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कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि समाधान न हो सके, एक बार ठान कर तो देखिये

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एक किसान का बहुत बड़ा खेते था। लेकिन, उस खेत के बीच में ,क पत्थर जमीन से ऊपर निकला हुआ था। इससे ठोकर खाकर किसान और अनेक लोग कई बार गिर चुके थे।

इस पत्थर से टकराकर उसकी खेती के कई औजार भी टूट चुके थे। किसान को लगता था कि यह पत्थर जमीन के भीतर दबी किसी बड़ी चट्टान का हिस्सा है, इसलिये , उसने कभी इसे निकालने की कोशिश भी नहीं की।

एक दिन किसान अपने खेत में हल चला रहा था, लेकिन ,क बार फिर उसका हल इस पत्थर से टकराकर टूट गया । झटका लगने से वह भी गिर पड़ा और उसे चोट लग गयी |

इस बार उसे बहुत क्रोध आया और उसने तया किया कि वह इस पत्थर को निकाल कर ही दम लेगा वह भागा भागा गांव में गया और कई लोगो को बुला लाया |

उसने सभी साथियों से कहा कि इस पत्थर ने उसका बड़ा नुकासान किया है। आप सब लोग मेरा साथ दे तो हम इस पत्थर को निकाल सकते है।

उसके साथियों ने कहा कि वह इसके लिए तैयार है और आने औजार लेकर आते है। किसान ने उस दिन पत्थर को खेत से निकालकर बाहर फेंकने का तय कर लिया था, इसलिए वह कोई देरी नहीं चाहता था। लोगो का इन्तज़ार किये बिना अकेले ही पत्थर के चारों ओर खोदना शुरू किया ।

वह कुछ ही फुट खोद पाया था कि पत्थर का निचला सिरा आ पहुंचा। जिससे वह बड़ी चट्टान समझ रहा था वह ,क मामूली सा पत्थर निकला।


इतनी देर में उसके साथी भी आ गये , लेकिन तब तक किसान खुद ही उस पत्थर को निकाल चुका था। उसने पत्थर को खेत की मेढ़ पर रख दिया।

किसान को पछतावा हुआ कि उसने परखे बिना ही इस मामूली पत्थर को चट्टान समझ लिया और इस पत्थर को निकालने की कोशिश भी नहीं की।

अगर उसने पहले ही ऐसा किया होता तो इतने सालों तक उसका कोई नुकसान नहीं होता। हम भी कई बार जिंदगी में आने वाली छोटी छोटी बाधाओं को बहुत बड़ा समझ लेते है, और उनसे निपटने की बजाय तकलीफ उठाते रहते है।

जरुरत इस बात की है कि बिना समय गवाएं बाधाओं को दूर करने की कोशिश कर देनी चाहिए । इससे कुछ ही समय में चट्टान सी दिखने वाली समस्या एक छोटे से पत्थर के समान दिखने लगेगी , जिसे हम ठोकर मार कर आगे बढ़ सकते है।

सीखः- हम कई बार समस्या की जड़ में गए बगैर उसे बड़ा मान लेते है और बचने की कोशिश करते है। जब इसे हल करने की ठान लेते हैं तो पता चलता है कि वह तो बहुत छोटी थी।

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अपने मन को देखना शुरू करें, आखिर वह कर क्या रहा है?

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अपने रिश्तों को सुंदर बनाने के लिए पहले अपने से रिश्ता जोड़ना होता है।

जब तक मेरा रिश्ता अपने आपसे नहीं तब तक औरों से रिश्ता जोड़ना बहुत कठिन हैै।

जब तक मैं अपने से प्यार नही करूं किसी और से प्यार करना मुश्किल है।

जब तक मैं अपने लिए समय ना निकालूं किसी और के लिए निकालना मुश्किल है।

जब तक मैं अपने को नहीं समझूं तब तक किसी और को समझना मुश्किल है।

फिर हम ज्यादातर कहते हैं कि हम उनको समझ ही नही पाते हैं।

वे ऐसा क्यो कर रहे हैं, क्यो बोल रहे हैं, उनका व्यवहार ऐसा क्यो है ये मुझे समझ में नही आता है।

चलो उनका नही समझ में आया कोई बात नही पर मैं ऐसा क्यूं बोलती हूँ ये समझ में आता है?

मेरा व्यवहार जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है, क्यों है, समझ में आता है। जब तक अपना ही नही समझ में आता तब तक किसी और का समझना बहुत मुश्किल है।

इसलिए कोशिश भी नही करनी चाहिए यह सोचने की कि वो ऐसे क्यों हैं।

अगर हम अपने को समझना शुरू कर दें कि हमारा मन कैसे चलता, हम जो बोलते हैं ऐसा क्यों बोलते हैं।

जब हम अपने को समझ लेते हैं तो और लोग अपने आप समझ में आने लग जाते हैं।

अपने लिए हम कितना समय निकालते हैं हर रोज अपने लिए तो हमारे पास टाइम नहीं है।

जो लोग हमारे लिए अहम होते हैं, जो रिश्ते हमारे लिए मायने रखते हैं।

अगर हम हर रोज उनको कहें कि हमारे पास आपके लिए टाइम नहीं हैं तो रिश्ता कैसा हो जाएगा?

अगर हर रोज अपने को कहें कि मुझे मेरे लिए टाइम नहीं है तो फिर अपने से रिश्ता नही जुड़ेगा और अपने मन से रिश्ता नहीं जुड़ेगा।

अगर मैंने अपने मन से रिश्ता जोड़ा नहीं है तो वह मेरा कहना माने क्यों?

हमारा कहना वही मानता है जिससे हमारा रिश्ता होता है, जिसके साथ हम समय बिताते हैं ।


मन को हम प्यार नहीं करते, उसके साथ समय नहीं बिताते, हर टाइम कहते हैै- टाइम नहीं और फिर हम चाहें कि वो हमारा कहना मानें तो ये हमारा कहना मानने वाला नहीं हैं।

जैसे ही आप इसके साथ थोड़ा समय बिताना शुरू किया, इसको प्यार से अनुशासित करना शुरू किया तो इसने कहना मानना भी शुरू कर देना है।

हर रोज सुबह उठते के साथ यह संकल्प करें मेरा मन मेरा है वो मेरा कहना मानता है।

सारे दिन मे बीच-बीच मे एक मिनट के लिए रूककर सिर्फ अपने मेन को देखें कि अभी इसमें क्या चल रहा है।

जैसे बीच-बीच मे रूककर बच्चे को देखते हैं ना कि अभी ये क्या कर रहा है। जैसे हमारा बच्चा एक कोने में खेल रहा है ।

अगर हम उसको नहीं देखते तो वह मस्ती करता है।

जब हम जाकर सिर्फ खड़े हो जाते हैं और कुछ उसको बोलते नहीं, कुछ करते नहीं तो वो बच्चा जो गड़बड़ कर रहा था धीरे से ठीक कर देता हैं।

क्योंकि उसको पता है कि मुझे कोई देख रहा है।

जैसे ही उसको लगे कि मुझे कोई देख नहीं रहा तो वो फिर वो अपनी मस्ती करने लग जाता है ।

ऐसे ही बीच-बीच मे रूककर अपने मन को देखना शुरू करते हैं।

रिक्तता, खालीपन या शून्यता है अवकाश

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‘अवकाश‘ शब्द का सामान्य अर्थ होता है काम के बीच छुट्टी।

लेकिन यह बहुत सतही अर्थ है अध्यात्म में अवकाश को रिक्तता, खालीपन या शून्यता कहा हैं।

रिक्त और शून्य ये दो ऐसे शब्द हैं कि यदि ठीक से समझ में आ जाएं तो हम अपने घर में वैकुंठ उतार सकते हैं।

हमारे परिवार अवकाश के श्रेष्ठ स्थान हैं। यहां आकर ऐसी रिक्तता, शून्यता और शांति मिल सकती है जिसकी तलाश में हम यहां-वहां भागते फिरते हैं।

तो अवकाश को अपने परिवार से ठीक से जोडें। जब भी घर मे आएं, खुद को समझाइए कि यह अवकाश का क्षेत्र है, यहां हमें रिक्त होना है।

घर में एक प्रयोग करिए…। अवकाश का मतलब यूं समझिए कि आप अपने भीतर रिक्तता के कारण दूर खड़े होकर स्वयं को ही देख रहे हैं।

बात सुनने में कठिन लग सकती है, परंतु अभ्यास से धीरे-धीरे समझ में आ जाएगी कि घर के बाहर हम दूसरों से संचालित रहते थे, पर घर आने के बाद चूंकि अवकाश में उतरे हैं, इसलिए अब हमार संचालन स्वयं ही करेंगे |

जब घर के बाहर होंगे तो एक तो आप होंगे जो कुछ कर रहे होंगे और दूसरे वो सब लोग जिनके प्रति आप कोठ्र क्रिया कर रहे होंगे।

लेकिन घर आने पर जैसे ही खुद को अवकाश में उतारेंगे तो तीन लोग हो जाएंगे- एक आप करने वाले, दूसरे जिनके लिए कर रहे हैं और तीसरे आप ही देखने वाले।

ऐसा करते हुए अपने घर के सदस्यों के इतने निकट पहुंच जाएंगे, जिसकी उनको वर्षो से चाहत होगी। बस, यहीं से घर स्वर्ग हो जाता है।

कार्तिक मास महात्मय त्यौहार पूर्णिमा एव देवउठनी एकादशी

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कार्तिक मास हिंदी पंचाग का आँठवा महिना है, कार्तिक के महीने में दामोदर भगवान की पूजा की जाती हैं।

यह महिना शरद पूर्णिमा से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। कार्तिक माह भगवान विष्णु और धन की देवी मां लक्ष्मी को समर्पित माना जाता है।

पुराणों में इस दिन स्नान, व्रत और तप करने वाले को मोक्ष को भागी बताया गया है।

कार्तिक मास के सन्दर्भ में स्कन्दपुराण में वर्णित है कि कार्तिक के समान कोई अन्य मास नहीं है। सतयुग के समान कोई युग नहीं है। वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है तथा गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है।

मान्यता है कि इस माह जो व्यक्ति ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।

कार्तिक मास में भगवान दामोदर यानी ओखल से बंधे हुए श्रीकृष्ण का पूजन करना चाहिए।

भगवान दामोदर को दीप दान करने का इस माह में विशेष महत्व है। दीप दान का अर्थ यहां दीप प्रज्जवलित कर दामोदर भगवान की आरती करने से है।

इस महीने तप एवम पूजा पाठ उपवास का महत्व होता है, जिसके फलस्वरूप जीवन में वैभव की प्राप्ति होती है

 इस माह में तप के फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। इस माह के श्रद्धा से पालन करने पर दीन दुखियों का उद्धार होता है, जिसका महत्त्व स्वयम विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा था।

इस माह के प्रताप से रोगियों के रोग दूर होते हैं। जीवन विलासिता से मुक्ति मिलती हैं।

मान्यता है कि कार्तिक मास में किया गया धार्मिक कार्य अनन्त गुणा फलदायी होता है। शास्त्रों के अनुसार ये महीना पूरे साल का सबसे पवित्र महीना होता है।

