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गणपती स्तोत्र ( संकटनाशन स्तोत्र )

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प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्
भक्तावासं स्मरेनित्यम आयुष्कामार्थ सिध्दये ॥१॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्
तृतीयं कृष्णपिङगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम ॥२॥

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धुम्रवर्णं तथाषष्टम ॥३॥

नवमं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम्
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम ॥४॥

द्वादशेतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर:
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिध्दीकर प्रभो ॥५॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम ॥६॥

जपेद्गणपतिस्तोत्रं षडभिर्मासे फलं लभेत्
संवत्सरेण सिध्दीं च लभते नात्र संशय: ॥७॥

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा य: समर्पयेत
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत: ॥८॥

इति श्रीनारदपुराणे संकटनाशनं नाम श्रीगणपतिस्तोत्रं संपूर्णम ||

Ganpati Stotram With Lyrics | Pranamya Shirasa Devam | Sankata Nashak Ganesh Stotra

Reference
1. Ganpati Strotram
2. Image

प्रार्थना

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हे भूत-भावन भोलेनाथ! ले जगदाधार! हे जगदीश्वर! हे कण-कण में सत्य, शिव, सुंदर के प्रतिष्ठापक, परम आराध्य देव शिव! श्रद्धाभाव से विनती भरी प्रार्थना स्वीकार करें।

इस असार संसार में सार तत्व तो आपका ही नाम है, आपके ही सार तत्व सर्वत्र समाये हैं।

यह तत्व हमारी वाणाी में बसें, हमारे हृदय में उतरें और हमारे कर्म तथा व्यवहार के माध्यम से हमारे कृत्यों में और कृतियों में प्रकट हों प्रभु हम जहां भी देखें वही आपकी महिमा आनंदित हो उठे, उस आनंद को गहराई देना भगवान, जिससे उसे अपने जीवन में ढालें और सर्वत्र उसका सम्यक विस्तार करें।

हे सत्य, शिव, सुंदर प्रभु! आपका दिव्य प्रेम ही है जो सारे संसार में उदारता के रूप् में, नदियों के प्रवाह के रूप में तथा हवाओं के प्रवाह रूप में हमे निरंतर जीवन देता है।

प्रभु! हमें उस प्रेम को धारण करने की शक्ति दें, जो हमारी जीवनीर शक्ति को बढ़ाए और हमारे जीवन की रक्षा भी करे।

हर पीड़ित के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सके। हम किसी की जिंदगी लें नहीं, बल्कि सभी को जिंदगी दें। हम हिंसा से दैव बचें, कलंक ओर प्रतिशोध से ऊपर उठ सकें।

हे प्रभु! दिनों-दिन हमारी उन्नति हो, हमारी प्रगति हो। हमारा मन पवित्र और स्वच्छ होकर सदैव आपके चरणों में समप्रित रहे। आपकी कृपा दृष्टि से हमारा हर दिन शुभ दिन बने, हमारा प्रत्येक क्षण शुभ हो। हमारा हर कृत्य शुभत्व से जुड़े।


यह विनती है प्रभु! इसे स्वीकार कीजिए हमारे दीनदयाल!


।। ओउम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ओउम्।।

-आचार्य सुधांशु

ध्यान और आध्यात्मिक साधना

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आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।

‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है। ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक है।

आध्यात्मिक साधना में ‘ध्यान‘ की प्रमुख भूमिका है। आध्यात्मिक साधना चाहे जिस मार्ग की हो और उसकी पद्धति चाहे जो भी हो उसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है।

चित्त की एकाग्रता ही ध्यान की विशेषता और उपलब्धि है। यह एकाग्रता ही आध्यात्मिक साधना की आधार भूमि है। आध्यात्मिक साधना का अर्थ-अन्तर्मुखी यात्रा के माध्यम से आत्मा और शुद्ध चैतन्य तक पहुंचना और संसार की अंतव्र्यवस्था का तात्विक बोध प्राप्त करना है।

इसके लिए भारत सहित अन्य देशों में भी बहुत सी साधनाओं की खोज की गयी है। भारत में दार्शनिक दृष्टिकोण से तीन महत्वपूर्ण साधनाओं की चर्चा की जाती है-ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। इनमें ध्यान का जितना अच्छा और उचित योग मिलेगा, सफलता उसी अनुपात में मिलेगी।

