जय जय सुरनायक | Jay Jay Surnayak (Ram Bhajan) | Singer: Sanjay Roy | Music: Pushpa-Arun Adhikari
Jay Jay Sur Nayak Jan Sukh Dayak Lyrics Rajan Ji Maharaj Bhajan Rajan Ji Maharaj Bhajan जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। Jay Jay Surnayak Hindi Lyrics Rajan Ji Maharaj Ram Katha Bhajan | Shri Ram Charit Manas
लक्ष्मी पाने का सबसे सिद्ध मंत्र श्रीसूक्त
ऋग्वेद में इसका उल्लेख, देवराज इंद्र ने इसी से ऐश्वर्य पाया।
श्रीसूक्त का पाठ लक्ष्मी के आह्यन का सबसे सरल साधन है। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहते है। देश के हर लक्ष्मी मंदिर में इसका पाठ रोज होता है। यह लक्ष्मी की सबसे पुरानी आराधना है।
इसका उल्लेख चारों वेद में से सबसे ऋग्वेद में है। इंद्र ने श्रीसूक्त की रचना की थी और इसी से वे लक्ष्मी आराधना करते थे। श्री साधना से ही इंद्र ने ऐश्वर्य हासिल किया था।
श्रीसूक्त के 15 मंत्रः लक्ष्मी पूजन में इनके पाठ से धन-धान्य, विजय, यश, स्वास्थ्य, ऐश्वर्य की प्राप्ति
ऊँ हिरण्वर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।
भावार्थ:- भीतर की ऊर्जा यानी अग्नि का पूरा उपयोग करने का मुझे सामर्थ्य दें। सूर्य और चंद्रमा के समान लक्ष्मी की मुझ पर कृपा हो।
तां म आ वह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।
भावार्थ:- जो कुछ प्राप्त होना है, कर्मो की ऊर्जा से मिलना है। विवाह, मकान, वाहन, संतान के लिए लक्ष्मी मुझे आशीर्वाद दे।
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥ भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥ अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥ वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥1॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥ कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥ नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥ कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥2॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥ किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥ तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥ आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥3॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥ किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥ दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥ वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥4॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥ कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥ पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥ सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥5॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥ कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥ जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥ दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥6॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥ लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥ मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥ स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥7॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥ अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥ शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥ योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥8॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥ जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥ ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥ पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥9॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥ त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥ धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥ जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥10॥
घर मे कभी गरीबी नही आएगी रामायण की 8 चौपाई का नित्य पाठ करें
जब तें रामु ब्याहि घर आए (रामायण चौपाई जो गरीबी मिटाये)
घर की दरिद्रता दूर करने के लिए रामायण की 8 चौपाई
दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
भावार्थ:-श्री गुरुजी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथजी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फलों को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) देने वाला है।
चौपाई :
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥ भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
भावार्थ:-जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥1॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥ मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
भावार्थ:-ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं॥2॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
भावार्थ:-नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥3॥
मन.मस्तिष्क से परेशान रहने के अनेक कारण हो सकते हैं।
सेल्स और टिशूज का मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है।
समाजए परिवारए पड़ोसीए सरकारए मीडियाए राजनीतिए अर्थविज्ञान इन सबका मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है।
यहां तक कि अपने शरीर का एक भाग दूसरे भाग से लड़ रहा होता है। इन सबसे दुःख का जन्म होता है और इन दुखों से निवारण का उत्तर गीता में मिलता है।
विषाद सबके जीवन में है। द्वन्द्व मानव जीवन का अभिन्न अंग है। यथार्थ में द्वन्द्व से ही समाधान भी उपजता है। या यूं कहें कि प्रत्येक द्वन्द्व का समाधान है। वास्तव में मानव जीवन के सभी द्वन्द्वों का समाधान गीता में है।
गीता संवादन है भगवान और अर्जुन के बीच अर्जुन अवसाद में हैए निराश हैए जीवन से हार चुका हैए युद्ध करने आया थाए रिश्तेदार व गुरू को देख तो चिन्ता में पड़ गया कि ये तो सब अपने हैं।
यदि इन्हे मारकर राजपाठ पाना हैए तो इससे अच्छा है भीख मांग लेनाए अर्थात् जो कुछ वह सोचकर युद्ध के मैदान में आया थाए वहां पहुंच कर स्थितियां उसके विपरीत थीं।
सच यही है कि जब जीवन में स्थितियां विपरीत होती हैंए तो निराशाए भयए संशय आदि मनुष्य को घेर लेते हैंए तब गीता की आवश्यकता होती हैए तब ऐसे व्यक्ति को कोई कृष्ण चाहिये|
वह कृष्ण एक गुरू के रूप में होए मित्र हो या सखा हो। वैसे सच्चे मित्र तो सद्गुरू ही हैंए जो कृष्ण बनकर गीता का उपदेश देते हैं और द्वन्द्व या समस्या का समाधान मिल जाता है।
वास्तव में हम भी अर्जुन ही तो हैं। हम सबके जीवन में अनेक समस्याएंए उलझनेंए निराशाएंए द्वन्द्व, असफलताएं निरन्तर आती हैं, उनसे उबरने काए मुक्त होने का श्रेष्ठतम तरीका है गीता की शरण जाना।
गीता में 18 अध्याय हैंए जिनमें 700 श्लोक सिमटे हुए हैंए जो यथार्थ में आशाए विश्वासए धैर्यए निष्ठाए जपए तपए यज्ञए साहस के अमृतबिन्दु है।
गीता में योग शब्द का बहुत बार प्रयोग हुआ हैं। विषाद योग से प्रारंभ होकरए सांख्ययोगए कर्मयोग और ज्ञानयोग वे विशाल कीर्तिस्तम्भ हैं, जो मानव के मार्ग को सर्वदा प्रकाशित करते हैं।