इसी महीने में ज्यादातार व्रत और त्यौहार आते है। कार्तिक मास भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है।

कार्तिक मास में भगवान कृष्ण के दामोदर रूप की उपासना करने का महत्व है।

बताया जाता है कि जो लोग इस दौरान भगवान कृष्ण के दामोदर स्वरूप के दर्शन करते हैं और उनकी आराधना करते हैं उनके सभी पापों का नाश होता है।

श्रीकृष्ण को प्रिय है कार्तिक मास

भगवान श्री कृष्ण को कार्तिक मास अत्यंत प्रिय है।

भगवान श्रीकृष्ण ने इस मास की व्याख्या करते हुए  है,’पौधों में तुलसी मुझे प्रिय है, मासों में कार्तिक मुझे प्रिय है, दिवसों में एकादशी और तीर्थों में द्वारका मेरे हृदय के निकट है.’ इसीलिए इस मास में श्री हरि के साथ तुलसी और शालीग्राम के पूजन से भी पुण्य मिलता है तथा पुरुषार्थ चातुष्ट्य की प्राप्ति होती है.।

शास्त्रों में कार्तिक मास का बहुत अधिक महत्व बताया गया है। कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में यह बात कही है कि उन्हें कार्तिक मास अत्यंत प्रिय है और कार्तिक मास उन्हीं का ही एक स्वरूप है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि महीनों में मैं कार्तिक हूं।

प्रयाग में स्नान करने से, काशी में मृत्यु होने से और वेदों का स्वाध्याय करने से जिस फल की प्राप्ति होती है।

वह सब कार्तिक मास में तुलसी पूजन करने से प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कार्तिक मास में संध्याकाल में श्री हरि के नाम से तिल के तेल दीपदान करते हैं, उनका जीवन सदैव आलोकित प्रकाशित होता है।

वह अतुल लक्ष्मी रूप, सौभाग्य तथा अक्षय संपत्ति पाता है. शास्त्रों में कार्तिक मास का बहुत अधिक महत्व बताया गया है।

कार्तिक मास की महिमा का वर्णन पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में है, कार्तिक मास (Kartik Month) के 13 नियम हैं, जिनका पालन करने वाला लौकिक संसार में ऐश्वर्य के साथ मृत्योपरांत श्रीहरि के चरणों में स्थान प्राप्त करता है।

कार्तिक मास (Kartik Mass) पूजा के नियम

1.सुबह जल्दी उठकर स्नान अदि नित्यकर्म करके मंगला आरती (प्रातः 4:15 बजे) से अपना दिन शुरू करें।

2.ब्रह्म मुहूर्त सुबह 5 से 7 बजे तक अधिकतम माला का जाप करें।

3.प्रतिदिन हरे कृष्णा महामंत्र की कम से कम 16 माला का जाप करें। एकादशी के दिन ज्यादा से ज्यादा माला का जाप करें।

4.प्रतिदिन तुलसी पूजा करें, जल चढ़ाएं और परिक्रमा करें।

5.चाय, कॉफी, प्याज , लहसुन आदि का सेवन न करें।

6.केवल कृष्ण प्रसाद ही ग्रहण करें।

7.विशेषत: दामोदर लीला एव गोवर्धन लीला गजेंद्र मोक्ष कथा पढ़ें (भागवतम स्कन्द )।

8.भगवान दामोदर की तस्वीर अपने घर में अवश्ये रखें।

9.दमोदराषटकम का प्रतिदिन पाठ करें।

10.भगवान दामोदर को प्रतिदिन दीपदान करें।

11.कार्तिक मास में उड़द दाल का निषेध करें।

12. पूरा महीना ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।

13. शुद्ध भक्तों को दान दें।

कार्तिक माह में आने वाले प्रमुख त्यौहार हैं. पूरा महिना कई त्यौहार मनाये जाते हैं।

कार्तिक माह में कई तरह के पाठ, भगवत गीता आदि सुनने का महत्व होता हैं। यह पूरा महीने मनुष्य जाति को अनेक प्रकार के नियमों में बांधता है।

कार्तिक में ही बड़े – बड़े त्यौहार मनाये जाते हैं, जो भारत देश के प्रमुख त्यौहारों में से हैं।

वैसे तो भारत वर्ष में वर्ष भर ही त्यौहारों का ताता लगा रहता है, लेकिन चार माह के त्यौहार तप एवम पूजा पाठ की दृष्टि से अहम् माने जाते है।

कार्तिक मॉस के त्यौहार (Kartika Festival)

1          करवाचौथ : कृष्ण पक्ष चतुर्थी

2          अहौई अष्टमी एवम कालाष्टमी : कृष्ण पक्ष अष्टमी

3          रामा एकादशी

4          धन तेरस

5          नरक चौदस

6          दिवाली, कमला जयंती

7          गोवर्धन पूजा अन्नकूट

8          भाई दूज / यम द्वितीया : शुक्ल पक्ष द्वितीय

9          कार्तिक छठ पूजा

10        गोपाष्टमी

11        अक्षय नवमी/ आँवला नवमी, जगदद्त्तात्री पूजा

12        देव उठनी एकदशी/ प्रबोधिनी

13        तुलसी विवाह

कार्तिक महीने का महत्व

1. हिंदू पंचांग के 12 मास में कार्तिक भगवान विष्णु का मास है। इसमें नक्षत्र-ग्रह योग, तिथि पर्व का क्रम धन, यश-ऐश्वर्य, लाभ, उत्तम स्वास्थ्य देता है।

2. प्राचीन काल में अलग-अलग महीनों में वर्ष की शुरूआत होने का उल्लेख मिलता है, लेकिन आधुनिक काल में वर्ष का आरम्भ भारत के विभिन्न भागों में कार्तिक या चैत्र मास में होता है।

3. इसी मास में शिव पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर राक्षस का वध किया था, इसलिए इसका नाम कार्तिक पड़ा, जो विजय देने वाला है।

4. कार्तिक महीने का माहात्म्य स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण में भी मिलता है।

5. कार्तिक मास के लगभग बीस दिन मनुष्य को देव आराधना द्वारा स्वयं को पुष्ट करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए इस महीने को मोक्ष का द्वार भी कहा गया है।

6. शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक मास में मनुष्य की सभी आवश्यकताओं, जैसे- उत्तम स्वास्थ्य, पारिवारिक उन्नति, देव कृपा आदि का आध्यात्मिक समाधान बड़ी आसानी से हो जाता है।

कार्तिक माह में करने योग्य कार्य

ब्रह्म मुहूर्त में स्नान

कार्तिक मास में रोजाना सुबह ब्रह्म मुहूर्त मे पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए। अगर ऐसा करना संभव ना हो तो आप किसी भी पवित्र नदी के पानी को अपने नहाने की बाल्टी के पानी में मिलाकर भी स्नान कर सकते हैं।

कार्तिक माह में दान

कार्तिक माह में दान का भी विशेष महत्व होता हैं।  इस पुरे माह में गरीबो एवम ब्रह्मणों को दान दिया जाता हैं।

इन दिनों में तुलसी दान, अन्न दान, गाय दान एवम आँवले के पौधे के दान का महत्व सर्वाधिक बताया जाता हैं।

कार्तिक में पशुओं को भी हरा चारा खिलाने का महत्व होता हैं। कार्तिक मास के दौरान अधिक-से-अधिक दान करना चाहिए।

प्रयास करें कि फल, मिठाई और वस्त्रों का दान अवश्य करें। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास में दान करने का फल अधिक मिलता है। इसलिए इस महीने में दान को बहुत अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है।

कार्तिक मास में दीपदान

 शास्त्रों के अनुसार, कार्तिक मास में सबसे प्रमुख काम दीपदान करना बताया गया है।

इस महीने में नदी, पोखर, तालाब आदि में दीपदान किया जाता है। इससे पुण्य की प्राप्ति होती है।कार्तिक माह में दीपदान का विशेष महत्व होता है।

इस दिन पवित्र नदियों में, मंदिरों में दीप दान किया जाता हैं. साथ ही आकाश में भी दीप छोड़े जाते हैं. यह कार्य शरद पूर्णिमा से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलता हैं।

दीप दान के पीछे का सार यह हैं कि इससे घर में धन आता हैं। कार्तिक में लक्ष्मी जी के लिए दीप जलाया जाता हैं और संकेत दिया जाता हैं अब जीवन में अंधकार दूर होकर प्रकाश देने की कृपा करें।  

कार्तिक में घर के मंदिर, वृंदावन, नदी के तट एवम शयन कक्ष में दीपक लगाने का माह्त्य पुराणों में मिलता है। इस बात का ध्यान रखें कि कार्तिक मास में दीपदान करने का महत्व बहुत अधिक है।

इसलिए नियमित रूप से सुबह और शाम को दीपदान करें। यहां दीपदान करने का अर्थ दीपक जलाकर भगवान कृष्ण की पूजा करने से है।

भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए मंत्र जाप करें। भगवान विष्णु को कार्तिक मास अत्यंत प्रिय हैं।

इसलिए वैष्णव विशेष तौर पर कार्तिक मास में यह प्रयास करते हैं कि अधिक-से-अधिक नाम जाप कर भगवान विष्णु को प्रसन्न करने का प्रयास किया

कार्तिक माह से तुलसी का पूजन

तुलसी पूजा इस महीने में तुलसी पूजन करने तथा सेवन करने का विशेष महत्व बताया गया है।

वैसे तो हर मास में तुलसी का सेवन व आराधना करना श्रेयस्कर होता है, लेकिन कार्तिक में तुलसी पूजा का महत्व कई गुना माना गया है।

कार्तिक में तुलसी की पूजा की जाती हैं और तुलसी के पत्ते खाये जाते हैं। इससे शरीर निरोग बनता हैं।

ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करके सूर्य देवता एवम तुलसी के पौधे को जल चढ़ाया जाता हैं. कार्तिक में तुलसी के पौधे का दान दिया जाता हैं।

कार्तिक में भजन

कार्तिक माह में श्रद्धालु मंदिरों में भजन करते हैं। अपने घरों में भी भजन करवाते हैं।

आजकल यह कार्य भजन मंडली द्वारा किये जाते हैं। इन दिनों रामायण पाठ, भगवत गीता पाठ आदि का भी बहुत महत्व होता हैं।

इन दिनों खासतौर पर विष्णु एवम कृष्ण भक्ति की जाती हैं। इसलिए गुजरात में कार्तिक माह में अधिक रौनक दिखाई पड़ती हैं।

भूमि पर शयन

भूमि पर शयन भूमि पर सोना कार्तिक मास का प्रमुख काम माना गया है। भूमि पर सोने से मन में सात्विकता का भाव आता है तथा अन्य विकार भी समाप्त हो जाते हैं।

इससे मनुष्य का स्वभाव कोमल होता हैं उसमे निहित अहम का भाव खत्म हो जाता हैं।

कार्तिक मास में नहीं करने वाले कार्य

1. कातिक मास के दौरान किसी भी हिंसात्मक गतिविधि का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। बताया जाता है कि कार्तिक महीने के दौरान हिंसात्मक कार्यों को करने से या किसी की हत्या करने से बहुत अधिक पाप लगता है।

इस पाप का प्रायश्चित बहुत अधिक यत्न करने के बाद भी संभव नहीं हो पाता है।

2. कार्तिक माह में कई तरह के नियमो का पालन किया जाता है, जिससे मनुष्य के जीवन में त्याग एवम सैयम के भाव उत्पन्न होते हैं.

