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प्रेम और समर्पण कैसा हो

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हे
प्रभु! जो मैं था, जो कुछ हूँ या कभी होऊंगा, वह सब तेरे कारण।

मैं, मेरा परिवार, यह शरीर, प्राण, इंन्द्रियां, बुद्धि, मकान-दुकान, धन-वैभव सब तेरे हैं। मैं कभी अपने आपको तुझसे अलग न मान बैंठू। तन मेरा, मन तेरा, धन तेरा, प्रभु मैं भी तेरा। बस तू ही तू है और तेरा ही तेरा है।


प्यारे मोहन! तू ने मुझे अपनाया, स्पष्ट रूप में मेरे रोम-रोम में लिख दिया कि तुम मेरे हो, तो भी प्रभु मुझे संतोष नहीं। मैं चाहता हूँ मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति जो भक्ति और प्रीति है। वह केवल तेरे लिए ही रहे। तुम्हीं उसका उपयोग करो।

मेरा ध्यान केवल तुम्हारे लिए हो, इसलिए मुझे अपना खिलौना बनाओ, अपना साज बनाओ, जो संगीत इसमें से प्रकट करना चाहो करो, मैं तुम्हारा क्रीड़ायंत्र बनकर तुम्हारी इच्छा से ही नांचू, हिलूं या डोंलू।


प्रेम में व्यक्ति मान, स्वाभिमान कुछ नहीं रखता। वह कहता है कि मैं खाक से खाक बन जाऊं। एक दिन खाक किसी बर्तन के रूप में ढले, आग में जले और जब उस पात्र तें जल भरा जाये और वह मोहन तक पहुंचे तो मेरा समर्पण पूरा हो जायेगा।


प्रेमी भक्त माला भी दिखाकर नहीं जपते, क्योंकि प्रेम प्रकट करने से घट जाता है औ छिपाने से बढ़ता है। प्रेम प्रियतम को अपने अधीन करने के लिए नहीं, बल्कि अपने आपको उसके प्रति सर्वथा अधीन करने के लिए होता है।

प्रेम में कभी तृप्ति नहीं होती, प्यास ही उसका स्वरूप है। प्रेम क्रिया से नहीं लक्ष्य से समझाया जाता है। जिसे हम प्रेम करते हैं उसको जिस तरह सुख मिले, हमें वैसा ही करना चाहिए।

हृदय दीपक है, स्नेह घृत है, स्मृतियों के रेशे जोड़कर बाती बनी चेतन-आत्मा लौ बनकर जल रही है, यही है जीवन।

इसी प्रेम के प्रकाश में अपने प्रभु को देखो, इसी में नाचो, गाओ और उसे मनाओं। इसीलिए तो मीरा ने गाया था।


हे री, मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय। यदि ऐसा प्रेम-समर्पण आ गया तो निश्चित ही जीवन की किताब खुल उठेगी। जीवन खिल उठेगा और शिखर छू लेगा।

इसलिए हर श्वास, हर राग, हर काम के साथ प्रेममय होकर जीना सींखे।

Reference

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