जीवन में ज्ञान बहुत जरूरी हैए किसी कमरे मेें कितना ही अन्धेरा होए जैसे एक दीपक जलाने से प्रकाश हो जाता हैए उसी तरह मनुष्य के अन्दर ज्ञान की ज्योति प्रकट जाये तो अज्ञान रूपी अंधेरे का लोप हो जाता है।
गीता में बताया गया है ष्ष्समत्वं योग उच्यतेष्ष् अर्थात् समताए समरसता ही योग है। सद्गुरूदेव फरमाते हैं योग का अर्थ है मिलनाए किससे मिलनाए तो जिससे हम बिछड़ गए हैं अर्थात् परमात्मा से मिलना ही योग है।
योग अर्जुन को उस मनःस्थिति से मुक्त करता हैए जिसने उसे निराशा अकत्र्तव्य और अवसाद में डाला है। योग उस भयावह स्थिति से मुक्ति का मार्ग है। यह हम सब के साथ रोजाना होता है।
हजारों परिस्थितियां जीवन में आती हें, जब हम निराश हो जाते हैं। विद्यार्थी के लिये पेपर ठीक न होनाए शिक्षित को नौकरी न मिलनाए किसी ने दुर्व्यवहार कर दिया, गाली दे दीए बुरा भला कह दियाए विवाह के लिये इच्छुक को वांछित साथी न मिलनाए गाड़ी का छूट जानाए समय पर वेतन न मिलनाए दुकानदार के लिये ग्राहक का न आनाए फैक्टरी में हड़ताल हो जानाए अचानक बीमारी आ जाना आदि-आदि अनेकों स्थितियां हैं।
इन स्थितियों में मस्तिष्क को शांत रखनाए मस्तिष्क को धैर्य से बांधना यही संदेश गीता देती है। मनुष्य की जीवनशैली कैसी हो,यह भी गीता में बताया गया है।
मन-मस्तिष्क से परेशान रहेने के अनेक कारण हो सकते है। सेल्स और टिशूज का मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है।
समाजए परिवारए पड़ोसीए सरकारए मीडियाए राजनीतिए अर्थविज्ञान इन सबका मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। यहां तक कि अपने शरीर का एक भाग दूसरे भाग से लड़ रहा होता है।
इन सबसे दुख का जन्म होता है और इन दुखों से निवारण का उत्तर गीता में मिलता है।
गीता का वास्तविक अर्थ है जीवन में भोलापन-सरलताए पवित्रताए विनम्रताए समर्पणए विश्वासए भक्तिए नियमए अनुशासनए जीवन्तता।
तभी तो गुरूदेव जी फरमाते हैं गीता एक गीत हैए संगीत हैए दुःख में मीत है, जीवन को गीता के अनुसार ढाल लोए स्वयं को स्वयं ही जान लोए भोलेपन में परमात्मा का वास है, तो जीवन में आनन्द आयेगा।
आनन्द ही तो जीवन का उद्देश्य है गीता के ज्ञान को जीवन में उतारने से ही इस उद्देश्य की प्राप्ति होगी और विषाद से प्रसाद की ओर जीवन यात्रा सफल हो सकती हैै।
इन नौ दिनों में माता के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है। नवरात्रि एक महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे पूरे भारत में महान उत्साह के साथ मनाया जाता है ।
दुनिया में शायद हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमें ईश्वर में मातृभाव को इतना महत्व दिया गया है। नवरात्रि का त्योहार व्रत और साधना के लिए होता है।
माता दुर्गा को समर्पित यह त्योहार संपूर्ण भारत में अत्यधिक उल्लास के साथ मनाया जाता है। दरअसल नवरात्रि का त्योहार उत्सव से ज्यादा व्रत और साधना के लिए होता हैं।
नवरात्रि में माँ दुर्गा को खुश करने के लिए उनके नौ रूपों की पूजा-अर्चना और पाठ किया जाता है इस पाठ में देवी के नौ रूपों के अवतरित होने और उनके द्वारा दुष्टों के संहार का पूरा विवरण है।
कहते है नवरात्रि में माता का पाठ करने से देवी भगवती की खास कृपा होती और हमारी मनोकामना पूर्ण होती हैं।
प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इसमें से चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं।
इसमें दो गुप्त एवं दो उदय नवरात्रि होती हैं। चैत्र और अश्विन मास की नवरात्रि उदय नवरात्रि के नाम से जानी जाती है।
आषाढ़ और माघ की नवरात्रि गुप्त नवरात्रि के नाम से जानी जाती है। यह दरअसल, बड़ी नवरात्रि को बसंत या चैत्र नवरात्रि और छोटी नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि कहते हैं।
प्रथम संवत् प्रारंभ होते ही बसंत नवरात्रि व दूसरा शरद नवरात्रि, जो कि आपस में 6 माह की दूरी पर है नवरात्रि के आठवें दिन को “अष्टमी” के रूप में और नौवें दिन को “महा नवमी” और चैत्र नवरात्रि पर “राम नवमी” के रूप में मनाया जाता है।
नवरात्रि की प्रतिपदा की शुरुआत जौ बोने उसके बाद इसपर कलश स्थापना के साथ होती है. घट स्थापित करने से पहले साफ मिट्टी में जौ बोये जाने की परंपरा है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जौ को परमपिता ब्रह्मा जी का प्रतीक माना जाता है. इसीलिए सबसे पहले जौ की पूजा होती है और उसे कलश से भी पहले स्थापित किया जाता है.
साल में कुल मिलाकर 4 बार नवरात्रि का पर्व आता है। चैत्र नवरात्रि, शारदीय नवरात्रि और दो गुप्त नवरात्रि चार बार का अर्थ यह कि यह वर्ष के महत्वपूर्ण चार पवित्र माह में आती है।
यह चार माह है:- पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन। व्रत रखने का अधिक महत्व चैत्र और शारदीय नवरात्रि में होता है।
नवरात्रि का महत्व
नवरात्रि उत्सव देवी अंबा (विद्युत) का प्रतिनिधित्व है। वसंत की शुरुआत और शरद ऋतु की शुरुआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है।
इन दो समय मां दुर्गा की पूजा के लिए पवित्र अवसर माने जाते है।
नवरात्रि पर्व, माँ-दुर्गा की अवधारणा भक्ति और परमात्मा की शक्ति की पूजा का सबसे शुभ और उचित समय माना जाता है।
यह पूजा वैदिक युग से पहले, प्रागैतिहासिक कालसे चली आ रही है ।
वह अंतर्निहित ऊर्जा है जो सृजन, संरक्षण और विनाश के कार्य को प्रेरित करती है।”दुर्गा” का अर्थ दुखों को दूर करने वाला है।
लोग उनकी पूजा पूरी श्रद्धा से करते हैं ताकि देवी दुर्गा उनके जीवन से दुखों को दूर कर सकें और उनके जीवन को सुख, आनंद और समृद्धि से भर सकें।
नवरात्रि पर देवी पूजन और नौ दिन के व्रत का बहुत महत्व माना जाता है।
नवरात्रि के नौ पावन दिन स्वयं को शुद्ध, पवित्र, साहसी, मानवीय,आध्यात्मिक और मजबूत बनाने की अवधि होती है।
त्योहार के दौरान देवी से आशीर्वाद के साथ उनके चरित्र के गुणों को अपने व्यव्यक्तित्व में समावेश करना चाहिए।
चैत्र नवरात्रि का महत्व
हिंदू धर्म में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार चैत्र नवरात्रि के पहले दिन मां दुर्गा का जन्म हुआ था और मां दुर्गा के कहने पर ही ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था।
इसीलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हिन्दू वर्ष शुरू होता है।
इसके अलावा कहा जाता है भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम का जन्म भी चैत्र नवरात्रि में ही हुआ था।
इसलिए धार्मिक दृष्टि से भी चैत्र नवरात्र का बहुत महत्व है।
शारदीय नवरात्रि का महत्व
हिन्दू पंचांग के अनुसार, आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवरात्र पर्व शुरू होता है जो नवमी तिथि तक चलते हैं। दशमी तिथि को दशहरा मनाया|
सिद्धिऔर साधना की दृष्टि से से शारदीय नवरात्र को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
इस नवरात्र में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति के संचय के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि करते हैं।
शारदीय नवरात्रि की धूम पूरे देश में देखने को मिलती है और कहा जाता है कि माता की आराधना पूरे 9 दिनों तक कोई व्यक्ति कर ले तो उसे मनचाहा फल मिलता है.