साधनात्मक पद्धति के दृष्टिकोण से हठयोग, लययोग, नाद योग, ध्यान योग और मंत्र योग की चर्चा आती है। इसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है, अगर इन योगों से ध्यान को हटा दिया जाय, तो सफलता मुश्किल है। स्वर योग और कुण्डलिनी योग में भी ध्यान के माध्यम से ही प्रगति मिलती है।

ध्यान जितना दृढ़ होगा, प्रगति और सफलता उतनी सुनिश्चित होगी। राज योग का तो मुख्य आधार ही ‘ध्यान‘ है। ईश्वरवादी साधनाओं में तो ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका है।

जबकि अनीश्वरवादी साधनाओं का कार्य भी ध्यान के बिना नहीं चलता। अंतर्यात्रा तो ध्यान के बिना असंभव है। सभी साधनाओं में ध्यान की उपयोगिता के चलते इसे स्वीकारा गया हैं।


हठयोग, लययोग और नादयोग में विषय पर ज्यादा महत्व दिया जाता है, लेकिन इन योगों का लक्ष्य भी चित्त की एकाग्रता ही है। चित्त की एकाग्रता के बिना अंतः संसार (पिण्ड) में प्रवेश नहीं मिलता है। अन्य माध्यमों में भी ध्यान की क्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न होती है।

कुण्डलिनी योग में मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक की यात्रा होती है। मेरूदण्ड के निचले छोर पर मूलाधार चक्र है। कुण्डलिनी योग की पूरी साधना ध्यान योग से ही संपन्न होती है।

साकार साधना में भक्तियोग का महत्वपूर्ण स्थान है, यहां पर किसी अपने आराध्य की उपासना की जाती है जब कि उपास्य में अपनेक देवी-देवता हैं। इनमें से किसी का कोई उपास्य हो सकता है। इस साधना में भाव की प्रधानता होती है। कभी स्मरण, कभी सिमरन, कभी नाम जाप किया जाता है।

बौद्ध साधना में अनीश्वरवादी साधना है, यहां ध्यान की मुख्य भूमिका है। कोई भी उपास्य नहीं होता, परंतु विषय के रूप में सांसों को ग्रहण किया जाता है।

अर्थात् श्वांस-प्रश्वांस पर ध्यान रखना पड़ता है। यह ध्यान की स्वतंत्र प्रक्रिया ध्यान चागरण है, सुषुप्ति नहीं। इस प्रक्रिया में अतंर्यात्रा शुरू हो जाती है और विचार भी शांत हो जाते हैं।

सभी आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। ‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है।

ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक हैं।

जब तक साधक की अंतर्मुखी यात्रा नहीं होती, चित्त के गहरे तलों में नहीं उतरती तब तक उस साधना में विशिष्टता की अनुभूति नहीं होती है, और उसका परिणाम भी नहीं मिल पाता।

अनुभूति और परिणाम का प्रमुख कारण ‘ध्यान‘ ही है। ध्यान से ही सभी साधना पद्धतियों को गति मिलती है। जहां ध्यान की कमी रहती है, वहां साधक को सिद्धि प्राप्त करने में कठिनाई आती है।

इस तरह यह स्पष्ट है कि किसी भी तरह की साधना में ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है। आध्यात्मिक साधनाएं तो ‘ध्यान‘ के बिना फलीभूत ही नहीं होती है।

साधनात्मक पद्धति के दृष्टिकोण से हठयोग, लययोग, नाद योग, ध्यान योग और मंत्र योग की चर्चा आती है। इसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है, अगर इन योगों से ध्यान को हटा दिया जाय, तो सफलता मुश्किल है।

स्वर योग और कुण्डलिनी योग में भी ध्यान के माध्यम से ही प्रगति मिलती है। ध्यान जितना दृढ़ होगा, प्रगति और सफलता उतनी सुनिश्चित होगी।

राज योग का तो मुख्य आधार ही ‘ध्यान‘ है। ईश्वरवादी साधनाओं में तो ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका है। जबकि अनीश्वरवादी साधनाओं का कार्य भी ध्यान के बिना नहीं चलता।

अंतर्यात्रा तो ध्यान के बिना असंभव है। सभी साधनाओं में ध्यान की उपयोगिता के चलते इसे स्वीकारा गया हैं।
हठयोग, लययोग और नादयोग में विषय पर ज्यादा महत्व दिया जाता है, लेकिन इन योगों का लक्ष्य भी चित्त की एकाग्रता ही है।

चित्त की एकाग्रता के बिना अंतः संसार (पिण्ड) में प्रवेश नहीं मिलता है। अन्य माध्यमों में भी ध्यान की क्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न होती है।