3 . कार्तिक माह मे मॉस, मदिरा आदि व्यसन का त्याग किया जाता हैं। कहीं कहीं पर तो प्याज, लहसुन, बैंगन आदि का सेवन भी निषेध माना जाता है।.

4. कार्तिक महीने में केवल एक बार नरक चतुर्दशी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी) के दिन ही शरीर पर तेल लगाना चाहिए। कार्तिक मास में अन्य दिनों में तेल लगाना वर्जित है।  

5. द्विदलन निषेध कार्तिक महीने में द्विदलन अर्थात उड़द, मूंग, मसूर, चना, मटर, राई आदि नहीं खाना चाहिए।

6. ब्रह्मचर्य कार्तिक मास में ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक बताया गया है। इसका पालन नहीं करने पर पति-पत्नी को दोष लगता है और इसके अशुभ फल भी प्राप्त होते हैं.  

 7. संयम रखें व्रती (व्रत करने वाला) को चाहिए कि वह तपस्वियों के समान व्यवहार करे। अर्थात कम बोले, किसी की निंदा या

देवउठनी एकादशी

हिंदू धर्म में सबसे शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष को मनाई जाती है।

यह जिसे हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के बीच श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं। 

पुण्य की वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को निद्रा से जागते हैं। इसी कारण से सभी शास्त्रों इस एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है।

देवउठनी एकादशी दिवाली के बाद आती है। इस एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा जाता है।

मान्यता है कि भगवान विष्णु चार महीने के लिए क्षीर सागर में निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य थम जाते हैं।

फिर देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह जैसे सभी मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं। इसके अलावा इस दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है।

तुलसी विवाह का है विधान

इस दिन कई स्थानों पर शालिग्राम तुलसी विवाह का भी प्रावधान है। बता दें कि शालिग्राम भगवान विष्णु का ही एक स्वरूप है।

मान्यता है कि इस बात का जिक्र मिलता है कि जलंधर नाम का एक असुर था। उसकी पत्नी का नाम वृंदा था जो बेहद पवित्र व सती थी।

उनके सतीत्व को भंग किये बगैर उस राक्षस को हरा पाना नामुमकिन था। ऐसे में भगवान विष्णु ने छलावा करके वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया और राक्षस का संहार किया।

इस धोखे से कुपित होकर वृंदा ने श्री नारायण को श्राप दिया, जिसके प्रभाव से वो शिला में परिवर्तित हो गए।

इस कारण उन्हें शालिग्राम कहा जाता है। वहीं, वृंदा भी जलंधर के समीप ही सती हो गईं। अगले जन्म में तुलसी रूप में वृंदा ने पुनः जन्म लिया। भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि बगैर तुलसी दल के वो किसी भी प्रसाद को ग्रहण नहीं करेंगे।

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने कहा कि कालांतर में शालिग्राम रूप से तुलसी का विवाह होगा। देवताओं ने वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने के लिए भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराया।

इसलिए प्रत्येक वर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी तिथि के दिन तुलसी विवाह कराया जाता है।

एकादशी पर हमें क्या नहीं करना चाहिए

एकादशी पर किसी भी पेड़-पौधों की पत्तियों को नहीं तोड़ना चाहिए।

एकादशी वाले दिन पर बाल और नाखून नहीं कटवाने चाहिए।

एकादशी वाले दिन पर संयम और सरल जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। इस दिन कम से कम बोलने की किसी कोशिश करनी चाहिए और भूल से भी किसी को कड़वी बातें नहीं बोलनी चाहिए।

हिंदू शास्त्रों में एकादशी के दिन चावल का सेवन नहीं करना चाहिए।

एकादशी वाले दिन पर किसी अन्य के द्वारा दिया गया भोजन नहीं करना चाहिए।

एकादशी पर मन में किसी के प्रति विकार नहीं उत्पन्न करना चाहिए ।

इस तिथि पर गोभी, पालक, शलजम आदि का सेवन न करें।

देवउठनी एकादशी का व्रत रखने वाले व्यक्ति को बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए।

कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक मास की समाप्ति पर कार्तिक पूर्णिमा का भी बड़ा विशेष महत्व है जिसे तीर्थ स्नान और दीपदान की दृष्टि से वर्ष का सबसे श्रेष्ठ समय माना गया है इसे देव–दीपावली भी कहते

कार्तिक मास में आने वाली पूर्णिमा के दिन कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima) मनाई जाती है।

हिंदु धर्म में कार्तिक पूर्णिमा का विशेष महत्व है। इस दिन को काफी पवित्र माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु की खास पूजा और व्रत करने से घर में यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपदान (Deepdan) और गंगा स्नान का बेहद महत्व है। इस दिन गंगा स्‍नान करने से व्यक्ति के सभी जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है।

कार्तिक पूर्णिमा मे पवित्र नदियों में ब्रह्ममुहूर्त में स्नान का बहुत अधिक महत्व होता हैं। घर की महिलायें सुबह जल्दी उठ स्नान करती हैं, यह स्नान कुँवारी एवम वैवाहिक दोनों के लिए श्रेष्ठ हैं।

इस माह दीपदान करने के माहतम्य के बारे में स्वयं भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी को उन्होंने नारद जी को और नारद मुनि ने महाराज पृथु को बताया है। इसलिए इस माह में किसी नदी या पोखर में दीपदान अवश्य करें।

मान्यता है कि इस दिन इस चावल दान करना बेहद शुभ होता है। दअसल चावल का संबंध च्रंद से है इसलिए कहते हैं कि ये शुभ फल देता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन घर को साफ रखना चाहिए।

इसी के साथ ही घर के दरवाजे पर रंगोली बनाना भी बहुत शुभ माना जाता है। मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा को दीप जलाने से भगवान विष्णु की खास कृपा मिलती है।

घर में धन, यश और कीर्ति आती है। इसीलिए इस दिन लोग विष्णु जी का ध्यान करते हुए मंदिर, पीपल, चौराहे या फिर नदी किनारे बड़ा दिया जलाते हैं। 

दीप खासकर मंदिरों से जलाए जाते हैं। इस दिन मंदिर दीयों की रोशनी से जगमगा उठता है। दीपदान मिट्टी के दीयों में घी या तिल का तेल डालकर करें।

कार्तिक पूर्णिमा, देव भारत में वर्ष के चार माह सभी धर्मो में विशेष त्यौहार चलते रहते हैं. इन सभी त्यौहारों का उद्देश्य ईश्वर के प्रति आस्था एवम प्रेम एकता का भाव जगाना हैं।

चौमासे या चातुर्मास के चार महीनो की विशेषता सभी प्रान्तों में अलग-अलग बताई जाती हैं और उसका निर्वाह किया जाता है,  हिंदी कैलेंडर में सबसे अंतिम माह कार्तिक का होता हैं. ।

कार्तिक पूर्णिमा का महत्व

कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजे गए थे।

ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका नक्षत्र में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है।

इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

पौराणिक कथा के मुताबिक तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे – तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध किया।

अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्माजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो।

तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा।

तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके।

एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।

तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमलाक्ष के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया।

तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।

इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं। चंद्रमा व सूर्य उसके पहिए बने, इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपाल उस रथ के घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा।

स्वयं भगवान विष्णु बाण तथा अग्निदेव उसकी नोक बने। इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव। उस दिव्य रथ पर सवार होकर जब भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए चले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया।

भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही त्रिपुर रथ के एक सीध में आए, भगवान शिव ने दिव्य बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया।

त्रित्रुरों का नाश होते ही सभी देवता भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के लिए ही भगवान शिव को त्रिपुरारी भी कहते हैं।

यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से

मान्यता है कि इस दिन भक्त सभी देवी देवताओं को एक साथ प्रसन्न कर सकते हैं।

इस विशेष मौके पर विधि-विधान से पूजा अर्चना करना ना केवल पवित्र माना जाता है बल्कि इससे समृद्धि भी आती है।

इसके साथ ही इससे सभी कष्ट दूर हो सकते हैं। इस दिन पूजा करने से कुंडली, धन और शनि दोनों के ही दोष दूर हो जाते हैं।

कार्तिक पूर्णिमा पूजाविधि (Kartik Purnima Puja-Vidhi)

आप प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान कर सूर्य देव को जल अर्पित करें. जल में चावल और लाल फूल भी डालें।

सुबह स्नान के बाद घर के मुख्यद्वार पर अपने हाथों से आम के पत्तों का तोरण बनाकर बांधे।

सुबह के वक्त मिट्टी के दीपक में घी या तिल का तेल डालकर दीपदान करें।

सरसों का तेल, तिल, काले वस्त्र आदि किसी जरूरतमंद को दान करें।

भगवान विष्णु की पूजा करें।

श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें या फिर भगवान विष्णु के इस मंत्र को पढ़ें. –  ‘नमो स्तवन अनंताय सहस्त्र मूर्तये, सहस्त्रपादाक्षि शिरोरु बाहवे। सहस्त्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युग धारिणे नम:।।‘

घर में हवन या पूजन करें।

घी, अन्न या खाने की कोई भी वस्तु दान करें।

 शाम के समय भी मंदिर में दीपदान करें।

सायं काल में तुलसी के पास दीपक जलाएं और उनकी परिक्रमा करें।

इस दिन ब्राह्मण के साथ ही अपनी बहन, बहन के लड़के, यानी भान्जे, बुआ के बेटे, मामा को भी दान स्वरूप कुछ देना चाहिए।

जब चंद्रोदय हो रहा हो, तो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिवजी का आशीर्वाद मिलता है।

सभी को समान अवसर देती है प्रकृति ,यह हम पर निर्भर है कि हम उससे कैसे अपना भाग्य बनाते है

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बहुत समय पहले की बात है एक गरुजी के आश्रम मेंअनेक छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे।

हर रोज सुबह की कक्षा के बाद सवाल जवाब का सत्र होता था।

यहां वे शिष्यों की जिज्ञासा का समाधान करते थे। इसके लिए वे प्रयोगों के माध्यम से सीख देते थे।

एक दिन एक शिष्य ने उनसे सवाल किया कि गुरुजी आप हम सभी को समान चीजें सिखते हो,

लेकिन यहां से निकलने के बाद सभी लोग एक जैसा काम नहीं करते।

अगर वे जैसा काम करते भी हैं तो उसके परिणाम अलग-अलग होते हैं।

यह सुनकर उन्होंने छात्रों से एक आलू , एक अंडा और एक गुड़ की डली लाने को कहा।

उन्होंने छात्रों से पूछा कि आलू कैसा है ? सबने कहा कि कठोर है। उसके बाद उन्होंने अंडे के बारे में पूछा तो सभी ने कहा कि बाहरी सतह कठोर होने के बावजूद यह भीतर से बहुत नरम है।

