महर्षि लोमेश की जीवनी Maharshi Lomesh

महर्षि लोमेश बहुत महान ऋषि थे

लोमश ॠषि राम कथा के मुख्य प्रवचनकार थे |उनका सारा शरीर रोओं से भरा पड़ा था इसलिए लोमश कहलाएॕ । इनने 100 वर्षों तक भगवान शिव की आराधना कमल पुष्पों से की थी|

लोमश ऋषि परम तपस्वी तथा विद्वान थे। इन्हें पुराणों में अमर माना गया है। हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार ये पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर के साथ तीर्थयात्रा पर गये थे और उन्हें सब तीर्थों का वृत्तान्त इन्होंने बतलाया था।

तीर्थाटन के समय युधिष्ठिर ने इनसे अनेक आख्यान सुने थे। इन्होंने दुर्दम राजा को देवी भागवत की कथा पाँच बार सुनाई थी जिससे रवत नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी।

इन्होंने नर्मदा स्नान का निर्देश कर पिशाचयोनि में प्रविष्ट गंधर्वकन्याओं आदि का उद्धार किया था।

इनके लिखे ये दो ग्रंथ बताए जाते हैं – लोमशसंहिता तथा लोमशशिक्षा। इनके नाम पर एक ‘लोमाश रामायण’ भी प्राप्त है।

लोमश ऋषि का नाम उनके शरीर पर रोऐ वअत्यधिक लोम अधिक होने के कारण पड़ा था,इन्हें बचपन मे मृत्यु से बड़ा भय लगता था अतः इन्होंने 100 वर्षों तक कमलपुष्पो से शिवजी की तपस्या की

भगवान प्रकट हुए तो इन्होंने कहा,’देवाधिदेव ! यदि आप मुझसे प्रसन्न है मेरा ये तन अजर अमर कर दीजिए ।

तब भगवान बोले-“लोमश ये नही हो सकता ।इस मृत्यु लोक की समस्त वस्तुएं नश्वर हैआज नही तो कल ये विनाश को प्राप्त होंगी ये अटूट ईश्वरीय विधान है इसीलिये लम्बी आयु का वर मांग लो”

लोमशजी ने चालाकी की और कहा- “अच्छा! तो मैं यह मांगता हूं कि एक कल्प के पश्चात मेरे शरीर का एक रोम या लोम गिरे अंततः सर्व लोम झड़ जाएंगे तो मैँ मृत्यु को प्राप्त हो जाऊं।”

भगवान शंकर मुस्कुराएं और तथास्तु कह कर

अन्तर्ध्यान हो गए।

इनके पिता ब्रह्माजी में वंशज अथर्व ऋषि थे और माता शांता देवी थी।

महर्षि लोमेश की प्रसिद्ध दो कथाएं

इनके विषय मे दो कथाएं प्रचलित है,

पहली तुलसीकृत रामचरित मानस (रचना काल 1574 ई०) में सर्वप्रथम काकभुशुण्डि के विषय मे विस्तार के साथ दिया गया है।

पूर्व जन्म के किसी कल्प में वह अयोध्यावासी शूद्र था। धन कमाने के उद्देश्य से उज्जैन गया, जहाँ यह शिव-भक्त हो गया।

गुरु का सम्मान न करने से श्राप से सर्प हो गया, गुरु जी की प्रार्थना पर शिव प्रसन्न हुए और उन्होने सर्प योनि से श्राप मुक्ति का आश्वासन दिया।

फिर भुशुण्डि ने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया और सगुण रूप की उपासना करने लगे, इस जन्म में इसके गुरु लोमश ऋषि थे, अध्ययन-क्रम में गुरु से सगुण-निर्गुण पर वाद-विवाद हो गया।

लोमश ऋषि क्रोधित हो उठे और बोले,”गुरु से काक की तरह काँव काँव कर के विवाद करता है, जा चांडाल, काक योनि में जा मैं तुझे श्राप देता हूँ “, तब से भुशुण्डि काकभुशुण्डि बन गए।

भयंकर श्राप देने के बाद भी वह शिष्य शांत बैठा रहा, उनको इस बात का आश्चर्य हुआ तो उन्होंने पूछ ही लिया- “मेरे श्राप से तुम्हें चिंता नहीं हुई? काक की योनि तो निम्न मानी गई है। इस तरह का शाप सुनकर भी तुम विचलित नहीं हुए। इसका रहस्य क्या है?”