गुप्त नवरात्रि
आषाढ़ और माघ की नवरात्रि गुप्त नवरात्रि के नाम से जानी जाती है।
यह गुप्त नवरात्रि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और आसपास के इलाकों में खास तौर पर मनाई जाती है।
गुप्त नवरात्रि के दौरान अन्य नवरात्रि की तरह ही पूजन करने का विधान है।
इन दिनों भी 9 दिन के उपवास का संकल्प लेते हुए प्रतिपदा से नवमीं तक प्रतिदिन सुबह-शाम मां दुर्गा की आराधना की जाती हैं।
इन नवरात्रि में 10 महाविद्याओं का पूजन होता है।
ये नवरात्रि तंत्र साधना के लिए बहुत अधिक महत्व की मानी गई हैं।
देवी भागवत पुराण के अनुसार जिस तरह वर्ष में 4 बार नवरात्रि आती है और जिस प्रकार नवरात्रि में देवी के 9 रूपों की पूजा होती है, ठीक उसी प्रकार गुप्त नवरात्रि में 10 महाविद्याओं की साधना की जाती है।
गुप्त नवरात्रि विशेष कर तांत्रिक कियाएं, शक्ति साधनाएं, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्व रखती है।
इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना करते हैं। इस दौरान लोग दुर्लभ शक्तियों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
अष्टमी या नवमी के कन्या-पूजन के साथ नवरात्रि व्रत का उद्यापन करते हैं।
गुप्त नवरात्रि क्या है
गुप्त नवरात्रि किसी खास मनोकामना की पूजा के लिए तंत्र साधना का मार्ग लेने का पर्व है।
किंतु अन्य नवरात्रि की तरह ही इसमें भी व्रत-पूजा, पाठ, उपवास किया जाता है। इस दौरान साधक देवी दुर्गा को प्रसन्न करने के अनेक उपाय करते हैं।
इसमें दुर्गा सप्तशती पाठ, दुर्गा चालीसा, दुर्गा सहस्त्रनाम का पाठ काफी लाभदायी माना गया है।
यह नवरात्रि धन, संतान सुख के साथ-साथ शत्रु से मुक्ति दिलाने में भी कारगर है।
गुप्त नवरात्रि की देवियां-
मां काली, तारादेवी, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी माता, छिन्न माता, त्रिपुर भैरवी मां, धुमावती माता, बगलामुखी, मातंगी और कमला देवी इन 10 देवियों का पूजन करते हैं
क्यों मनाई जाती है नवरात्रि ?
शक्ति की उपासना आदिकाल से चली आ रही है। वस्तुत: श्रीमद् देवी भागवत महापुराण के अंतर्गत देवासुर संग्राम का विवरण दुर्गा की उत्पत्ति के रूप में उल्लेखित है।
समस्त देवताओं की शक्ति का समुच्चय जो आसुरी शक्तियों से देवत्व को बचाने के लिए एकत्रित हुआ था, उसकी आदिकाल से आराधना दुर्गा-उपासना के रूप में चली आ रही है।
असुरों के नाश का पर्व नवरात्रि, नवरात्र मनाने के पीछे बहुत-सी रोचक कथाएं प्रचलित है
शास्त्रों में नवरात्रि का त्योहार मनाए जाने के पीछे दो कारण बताए गए हैं। पहली पौराणिक कथा के अनुसार महिषासुर नाम का एक राक्षस था जो ब्रह्मा जी का बड़ा भक्त था।
उसने अपने तप से ब्रह्माजी को प्रसन्न करके एक वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान में उसे कोई देव, दानव या पृथ्वी पर रहने वाला कोई मनुष्य मार ना पाए।
वरदान प्राप्त करते ही वह बहुत निर्दयी हो गया और तीनो लोकों में आतंक मचाने लगा। उसके आतंक से परेशान होकर देवी-देवताओं ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ मिलकर माँ शक्ति के रूप में दुर्गा को जन्म दिया।
माँ दुर्गा और महिषासुर के बीच नौ दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ और दसवें दिन माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध कर दिया। इस दिन को अच्छाई पर बुराई की जीत के रूप में मनाया जाता है।
एक दूसरी कथा के अनुसार, भगवान राम ने लंका पर आक्रमण करने से पहले और रावण के संग युद्ध में जीत के लिए शक्ति की देवी माँ भगवती की आराधना की थी।
रामेश्वरम में उन्होंने नौ दिनों तक माता की पूजा की। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर माँ ने श्रीराम को लंका में विजय प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।
दसवें दिन भगवान राम ने लकां नरेश रावण को युद्ध में हराकर उसका वध कर लंका पर विजय प्राप्त की।
इसीलिए शारदीय नवरात्रों में नौ दिनों तक दुर्गा मां की पूजा के बाद दशमी तिथि पर दशहरे का पर्व मनाया जाता है.
नवरात्रि में पूजे जाने वाले माता के नौ स्वरूप
नवरात्रि में माँ दुर्गा को खुश करने के लिए उनके नौ रूपों की पूजा-अर्चना और पाठ किया जाता है
नवरात्र के इन पावन दिनों में हर दिन मां के अलग-अलग रूपों की पूजा होती है, जो अपने भक्तों को खुशी, शक्ति और ज्ञान प्रदान करती है।
नवरात्रि का हर दिन देवी के विशिष्ठ रूप को समर्पित होता है और हर देवी स्वरुप की कृपा से अलग-अलग तरह के मनोरथ पूर्ण होते हैं।
नवरात्रि के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है। माँ पार्वती माता शैलपुत्री का ही रूप हैं और हिमालय राज की पुत्री हैं। माता नंदी की सवारी करती हैं।
इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल का फूल है।
नवरात्रि के पहले दिन घटस्थापना पूजा का भी विधान है।ऐसा माना जाता है कि इन नौ दिनों तक मां दुर्गा धरती पर रहती हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती है।
नवरात्रि का दूसरा दिन माता ब्रह्मचारिणी को समर्पित होता है।
माता ब्रह्मचारिणी माँ दुर्गा का दूसरा रूप हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब माता पार्वती अविवाहित थीं तब उनको ब्रह्मचारिणी के रूप में जाना जाता था।
यदि माँ के इस रूप का वर्णन करें तो वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए हैं और उनके एक हाथ में कमण्डल और दूसरे हाथ में जपमाला है।
देवी का स्वरूप अत्यंत तेज़ और ज्योतिर्मय है। जो भक्त माता के इस रूप की आराधना करते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
नवरात्र के तीसरे दिन माता चंद्रघण्टा की पूजा की जाती है।
पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि माँ पार्वती और भगवान शिव के विवाह के दौरान उनका यह नाम पड़ा था।
शिव के माथे पर आधा चंद्रमा इस बात का साक्षी है।
नवरात्रि के चौथे दिन माता कुष्माडा की आराधना होती है।
शास्त्रों में माँ के रूप का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि माता कुष्माण्डा शेर की सवारी करती हैं और उनकी आठ भुजाएं हैं।
पृथ्वी पर होने वाली हरियाली माँ के इसी रूप के कारण हैं।