गुड़ को सभी ने न बहुत नरम और न बहुत कठोर बताया। गुरुजी ने इन तीनों को तीन एक जैसे बर्तनों में पानी भरकर उसमें डालकर चूल्हे पर रखने को कहा।

पानी में काफी देर तक उबालने के बाद गुरुजी ने शिष्यों से तीनों बर्तनों को लाने के लिए कहा।

इसके बाद उन्होंने आलू को बाहर निकालकर शिष्यों को अंडा और एक गुड़ की डली लाने को कहा। उन्होंने शिष्यों से कहा कि वे तीनों बर्तनों को गौर से देखें।

छात्रों से पूछा कि आलू कैसा दिख रहा है? सबने कहा कि पहले की तुलना में नरम हो गया है |

उसके बाद उन्होंने अंडे के बारे में पूछा तो सभी ने पहले की तुलना में कठोर हो गया है।

गुड़ पानी में घुल गया था और उसने पुरे पानी को मीठा कर दिया था |

अब गुरु जी ने समझाया कि तीन अलग अलग चीजों को समान विपत्ति से गुजारा गया यानी तीनों को समानरूप से समान अवधि तक पानी में उबाला गया |

लेकिन. बाहर आने पर तीनों चीजें एक जैसी नहीं मिली। आलू जो कठोर था वो मुलायम हो गया, अंडा पहले से कठोर हो गया और गुड़ ने भी अपना रूप बदल लिया

उसी तरह यही बात इंसानों पर भी लाग होती है।

सभी को समान अवसर मिलते हैं और मुश्किलें भी आती हैं, लेकिन यह पूरी तरह आप पर निर्भर है कि आप परेशानीका सामना कैसा करते हैं और मुश्किल दौर से निकलनेके बाद क्या बनते हैं।

सीख : प्रकृति किसी से भी भेदभाव नहीं करती और सभी को समानअवसर देती है, लेकिन यह हम पर निर्भर है कि हम उस अवसर का इस्तेमाल करके अपना भाग्य कैसे बनाते है ।

भीतर की शक्ति से बाहरी बैक्टीरिया का सामना कर सकते हैं

हमारे शरीर में बैक्टीरिया पहले से होते हैं। जैसे ही हमारे शरीर का इम्युनिटी पावर कमजोर होता है तो छोटे-छोटे वायरस भी थोड़ा सा मौसम बदलते ही हमारे शरीर पर हमला कर देते है।

यदि मैं मजबूत रहती हूँ तो बाहर का मौसम भले बदले, तूफान हो, बर्फ पड़े हमारे ऊपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

मैं अपना ध्यान नहीं रखूं और सिर्फ बोलती रहूं कि मौसम ठीक नहीं है, सर्दी इतनी बढ़ गई, गर्मी बढ़ गई है तो बीमार पड़ना ही है।

स्वस्थ रहना है या बीमार रहना है ये दोनो विकल्प हमारे पास है। जैसे हम अपने शरीर का ध्यान रखते है वैसे ही हमें अपने मन का भी ध्यान रखना होगा। यह उस समय नहीं होगा जब परिस्थितियां आती है।

आप अपने शरीर के अंदर ताकत तब नहीं भरते है जब मौसम बदलता है। आप हर दिन शरीर का ध्यान रखते हैं, फिर चाहे बाहर कितना भी परिवर्तन क्यों न आए वह आपको अंदर से प्रभावित नहीं कर सकता है।


शरीर के अंदर शक्ति है कि वह बाहर के परिवर्तन के साथ शरीर का सामंजस्य बैठाकर संतुलन बना लेती है। अगर बाहर से इन्फेक्शन आ रहा है तो शरीर का इम्युनिटी पावर उसे कब खत्म कर देता है हमें इसका पता भी नहीं चलता है।

और हम सामान्य रूप से कार्य करते रहते है। उसी तरह अगर हम न का भी ध्यान रखें उसकी रोज सफाई करें, पोषण दें, व्यायाम करें तो बाहर कब क्या होगा और चला जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा।

जब जैसी परिस्थिति होती है वैसी ही हमारी खुशी भी हो जाती है क्योंकि यह कुछ-कुछ बाहर की बातों पर निर्भर करती है।

लेकिन इसकी अपनी कोई तकत नहीं है जो हमारी खुशी को प्रभावित कर सके। आप अच्छा बोलो तो खुश, आप अच्छा नहीं बोलो तो भी खुश।

इसलिए हमने पहले भी कहा था कि ध्यान रखना। बैक्टीरिया भले आए, कोई बहुत कुछ बुरा-भला भी कह दे, कोई नाराज हो जाएगा, बच्चे संतुष्ट नहीं होंगे, बाॅस गुस्सा हो जाएगा, ये सब बैक्टीरिया ही तो हैं जो बाहर से आते है।

आज बच्चे बहुत अच्छी तरह से बात कर रहे हैं कल अचानक उन्होंने कुछ गलत बोल दिया, ये सब परिर्वतन ही तो है जो मौसम में बदलाव लाया है। हमारे अंदर वो शक्ति है जो हम इसका सामना कर सकते है।

जो स्वयं को सुरक्षित नहीं करेगा वो तो कष्ट करेगा ही फिर चाहे वो शारीरिक हो या भावनाओं के रूप में हो। क्योंकि हमें भावनात्मक सुरक्षा के बाजाए शारीरिक सुरक्षा करना आसान लगता है।

इसलिए हम इमोशनल हेल्थ की तरफ ध्या नही नहीं देते है। जब हम अपनी इमोशनल हेल्थ कि सुरक्षा करना शुरू कर देंगे तब यह भी आसान हो जाएगा।

फिर चाहे कोई कुछ भी बोले हमें फर्क नहीं पड़ेगा। एक दिन आप अपने आपको जांचना कि किसी ने आपसे बात नहीं की, बेईज्जती कर दी, अपमानित कर दिया, कुछ उल्टा-सीधा बोल दिया, तो ऐसी परिस्थिति में मैं क्या कर सकती हूँ ।

क्या मैं इतनी कमजोर हूँ कि हर किसी के व्यवहार को अपने ऊपर हावी होने दूं। अगर हम अपना सारा नियंत्रण बाहर को दे देंगे तो दुखी हो जाएंगे। क्योंकि बाहर चुनौतियां बहुत ज्यादा है।

बी.के. शिवानी, ब्रह्याकुमारी

सतोगुण की वृद्धि से बुद्धि बढ़ेगी

अक्ल बड़ी या भैंस? इस कहावत को लेकर आज भी लोग उलझ जाते हैं, लेकिन समझ नहीं आता कि अक्ल और भैंस का क्या संबंध है?

दार्शनिक लोग कहते हैं भैंस ठस होती है, बिल्कुल अक्ल नहीं लगाती, लेकिन उसकी उपयोगिता बहुत है।

भले ही कहा यह जाता है कि भैंस का दूध प्रमादी है और पीने वाला आलसी हो जाता है, लेकिन लगभग सारे सक्रिय लोग भैंस का दूध पी रहे है।

फिर भी यह तय है कि भैंस में अक्ल नहीं होती, केवल उसकी उपयोगिता के कारण लोग उसका मान करते है। भैंस अपने प्रमाद के कारण प्रसिद्ध है, मनुष्य की अक्ल-बुद्धि अपने प्रवाह के कारण मानी जाती है।

बुद्धि में बहुत तीव्र प्रवाह होता है। कहां से कहां पहुंच जाती है, बड़े से बड़े रहस्य हो उजागर कर सकती है। फिर मनुष्य की अक्ल तो दो भागों में बंटी हुई है।

पुरूष की अक्ल अलग और स्त्री की अलग। इसका शिक्षा से कोई संबंध नहीं है। शिक्षा ऊपर का आवरण है, भीतर अक्ल चलती है, जब जिसकी बुद्धि चल जाए, समस्या का निदान निकल आए, वह अकलमंद।

बुद्धि खूब परिष्कृत हो जाए तो मेधा बन जाती है। इसमें सतोगुुण, खान पान और नींद का बड़ा महत्व होता है।

जो लोग नींद पर नियंत्रण पा लेंगे, खानपान शुद्ध रखेंगे और जो अपने भीतर सतोगुण की वृद्धि करेंगे उनकी बुद्धि बहुत जल्दी मेधा में बदल जाएगी।

वहीं बुद्धि यदि रजोतमोगुण से जुड़ी रही तो वह लगभग भैंस जैसी हो जाएगी। शायद इसीलिए यह कहावत बनी है कि अक्ल बड़ी या भैंस?


-पं विजयशंकर मेहता ( From जीने की राह)

गुरु बाबा गोरखनाथ जी महाराज (Gorakhnath)

भारत की भूमि ऋषि-मुनियो और तपस्वियों की भूमि रही है। जिन्होंने अपने बौद्धिक क्षमता के दम पर भारत ही नहीं वरन सम्पूर्ण सृष्टि के भलाई के लिए बहुत योगदान दिया है।

ऋषि-मुनियो के शिक्षा से हमें जीवन में सही राह चुनने का ज्ञान होता है। साधु महात्माओ द्वारा दिए गए ज्ञान-विज्ञान 21 वी सदी में भी बहुत प्रासंगिक हैं।

भारत में कलयुग में दो महान संतों का जन्म हुआ है। पहले आदि शंकराचार्य और दूसरे गुरु गोरखनाथ। दोनों के ही कारण धर्म और संस्कृति का पुनरुत्थान हुआ है।

यह देश इन दोनों का ऋणि है। महापुरुषों में ऐसे कई ऋषि-मुनि हुए जो बचपन से ही दैविये गुणों के कारण या तपस्या के फलस्वरूप कई प्रकार की सिद्धियाँ व शक्तियां प्राप्त कर लेते थे, जिनका उपयोग मानव कल्याण तथा धर्म के रक्षार्थ हेतु हमेशा से किया जाता रहा है।

यह सिद्धियाँ और शक्तियाँ ऋषि-मुनियों को एक चमत्कारी तथा प्रभावी व्यक्तित्व प्रदान करती हैं और ऐसे सिद्ध योगियों के लिए भौतिक सीमाएं किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं कर पाती है।

पर इन शक्तियों को प्राप्त करना सहज नहीं है| परमशक्तिशाली ईश्वर द्वारा इन सिद्धियों के सुपात्र को ही एक कड़ी परीक्षा के बाद प्रदान किया जाता  है।

ऐसे ही एक सुपात्र सिद्ध महापुरुष हैं जो साक्षात् शिवरूप माने जाते हैं  इनके बारे में कहा जाता है  कि आज भी वह सशरीर जीवित हैं और हमारे पुकार को सुनते हैं और हमें मुसीबतो से पार भी लगाते हैं।महादेव भोलेनाथ के परम भक्त महान तपस्वी बाबा गोरखनाथ जी की।

गोरखनाथ को हिंदू परंपरा में एक महा-योगी (या महान योगी) माना जाता है।

उन्होंने किसी विशिष्ट आध्यात्मिक सिद्धांत या किसी विशेष सत्य पर जोर नहीं दिया, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि सत्य और आध्यात्मिक जीवन की खोज मनुष्य का एक मूल्यवान और सामान्य लक्ष्य है।