उस शिष्य ने हाथ जोड़ कर कहा- “इसमें आश्चर्य और रहस्य जैसी कोई बात नहीं है। जो होता है प्रभु की इच्छा से ही होता है, फिर मैं क्यों चिंता करूँ? यदि मैं काक बना तो उसमें भी मेरा भला ही होगा। आप मेरे गुरु, ऋषि एवं परम तपस्वी ने कुछ सोचकर ही यह श्राप दिया होगा।”

लोमश ऋषि में श्राप तो दे दिया परन्तु उन्हें बड़ा खेद हुआ लोमश ऋषि उस व्यक्ति का यह श्रद्धा भाव देख कर चकित रह गए। उन्होंने कहा- “अब मैं तुम्हें वर देता हूँ कि तुम कौवे के रूप में जहाँ रहोगे, उस क्षेत्र में दूर-दूर तक कलियुग का प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम भक्त पक्षी के रूप में अमरता प्राप्त करोगे।”

पुराणों के अनुसार उस व्यक्ति ने अगले जन्म में काकभुशुंडी नामक एक ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया, जिसने गरुड़ को रामकथा सुनाई थी।

लोमश ऋषि ने काक भुशुण्डि को इच्छामृत्यु का वरदान तथा राममन्त्र भी दिया।

काकभुशुण्डि राम के परम भक्त के रूप में प्रसिद्ध है एवं प्रकाण्ड ज्ञानी हैं। ये भगवान के बाल रूप के उपासक है।

दूसरी कथा

 महाराज दशरथ के साथ इनका संवाद है, ये चिरकाल तक जीने के अपने दुख को महाराज दशरथ को बताते हैं, एक दिन ये भ्रमण करते हूए अयोध्या पहुँचे वहां महाराज अपने किले की मरम्मत करा रहे थे।

उन्होंने कहा,’ इतनी सुरक्षा की क्या आवश्यकता क्या तुम भी चिरकाल तक जीना चाहते हो? अब मुझे देखो अगर मैं मरना भी चाहू तो नही मर सकता चाहे अपने समस्त जीवन के पुण्य दे दूं और उसके आदान प्रदान में मृत्यु ले लूँ।”

अभी तक मेरे घुटने तक ही लोम झड़े हैं, मैंने अमर होने के लिए महादेव को छलना चाहा उसी के फलस्वरूप मेरी ये दशा है।

बिहार में गया के पास जहानाबाद में लोमश ऋषि की गुफा है जिसको मानवनिर्मित माना जाता है,उसका निर्माण अशोक ने करवाया था।

हिमाचल प्रदेश के मंडी के रिवालसर शहर में लोमश ऋषि का मंदिर स्थित है।

लोमश ऋषि की शिक्षा

महर्षि लोमश का अधर्म से हानि और पुण्य की महिमा का वर्णन

महाभारत वनपर्व के ‘तीर्थयात्रापर्व’ के अंतर्गत अध्याय 94 में देवताओं और धर्मात्‍मा राजाओं का उदाहरण देकर लोमश ऋषि का युधिष्ठिर को अधर्म से हानि बताना और तीर्थयात्रा पुण्‍य करते हुए आश्‍वासन देना, के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार हैं।

एक समय की बात है कि जब अर्जुन स्वर्ग में थे वहां पर उनकी मुलाकात महर्षि लोमश ऋषि से ही उन्होंने कहा कि जब आप महाराज धरती पर जाएं तो मेरी कुशलता का समाचार मेरे भाइयों को दें ,महरिशी लोमेश मैं अर्जुन की कुशलता का समाचार चारों भाइयों को दिया।