कुण्डलिनी योग में मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक की यात्रा होती है। मेरूदण्ड के निचले छोर पर मूलाधार चक्र है।

कुण्डलिनी योग की पूरी साधना ध्यान योग से ही संपन्न होती है। साकार साधना में भक्तियोग का महत्वपूर्ण स्थान है, यहां पर किसी अपने आराध्य की उपासना की जाती है जब कि उपास्य में अपनेक देवी-देवता हैं।

इनमें से किसी का कोई उपास्य हो सकता है। इस साधना में भाव की प्रधानता होती है। कभी स्मरण, कभी सिमरन, कभी नाम जाप किया जाता है।

बौद्ध साधना में अनीश्वरवादी साधना है, यहां ध्यान की मुख्य भूमिका है। कोई भी उपास्य नहीं होता, परंतु विषय के रूप में सांसों को ग्रहण किया जाता है।

अर्थात् श्वांस-प्रश्वांस पर ध्यान रखना पड़ता है। यह ध्यान की स्वतंत्र प्रक्रिया ध्यान चागरण है, सुषुप्ति नहीं। इस प्रक्रिया में अतंर्यात्रा शुरू हो जाती है और विचार भी शांत हो जाते हैं।

सभी आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। ‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है।

ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक हैं।


जब तक साधक की अंतर्मुखी यात्रा नहीं होती, चित्त के गहरे तलों में नहीं उतरती तब तक उस साधना में विशिष्टता की अनुभूति नहीं होती है, और उसका परिणाम भी नहीं मिल पाता।

अनुभूति और परिणाम का प्रमुख कारण ‘ध्यान‘ ही है। ध्यान से ही सभी साधना पद्धतियों को गति मिलती है।

जहां ध्यान की कमी रहती है, वहां साधक को सिद्धि प्राप्त करने में कठिनाई आती है। इस तरह यह स्पष्ट है कि किसी भी तरह की साधना में ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है।

आध्यात्मिक साधनाएं तो ‘ध्यान‘ के बिना फलीभूत ही नहीं होती है।

श्री राम चालीसा Shree Ram Chalisa

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॥ चौपाई ॥

श्री रघुबीर भक्त हितकारी।सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी॥
निशि दिन ध्यान धरै जो कोई।ता सम भक्त और नहीं होई॥

ध्यान धरें शिवजी मन मांही।ब्रह्मा, इन्द्र पार नहीं पाहीं॥
दूत तुम्हार वीर हनुमाना।जासु प्रभाव तिहुं पुर जाना॥

जय, जय, जय रघुनाथ कृपाला।सदा करो संतन प्रतिपाला॥
तुव भुजदण्ड प्रचण्ड कृपाला।रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥

तुम अनाथ के नाथ गोसाईं।दीनन के हो सदा सहाई॥
ब्रह्मादिक तव पार न पावैं।सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥

चारिउ भेद भरत हैं साखी।तुम भक्तन की लज्जा राखी॥
गुण गावत शारद मन माहीं।सुरपति ताको पार न पाहिं॥

नाम तुम्हार लेत जो कोई।ता सम धन्य और नहीं होई॥
राम नाम है अपरम्पारा।चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥

गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो।तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो॥
शेष रटत नित नाम तुम्हारा।महि को भार शीश पर धारा॥

फूल समान रहत सो भारा।पावत कोऊ न तुम्हरो पारा॥
भरत नाम तुम्हरो उर धारो।तासों कबहूं न रण में हारो॥

नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा।सुमिरत होत शत्रु कर नाशा॥
लखन तुम्हारे आज्ञाकारी।सदा करत सन्तन रखवारी॥

ताते रण जीते नहिं कोई।युद्ध जुरे यमहूं किन होई॥
महालक्ष्मी धर अवतारा।सब विधि करत पाप को छारा॥

सीता राम पुनीता गायो।भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो॥
घट सों प्रकट भई सो आई।जाको देखत चन्द्र लजाई॥

जो तुम्हरे नित पांव पलोटत।नवो निद्धि चरणन में लोटत॥
सिद्धि अठारह मंगलकारी।सो तुम पर जावै बलिहारी॥

औरहु जो अनेक प्रभुताई।सो सीतापति तुमहिं बनाई॥
इच्छा ते कोटिन संसारा।रचत न लागत पल की बारा॥

जो तुम्हरे चरणन चित लावै।ताकी मुक्ति अवसि हो जावै॥
सुनहु राम तुम तात हमारे।तुमहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे॥