गोरखनाथ ने समाधि और अपने स्वयं के आध्यात्मिक सत्य तक पहुँचने के साधन के रूप में योग , आध्यात्मिक अनुशासन और आत्मनिर्णय के नैतिक जीवन का समर्थन किया।

 गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे।

इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है।

इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है।

ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है।

इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए।

शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहां पर परम शक्ति का अनुभव होता है।

हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लांघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार हैएक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था।

जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिंता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था।

इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं।

उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, महाराज, आप क्यों रो रहे हैं? गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया।

मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी इस प्रकार उन्होंने राजा की आंखें  खोल दी।

गोरखनाथ का अर्थ

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ के नाम से भी जाना जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ “गाय को रखने और पालने वाला या गाय की रक्षा करने वाला” होता है। सनातन धर्म में गाय का बहुत ही धार्मिक महत्व है। मान्यता है कि गाय  के शरीर में सभी 33 करोड़ देवी-देवता निवास करते है। भारतीय संस्कृति में गाय को माता के रूप में पूजा जाता है।

गोरखनाथ की उत्पत्ति का काल

गोरखनाथ  एक हिंदू योगी , संत थे, जो भारत और नेपाल में नाथ हिंदू मठवासी आंदोलन के प्रभावशाली संस्थापक थे उन्हें भारत के दो उल्लेखनीय शिष्यों में से एक माना जाता है। मत्स्येन्द्रनाथ ।

उनके अनुयायी भारत में गर्भगिरि नामक स्थान पर पाए जाते हैं, जो महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर में है । इन अनुयायियों को योगी , गोरखनाथी , दर्शनी या कनफटा कहा जाता है ।

वह नौ संतों में से एक थे जिन्हें नवनाथ के नाम से भी जाना जाता है और महाराष्ट्र, भारत और दुमगाँव, उत्तराखंड में व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं (जहां उपासक हिमालय में एक महीने के लिए कभी-कभी 6 महीने या उससे अधिक समय तक कठिन तपस्या करते हैं)।

हैगियोग्राफ़ी उन्हें एक मानव शिक्षक और समय के नियमों से बाहर के किसी व्यक्ति के रूप में वर्णित करती है जो विभिन्न युगों में पृथ्वी पर प्रकट हुए थे।

इतिहासकारों का कहना है कि गोरखनाथ दूसरी सहस्राब्दी सीई के पूर्वार्द्ध के दौरान किसी समय रहते थे, लेकिन वे किस सदी में असहमत थे।

पुरातत्व और पाठ पर आधारित अनुमान ब्रिग्स की 15वीं- से 12वीं-शताब्दी तक से लेकर ग्रियर्सन के 14वीं सदी के अनुमान तक हैं।

गोरखनाथ, उनके विचार और योगी ग्रामीण भारत में अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं, उनके समर्पित मठ और मंदिर भारत के कई राज्यों में पाए जाते हैं, विशेष रूप से इसी नाम के शहर गोरखपुर में पाए जाते हैं।

कुछ ऐसी भी दन्तकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का संकेत करती हैं, जैसे कबीर और नानक से उनका संवाद, परन्तु ये बहुत बाद की बातें हैं। जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं।

गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है।

तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

 कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है।

जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1100 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे।

परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते।

मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे।

इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

लेखक ने ‘नाथ-सम्प्रदाय’ नामक पुस्तक में उन सम्प्रदायों के अंतर्भुक्त होने की प्रक्रिया का सविस्तार विवेचन किया है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईस्वी सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही माना जाना ठीक जान पड़ता है।

गोरखपुर ही नहीं बिहार में भी है गोरखनाथ मंदिर

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले का गोरखनाथ मंदिर विश्वभर में प्रसिद्ध है। क्या आपको पता है कि बिहार में भी एक गोरखनाथ मंदिर है।

यह गोरखनाथ शिव मंदिर बाबा गोरखनाथ के नाम पर ही बना हुआ है। सबसे खास बात यह है कि कटिहार जिले के जिस गांव में यह मंदिर बना हुआ है उस गांव का नाम भी गोरखपुर ही है।ऐसी मान्यता है कि कामाख्या मंदिर से आते वक्त बाबा गोरखनाथ इस गांव में ठहरे थे।

इसके बाद बाबा गोरखनाथ के पुण्य प्रताप से वशीभूत होकर वहां के लोगों ने न सिर्फ अपने गांव का नाम गोरखपुर रखा बल्कि बाबा गोरखनाथ के नाम पर एक मंदिर का भी निर्माण कराया।

यह मंदिर मिनी बाबा धाम के नाम से भी मशहूर है। सावन के महीने में यहां भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है।गोरखनाथ जी के विचार ग्रामीण भारत में अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं।

मंदिर की बनावट भी है अद्भुत

मंदिर के ऊपरी हिस्सा से अशोक चक्र एवं नागफन अंकित है। मंदिर का निर्माण विशेष आकार के ईंट, चूना, सुरखी से प्राचीन काल की कारीगरी की अनूठी मिसाल है।

बिना नींव की कटोरी को उल्टा कर बैठा देने जैसे अवस्था में यह मंदिर अद्भूत प्रतीत होता है।

महायोगी गोरखनाथ जी के गुरु

नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है,

गुरु मत्स्येंद्र नाथ जी गोरखनाथ जी के गुरु थे।

जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए। कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कुल का अर्थ है शक्ति और अकुल का अर्थ शिव।

मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे। मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गए हैं जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है।

हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिंद्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगाव के ग्राम मायंबा गांव के निकट है। इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं।

मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम ‘मीननाथ’ है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताए गए हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे।

देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे।

तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए। शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथ के अनुसार 200 ईसा पूर्व मत्स्येन्द्रनाथ हुए थे।

बाबा गोरखनाथ के जन्म की कहानी

शंकर भगवान को नाथ संप्रदाय के संस्थापक कहा जाता है | जिसके आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय थे | भगवान् दत्तात्रेय के शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ थे |

वह ध्यान धर्म और प्रभु उपासना के उपरांत भिक्षाटन कर के जीवन व्यतीत करते हैं

गुरु गोरखनाथ का जन्म स्त्री गर्भ से नहीं हुआ था बल्कि गोरखनाथ का अवतार हुआ था। सनातन ग्रंथो के अनुसार गुरु गोरखनाथ हर युग में हुए है तथा उनको महान चिरंजीवियों में से एक गिना जाता है |

गुरु गोरखनाथ एक योग सिद्ध योगी थे, इन्होंने हठयोग परंपरा का प्रारंभ किया। इनको भगवान शिव का अवतार माना जाता है। गोरखनाथ को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का मानस पुत्र भी कहा जाता है।

मान्यता के अनुसार एक बार गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा मांगने एक गांव गए। एक घर में भिक्षा देते हुए स्त्री बड़ी उदास दिखाई दी, तो गुरु ने पूछा क्या समस्या है?

स्त्री बोली- मेरी कोई संतान नहीं है। उस स्त्री को परेशान देख गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने उसको मंत्र पढ़कर एक चुटकी भभूत दी और पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देकर चले गए।

लगभग बारह साल के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी गांव में फिर से आए और उस स्त्री के घर पहुंचे। दरवाजे के बाहर से आवाज लगाकर स्त्री को बुलाया और कहा, अब तो पुत्र बारह साल का हो गया होगा।

असलियत में वह स्त्री गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की सिद्धियों से अनजान थी, इसलिए उसने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा दी भभूत को खाने की बजाय गोबर में फेंक दिया था।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की सिद्धि इतनी प्रबल थी कि भभूत बेकार नहीं जाती। स्त्री घबरा गई और सारी बात बताई कि मैंने भभूत को गोबर में फेंक दिया था।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा वह स्थान दिखाओ, वहां जाकर देखा तो एक गाय गोबर से भरे एक गड्ढे के ऊपर खड़ी है और अपना दूध उस गड्ढे में झलका रही है, तब गुरु ने उस स्थान पर बालक को आवाज लगाई।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की आवाज से उस गोबर वाली जगह से एक बारह वर्ष सुंदर आकर्षक बालक बाहर निकला और हाथ जोड़कर गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के सामने खड़ा हो गया।

इस प्रकार बाबा गोरखनाथ का जन्म स्त्री के गर्भ से नहीं, बल्कि गोबर और गो द्वारा की जाने वाली रक्षा से हुआ था। इसलिए इनका नाम गोरक्ष पड़ा।

इस बालक को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ अपने साथ लेकर चले गए और आगे चलकर यही बालक गुरु गोरखनाथ बने।

गोरक्षनाथ ने ही नाथ योग की परंपरा शुरू की और आज हम जितने भी आसन, प्राणायाम, षट्कर्म, मुद्रा, नादानुसंधान या कुण्डलिनी आदि योग साधनाओं की बात करते हैं, सब इन्हीं की देन है।

महायोगी गोरखनाथ

नवनाथ की परंपरा की शुरुआत गुरु गोरखनाथ के कारण ही शुरु हुई थी। शंकराचार्य के बाद गुरु गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है।

गोरखनाथ की परंपरा में ही आगे चलकर कबीर, गजानन महाराज, रामदेवरा, तेजाजी महाराज, शिरडी के साई आदि संत हुए। माता ज्वालादेवी के स्थान पर तपस्या करने उन्होंने माता को प्रसंन्न कर लिया था।

गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।

उन्होंने योग के कई नए आसन विकसित किए थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया।

उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए।

शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है।

हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

 नाथ संप्रदाय

नाथ सम्प्रदाय भारत का एक हिंदू धार्मिक पन्थ है। मध्ययुग में उत्पन्न इस सम्प्रदाय में बौद्ध, शैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय दिखायी देता है।

यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित पंथ है। शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं। इसके अलावा इस सम्प्रदाय में अनेक गुरु हुए जिनमें गुरु मच्छिन्द्रनाथ /मत्स्येन्द्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में बिखरा हुआ था। गुरु गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया, अतः इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं।

नाथसांप्रदाय में योगी और जोगी एकही सिक्के के दो पहेलू हैं, एक जो सन्यासी जीवन और दुसरा गृहस्थ जीवन हैं। सन्यासी, योगी, जोगी, नाथ ,अवधूत ,कौल,कालबेलिया, उपाध्याय (पश्चिम उत्तर प्रदेश में), नामों से जाना जाता है।

इनके कुछ गुरुओं के शिष्य जैन, सिख, बौद्ध और अन्य धर्म के भी थे।

नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं।

हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है।

ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे ‘सिले’ कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को ‘सींगी सेली’ कहते हैं।

नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख गुरु

आदिगुरू            आदियोगी आदिनाथ सर्वश्वर भगवान महादेव सदाशिव है।।

महर्षि मच्छेन्द्रनाथ         8वीं या 9वीं सदी के योग सिद्ध, “तंत्र” परंपराओं और अपरंपरागत प्रयोगों के लिए मशहूर हुए।

महायोगी गोरक्षनाथ (गोरखना10वीं या 11वीं शताब्दी में प्रगट, मठवादी नाथ संप्रदाय के संस्थापक, व्यवस्थित योग तकनीकों, संगठन , हठ योग के ग्रंथों के रचियता एवं निर्गुण भक्ति के विचारों के लिए प्रसिद्ध

जालन्धरन12वीं सदी के सिद्ध, मूल रूप से जालंधर (पंजाब) निवासी, राजस्थान और पंजाब क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त

कानीफनाथ14वीं सदी के सिद्ध, मूल रूप से बंगाल निवासी, नाथ सम्प्रदाय के भीतर एक अलग उप-परंपरा की शुरूआत करने वाले

चौरंगीनाथबंगाल के राजा देवपाल के पुत्र, उत्तर-पश्चिम में पंजाब क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त, उनसे संबंधित एक तीर्थस्थल सियालकोट (अब पाकिस्तान में) में हैl

चर्पटीनाथहिमाचल प्रदेश के चंबा क्षेत्र में हिमालय की गुफाओं में रहने वाले, उन्होंने अवधूत का प्रतिपादन किया और बताया कि व्यक्ति को अपनी आन्तरिक शक्तियों को बढ़ाना चाहिए क्योंकि बाहरी प्रथाओं से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता हैl

भर्तृहरिनाथउज्जैन के राजा और विद्वान जिन्होंने योगी बनने के लिए अपना राज्य छोड़ दियाl

गोपीचन्दनाथबंगाल की रानी के पुत्र जिन्होंने अपना राजपाट त्याग दिया था.