महर्षि लोमश ने धर्मराज  युधिष्ठिर को तीर्थ यात्रा करने के लिए कहा उन्होंने कहा कि तीर्थ यात्रा करने से पापों का अंत होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है ऐसा कहकर वह चारों पांडवों के साथ तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े रास्ते में अचानक द्रोपदी की तबीयत खराब होने से वह बेहोश हो गई तभी धर्मराज युधिष्ठिर ने अत्यंत दुख हो दुखी होकर महर्षि लोमेश से यह संवाद किया।

महर्षि लोमश और युधिष्ठिर का संवाद

युधिष्ठिर बोले- देवर्षि प्रवर लोमश! मेरी समझ से मैं अपने को सात्त्विक गुणों से हीन नहीं मानता तो भी दु:खों से इतना संतप्‍त होता रहता हूं, जितना दूसरा कोई राजा नहीं हुआ होगा।

इसके सिवा, दुर्योधन आदि शत्रुओं को सात्त्विक गुणों से रहित समझता हूँ कि वे धर्म परायण नहीं है तो भी वे इस लोक में उत्तरोत्तर समृद्धिशाली होते जा रहे है, इसका क्‍या कारण है।

लोमश जी ने कहा- राजन! कुन्‍तीनन्‍दन! अधर्म में रुचि रखने वाले लोग यदि उस अधर्म के द्वारा बढ़ रहे हों तो इसके लिये तुम्‍हें किसी प्रकार दु:ख नहीं मानना चाहिये।

पहले अधर्म द्वारा बढ़ सकता है, फिर अपने मनोनुकुल सुख सम्‍पत्ति रुप अभ्‍युदय को देख सकता है, तत्‍पश्‍चात वह शत्रुओं पर विजय पा सकता है और अन्‍त में जड़ मूलसहित नष्‍ट हो जाता है।

महीपाल! मैंने दैत्‍यों और दानवों को अधर्म के द्वारा बढ़ते और पु:न नष्‍ट होते भी देखा है। प्रभो! पहले देवयुग में ही मैने यह सब अपनी आंखोंं से देखा है।

देवताओं ने धर्म के प्रति अनुराग किया और असुरों ने उसका परित्‍याग कर दिया। भरतनन्‍दन! देवताओं ने स्‍नान के लिये तीर्थों में प्रवेश किया, परंतु असुर उनमें नहीं गये।

अधर्मजनित दर्प असुरों में पहले से ही समा गया था। दर्प से मान हुआ और मान से क्रोध से निर्लज्‍जता आयी और निर्लज्‍जता ने उनके सदाचार को नष्‍ट कर दिया।

इस प्रकार लज्‍जा, संकोच और सदाचार से हीन एवं निष्‍फल व्रत का आचरण करने पर उन असुरों को क्षमा, लक्ष्‍मी और स्‍वधर्म ने शीघ्र त्‍याग दिया।

राजन! लक्ष्‍मी देवताओं के पास चली गयी और अलक्ष्‍मी असुरों के यहां। अलक्ष्‍मी के आवेश से युक्‍त होने पर उनका चित दर्प और अभिमान से दूषित हो गया।

उस दशा में उन दैत्‍यों और दानवों में कलिका का भी प्रवेश हो गया। जब वे दानव अलक्ष्‍मी से संयुक्‍त, कलि से तिरस्‍कृत और अभिमान से अभिभूत हो सत्‍कर्मों से शून्‍य, विवेकरहित और मान से उन्‍मत हो गये, तब शीघ्र ही उनका विनाश हो गया।

यशोहीन दैत्‍य पूर्णत: नष्‍ट हो गये। किंतु धर्मशील देवताओं ने पवित्र समुद्रों, सरिताओं, सरोवरों और पुण्‍यप्रद आश्रमों की यात्रा की। पाण्‍डुनन्‍दन! वहाँ तपस्‍या, यज्ञ और दान आदि करके महात्‍माओं के आशीर्वाद से वे सब पापों से मुक्‍त हो कल्‍याण के भागी हुए।