नवरात्र के पाँचवें दिन माँ स्कंदमाता की पूजा का होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार भगवान कार्तिकेय का एक नाम स्कंद भी है।
स्कंद की माता होने के कारण माँ का यह नाम पड़ा है। उनकी चार भुजाएँ हैं। माता अपने पुत्र को लेकर शेर की सवारी करती है।
माँ कात्यायिनी दुर्गा जी का उग्र रूप है और नवरात्रि के छठे दिन माँ के इस रूप को पूजा जाता है।
नवरात्रि के सातवें दिन माँ कालरात्रि की पूजा आराधना की जाती है |
वह शेर पर सवार होती हैं और उनकी चार भुजाएं हैं, ऐसा कहा जाता है कि जब मां पार्वती ने शुंभ निशुंभ नामक दो राक्षसों का वध किया था तब उनका रंग काला हो गया था जब से उन्हें कालरात्रि के नाम से जाना जाता है
नवरात्रि के आठवें दिन माँ महागौरी की आराधना होती है। माता का यह रूप शांति और ज्ञान की देवी का प्रतीक है।
नवरात्रि के आखिरी दिन माँ सिद्धिदात्री की आराधना होती है।
ऐसा कहा जाता है कि जो कोई माँ के इस रूप की आराधना सच्चे मन से करता है उसे हर प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है।
माँ सिद्धिदात्री कमल के फूल पर विराजमान हैं और उनकी चार भुजाएँ हैं।
नवरात्रि कलर्स
जिस प्रकार हिंदू धर्म में नवरात्रि का बहुत बड़ा महत्व माना जाता है।
उसी प्रकार नवरात्रों में रंगों का विशेष महत्व है नवरात्रों में माता के भक्त पूरे नौ दिनों तक माता दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना करके उन्हे प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं।
मां को प्रसन्न करने के लिए 9 दिन तक अलग-अलग रंगों की पोशाक पहनकर नवरात्रि मनाई जाती हैं धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन नौ दिनों में माता दुर्गा के नौ रंग निर्धारित होते हैं।
माता के भक्त नवरात्रि के नौ दिनों को बेहद शुभ मानते हैं। इन नौ दिनों में अलग-अलग रंग के कपड़े पहनकर माता की भक्ति करने का अलग-अलग महत्व बताया जाता है।
आइए जानते हैं किस दिन किस रंग के कपड़े पहनकर मां की उपासना करने से मां अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा करती हैं।
मां शैलपुत्री-
पहला दिन माता शैलपुत्री का माना जाता है। इस दिन लाल रंग का कपड़ा पहनना शुभ माना जाता है। लाल रंग में प्रेम का रंग माना जाता है।
यह रंग साहस, शक्ति और कर्म का प्रतीक है। इस दिन लाल रंग के वस्त्र पहनने चाहिए
मां ब्रह्माचारिणी –
नवरात्र के दूसरे दिन मां ब्रह्माचारिणी की पूजा की जाती है। इस दिन हरे रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
जो कि जीवन की हरी-भरी खुशियों का प्रतीक है
मां चंद्रघंटा-
नवरात्र के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की पूजा की जाती है।
इस दिन पीले रंग का कपड़ा पहना जाता है।
पीले रंग से लोगों को ऊर्जा मिलती है। वहीं पीले, रंग में अलग तरह की चमक होती है।
मां कुष्मांडा-
नवरात्र के चौथे दिन मां कुष्मांडा देवी की पूजा की जाती है।
इस दिन ऑरेंज कलर के कपड़े पहनना शुभ माना जाता है।
स्कंद माता-
नवरात्र के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की पूजा की जाती है।
इस दिन ग्रे रंग का कपड़ा पहना जाता है। इस कलर का कपड़ा पहनने से आप खुद को एनर्जी से भरा महसूस करते हो।
मां कात्यनीदेवी –
नवरात्र के छठे दिन मां कात्यनीदेवी की पूजा की जाती है।
इस दिन नारंगी रंग का कपड़ा पहनना चाहिए।
इस रंग का कपड़ा पहनने से वातावरण में नकारात्मकता समाप्त हो जाती है और आप खुद को फ्री फील महसूस करते हो।
मां कालरात्रि-
नवरात्र के 7वें दिन कालरात्रि की पूजा होती है। इस दिन कहा जाता है कि नीला रंग पहनना शुभ होता है।
महागौरी –
नवरात्र के 8वें दिन महागौरी की पूजा होती है।
इस दिन गुलाबी रंग पहनना शुभ होता है।
इस दिन आप गुलाबी रंग के कपड़े पहन कर ही पूजा करें। गुलाबी रंग से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है।
मां सिद्धीदात्री-
नवरात्र के 9वें दिन मां सिद्दात्री की पूजा की जाती है।
इस दिन बैंगनी या पर्पल कलर के कपड़े पहनना बेहद शुभ होता है।
इस रंग के कपड़े पहनकर ही मां की पूजा करें और कन्याओं को प्रसाद खिलाएं।
नवरात्रि के दौरान उपवास का महत्व
जो लोग लगातार 9 दिनों तक उपवास करते हैं, वे अन्य लोगों की तुलना में शांति और सकारात्मकता का अनुभव करते हैं।
क्योंकि जब हम रोजमर्रा की जिंदगी के साथ इस ओर बढ़ते हैं, तो हम पहले की तुलना में कुछ अलग और खास अनुभव करते हैं।
शास्त्रों में वर्णित है कि उपवास हमारे शारीरिक संतुलन को बनाए रखता है।
व्रत रखने से हम न केवल कई बीमारियों से बचते हैं बल्कि देवी की कृपा भी हम पर बनी रहती है।
यदि हम स्वयं के प्रति सच्चे रहकर इस व्रत को रखते हैं, तो उसका फल भी हमें मिलता है।
ध्यान रखें कि चाहे कुछ भी हो जाए, हमें अपने व्रत के संकल्प से कभी भी विचलित नहीं होना है
नवरात्रि रखने के नियम
ब्रह्मचर्य का पालन-
नवरात्रि के व्रत का पहला नियम यह है कि इस व्रत रखने वाले महिला और पुरुष दोनो ब्रह्मचर्य का पालन करें।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां की पूजा अर्चना साफ मन से करने से ही माता रानी प्रसन्न होती है।
नवरात्रि के व्रत में घर में कलश स्थापना करने के बाद घर को भूलकर भी खाली ना छोड़े।
ध्यान रखें घर में कलश स्थापना के बाद कोई न कोई व्यक्ति घर में जरूर रहें।
शांति और सद्भाव बनाए रखें-
नवरात्रि के दिनों में मां का ध्यान करते समय अपने मन को शांत रखने से ही घर में शांति और सद्भाव आने के साथ माता लक्ष्मी अपने भक्त पर प्रसन्न होती हैं।
ऐसा माना जाता है कि जिन घरों में अक्सर कलह रहती है उन घरों में कभी भी बरकत नहीं होती है, क्योंकि मां लक्ष्मी ऐसे घर में वास नहीं करती हैं।
सात्विक आहार-नवरात्रि के दौरान व्यक्ति को प्याज,लहसुन और मांस- मदिरा का सेवन करने से बचना चाहिए। नवरात्रि के नौ दिनों तक पूर्ण सात्विक आहार का सेवन ही करना चाहिए।
अनादर ना करें-
वैसे तो व्यक्ति को कभी भी किसी का अनादर नहीं करना चाहिए। लेकिन नवरात्रि के दौरान इस बात का खास ध्यान रखें कि यदि घर में कोई अतिथि या भिखारी आए तो उसका आदर सत्कार करें। घर आए हुए व्यक्ति को भोजन, पानी ग्रहण करने को दें। मान्यता है कि मां इन दिनों में किसी भी रूप में आपके घर में प्रवेश कर सकती हैं। इसलिए कभी किसी का अनादर ना करें।
साफ सफाई पर ध्यान रखे-