रत्ननाथ            13वीं सदी के सिद्ध, मध्य नेपाल और पंजाब में ख्यातिप्राप्त, उत्तर भारत में नाथ और सूफी दोनों सम्प्रदाय में आदरणीय

धर्मनाथ15वीं सदी के सिद्ध, गुजरात में ख्यातिप्राप्त, उन्होंने कच्छ क्षेत्र में एक मठ की स्थापना की थी, किंवदंतियों के अनुसार उन्होंने कच्छ क्षेत्र को जीवित रहने योग्य बनाया .

मस्तनाथ          18वीं सदी के सिद्ध, उन्होंने हरियाणा में एक मठ की स्थापना की थी

जीवन शैली       

नाथ साधु-सन्त परिव्राजक होते हैं। वे भगवा रंग के बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे ‘सिले’ कहते हैं।

गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को ‘सींगी सेली’ कहते हैं। उनके एक हाथ में चिमटा, दूसरे हाथ में कमण्डल, दोनों कानों में कुण्डल, कमर में कमरबन्ध होता है।

ये जटाधारी होते हैं। नाथपन्थी भजन गाते हुए घूमते हैं और भिक्षाटन कर जीवन यापन करते हैं। उम्र के अंतिम चरण में वे किसी एक स्थान पर रुककर अखण्ड धूनी रमाते हैं। कुछ नाथ साधक हिमालय की गुफाओं में चले जाते हैं।

साधनापद्धति

नाथ सम्प्रदाय में सात्विक भाव से शिव की भक्ति की जाती है। वे शिव को ‘अलख’ (अलक्ष) नाम से सम्बोधित करते हैं। ये अभिवादन के लिए ‘आदेश’ या आदीश शब्द का प्रयोग करते हैं।

अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या ‘परम पुरुष’ होता है। नाथ साधु-सन्त हठयोग पर विशेष बल देते हैं।

गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं:- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव ( जालंधर या जालिंदरनाथ) आदि।

13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।

कुछ लोग नौ नाथ का क्रम ये बताते हैं:- मत्स्येन्द्र, गोरखनाथ, गहिनीनाथ, जालंधर, कृष्णपाद, भर्तृहरि नाथ, रेवणनाथ, नागनाथ और चर्पट नाथ।

।।मच्छिंद्र गोरक्ष जालीन्दराच्छ।। कनीफ श्री चर्पट नागनाथ:।।
श्री भर्तरी रेवण गैनिनामान।। नमामि सर्वात नवनाथ सिद्धान।। 

नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। कुछ लोग मानते हैं कि नाग शब्द ही बिगड़कर नाथ हो गया। भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है।

नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई।

आपने अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थलों के नाम सुने होंगे। आपने भोलेनाथ, भैरवनाथ आदि नाम भी सुने ही होंगे।

साईनाथ बाबा (शिरडी) भी नाथ योगियों की परंपरा से थे। गोगादेव, बाबा रामदेव आदि संत भी इसी परंपरा से थे। तिब्बत के सिद्ध भी नाथ परंपरा से ही थे।

 नाथ संप्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जाएगी। यदि गौर से देखा जाए तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।

नाथ संप्रदाय     

नाथ परंपरा कहती है कि इसकी परंपराएं गोरखनाथ से पहले मौजूद थीं, लेकिन आंदोलन का सबसे बड़ा विस्तार गोरखनाथ के मार्गदर्शन और प्रेरणा में हुआ।

उन्होंने कई रचनाएँ लिखीं और आज भी उन्हें नाथों में सबसे महान माना जाता है । यह कहा जाता है कि गोरखनाथ ने लय योग पर पहली किताबें लिखी थीं ।

भारत में कई गुफाएं हैं, कई उन पर बने मंदिरों के साथ, जहां कहा जाता है कि गोरखनाथ ने ध्यान में समय बिताया। भगवान नित्यानंद के अनुसार , गोरखनाथ का समाधि मंदिर (मकबरा) गणेशपुरी, महाराष्ट्र , भारत से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर वज्रेश्वरी मंदिर के पास नाथ मंदिर में है ।

किंवदंतियों के अनुसार गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ ने कर्नाटक के मैंगलोर में कादरी मंदिर में तपस्या की थी। कादरी और धर्मस्थल में शिवलिंग स्थापित करने में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान है।

गोरखनाथ का मंदिर भी वंबोरी, ताल राहुरी के पास गर्भगिरी नामक पहाड़ी पर स्थित है; जिला अहमदनगर। ओडिशा राज्य में गोरखनाथ का एक प्रसिद्ध मंदिर भी है।

नाथ संप्रदाय का एकत्रीकरण एवं विस्तरण

गुरु गोरखनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ से पहले नाथ संप्रदाय बहुत बिखरा हुआ था | इन दोनों ने नाथ संप्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया |

साथ ही मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गोरखनाथ ने नाथ संप्रदाय का एकत्रीकरण किया। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इसी समुदाय से आते हैं।

योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री होने के साथ साथ नाथ संप्रदाय के प्रमुख महंत भी है।

गुरु गोरखनाथ को हठ योग और नाथ संप्रदाय का प्रवर्तक कहा जाता है। जो अपने योगबल और तपबल  से सशीर चारों युग में जीवित रहते हैं। गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ को 84 सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।

गुरु गोरखनाथ साहित्य के पहले आरम्भकर्ता थे। उन्होंने नाथ साहित्य की सर्वप्रथम शुरुआत की। इनके उपदेशो में योग और शैव तंत्रो का समावेश है। गुरु गोरखनाथ ने पूरे भारत का भ्रमण किया तथा लगभग चालीस रचनाओं को लिखा था।

गुरु गोरखनाथ समाधि

गुरु गोरखनाथ के नाम पर उत्तरप्रदेश में गोरखपुर नगर है। गुरु गोरखनाथ ने यहीं पर अपनी समाधि ली थी। गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ का एक भव्य और प्रसिद्ध मंदिर है।

इस मंदिर पर मुग़ल काल में कई बार हमले हुए और इसे तोड़ा गया लेकिन हर बार यह मंदिर गोरखनाथ जी के आशीर्वाद से अपने पूरे गौरव के साथ खड़ा हो जाता।बाद में नाथ संप्रदाय के साधुओं द्वारा सैन्य टुकड़ी बना कर इस मंदिर की दिन रात रक्षा की गई।

भारत ही नहीं नेपाल में भी गोरखा नाम से एक जिला और एक गोरखा राज्य भी है | कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने यहाँ डेरा डाला था जिस वजह से इस जगह का नाम गोरखनाथ के नाम पर पड़ गया तथा यहाँ के लोग गोरखा जाति के कहलाये|

रोट उत्सव से जुड़ी रोचक जानकारी

नेपाल के गोरखा नामक जिला में एक गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है की गुरु गोरखनाथ ने यहाँ तपस्या की थी आज भी उस गुफा में गुरु गोरखनाथ के पगचिन्ह मौजूद है साथ ही उनकी एक मूर्ति भी है।

इस स्थल पर गुरु गोरखनाथ के स्मृति में प्रतिवर्ष वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव का आयोजन होता है जिसे बड़े ही हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है।

इस उत्सव को “रोट उत्सव” के नाम से जाना जाता है। नेपाल नरेश  नरेन्द्रदेव भी गुरु गोरखनाथ के बहुत बड़े भक्त थे,वह उनसे दिक्षा प्राप्त कर उनके शिष्य बन गए।

गुरु गोरखनाथ की मृत्यु

गुरु गोरखनाथ की मृत्यु नहीं हुई थी, बल्कि उन्होंने खुद समाधि ली थी।

आज भी उत्तरप्रदेश में गुरु गोरखनाथ जी के नाम से गोरखपुर नगर हैं।

इसी जगह पर गुरु गोरखनाथ ने समाधि ली थी।

गोरखपुर में आज भी गुरु गोरखनाथ का भव्य और प्रसिद्ध मंदिर स्थित हैं. जहां श्रद्धालु आज भी उनके दर्शन के लिए जाते हैं.

महायोगी गुरु गोरखनाथ के मंत्र

जब भी कभी किसी साधना का नाम आता है तो अकस्मात ही एक नाम मन में आने लगता है  ” गुरु गोरख नाथ ” | गुरु गोरखनाथ एक ऐसे  तपस्वी हुए है जिनका सम्पूर्ण जीवन साधना व सिद्धियाँ प्राप्त करने में समर्पित हुआ |

सभी सिद्ध शाबर मंत्र गुरु गोरखनाथ की ही देन है | गुरु गोरखनाथ को गोरक्ष नाथ भी कहा गया है |

गुरु गोरखनाथ के मन्त्रों द्वारा किसी भी प्रकार के रोग ,व्याधि और पीडाओं को दूर किया जा सकता है | गुरु गोरखनाथ के दिए मन्त्रों का विस्तार से वर्णन कर पाना कठिन है।

गुरु गोरखनाथ के कुछ शक्तिशाली शाबर मंत्र

गुरु गोरखनाथ शाबर मंत्र : –

यह गुरु गोरखनाथ जी का एक शक्तिशाली मंत्र है यह मंत्र गुरु गोरखनाथ द्वारा सिद्ध होने के कारण तुरंत प्रभाव दिखता है |

इस मंत्र का प्रयोग किसी भी व्यक्ति पर किये-कराये व सभी प्रकार के वशीकरण के प्रभाव को खत्म करने के लिए किया जा सकता है |