इस प्रकार उत्तम नियम ग्रहण करके किसी से भी कोई प्रतिग्रह न लेकर देवताओं ने तीर्थों में विचरण किया इससे उन्‍हें उत्तम ऐश्‍वर्य की प्राप्त हुई।

नृपश्रेष्‍ठ! जहाँ राजा धर्म के अनुसार बर्ताव करते हैंं, वहाँ वे सब शत्रुओं को नष्‍ट कर देते हैं और उनका राज्‍य भी बढ़ता रहता है। राजेन्‍द्र! इसलिये तुम भी भाइयों सहित तीर्थों में स्‍नान करके खोयी हुई राजलक्ष्‍मी प्राप्‍त कर लोगे यही सनातन मार्ग है।

जैसे राजा नृग, उशीनर पुत्र शिबि , भगीरथ, वसुमना, गय, पुरु तथा पुरूरवा आदि नरेशों ने सदा तपस्‍या पूर्वक तीर्थयात्रा करके वहाँ के जल के स्‍पर्श और महात्‍माओं के दर्शन से पावन यश और प्रचुर धन प्राप्‍त किये थे, उसी प्रकार तुम भी तीर्थ यात्रा के पुण्‍य से विपुल सम्‍पत्ति प्राप्‍त कर लोगे।

जैसे पुत्र सेवक तथा बन्‍धु बान्‍धवों सहित राजा इक्ष्‍वाकु, मुचुकुन्‍द, मान्‍धाता तथा महाराज मारुत ने पुण्‍यकीर्ति प्राप्‍त की थी, जैसे देवताओं और देवर्षियों ने तपोबल से यश और धन प्राप्त किया तुम भी सम्‍पत्ति प्राप्‍त करोगे।

धृतराष्‍ट्र के पुत्र पाप और मोह के वशीभूत हैं, अत: वे दैत्‍यों की भाँति शीघ्र नष्‍ट हो जायेंंगे इसमें संशय नहीं है।

इस कथा में लोमश ऋषि ने मनुष्य के जीवन में जल, अग्नि, ब्राह्मण और गाय के महत्व के बारे में बताया है

लोमश ऋषि आज भी हैं इस बोध कथा के अनुसार

एक बार की बात है देवताओं के शिल्पी (इंजीनियर )विश्वकर्मा  बड़े हतश्री होकर नारद जी के पास आये। नारद जी का अभिवादन वंदन कर बोले ऋषिवर मैं बेहद हताश हूँ मेरा मन बड़ा खिन्न है ।

अब और जीने को मन  नहीं करता  नारद ने पूछा ऐसा क्या हुआ। बोले विश्वकर्मा  जब से इंद्र पुन : देवअधिपति बने हैं वृतासुर से परास्त हो अपना साम्राज्य खोने के बाद।

इनकी महत्वकांक्षाएं पागलपन की हद तक बढ़ गईं हैं । मैं जो भी महल अथक परिश्रम और पूर्ण पुरुषार्थ के साथ तैयार करके देता हूँ ये उसे ध्वस्त करवा दूसरा बनाने की पेशकश कर देते हैं। थक गया हूँ ऋषिवर अब मैं। बनाते बिगाड़ते।

नारद उन्हें ऋषि लोमश के पास ले गए। नारद ने लोमश को इंद्र के पास भेजा । ऋषिलोमष एक लंगोटी बांधे रहते थे एक चटाई का टुकड़ा सिर पे रखे रहते थे।

हाथ में कमण्डलु रखते।  इंद्र उन्हें देखकर बोले आप इतने विपन्न क्यों हैं और ये चटाई का टुकड़ा सिर पे लिए रहते हैं। आपकी  उम्र कितनी है। मैं देवताओं का राजा इंद्र हूँ कहो तो आपकी उम्र भी बढ़ा दूँ। मेरे लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं हैं।

बोले लोमश मुझे यह तो नहीं मालूम मैं कब पैदा हुआ था। आप गुणी  हो ये किस्सा सुनकर मेरी ठीक ठीक उम्र निकाल सकते हो। जब ब्रह्मा का एक कल्प पूरा हो जाता है तब मैं अपनी छाती का एक बाल गिरा देता हूँ। ऋषि के सीने पर एक केश का रिंग ही बचा था।