नवरात्रि के दौरान घर में साफ सफाई का खास ध्यान रखें। इन दिनों कालें रंग के कपड़े और चमड़े से बनी वस्तुओं का इस्तेमाल करने से बचें। ध्यान रखें इन दिनों बाल, दाढ़ी और नाखून भी काटने से परहेज करना चाहिए।
समय बर्बाद ना करें-
नवरात्रि के दिनों में प्रातः उठकर सबसे पहले स्नान करके मां का ध्यान करना चाहिए। इन दिनों किए गए दुर्गा सप्तशती के पाठ का विशेष फल मिलता हैं। कहा जाता है कि नवरात्रि के दौरान दिन के समय सोना भी नहीं चाहिए।
भगवान श्रीरामचन्द्र हिंदू सनातन धर्म के सबसे पूज्यनीय सबसे महानतम देव माने जाते हैं । उनका व्यक्तित्व मर्यादा, नैतिकता, विनम्रता, करूणा, क्षमा, धैर्य, त्याग तथा पराक्रम का सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है ।
श्रीराम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है।
……………… चैत्रे नावमिके तिथौ।।
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।
अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में, पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (रामजी का जन्म हुआ)।
राम त्रेता युग के दशरथ जी के पुत्र हैं। वह भगवान विष्णु जी के सातवें अवतार है।
श्री राम जी का जन्म देवी कौशल्या के गर्भ से शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अयोध्या में हुआ था। भारत में श्रीराम अत्यंत पूजनीय है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम जी के जीवन पर केंद्रित भक्ति भाव पूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की रचना की है।
राम जी की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है।
राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परंपरा के अनुसार कहा जाता है कि रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाए पर वचन ना जाए अथार्त पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने सब कुछ त्याग के 14 वर्ष का वनवास स्वीकार किया।
राम जन्मभूमि
राम मंदिर निर्माण हमारी आस्था की सबसे बड़ी विजय है। जो कि हमें हिंदू होने पर गौरवान्वित करती है ।
हिंदुओं की मान्यता के अनुसार अयोध्या भगवान राम की जन्मस्थली है। आज वो दिन आ गया है जब हम सब श्री राम जन्म भूमि पर रामलला का विशालकाय एवं भव्य मंदिर बनते देखेंगे।
यह हमारा सौभाग्य होगा कि सभी राम भक्त अपना सपना साकार होने का अनुभव करेंगे।
अयोध्या में 5 अगस्त को राम मंदिर के लिए भूमि पूजन व निर्माण कार्य संपन्न हुआ । इस कार्य मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ प्रमुख संत व मंदिर से जुड़े प्रमुख लोगों के साथ 150 से 200 लोग उपस्थित थे ।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भूमि पूजन का कार्यक्रम अभिजीत मुहूर्त में १२:४० मिनट में किया । गर्भ ग्रह से कार्य की शुरुआत होगी श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में किसी भी व्यक्ति को अयोध्या न आने की अपील की थी ।
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए गठित होने वाले ट्रस्ट का नाम है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार ०५ फरवरी २०२० को लोकसभा में राम मंदिर पर चर्चा के दौरान घोषणा की कि राम मंदिर के लिए बनने वाले ट्रस्ट का नाम ‘श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र‘ होगा।
श्री राम प्रतिमा का वर्णन
योगी आदित्यनाथ जी ने अयोध्या में भगवान राम जी की प्रतिमा के लिए 447 करोड रुपए आवंटित किए हैं।
इस विशालकाय प्रतिमा की ऊंचाई 221 मीटर होगी। भगवान राम की यह प्रतिमा दुनिया में सबसे भव्य विशालकाय अत्यंत मनभावन होगी।
मूर्ति के ऊपर 20 मीटर ऊंचा छत्र और 50 मीटर का आधार होगा। अयोध्या में राम मूर्ति के साथ विश्राम घर,रामलीला मैदान, राम कुटिया बनवाई जाएगी।
और म्यूजियम भी बनवाया जाएगा जिसमें अयोध्या का इतिहास, राम जन्मभूमि का इतिहास और भगवान विष्णु की सभी अवतारों की जानकारी होगी।
अयोध्यामहत्वपूर्णक्योंहै?
अयोध्या , जिसे ऊद या अवध, शहर, दक्षिण- मध्य उत्तर प्रदेश राज्य, उतरी भारत भी कहा जाता है अयोध्या को साकेत धामभी कहा जाता है |
अयोध्या जिला भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला है। ज़िले का मुख्यालय अयोध्या है अयोध्या भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक अति प्राचीन धार्मिक नगर है।
यह पवित्र सरयू नदी के तट पर बसा है। इस नगर को मनु ने बसाया था और इसे ‘अयोध्या’ का नाम दिया जिसका अर्थ होता है, अ-युध्य अथार्थ ‘जहां कभी युद्ध नहीं होता।
‘ इसे ‘कौशल देश’ भी कहा जाता था। अयोध्या मे सूर्यवंशी/रघुवंशी राजाओं का राज्य हुआ करता था ।
जिसमे भगवान श्री राम ने अवतार लिए थे। यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांग आया था। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे। यह सप्त पुरियों में से एक है-
अयोध्या की गणना भारत की प्राचीन सप्तपुरीयो में से प्रथम स्थान पर की गई है। हिंदू पौराणिक इतिहास में पवित्र सात नगरों में अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्जैन और द्वारिका को शामिल किया गया है।
अयोध्या राम के जन्म और महान महाकाव्य कविता रामायण में उसके जुड़ाव के कारण भी पूजनीय है। पारंपरिक इतिहास में अयोध्या कोसल राज्य की प्रारंभिक राजधानी थी।
जब मनु ने ब्रह्मा जी से अपने लिए एक नगर बसाने की बात कही तो वे उन्हें विष्णु जी के पास ले गए। विष्णु जी ने साकेत धाम अयोध्या मैं स्थान बताया जहां विश्वकर्मा ने नगर बसाया।
वेदों में अयोध्या को ईश्वर की नगरी बताया गया है। और इसकी संपन्नता कि तुलना स्वर्ग से की गई है।
अयोध्या वैभव ऐश्वर्य और ज्ञान की पौराणिक नगरी मानी जाती है।
राम एक ऐतिहासिक महापुरुष है और इसके पर्याप्त प्रमाण है शोध अनुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था।
कई शताब्दी तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरों का शहर है।महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़ सी गई लेकिन उस दौर में भी श्री राम जन्म भूमि का अस्तित्व सुरक्षित था और लगभग 14 वी सदीं तक बरकरार रहा।
इतिहास के अनुसार
इन्होंने की अयोध्या की स्थापना- सरयू नदी के तट पर बसे इस नगर की रामायण अनुसार विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु महाराज द्वारा स्थापना की गई थी।