 1. गुरु गोरखनाथ शाबर मंत्र  : –

वज्र में कोठा, वज्र में ताला

वज्र में बंध्या दस्ते द्वारा

तहां वज्र का लग्या किवाड़ा

वज्र में चौखट, वज्र में कील

जहां से आय, तहां ही जावे

जाने भेजा, जांकू खाए

हमको फेर सूरत दिखाए

हाथ कूँ, नाक कूँ, सिर कूँ

पीठ कूँ, कमर कूँ, छाती कूँ

जो जोखो पहुंचाए

तो गुरु गोरखनाथ की आज्ञा फुरे

मेरी भक्ति गुरु की शक्ति

फुरो मंत्र इश्वरोवाचा ||

मंत्र प्रयोग विधि : –  सात कुओं से जल लाकर इस जल को एक पात्र में एकत्रित कर रोगी को स्नान कराये | रोगी को स्नान कराते समय उपरोक्त मंत्र का उच्चारण करते रहै इससे वशीकरण व किये-कराये के प्रभाव से रोगी को तुरंत आराम मिलेगा |

2. गुरु गोरखनाथ शाबर मंत्र : –

नमो महादेवी

सर्वकार्य सिद्धकर्णी जो पाती पुरे

ब्रह्मा विष्णु महेश तीनो देवतन

मेरी भक्ति गुरु की शक्ति

श्री गुरु गोरखनाथ की दुहाई

फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा ||

मंत्र प्रयोग विधि : – सांसारिक जीवन में आने वाली सभी पीडाएं और बाधाएं इस शाबर मंत्र के जाग्रत करने से दूर होने लगती है | इसलिए समस्या कोई भी इस शाबर मंत्र के प्रयोग से दूर होती है |

उपरोक्त मंत्र का शाम को 6 बजे के बाद कभी भी उच्चारण किया जा सकता है | इस मंत्र का नियमित कम से कम 27 बार जप करना चाहिए |

शाबर मंत्रो से पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए इन्हें जाग्रत करने की आवश्यकता होती है |

किसी भी शाबर मन्त्र को जाग्रत करने के लिए शाम के 06 बजे से रात्रि 09 बजे के बीच एक समय निश्चित कर 21 दिन तक प्रतिदिन गोबर के उपले की अग्नि प्रज्वल्लित कर इलायची के दानों द्वारा 108 मंत्र की आहूति दी जाती है।

गुरु गोरखनाथ जी की रचनाएं

गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है।गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की।

डॉ० बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है।

डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को निसंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला।

तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चैंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है। पुस्तकें ये हैं-

1. सबदी  2. पद  3.शिष्यादर्शन  4. प्राण सांकली  5. नरवै बोध  6. आत्मबोध7. अभय मात्रा जोग 8. पंद्रह तिथि  9. सप्तवार  10. मंछिद्र गोरख बोध  11. रोमावली12. ग्यान तिलक  13. ग्यान चैंतीसा  14. पंचमात्रा   15. गोरखगणेश गोष्ठ 16.गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)  17.महादेव गोरखगुष्टिउ 18. शिष्ट पुराण   19. दया बोध 20.जाति भौंरावली (छंद गोरख)  21. नवग्रह   22. नवरात्र  23 अष्टपारछ्या  24. रह रास  25.ग्यान माला  26.आत्मबोध (2)   27. व्रत   28. निरंजन पुराण   29. गोरख वचन 30. इंद्र देवता   31.मूलगर्भावली  32. खाणीवाणी  33.गोरखसत   34. अष्टमुद्रा  35. चौबीस सिध  36 षडक्षर  37. पंच अग्नि  38 अष्ट चक्र   39 अ���ूक 40. काफिर बोध

योग इतिहास के एक भारतीय लेखक रोमोला बुटालिया ने गोरखनाथ के कार्यों को निम्नानुसार सूचीबद्ध किया है:

 “गुरु गोरखनाथ ने गोरक्ष संहिता , गोरक्ष गीता , सिद्ध सिद्धांत पद्धति , योग मार्तंडा , योग सिद्धांत पद्धति , योग सहित कई किताबें लिखी हैं। बीजा , योग चिंतामणि ।

उन्हें नाथ संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है और यह कहा जाता है कि नौ नाथ और 84 सिद्ध सभी मानव रूप हैं जो योग और ध्यान के संदेश को दुनिया में फैलाने के लिए योग अभिव्यक्तियों के रूप में बनाए गए हैं।

यह वे हैं जो मानव जाति के लिए समाधि प्रकट करते हैं।”

सिद्ध सिद्धांत पद्धति 

सिद्ध सिद्धांत पद्धति एक हठ योग संस्कृत पाठ है जिसका श्रेय नाथ परंपरा द्वारा गोरखनाथ को दिया जाता है। फ्यूएरस्टीन (1991: पी। 105) के अनुसार , यह “सबसे पुराने हठ योग ग्रंथों में से एक है, सिद्ध सिद्धांत पद्धति , में कई छंद हैं जो अवधूत का वर्णन करते हैं ” (मुक्त) योगी।

सिद्ध सिद्धांत पद्धति पाठ एक अद्वैत (अद्वैत) ढांचे पर आधारित है , जहां योगी सार्वभौमिक ( ब्राह्मण ) के साथ व्यक्तिगत आत्मा ( आत्मान ) की पहचान सहित “स्वयं को सभी प्राणियों में, और स्वयं में” देखता है । यह विचार पाठ में विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, जैसे कि :

चार वर्णों (जातियों) को व्यक्ति की प्रकृति में स्थित माना जाता है, अर्थात ब्राह्मण सदाचार (धर्म आचरण) में, क्षत्रिय सौर्य (वीरता और साहस), वैश्य में व्यवस्या (व्यापार) में, और शूद्र सेवा (सेवा) में। . एक योगी सभी जातियों और जातियों के सभी पुरुषों और महिलाओं को अपने भीतर अनुभव करता है। इसलिए उसे किसी से कोई द्वेष नहीं है। उसे हर प्राणी से प्रेम है।

गुरु गोरक्षनाथ एवं नाथ सन्तों का सन्तसाहित्य और समाज पर प्रभाव

गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं।

भारतीय धर्म-संस्कृति की साधना पद्धतियों में नाथ पंथ और इसके प्रवर्तक गुरु गोरक्षनाथ जी तथा अन्य नाथ सिद्धों का प्रमुख स्थान है। गोरक्षनाथ जी ने योग-साधना के सैद्धान्तिक पक्ष को व्यावहारिक रूप प्रदान कर जन सामान्य तक पहुंचाया।

समग्र भारत ही नहीं, अपितु सीमावर्ती देशों को अपनी योग-विभूति से तथा चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार से बड़ी गहराई तक प्रभावित करने वाले अग्रगण्य महायोगी गुरु गोरक्षनाथ जी ही थे।

धार्मिक मानव उन्हें साक्षात् शिव स्वरूप ही स्वीकार करता है। सच्चा आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला गोरक्षनाथ जी का जीवन चरित्र प्राचीन काल से ही प्रचलित किम्वदन्तियों, कथाओं, चमत्कारों, विश्वासों तथा उनकी रचनाओं के माध्यम से प्राप्त होता है।

भारतीय धर्म-साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख तथा विकृत स्थिति के समय वामाचारी तांत्रिक साधना जोरों पर थी। पंचमकारों का खुल कर प्रयोग हो रहा था। भोगवाद अपनी चरम सीमा पर था।

साधन सम्प्रदायों में आचार सम्बन्धी नियमों का पालन नहीं हो पा रहा था। वामाचार-पंचमकार के परम परिशुद्ध और साधनोहितकारी तत्वों का दुरुपयोग हो रहा है।

ऐसे संकटापन्न समय में गोरक्षनाथ जी ने भारतीय संस्कृति, धर्म, समाज एवं साधनों के उद्धार हेतु साधना की पवित्रता, संयमपूर्ण जीवन की शक्तिमता, चारित्रिक श्रेष्ठता और आडम्बर रहित जीवन का उद्घोष किया उनकी संस्कृत तथा हिन्दी रचनाओं से प्रमाणित होता है।

प्राचीन तांत्रिक साधना-परम्परा और उसके अवस्थागत क्रमिक विकास के महत्व की पुर्नप्रतिश्ठा का सम्पूर्ण श्रेय गोरक्षनाथ जी को ही दिया जा सकता है।

‘‘धन जीवन की करें न आस, चित्त न राखै कामिनी पास’’ जैसे कथनों से स्पष्ट होता है कि कंचन एवं कामिनी के प्रति निर्लोभी एवं निर्मोही पवित्र मानसिकता उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट अंग हैं।

विभिन्न प्रकार की सिद्धियों के बिषय में उनका अभिमत था कि सिद्धियों का प्रयोग सर्व जन हिताय होना ही श्रेयस्कर है। गोरक्षनाथ जी के अन्तःकरण में सबके प्रति समभाव था।

उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक थें। उनके व्यक्तित्व की सभी विशिष्टताएँ सार्वभौम चारित्रिक आदर्श की सर्वमान्य विशेषताएँ हैं।

इन सद्प्रवृत्तियों एवं आदर्शों की उस समय सर्वत्र और सर्वाधिक उपेक्षा हो रही थी। इस संदर्भ में गोरक्षनाथ जी और नाथपंथ के चारित्रिक उच्चादर्श के योगदान की सामाजिक उपयोगिता एवं महत्ता को नकारा नहीं जा सकता है।

हिन्दी साहित्य के कतिपय विद्वानों ने गोरक्षनाथ जी एवं नाथपंथ की रचनाओं का उल्लेख करते हुये बाह्य पूजा, तीर्थाटन, जातिपांति इत्यादि के प्रति उपेक्षा बुद्धि का प्रचार रहस्यदर्शी बन कर शास्त्रज्ञ विद्वानों का तिरस्कार करने और मनमाने रूप द्वारा अटपटी वाणी में पहेलिया बुझाना, घट के भीतर चक्र, नदियाँ, शून्यदेश आदि मानकर साधना का प्रचार, नाद-विन्दु, सुरति-निरति जैसे शब्दों, उपदेशों की विशेषताओं का वर्णन तो किया है

किन्तु गोरक्षनाथ जी एवं नाथ पंथ की चारित्रिक संयम और सदाचार की विशेषता पर ध्यान नहीं दिया। सम्पूर्ण सन्त साहित्य के चिन्तन, मनन से यह स्पष्ट होता है कि गोरक्षनाथ जी ने अपने सम्प्रदाय से ही नहीं, इतर सम्प्रदायों से भी आचार एवं संयम को लेकर लोहा लिया।

तभी तो इन्द्रिय निग्रह तथा ‘‘यहु मन सकती, यहु मन सीव, यहु मन पंच तत्व का जीव। यह मन लै जै उन्मन रहै, तीनि लोक की वाता कहै।

’’ के रूप में सर्वान्तर्यामी आगत अनागत विन्दु स्वरूप में तथा संयम एवं सदाचार के आदर्श के रूप में गोरक्षनाथ जी के व्यक्तित्व की प्रतिषठा संभव हो सकी।

यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का समान रूप से शैव, शाक्तों, जैनों, वैष्णवों आदि परप्रभाव पड़ा। तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सका।

चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देखकर गोरखनाथ जी ने ब्रह्मचर्य प्रधान योग युक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। इसीलिये तो तुलसीदास जी बोल पड़े- गोरख जगायो जोगु, भगति भगायो लोगु।

भक्ति को भगाने वाला संबोधन से तात्पर्य कदाचित साकारोपासना से है। गुरु गोरक्षनाथ जी की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक ही सीमित है।