और भैया ये कमण्डलु इस लिए की जल की प्रदक्षिणा करके रोज़ शुद्ध हो सकूँ। चटाई का टुकड़ा इसलिए कि आदमी के सिर पे छाँव रहे आखिर इसीलिए तो हम घर द्वार बनाते हैं।

ताकि सिर पर एक छत हो। और भइया ये जीवन बड़ा नश्वर है तो फिर मकान किसके लिए बनाऊं।

 ऋषिलोमष  नित्य जल ,अग्नि ,ब्राह्मण और गौ की प्रदक्षिणा अर्चना पूजा के बाद ही कुछ ग्रहण करते थे। ये ही इनकी दीर्घ आयु का राज है।

अपनी लम्बी उम्र से परेशान होकर ये एक बार शंकर जी के पास गए बोले भगवन मेरी उम्र कुछ कम कर दो। संसार आसार है। बोले शंकर जी उम्र तो एक बार मैंने बढ़ा दी सो बढ़ा दी। अब तो स्वयं मैं भी उसे कम नहीं कर सकता। हाँ !उम्र कम करने का उपाय बता सकता हूँ।

तुम गाय ,ब्राह्मण ,जल और अग्नि की अवमानना करना शुरू कर दो तुम्हारी उम्र घटती चली जाएगी।

ऋषिबोले ये तो मैं कदापि नहीं कर सकता।

इस बोध कथा का निष्कर्ष यह है जो व्यक्ति अपने जीवन में जल ,अग्नि ,ब्राह्मण (वह जो ब्रह्म को जानता है ,जातिबोधक शब्द नहीं है ब्राह्मण )और गौ की नित सेवा करता है उसकी उम्र बढ़ जाती है।

लोमश ऋषि आज भी हैं।

कहीं वह गौ शाला चला रहें हैं। कहीं नदियों में स्नान करके उनका प्रदूषण दूर कर रहें हैं।

स्कन्द पुराण के प्रथम और द्वितीय और तृतीय अध्यायों में हृदयलेश का वर्णन लोमश ऋषि की तप स्थली के रूप में आता है. हृदयलेश अर्थातझीलों का राजाहदतालाब, आलयस्थान , और ईशराजा.

ब्रह्माजी उनके मानस पुत्र लोमस ऋषि में मुक्ति हेतु संवाद

लोमस ऋषि के बारे में कहा जाता है कि उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उनसे वरदान माँगने को कहा। लोमसऋषि ने अजर-अमर होने की इच्छा बताई तो शंकर जी ने कहा कि यह असंभव है, उम्र चाहे जितनी माँग लो।

लोमसऋषि ने कहा कि एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक रोम टूटे और जब शरीर के सभी रोम टूट जाएँ तब मृत्यु हो। शंकर जी ने ‘एवमस्तु’ कह दिया।

एक कल्प की अवधि सतयुग– 17 लाख 28 हजार वर्षत्रेता– 12 लाख 96 हजार वर्ष,    द्वापर–  8 लाख 64 हजार वर्ष, और   कलियुग– 4 लाख 32 हजार वर्ष।

चारों युगों को मिला कर एक चौकड़ी कहते हैं, 72 चौकड़ी को एक मन्वन्तर और 14 मन्वन्तर को मिला कर एक कल्प होता है। इस तरह 4 अरब 35 करोड़ 45 लाख 60 हजार वर्ष की अवधि को एक कल्प कहा जाता है।

मोक्ष और मुक्ति के निमित्त कर्मकाण्ड, दानपुण्य, व्रतउपवास करने वालों को इस बात की जानकारी अवश्य ही होनी चाहिए कि हज़ारों वर्ष पूर्व ही ब्रह्मा जी के पुत्र लोमस ऋषि ने इन सभी रास्तों से मोक्ष प्राप्ति के भ्रम को दूर कर इसे सिरे से खारिज कर दिया था

इतनी लम्बी उम्र का वरदान पाकर भी उन्होंने झोपड़ी इसलिए नहीं बनाई कि जब यहाँ से एक दिन जाना ही है तो झोपड़ी किस लिए ?

