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अस्तित्व से ही तैयार होगा व्यक्तित्व

संतान कितनी हो , यह बहस का विषय हो सकता है , लेकिन कैसी हो , यह फिक्र का विषय होना चाहिए ।

मनुष्य और जानवरों में बड़ा फर्क यह है की इंसान अपने बच्चों को वह सब सिखा सकता है , जो कभी कभी जानवर नही सिखा पाते ।

शरीर के भरण पोषण की क्रिया जानवर भी अपने बच्चों को सिखा देता है , लेकिन आत्मा की तृप्ति के लिए संस्कारो का जो भोजन होता है , वह सिर्फ मनुष्य ही बच्चों को दे पाता है ।

जब कहा जाता है कि संतान दो ही अच्छी , तो इस विचार पर विचार करना चाहिए कि ऐसा क्यों कहा जाता है?

दरअसल परमात्मा ने हमारी अधिकांश और महत्वपूर्ण इंद्रियां दो दो बनाई है और शरीर दो हिस्सों में इसलिए बांटा भगाया है कि दोनों से जीव का संचालन होता है ।

यदि माता पिता इस बात से चिंतित है कि बच्चे कैसे हो तो एक पिता को उनके लालन पालन के लिए अपने भीतर की आधी स्त्री पर भी काम करना चाहिए ।

ऐसे ही एक माता को बयदी बच्चों में समझ उतारना हो तो उसके भीतर भी जो आधा पुरुष है उस पर काम करना चाहिए ।

बात गहरी है , पर समझने की है । बच्चों के लालन पालन में हर माता पिता शांति से अपने भीतर उतरे , भीतर की आधी स्त्री , आधे पुरुष को पहचाने उस पर काम करे ।

तब जाकर पाएंगे आप जो बोल रहे है , जो कहना चाहते है , बच्चे उसे बड़ी आसानी से समझ लेंगे । यदि भीतर के अस्तित्व पर काम किया तो बाहर संतान का व्यक्तित्व आसानी से तैयार हो सकता है ।

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