गोरखनाथ जी ने भक्ति का कहीं भी विरोध नहीं किया है। तुलसीदास जी के कथन से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि गोरक्षनाथ जी न होते तो संत साहित्य नहीं होता।

गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग-साधना एवं क्रिया-कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निर्गुण एवं सगुण मार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है।

उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊंच-नीच के सभी भेदभाव मिट गये। योग मार्ग के गूढ एवं गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरक्षनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था।

गोरक्षनाथ जी के विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्भुक्त हो गये। गोरखनाथ जी के योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव इत्यादि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। तभी तो जायसी ने ‘पद्मावत’ में गुरु गोरक्षनाथ जी की महिमा के बारे में कहा है कि-

‘‘जोगी सिद्ध होई तब, जब गोरख सौ भेंट’’

तथा कबीरदास जी ने भी गोरखनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया है-

कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि। साषी गोरखनाथ ज्यूँ, अमर भये कलि माहि ।।

सन्त कबीर के अनगिनत साखियों, सबदियो में योगपरक रहस्य पदोंदिग्दर्शन है जिसमें प्राणायाम, षटचक्र, भेदन, कुण्डलिनी जागरण, सहज समाधि, उनमनी स्थिति इत्यादि योग-साधना के अन्तरंग रहस्यों का लोक जीवन के प्रतीकों के माध्यम से लोक भाषा में ही आकर्षण एवं सजीव वर्णन किया है। नाथ सन्तों की गुरुभक्ति को कबीर ने सर्वात्मना स्वीकार किया कहा कि-

‘‘सब धरती कागद करूं, लेखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूं, गुरू गुन लिखा न जाय।।

और गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय । बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय ।।

वस्तुतः समग्र हिन्दी साहित्य की मूल चेतना समृद्ध लोकानुभव है।

गोरक्षनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान वह किसी शास्त्र ही नहीं, पुराण का ही नहीं, अपितु वह सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था जिसे वे जी रहे थें, भोग रहे थे। क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े।

उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊँच-नीच इत्यादि की विभाजक रेखा नहीं खींचता वह मनुष्य मात्र के लिये है। लोक जीवन की विविधता का अनुभव सही मार्ग की पहचान इस लोक को संकट से उबारने तथा स्वानुभूत सत्य को जन-जन तक सम्प्रेषित करना ही गुरु गोरक्षनाथ और नाथ सन्तों का मुख्य ध्येय था।

गोरखनाथ जी तथा अन्य नाथ सन्तों की योग-साधना का प्रभाव हिन्दी साहित्य के साथ-साथ मराठी साहित्य, तेलुगु, उड़िया, बंगाली, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, चीनी साहित्य पर भी पड़ा।

ज्ञानदेव जी अपनी ज्ञानेश्वरी में कहते हैं कि मुझे यह ज्ञान परंपरागत प्राप्त हुआ। गुरु गोरखनाथ जी से यह ज्ञान गहनीनाथ जी को तथा गहनीनाथ जी से निवृत्तिनाथ और निवृत्तिनाथ से मुझे प्राप्त हुआ इसी प्रकार तेलुगु के सन्त बेमन, वीर ब्रह्म आदि ने भी गुरु गोरखनाथ जी के भावों का अनुकरण किया।

उत्तरांचल का लोक साहित्य भी गुरु गोरक्षनाथ तथा नाथ-सन्तों की गाथाओं के लिये बड़ा समृद्ध है। यहाँ न केवल स्थानीय मंदिर एवं पर्वत शिखरों के नाम भी नाथ सिद्धों के नाम से प्रसिद्ध हैं अपितु बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि के साथ नाथ शब्द नाथ सन्तों के प्रभाव के कारण ही जुड़े।

गढ़वाली लोक गीतों में गोरक्षनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, सत्यनाथ, चौरंगीनाथ, नृसिंहनाथ, बटुकनाथ आदि नाथ सन्तों का बार-बार उल्लेख मिलता है तो तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, झाड़-फूंक के लिये प्रसिद्ध थे।

लोक गाथाओं में यहाँ जागर गाथाएँ प्रसिद्ध हैं और उन सिद्धों के अवतरण के लिये गाये जाते हैं। गुरु गोरक्षनाथ जी तथा नाथ सन्तों का प्रभाव सन्त साहित्य के साथ-साथ तत्कालीन राजवंशों पर भी था।

ऐसे बहुत से प्रमाण मिलते हैं जहां नाथ सन्तों ने राजा के आरोग्य तथा निरंकुश होने पर राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली। बहुत से ऐसे स्थान भी हैं जो नाथ सन्तों के आशीर्वाद से प्राप्त हुए।

मेवाड़ का राववंश बप्पा रावल को गुरु गोरखनाथ जी से ही प्राप्त हुआ था। गोरखनाथ जी द्वारा निर्दिष्ट तत्वविचार तथा योग-साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है।

नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ जी ने भारतीय मनोवृत्ति के अनुकूल बनाया। उसमें जहां एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परंपरागत रूढ़ियों पर कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रखकर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिये योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया।

गोरखनाथ जी एवं उनकी साधना-पद्धति का संयम एवं सदाचार से संबंधित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन में इतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों के अपने-अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने तथा जन सामान्य को अपने कर्म पंथ में सम्मिलित कर लेने के लिये नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया।

सम्प्रति समाज में नाना प्रकार की कुरीतियों, कुप्रभावों, अवांछनीयताएँ परिव्याप्त हैं जो हिन्दू समाज को विखण्डित कर रही हैं।

यदि विभिन्न प्रकार की समाजिक, शारीरिक समस्याओं से मुक्ति प्रदान करना ही हमारा अभीष्ट है तो नाथ पंथ की योग-साधना हमें इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकती है।

गुरु गोरक्षनाथ जी तथा नाथ सन्तों की यह साधना आज भी मनुष्य की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से समुन्नत और स्वस्थ बनाने में निरंतर क्रियाशील है।

सच के कई पहलू होते हैं, इसलिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले सबकी बातें सुननी चाहिए।

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एक गांव में छह दृष्टिहीन व्यक्ति रहते थे। एक बार उनके गांव में हाथी आया।

सभी लोग उसे देखने जा रहे थे। उन्होंने भी सोचा कि काश वे दृष्टिहीन न होते तो वे भी हाथी देख सकते थे।

इस पर उनमें से एक ने कहा कि हम हाथी को भले ही देख नह सकते हों, लेकिन छूकर महसूस तो कर ही सकते हों, लेकिन छूकर महसूस तो कर ही सकते हैं कि हाथी कैसा होता है?

सभी उसकी बात से सहमत हो गए और उन्होंने हाथी को छूना शुरू किया। उन सबने हाथी के शरीर के अलग-अलग हिस्सों को स्पर्श किया था।

जब उन्होंने आपस में चर्चा करते हुए हाथी का वर्णन शुरू किया तो जिसने हाथी के अगले पांवों को छुआ था, उसने कहा कि हाथी किसी खंभे की तरह होता है।

जिसने हाथी की पूंछ को छुआ था, उसने कहा कि वह रस्से की तरह होता है। पिछले पैरों को छूने वाला बोला वह पेड़ के तने की तरह होता है।

जिसने कान का स्पर्श किया था, उसने कहा कि वह तो बहुत बड़े सूप की तरह होता है।

हाथी के पेट को छूने वाले ने कहा कि वह तो एक दीवार की तरह विशाल होता है। सूंड को छूने वाले ने कहा कि वह मोटी नली की तरह होता है।

सभी के अलग-अलग मत होने के कारण उनमें बहस होने लगी और हरेक खुद को सही साबित करने में लग गया।

तभी वहां से एक व्यक्ति गुजर रहा था उसने उनसे पूछा कि वे बहस क्यों कर रहे हैं?

उन्होंने कहा कि हम यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर हाथी कैसा दिखता है।

फिर एक-एक करके उन्होंने अपनी बात उस व्यक्ति को समझाई।

उस व्यक्ति ने सबकी बात सुनी और बोला कि तुम सब सही हो, तुम्हारे वर्णन में अंतर इसलिए है, क्योंकि तुम सबने हाथी के शरीर के अलग-अलग भागों को छूआ एवं महसूस किया।

अब सबको पूरी बात समझ में आई। उस व्यक्ति ने कहा कि यदि आप सबने जो महसूस किया, उसके अलावा भी आगे कुछ महसूस करते तो आप को हाथी असल में कैसा होता है समझ आ जाता।

वेद पुराणों में भी कहा गया है कि एक सत्य को कई तरीके से बताया जा सकता है, इसलिए यदि जब अगली बार आप ऐसी किसी बहस में पड़े तो याद कर लीजिएगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपके हाथ में सिर्फ कान हों और बाकी हिस्से किसी और के पास हों।

सीख : कई बार हम सच्चाई जाने बिना अपनी बात पर अड़ जाते हैं कि हम ही सही हैं। जबकि हम सिक्के का एक ही पहलू देख रहे होते है। इसलिए, हमें अपनी बात तो रखनी चाहिए, पर दूसरों की बात भी पूरी सुननी चाहिए। इस कहानी से समझें।

इंद्रियों के भीतर संभावनाएं जगाएं

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हम सभी के पास दस इंद्रियां हैं। पांच कमेंद्रियां (हाथ, पैर, मल-मूत्र की दो इंद्रियां और कंठ) तथा पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा)।

इनको केवल शरीर का सामान्य अंग मानने की भूल न करें, बल्कि इनके प्रति बहुत अच्छा और गहरा परिचय रखिए।

हर इंद्री के भीतर इतनी संभावना है कि यदि आपने उस सोई हुई संभावना को जगा लिया तो ये अकल्पनीय परिणाम देंगी। इतिहास में व्यक्त है कि एक आदमी को दिन में तारे दिखने लगे।

सुनकर आश्चर्य होता है कि दिन में सूरज की रोशनी में तारे कैसे दिख सकते हैं, क्योंकि आसमान में तारे उसी समय दिख सकते है।

जब तक सूरज नहीं होता। लेकिन उस आदमी को दिखने लगे। विज्ञान मान भी गया कि उस व्यक्ति की आंखें इतनी जागृत को गई कि वह प्रकृति के उस हिस्से को देखने लगा जिसका संबंध किसी अद्वैत शक्ति से है।

यह तो केवल आंख का उदाहरण है। सच तो यह है कि हमारी हर इंद्रीय के पास एक ऐसी दबी-छिपी शक्ति है जिसे हम अपने ही प्रयत्न से उजागर कर सकते है।

सदाचार, स्वाध्याय, संयम, संतुलन ये कुछ तरीके हैं जिनसे अपनी इंद्रियों के भीतर की शक्ति को बाहर निकाला जा सकता है।

हमारी एक-एक इंद्री अदभुत है और इनके चमत्कार के आगे विज्ञान भी मौन होकर शोध में लग जाता है कि आखिर मनुष्य के शरीर का कोई अंग कैसे ऐसा दिव्य हो सकता है। इसलिए इनके भीतर की संभावनाओं को जगाए रखिए।

  • पं. विजयशंकर मेहता