लोमस ऋषि को ब्रह्मा जी का पुत्र कहा जाता है। जब उन्हें आत्मबोध हो गया, आन्तरिक दिव्य चक्षु और

और दिव्य कान खुल गए यानी पूर्ण ग्यान हो गया और अपने पिछले जन्म भी देखने की शक्ति प्राप्त हो गई कि कब किस योनि में जन्म लेकर क्या क्या दु:ख भोगा तो उन्होंने अन्य जीवों के कल्याण और चेताने के लिए अपने पिता ब्रह्मा जी से प्रश्न किया कि “मुक्ति” का मार्ग कौन-सा है, जिसका उल्लेख हाथरस वाले “तुलसी साहिब”(संवत् 1820–1900 ) द्वारा रचित “घट रामायण” में इस प्रकार मिलता है—-

लोमस   ऋषी  एक   जो    भइया।

भाखा उन सब बिधि बिधि कहिया।।

पितु  से पूछी  मुक्ति  की  बाता।

गंगा  का  फल   कहौ  विधाता।।

पिता- 

गंगा का फल भाखि सुनाई।

गंगा  आदि  मुक्ति की  दाई।।

लोमस-

सहस  इकादस  गंगा न्हाया।

जा से जोनि मच्छ की पाया।।

अनेक जीव मारि मोहिं खाया।

ऐसे  बहुत  बहुत  दुख  पाया।।

 जे   जे   तीरथ    सबै   नहाये।

 जल जिव जोनि माहिं भरमाये।।

पिता-

लोमस ऋषि यह सुनिये भाई।

             सेवा   ठाकुर   कीजै    जाई।।

लोमस-

सहस बरस ठाकुर की सेवा।

             दूजा  जाना  और  न  भेवा।।

           सेवा सिव कीन्ही बिधि भाँता।

           फूल पत्र  जल अच्छत साथा।।

           येहि  बिधि  पूजा करी बनाई।

           अन्त  जोनि  पाहन  की पाई।।

पिता-

पूजौ तुलसी  प्रीति लगाई।

            पीपर  में जल  नाओ जाई।।

            ऐसी  भक्ति  करै मन लाई।

            सहजै  में मुक्ती  होइ जाई।।

            एक  दिया  तुलसी   पै लावै।

            तो सौ कोटि जग्य फल पावै।।

लोमस-

सहस तीन तुलसी कौ पूजा।

               वृक्ष जोनि पाई येहि बूझा।।

               पीपर   पूजा   बरस  हजारा।

               ता की बिधि भाखौं निरबारा।।

               कानखजूरा      देंही     पाई।

               बार   बार  भौ   में   भरमाई।।

पिता-   

एकादसी  करौ  तुम जाई।

                 ता से मुक्ति सहज में पाई।।

लोमस-

सहस बरस एकादसि कीन्हा।

                अन्त जनम माखी कौ लीन्हा।।

                 ऐसे     बर्त   कीन्ह   बहुतेरा।

                 ता   का  सुनु  बरतंत निबेरा।।

                 पिरथम  ऐतवार   को   कीन्हा।

                  ता से जनम चील्ह कौ लीन्हा।।

                  मंगल बहु  बिधि बरत रहाई।

                   ता से जनम सूअर कौ पाई।।

                   अरु पुनि बरत तीज कौ कीन्हा।

                    कूकुर  जनम  ताहि  से लीन्हा।।

                    अरु अनन्त  चौदस पुनि कीन्हा।

                     ता  से  जनम  ऊँट  कौ लीन्हा।।

                   और   चतुरथी   बरत   बखाना।

                    ता  से  जनम  भैंस  कौ जाना।।

पिता-

पुन्य  गऊ का सब  से  भारी।

या   से मुक्ती   होइ  विचारी।।

लोमस-

गऊ   दान   दीन्हा   बहुतेरा।

जनम मिला जो बकरी  केरा।।

जो  तुम कही सभी हम कीन्हा।