माथुरों के इतिहास के अनुसार वैवस्वत मनु लगभग 6673 ईसा पूर्व हुए थे।
ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे।
वैवस्वत मनु के 10 पुत्र- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध थे।
इसमें इक्ष्वाकु कुल का ही ज्यादा विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में कई महान प्रतापी राजा, ऋषि, अरिहंत और भगवान हुए हैं। इक्ष्वाकु कुल में ही आगे चलकर प्रभु श्रीराम हुए।
अयोध्या पर महाभारत काल तक इसी वंश के लोगों का शासन रहा।
जैन मत के अनुसार यहां चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।
क्रम से पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ जी, दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी, चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी, पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ जी और चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ जी।
इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतो के अनुसार भगवान रामचन्द्र जी का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ। उक्त सभी तीर्थंकर और भगवान रामचंद्र जी सभी इक्ष्वाकु वंश से थे।
इसका महत्व इसके प्राचीन इतिहास में निहित है क्योंकि भारत के प्रसिद्ध एवं प्रतापी क्षत्रियों (सूर्यवंशी) की राजधानी यही नगर रहा है। उक्त क्षत्रियों में दाशरथी रामचन्द्र अवतार के रूप में पूजे जाते हैं।
श्री राम मंदिर का विवरण
अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास की तैयारियां जोरों पर है। 5 अगस्त को दोपहर 12:15 पर अयोध्या में 11 पंडितों के द्वारा भूमि पूजन किया जाएगा।
अयोध्या में भव्य राम मंदिर तीन मंजिला होगा। इसमें पांच गुंबद होंगे मंदिर का आकार 84600 वर्ग फिट का होगा। तीन मंजिला मंदिर में 318 खंबे होंगे और हर तल पर 106 खंबे बनाए जाएंगे।
मंदिर में 50,000 से ज्यादा व्यक्ति एक साथ पूजा कर सकेंगे।
मंदिर का नया मॉडल लगभग पुराने मॉडल जैसा ही होगा।
राम मंदिर के भूमि पूजन में त्रिवेणी संगम के जल का इस्तेमाल किया जाएगा।
इसमें गुढ मंडप समेत कीर्तन व प्रार्थना के लिए भी मंडप की व्यवस्था की गई है।
मंदिर का शिलान्यास
5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंदिर का शिलान्याश किया|
अयोध्या में 2 दिन तक दीए जलाए गए और मंदिरों में लाइटिंग की गयी। 4 अगस्त को दीपदान कार्यक्रम होगा राम जन्मभूमि पर रंगोली की सजावट की गयी।
तो उन्हें हर तरफ त्रेता युग के जैसी तस्वीर देखने को मिले। प्रधानमंत्री मोदी के आने से पहले अयोध्या को नई-नवेली दुल्हन की तरह सजाया गया था। हर तरफ बहुरंगी छटा बिखेरे जाने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थी।
कार्यक्रम में अवधेशानंद सरस्वती, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, इकबाल अंसारी, मोहन भागवत, कल्याण सिंह और विनय कटियार उपश्थित थे।
गौरी गणेश के पूजन के साथ ही राम मंदिर के भूमि पूजन का तीन दिवसीय अनुष्ठान सोमवार को सुबह 9:00 बजे से राम जन्म भूमि परिसर में प्रारंभ हुआ।
साकेत कॉलेज से रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी जाने वाले मार्ग के दोनों तरफ सभी भवनों की दीवारों पर त्रेता युग की झलक दिखलाते हुए रामायण कालीन प्रसंगों की आकृतियों को उकेरा गया था। कहीं भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्नन, हनुमान जी और ऐसे ही त्रेता युग से जुड़ी तस्वीरों को आकृति प्रदान किया गया था।
अयोध्या धाम के मणिराम दास छावनी में भूमि पूजन के लिए 1 लाख 11 हजार लड्डू बनाये गए थे। इन्हें स्टील के डिब्बे में पैक किया गया था। यह प्रसाद देवराहा बाबा स्थल से जुड़े अनुयाई ने बनवाया था।
ये लड्डू भूमि पूजन के दिन अयोध्या धाम व कई तीर्थ क्षेत्रों में वितरित किए गया| भूमि पूजन के दिन 111 थाल में सजे लड्डू को रामलला के दरबार में भेजा गया।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
स्कंद पुराण के अनुसार अयोध्या ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भगवान की पवित्र स्थली है।
धार्मिक कथाओं के अनुसार भगवान राम के अपने धाम जाने के बाद अयोध्या नगरी वीरान हो गई थी। ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम के साथ अयोध्या के कीट पतंग तक भी भगवान राम के धाम चले गए थे।
भगवान श्री राम के पुत्र कुश ने अयोध्या नगरी को दोबारा बसाया था। इसके बाद सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक अयोध्या का अस्तित्व बरकरार रहा। ऐसा कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या एक बार फिर वीरान हो गई थी।
अयोध्या को भगवान राम की नगरी कहा जाता है। मान्यता है कि यहां हनुमान जी सदैव वास करते हैं।
इसलिए अयोध्या आकर भगवान राम के दर्शन से पहले भक्त हनुमान जी के दर्शन करते हैं। यहां का सबसे प्रमुख हनुमान मंदिर “हनुमानगढ़ी” के नाम से प्रसिद्ध है।
धर्म ग्रन्थों के आधार पर समाज की धारणा है कि जब श्रीराम जी प्रजा सहित दिव्यधाम को प्रस्थान कर गए तो सम्पूर्ण अयोध्या, वहाँ के भवन, मठ-मन्दिर सभी सरयू में समाहित हो गए|
अयोध्या का भूभाग शेष रहा। अयोध्या बहुत दिनों तक उजड़ी रही।
तत्पश्चात महाराज कुश जो कुशावती (कौशाम्बी) में राज्य करने लगे थे, पुनः अयोध्या आए और अयोध्या को बसाया, इसका उल्लेख कालिदास ने ‘रघुवंश’ ग्रन्थ में किया है।लोमश रामायण के अनुसार उन्होंने कसौटी पत्थरों के खम्भों से युक्त मन्दिर जन्मभूमि पर बनवाया।जैन ग्रन्थों के अनुसार दुबारा उजड़ी अयोध्या को पुनः ऋषभदेव ने बसाया।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे। उनमें से एक इक्ष्वाकु के कुल में रघु हुए। रघु के कल में राम हुए।
राम के पुत्र कुश हुए कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए जो महाभारत के काल में कौरवों की ओर से लड़े थे।
शल्य की 25वीं पीढ़ी में सिद्धार्थ हुए जो शाक्य पुत्र शुद्धोधन के बेटे थे। इन्हीं का नाम आगे चलकर गौतम बुद्ध हुआ।
भगवान श्रीराम ने ही सर्वप्रथम भारत की सभी जातियों और संप्रदायों को एक सूत्र में बांधने का कार्य अपने 14 वर्ष के वनवास के दौरान किया था।
