रदान करें।


हे नाथ! आपसे हमारी यही विनती है, यही याचना है, जिसे स्वीकार कीजिए प्रभु।


ऊँ शांतिः। ऊँ शांतिः।। ऊँ शांतिः।।।
-आचार्य सुधांशु

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Content from Jivan Sanchetna

प्रेम और समर्पण कैसा हो

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हे
प्रभु! जो मैं था, जो कुछ हूँ या कभी होऊंगा, वह सब तेरे कारण।

मैं, मेरा परिवार, यह शरीर, प्राण, इंन्द्रियां, बुद्धि, मकान-दुकान, धन-वैभव सब तेरे हैं। मैं कभी अपने आपको तुझसे अलग न मान बैंठू। तन मेरा, मन तेरा, धन तेरा, प्रभु मैं भी तेरा। बस तू ही तू है और तेरा ही तेरा है।


प्यारे मोहन! तू ने मुझे अपनाया, स्पष्ट रूप में मेरे रोम-रोम में लिख दिया कि तुम मेरे हो, तो भी प्रभु मुझे संतोष नहीं। मैं चाहता हूँ मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति जो भक्ति और प्रीति है। वह केवल तेरे लिए ही रहे। तुम्हीं उसका उपयोग करो।

मेरा ध्यान केवल तुम्हारे लिए हो, इसलिए मुझे अपना खिलौना बनाओ, अपना साज बनाओ, जो संगीत इसमें से प्रकट करना चाहो करो, मैं तुम्हारा क्रीड़ायंत्र बनकर तुम्हारी इच्छा से ही नांचू, हिलूं या डोंलू।


प्रेम में व्यक्ति मान, स्वाभिमान कुछ नहीं रखता। वह कहता है कि मैं खाक से खाक बन जाऊं। एक दिन खाक किसी बर्तन के रूप में ढले, आग में जले और जब उस पात्र तें जल भरा जाये और वह मोहन तक पहुंचे तो मेरा समर्पण पूरा हो जायेगा।


प्रेमी भक्त माला भी दिखाकर नहीं जपते, क्योंकि प्रेम प्रकट करने से घट जाता है औ छिपाने से बढ़ता है। प्रेम प्रियतम को अपने अधीन करने के लिए नहीं, बल्कि अपने आपको उसके प्रति सर्वथा अधीन करने के लिए होता है।

प्रेम में कभी तृप्ति नहीं होती, प्यास ही उसका स्वरूप है। प्रेम क्रिया से नहीं लक्ष्य से समझाया जाता है। जिसे हम प्रेम करते हैं उसको जिस तरह सुख मिले, हमें वैसा ही करना चाहिए।

हृदय दीपक है, स्नेह घृत है, स्मृतियों के रेशे जोड़कर बाती बनी चेतन-आत्मा लौ बनकर जल रही है, यही है जीवन।

इसी प्रेम के प्रकाश में अपने प्रभु को देखो, इसी में नाचो, गाओ और उसे मनाओं। इसीलिए तो मीरा ने गाया था।


हे री, मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय। यदि ऐसा प्रेम-समर्पण आ गया तो निश्चित ही जीवन की किताब खुल उठेगी। जीवन खिल उठेगा और शिखर छू लेगा।

इसलिए हर श्वास, हर राग, हर काम के साथ प्रेममय होकर जीना सींखे।

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Content from Jivan Sanchetna

प्रभु से प्रार्थना

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प्रार्थना
हे दीनानाथ! हे प्रभु!

ऐसा आशीष दो कि हर किसी का जीवन, उसका परिवार सुख समृद्धि से भरापूरा हो उठे।

हे घट-घट के वासी प्रभु! हम सब आपके पुत्र-पुत्रियां आपके श्रीचरणों में श्रद्धानत होकर लिए, सद्विवेक, सद्ज्ञान, सुख-शांति की कामना के साथ प्रणाम करते हैं।

हे दाता, दीनदयाल! हम सबकी यही कामना है, कि हम आपके अनुशासन में चल सकें और आपके अच्छे-सच्चे भक्त कहला सकें, आपके प्यारे पुत्र-पुत्रियां बनकर सदा निष्काम भाव से कर्म करते रहें।

हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारी आत्मा हमेशा पवित्र बनी रहे, हमारे अंग-प्रत्यंग सदा सेवा में संलग्न रहें।

हम सदा सत्यपथ का अभ्यास कर सकें। हमार हृदय विशाल हो और आपकी प्रेममय भक्ति, करूणा और दया से भरा रहे।

हे नारायण! हम पर कृपा करो कि हमारा इस दुनिया में आना सार्थक हो, हम अपने हर दिन को शुभ दिन सिद्ध कर पाए , हर घड़ी बना पाए, ऐसा आशीष हमें प्रदान कीजिए।

हम सदा सेवारत रहें।हमारे द्वारा इस जगत में ऐसे कर्म हों कि यह शरीर छूटने के बाद भी उनकी सुगंध संसार में बनी रहे, और हम इस शरीर को छोड़ते समय आहलादित अनुभव कर सकें। ऐसा कृपापूर्ण आशीर्वाद हमें प्रदान कीजिए।