मुक्ति   न   पाई  रह्यो  अधीना।।

ऐसी   कहाँ  कहाँ   की   गाऊँ।

जेहि   पूजौं  तेहि माहिं समाऊँ।।

पिता-

तीरथ  ब्रत  सब   झूठ  पसारा।

नहिं   होइहैं   या   से    निरबारा।।

लोमस   ऋषि  मैं  कहौं  बिचारा।

संत   सरनि   से    होइ   उबारा।।

लोमश ऋषि की तपोस्थली : रिवालसर यानि हृदयलेश

रिवालसर का प्राचीन नाम हृदयलेश है।

रिवालसर को ब्रह्मा, विष्णु, गणपति, सूर्य और शिवपार्वती यानी 5 देवताओं के निवास स्थल के रूप में भी जाना जाता है। मकर संक्रांति और बैसाखी को यहां बसोआ उत्सव हर्षोल्लास से मनाया जाता है

हृदयलेश

विश्व भर में देवभूमि के नाम से विख्यात हिमाचल प्रदेश के चप्पे-चप्पे में ईश्वर की उपस्थिति का साक्षात अनुभव करवाने वाले देव स्थलों और मंदिरों में जाना प्रत्येक प्राणी मात्र को आध्यात्मिक शांति की अनुभूति करवाता है। ऐसा ही एक पवित्र तीर्थ स्थल मंडी जिले के रिवालसर में हैं। 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित और मंडी शहर से 24 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित रिवालसर झील और आसपास का प्राकृतिक सौंदर्य सदा से ही श्रद्धालुओं और पर्यटकों को अपनी तरफ  लुभाता रहा है। रिवालसर का प्राचीन नाम हृदयलेश है अर्थात ‘झीलों का राजा’। स्कंद पुराण के पहले, दूसरे और तीसरे अध्याय में इस स्थान का वर्णन लोमश ऋषि की तपोस्थली के रूप में भी आता है। रिवालसर को ब्रह्मा, विष्णु, गणपति, सूर्य और शिव- पार्वती यानी 5 देवताओं के निवास स्थल के रूप में भी जाना जाता है। मकर संक्रांति और बैसाखी को यहां बसोआ उत्सव हर्षोल्लास से मनाया जाता है। आदि काल से ही भारतवर्ष में ज्ञान को प्रधानता दी गई है और अनेकों ऋषि-मुनियों ने अपनी तपस्या से प्राप्त दिव्य ज्ञान को सामान्य जन तक पहुंचाया है। विद्वान, धर्मात्मा और तीर्थाटन प्रेमी लोमश ऋषि के बारे में प्रचलित दंत कथाओं के अनुसार इन्होंने 100 वर्षों तक कमल पुष्पों से शिव भोलेनाथ की पूजा की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने इन्हें इनकी इच्छानुसार वरदान दिया था कि कल्पांत होने पर इनके शरीर का एक बाल झड़ा करेगा अर्थात जब तक इनके शरीर पर बाल रहेंगे इनकी मृत्यु नहीं होगी। शरीर पर रोएं अधिक होने के कारण इन्हें लोमश नाम मिला था।  इनके द्वारा लिखित 2 ग्रंथों लोमश संहिता और लोमश शिक्षा का उल्लेख भी मिलता है। रिवालसर के अलावा जिला कुल्लू के आनी तहसील के विनान गांव में भी लोमश ऋषि का मंदिर है और ये सराज पंचायत के आराध्य देवता के रूप में भी पूजे जाते हैं।  रिवालसर झील के किनारे भगवान शिव के प्राचीन मंदिर के साथ लोमश ऋषि का मंदिर है। इसके अलावा गुरु गोबिंद सिंह का गुरुद्वारा और तिब्बती गुरु पद्म संभव को समर्पित बौद्ध मठ भी है। यहां तीनों धर्मों  के अनुयायियों की धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हुई हैं। ऐसी मान्यता है कि लोमश ऋषि ने ही पौष पुत्रदा एकादशी के व्रत का विधान बताया था।