एक भारत का निर्माण कर उन्होंने सभी भारतीयों के साथ मिलकर अखंड भारत की स्थापना की थी। भारतीय राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, केरल, कर्नाटक सहित नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम इसीलिए जिंदा हैं।
14 वर्ष के वनवास में से अंतिम 2 वर्ष प्रभु श्रीराम दंडकारण्य के वन से निकलकर सीता माता की खोज में देश के अन्य जंगलों में भ्रमण करने लगे और वहां उनका सामना देश की अन्य कई जातियों और वनवासियों से हुआ।
उन्होंने कई जातियों को इकट्ठा करके एक सेना का गठन किया और वे लंका की ओर चल पड़े। श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया। महाकाव्य ‘रामायण’ के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।
हे अजर-अमर अविनाशी! परमपिता परमात्मा! हे ज्योतिस्वरूप! हे ज्ञान स्वरूप! अनाथों के नाथ! अजर-अमर परमात्मा! तुम्हीं राष्ट्रधार-जगताधार हो, सर्वोकृष्ट तथा सर्वोपरि हो। हम सब तुम्हारे अबोध बालक-बालिकाएं तुझको बारम्बार प्रणाम करते हैं।
हे परम प्रभु! तेरी प्रार्थना में बड़ी शक्ति है। यह भी सच है कि प्रार्थना से बड़ी कोई शक्ति संसार में नहीं है। हमें ऐसी शक्ति दें कि हम अविनय, उदण्डता, अंहकार, कठोरता एवं रिक्तता से सदैव दूर रहें।
आप हमें वह सद्-बुद्धि प्रदान कीजिए, सक्षम दृष्टि दीजिए, जिसके प्रकाश में हम उचित निर्णय लेकर सत्कर्मो के उत्तम पथ पर अग्रसर हो सकें। ऐसी सुमति प्रदान कीजिए कि हम असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, दु:ख से सुख की ओर निरन्तर बढ़ते रहें।
मन में उठने वाले कषाय-कल्मष, विकार-वासनाओं के तीव्र वेग को दबाने की शक्ति भी हमें प्रदान करना।
हे विधाता脉! प्राणीमात्र में हम तेरे ही दर्शन कर सकें। जीवमात्र के प्रति हमारे मन में करूणा जगे, प्रेम जगे, दया जागृत हो तथा हमारा हृदय संवेदना-सहानुभूति से सदा भरा रहे।
हे जगदीश्वर! जिसके पथ प्रदर्शक स्वंय आप हैं, उसका कदापि पतन नहीं होता। हमारे जीवन में कितनी आपदाएं, मुसीबतें, परेशानियां आने पर भी हमारे कदम तेरी भक्ति के सुमार्ग से न डगमगाएं, ऐसा आशीर्वाद प्रदान करना।
यह राष्ट्र, यह विश्व आपकी मंगलमयी शक्ति से सुशोभित हो। यही प्रार्थना है, याचना है, इसे स्वीकार करो नाथ।
‘‘ ऊँ नमः शिवाय‘‘ यह पंचाक्षर प्रणव सहित मंत्र समस्त जगत वासियों एवं शिवभक्तों के सम्पूर्ण आयामों का साधन कहा गया है।
इस मंत्र में अक्षर तो कम हैं, परंतु मंत्र महान् अर्थ से सम्पन्न है। संतों ने इसे वेद का सारतत्व, मोक्ष देने वाला, शिव की आज्ञा से सिद्ध, संदेहशून्य तथा शिवस्वरूप वाक्य माना है।
यह नाना प्रकार की सिद्धियों से युक्त, मन को प्रसन्न एवं निर्मल करने वाला, सुनिश्चित लक्ष्यपूर्ण अर्थ वाला तथा परमेश्वर का गम्भीर वचन है। यह ऐसा मंत्र है जिसका मुख से सुखपूर्वक सहज उच्चारण होता है।
कहते हैं सर्वज्ञ शिव ने सम्पूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिये इस ‘ ऊँ नमः शिवाय‘ मंत्र का प्रतिपादन किया है।
यह आदि मंत्र सम्पूर्ण विद्याओं का बीज मूल भी है। गुरूदेव कहते हैं जैसे वट के बीज में महान वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी इस मंत्र को महान अर्थ से परिपूर्ण समझना चाहिये।
मंत्र में विराजते है साक्षात् शिव ऊँ स्वयं में पूर्ण है।
इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकत्र्ता, द्युतिमान, सर्वव्यापी प्रभु स्वयं शिव प्रतिष्ठित हैं।
इसी के साथ ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षर रूप ब्रह्य हैं, वे सब ‘नमः शिवाय‘ में क्रमशः में क्रमशः स्थित हैं। इसके सूक्ष्म षडाक्षर मंत्र में पच्चब्रह्यरूपधारी साक्षात् भगवान शिव स्वभावतः वाच्यचाचक भाव से विराजमान है।
यहां शिव वाच्च हैं और मंत्र उनका वाचक माना गया है। शिव और मंत्र का यह वाच्य-वाचक भाव अनादिकाल से समाहित है, ठीक जैसे संसार से छुड़ाने वाले भगवान शिव अनादिकाल से ही इस ब्रह्याण्ड में नित्य विराजमान हैं।
जैसे औषधि रोगों की स्वीाावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान शिव सांसारिक दोषों के स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं।
नारायण शैव उपासक एवं वेद धारक सभी मानते हैं कि यदि भगवान विश्वनाथ न होते, तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि जड़ प्रकृति एवं अज्ञानी जीवात्मा को प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं।
प्रकृति से लेकर परमाणु पर्यन्त जो कुछ भी जड़ रूप तत्व हैं, वह किसी दिव्य कारण के बिना स्वयं कर्ता नहीं है।
इसीलिए जीवों के लिए धर्म करने और अधर्म से बचने का उपदेश दिया जाता है। इससे जीव के बंधन और मोक्ष कटते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों की पूर्ण सिद्धि नहीं होती।
जैसी रोगी, वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।
अतः यह सिद्ध है कि जीवों का संसार सागर से उद्धार करने वाले अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव मंत्र में विद्यमान हैं। सदाशिव अर्थात् जो सत, चित और आनंद के रूप् में सबसके लिए कल्याणकारी हैं।
वे किसी रूप में होंगे शिव ही कहलायेंगे। वे प्रभु आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण है।
यह उनका स्वरूप है, इसीसे उन्हें शिव नाम से जाना जाता है। यह पच्चाक्षर मंत्र उन्हीं का अभिधान है और वे शिव अभिधेय है। अभिधान और अभिधेय रूप होने के कारण परमशिवस्वरूप यह मंत्र सिद्ध मंत्र माना गया है।
‘ऊँ नमः शिवाय‘ षडाक्षर शिववाक्य परमपद भी है। यह शिव का विधि वाक्य है। यह शिव का स्वरूप है, जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल शिव है।
गुरू मंत्र भी है यह
जो वाक्य रग, द्वेष, असत्य, काम, कोध्र और तृष्णा का अनुसरण करने वाला हो, वह नरक का हेतु कहलाता है।
अविद्या एवं राग से युक्त वाक्य जन्म मरणरूप संसार क्लेश की प्राप्ति में कारण माना जाता है। पर यह मंत्र सुनकर कल्याण की प्राप्ति तथा राग आदि दोषों का नाश होता है।
इसीलिए इसे गुरूमंत्र की भी उपमा प्राप्त है। साधक गुरू मुख होकर भी इसे धारण करता है और गुरू द्वारा निर्देशित विधि-विधान, नियम का पालनकरते हुए इसका जप-उपासना करता है तो साधक की स्थूल, सुक्ष्म एवं कारण सम्पूर्ण चेतना के धरातल खुलने लगते हैं।