हे परम दयालुदेव! आप कृपानिधान हैं, आपकी कृपा बिना क्षणमात्र जीवन असंभव है।

अतः एक ही विनम्र याचना है कि जिस प्रकार सबके ऊपर आपकी कृपा बरस रही है, हम सब पर भी दया कीजिए, सबके घर-परिवार सुख-समृद्धि से भरपूर हों, सभी की शुभकामनाएं पूर्ण हों, हम आपके कहलाने के अधिकारी बनें।

हमारी यही विनती आपके दरबार में स्वीकार हो और हमारे साथ-साथ सबका बेड़ा पार हो नाथ।


ऊँ शांतिः। ऊँ शांतिः।। ऊँ शांतिः।।।
-आचार्य सुधांशु

जीवन एक्सप्रेस-वे नहीं है, इसे प्रतिस्पर्धा का रूप कभी न दें

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मन की गति को अगर हम धीमा नहीं करते हैं तो इसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ने लगता है।

जब डाॅक्टर आपको रोज एक घंटा पैदल चलने को कहते हैं तभी हम ऐसा करते हैं।

कई बार तो हम उसको भी गंभीरता से नहीं लेते और कहते हैं हमारे पास इसके लिए वक्त नहीं है।

हम कभी अपने आपसे यह नहीं पूछते हैं कि हम अपने साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं?

किस चीज के लिए भाग रहे हैं, इसका क्या कारण है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि सब भागा रहे हैं तो हम भी भाग रहे हैं।

हम सभी ने जीवन को एक प्रतिस्पर्धा बना दिया है।

आप एक बार सोचो, हमारे बच्चों की प्रतिस्पर्धा है, हम भी मुकाबला ही कर रहे हैं, रिश्तेदारी में भी होड़ है, बिजनेस में भी काॅम्पीटिशन है।

आपने खाने में कितनी सब्जियां बनाई, आप जब अगली बार मेरे घर पर आओगे तो मैं कितनी सब्जियां बनाऊंगी उसमें भी होड़ हैं स्पर्धा का कोई स्तर नहीं होता।

जितनी ज्यादा स्पर्धा होती है उतना ही चिड़चिड़ापन होने लगता है।


मान लो कि मुंबई से पुणे हम अपनी-अपनी गाड़ी लेकर चलते हैं एक्सप्रेस-वे पर।

हमें अपनी गाड़ी की क्षमता मालूम है। अपनी गाड़ी की स्पीड हमें मालूम है लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कार चलाने का तरीका।

कुछ लोगों को गाड़ी 50, 80, 100 की स्पीड पर और कुछ लोगों को तो इससे भी अधिक स्पीड पर चलाना अच्छा लगता है।

यह हमारे जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण समय है जब हम अपनी गाड़ी में अपने परिवार के साथ हंसते-खेलते, खाते-पीते, गाने सुनते हुए अपनी यात्रा पर जा रहे हैं।

थोडी देर एक गाड़ी हमारी गाड़ी से आगे निकलती है।

उसी समय हम सोचते हैं कि चलो रेस लगाते हैं।

रेस थी नहीं लेकिन हमारी एक सोच ने इसे रेस बना दिया।

हम भी उसी सड़क पर थे, दूरी भी वही थी लेकिन हमारी एक सोच के बाद अब हमारी यात्रा कैसी होगी?


अब हमारा ध्यान परिवार से हटकर गाड़ी की स्पीड पर चला जाएगा।

अब पत्नी या बच्चे कुछ बोलेंगे तो उनको डांट पड़ जाएगी।

क्योंकि पहले हमारा ध्यान गाड़ी की स्पीड के बजाए परिवार पर था।

अब सारा ध्यान रेस पर चला गया। अब हो सकता है कि उनकी गाड़ी की क्षमता हमारी गाड़ी से कई गुना ज्यादा हो।

हमारी गाड़़ी मारूति हो और उनकी गाड़ी मर्सिडीज हो।

मैंने मारूति की सारी गति को पार कर लिया फिर भी उनकी गाड़ी से आगे नहीं जा पाए।

फिर आता है एक चैराहा और उस पर ट्रैफिक सिग्नल। नियम और तरीके।

अब यही मौका है उनसे आगे जाने का। जहां हम अपने सिद्धांत से समझौता करना शुरू कर देते हैं।

अब यात्रा रेस बन जाती है। यदि मैं पहले नहीं पहुंचता हंू तो वह पहुंच जाएगा।

पहंुचेंगे तो दोनों ही लेकिन यात्रा कैसी रहेगी इस सबके बीच?

उस यात्रा के दौरान हमने गति जरूरत से ज्यादा भी की होगी, गलत साइड से ओवरटेक भी किया होगा।

कहीं एक आथ एक्सीडेंट भी हुआ होगा। यह सब सिर्फ एक सोच के कारण।

जीवन दूसरों को देखकर न जीएं इसे अपनी क्षमता के हिसाब से प्लान करें।

जीवन को कभी भी प्रतिस्पर्धा का रूप न दें ।

Guru Pujan गुरु पूजन

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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुःसाक्षात् परब्रह्म
तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है,

गुरु हि शंकर है;

गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है;

उन सद्गुरु को प्रणाम ।