रिवालसर का प्राचीन नाम हृदयलेश है. पूर्व काल में लोमश ऋषि जी हिमालय पर्वत में तपस्या कर रहे थे. इसी दौरान लोमश ऋषि ने ब्रह्मा पर्वत पर चढ़कर एक हद यानि तालाब देखा जो अत्यंत ही सुंदर और जिसके चारों ओर सुंदर वृक्षों की छाया, विभन्न प्रकार के पक्षियों से सुशोभित तथा जिसका जल अत्यंत निर्मल व शुद्ध है जिसमें अप्सराएँ जल क्रीड़ायें कर रही हैं. इस सुंदर तालाब को देखकर ऋषि प्रसन्न हो गए तथा पर्वतों से घिरे इस तालाब में स्नान करने के बाद तपस्या में बैठ गए.

जब ऋषि ने देखा स्वपन

कुछ देर बाद ऋषि को निद्रा आ गई. स्वप्न में उन्होंनें भस्म ओर माला धारण किये हुए यति को देखा.उन्होंनें लोमश ऋषि को इस स्थान पर तप करने को कहा.तब लोमश ऋषि ने इस तालाब की पश्चिम दिशा में बैठकर कठोर तपस्या करनी शुरू की. तीन माह तक कठोर तप करने पर इन्द्र भयभीत हो गए. उन्होंनें लोमश ऋषि की तपस्या को भंग करना चाहा लेकिन सीढ़ी विघ्न और बाधाओं के बावजूद तपस्या करते रहे.

भगवान शिव हुए प्रसन्न

ऋषि की अखंड तपस्या से शिप भगवान ने प्रसन्न होकर पार्वती सहित इस तालाब में भूखंड पर नहल का रूप धारण कर नौकायन करने लगे. लोमश अपनी तपस्या समाप्त कर सरोवर की ओर देखने लगते हैं कि यह कौन सी माया है? लोमश ऋषि शिव पूजन कर शिव स्तुति करने लगे. यह स्तुति नौ श्लोकों वाली है जिसे भगवान शिव ने नवरत्न कहा है.

भगवान शिव ने दिया वरदान

भगवान शिव ने ऋषि को यह वरदान दिया कि महाकल्प पर्यन्त जीवित रहेंगे और मन के वेग से वायु में भ्रमण कर सकेंगे. इसके पश्चात ऋषि ने भगवान शिव से इस स्थान के महत्व के बारे में पूछा तो भगवान ने कहा कि यह प्रश्न पार्वती से करो तो इसी संवाद के दौरान विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्रादि देवता, किन्नर, नागादि, तीर्थराज प्रयाग, पुष्कर सहित सभी पवित्र तीर्थ तथा नदियाँ यहाँ उपस्थित हुए.

जब पांचों देवता झील में लगे तैरने

ब्रह्मा,विष्णु,गणपति,सूर्य एवं शिव पार्वती सहित पांच देवताओं ने इस भूखंड में निवास कर झील में तैरने लगे तथा यहाँ इन टिल्लों बेड़ों में निवास का निश्चय किया. इस प्रकार रिवालसर को पंचपुरी {यानि पांच देवताओं का निवास स्थान} के नाम से भी जाना जाता है.

बसोआ उत्सव की रहती है धूम

हर वर्ष यहाँ बैशाख व मकर सक्रांति को प्राचीन काल से चला आ रहा बसोआ उत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि शिवरात्रि ओर जन्माष्टमी के दिन जो प्रातः काल में उठकर इस सरोवर में स्नान करने के बाद देवताओं का तर्पण, जल जीव का पूजन कर ब्राह्मणों को दान एवं भोजन करवाता है उसके सात कुलों के पित्तर स्वर्गलोक को जाते हैं, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वह बैकुण्ठ को प्राप्त होता है .

महर्षि लोमश आज भी जीवित है यह बात सत्य है