चित्त निर्मलता के साथ इसमंत्र जप की यात्रा प्रारम्भ होती है और मोक्ष तक उसे पहुंचाती है।
इसी बीच में आने वाले व्यवधानों को गुरू अपनी सुक्ष्म एवं कारण चेतना से अज्ञात भाव से दूर करता रहता है। मंत्र जप के सतत अभ्यास से साधक गुरूमय होने लगता है, वहीं गुरू की ओर से अपने तप, प्राण एवं पुण्य से शिष्य को भर देने का सहज प्रवाह फूट पड़ता है।
चूंकि इस षडाक्षर मंत्र में छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं, अतः इन अंगों का, इन सोपानों का क्रमशः जागरण प्रारम्भ हो।
साथ ही साधक अपनी स्थूल से सूक्ष्म, फिर कारण इन तीनों चेतना को भेदने में सफल हो, इसके लिए गुरू शिष्य को सेवा के नौ प्रकल्पों से जोड़कर रखने का निर्देश धर्मादा सेवा के रूप देता है।
वास्तव में नौ प्रकार की सेवाओं का धर्मादा सेवा समुच्चय शिष्य को पूर्णता से जोड़ने का माध्यम ही है। सात करोड़ महामंत्रों और अनेकोनेक उपमंत्रों से यह षडाक्षर-मंत्र उसी प्रकार भिन्न है।
इसीलिए जिसके हृदय में ‘ऊँ नमः शिवाय‘ यह षडाक्षर मंत्र प्रतिष्ठित है, उसमें दूसरे बहुसंख्यक मंत्र और अनेक शास्त्रों का प्रवाह स्वतः फूट पड़ता है।
जिसने इस मंत्र का जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये और समस्त शुभ कृत्यों का अनुष्ठान पूरा कर लिया। ऐसे साधक का हमेशा शुभ होता है और सुख-समृद्धि के द्वार सहज खुलते हैं।
कहते हैं सर्वज्ञ शिव ने सम्पूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिये इस ‘ ऊँ नमः शिवाय‘ मंत्र का प्रतिपादन किया है।
यह आदि मंत्र सम्पूर्ण विद्याओं का बीज मूल भी है। गुरूदेव कहते हैं जैसे वट के बीज में महान वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी इस मंत्र को महान अर्थ से परिपूर्ण समझना चाहिये।
मंत्र में विराजते है साक्षात् शिव
ऊँ स्वयं में पूर्ण है। इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकत्र्ता, द्युतिमान, सर्वव्यापी प्रभु स्वयं शिव प्रतिष्ठित हैं।
इसी के साथ ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षर रूप ब्रह्य हैं, वे सब ‘नमः शिवाय‘ में क्रमशः में क्रमशः स्थित हैं। इसके सूक्ष्म षडाक्षर मंत्र में पच्चब्रह्यरूपधारी साक्षात् भगवान शिव स्वभावतः वाच्यचाचक भाव से विराजमान है।
यहां शिव वाच्च हैं और मंत्र उनका वाचक माना गया है। शिव और मंत्र का यह वाच्य-वाचक भाव अनादिकाल से समाहित है, ठीक जैसे संसार से छुड़ाने वाले भगवान शिव अनादिकाल से ही इस ब्रह्याण्ड में नित्य विराजमान हैं।
जैसे औषधि रोगों की स्वीाावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान शिव सांसारिक दोषों के स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं।
नारायण शैव उपासक एवं वेद धारक सभी मानते हैं कि यदि भगवान विश्वनाथ न होते, तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि जड़ प्रकृति एवं अज्ञानी जीवात्मा को प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं।
प्रकृति से लेकर परमाणु पर्यन्त जो कुछ भी जड़ रूप तत्व हैं, वह किसी दिव्य कारण के बिना स्वयं कर्ता नहीं है।
इसीलिए जीवों के लिए धर्म करने और अधर्म से बचने का उपदेश दिया जाता है। इससे जीव के बंधन और मोक्ष कटते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों की पूर्ण सिद्धि नहीं होती।
जैसी रोगी, वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।
अतः यह सिद्ध है कि जीवों का संसार सागर से उद्धार करने वाले अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव मंत्र में विद्यमान हैं।
सदाशिव अर्थात् जो सत, चित और आनंद के रूप् में सबसके लिए कल्याणकारी हैं। वे किसी रूप में होंगे शिव ही कहलायेंगे।
वे प्रभु आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण है। यह उनका स्वरूप है, इसीसे उन्हें शिव नाम से जाना जाता है।
यह पच्चाक्षर मंत्र उन्हीं का अभिधान है और वे शिव अभिधेय है। अभिधान और अभिधेय रूप होने के कारण परमशिवस्वरूप यह मंत्र सिद्ध मंत्र माना गया है।
‘ऊँ नमः शिवाय‘ षडाक्षर शिववाक्य परमपद भी है। यह शिव का विधि वाक्य है। यह शिव का स्वरूप है, जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल शिव है।
गुरू मंत्र भी है यह
जो वाक्य रग, द्वेष, असत्य, काम, कोध्र और तृष्णा का अनुसरण करने वाला हो, वह नरक का हेतु कहलाता है।
अविद्या एवं राग से युक्त वाक्य जन्म मरणरूप संसार क्लेश की प्राप्ति में कारण माना जाता है। पर यह मंत्र सुनकर कल्याण की प्राप्ति तथा राग आदि दोषों का नाश होता है।
इसीलिए इसे गुरूमंत्र की भी उपमा प्राप्त है। साधक गुरू मुख होकर भी इसे धारण करता है और गुरू द्वारा निर्देशित विधि-विधान, नियम का पालनकरते हुए इसका जप-उपासना करता है तो साधक की स्थूल, सुक्ष्म एवं कारण सम्पूर्ण चेतना के धरातल खुलने लगते हैं।
चित्त निर्मलता के साथ इसमंत्र जप की यात्रा प्रारम्भ होती है और मोक्ष तक उसे पहुंचाती है।
इसी बीच में आने वाले व्यवधानों को गुरू अपनी सुक्ष्म एवं कारण चेतना से अज्ञात भाव से दूर करता रहता है।
मंत्र जप के सतत अभ्यास से साधक गुरूमय होने लगता है, वहीं गुरू की ओर से अपने तप, प्राण एवं पुण्य से शिष्य को भर देने का सहज प्रवाह फूट पड़ता है।
चूंकि इस षडाक्षर मंत्र में छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं, अतः इन अंगों का, इन सोपानों का क्रमशः जागरण प्रारम्भ हो।
साथ ही साधक अपनी स्थूल से सूक्ष्म, फिर कारण इन तीनों चेतना को भेदने में सफल हो, इसके लिए गुरू शिष्य को सेवा के नौ प्रकल्पों से जोड़कर रखने का निर्देश धर्मादा सेवा के रूप देता है।
वास्तव में नौ प्रकार की सेवाओं का धर्मादा सेवा समुच्चय शिष्य को पूर्णता से जोड़ने का माध्यम ही है। सात करोड़ महामंत्रों और अनेकोनेक उपमंत्रों से यह षडाक्षर-मंत्र उसी प्रकार भिन्न है।
इसीलिए जिसके हृदय में ‘ऊँ नमः शिवाय‘ यह षडाक्षर मंत्र प्रतिष्ठित है, उसमें दूसरे बहुसंख्यक मंत्र और अनेक शास्त्रों का प्रवाह स्वतः फूट पड़ता है।
जिसने इस मंत्र का जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये और समस्त शुभ कृत्यों का अनुष्ठान पूरा कर लिया। ऐसे साधक का हमेशा शुभ होता है और सुख-समृद्धि के द्वार सहज खुलते हैं।