तुमहिं देव कुल देव हमारे।तुम गुरु देव प्राण के प्यारे॥
जो कुछ हो सो तुमहिं राजा।जय जय जय प्रभु राखो लाजा॥

राम आत्मा पोषण हारे।जय जय जय दशरथ के प्यारे॥
जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरुपा।नर्गुण ब्रहृ अखण्ड अनूपा॥

सत्य सत्य जय सत्यव्रत स्वामी।सत्य सनातन अन्तर्यामी॥
सत्य भजन तुम्हरो जो गावै।सो निश्चय चारों फल पावै॥

सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीं।तुमने भक्तिहिं सब सिधि दीन्हीं॥
ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरुपा।नमो नमो जय जगपति भूपा॥

धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा।नाम तुम्हार हरत संतापा॥
सत्य शुद्ध देवन मुख गाया।बजी दुन्दुभी शंख बजाया॥

सत्य सत्य तुम सत्य सनातन।तुम ही हो हमरे तन-मन धन॥
याको पाठ करे जो कोई।ज्ञान प्रकट ताके उर होई॥

आवागमन मिटै तिहि केरा।सत्य वचन माने शिव मेरा॥
और आस मन में जो होई।मनवांछित फल पावे सोई॥

तीनहुं काल ध्यान जो ल्यावै।तुलसी दल अरु फूल चढ़ावै॥
साग पत्र सो भोग लगावै।सो नर सकल सिद्धता पावै॥

अन्त समय रघुबर पुर जाई।जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥
श्री हरिदास कहै अरु गावै।सो बैकुण्ठ धाम को पावै॥

॥ दोहा ॥

सात दिवस जो नेम कर,पाठ करे चित लाय।
हरिदास हरि कृपा से,अवसि भक्ति को पाय॥

राम चालीसा जो पढ़े,राम चरण चित लाय।
जो इच्छा मन में करै,सकल सिद्ध हो जाय॥

Reference
1. Ram Chalisa
2. Image

गणेश स्तोत्र

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प्रणम्यं शिरसा देव गौरीपुत्रं विनायकम।
भक्तावासं: स्मरैनित्यंमायु:कामार्थसिद्धये।।1।।

प्रथमं वक्रतुंडंच एकदंतं द्वितीयकम।
तृतीयं कृष्णं पिङा्क्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम।।2।।

लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्ण तथाष्टकम् ।।3।।

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम।।4।।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्य य: पठेन्नर:।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वासिद्धिकरं प्रभो।।5।।

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम् ।।6।।

जपेद्वगणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत्।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशय: ।।7।।

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वां य: समर्पयेत।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत:।।8।।

|| इति श्री नारदपुराणे संकटनाशनम गणेश स्तोत्रम सम्पूर्णम ||

Shri Ganesh Stotram With Lyrics and Meaning | Sankata Nashana Ganapathi Stotram | Ganpati Stotra

प्रकृति में बिखरे है आध्यात्म बिंदु, इन्हें अराधना में उतारे

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मानव जीवन में स्थितियां, परिस्थितियां, अनुकूलताएं-प्रतिकूलताएं उत्पन्न होती रहती हैं।

सेवा, सहायता, मंत्र जप, ईश्वर सिमरन, गुरू कृपा आशीर्वाद, ध्यान, देव दान, आश्रम दर्शन आदि आध्यात्मिक सद्कर्म कठिन अवस्थाओं में मन को समभाव में रखे रहने की शक्ति देते हैं।

शरीर की निर्मलता, मन की पवित्रता, आत्मा की शुद्धता बढ़ती है। अनन्तकाल से इस देश में ऋषियों द्वारा अनुसंधित ऐसे महत्वूपर्ण प्रयोग होते आये हैं, पर इनका प्रतिफल हमारी भाव दशा पर ही निर्भर करता है।


हम जैसी भाव मुद्राएं बनाएंगे, अंदर से व्यक्तित्व भी वैसा ही बनेगा।

आंतरिक हारमोंस भी वैसे ही काम करना शुरू कर देते है। हर भावदशा की अपनी हारमोंस ग्रंथि है अतः उसी भाव अनुरूप हारमोंस ग्रन्थि से प्रवाह फूटने लगता है।

ये भाव दशायें शरीर के रग-रग में तदनुरूप विशेष चुम्बकत्व पैदा करती हैं, जो ब्रह्मांड में फैले पड़े उन्हीं भावों के समान अनन्त सूक्ष्म तरंगों को अपनी ओर खींचने लगती हैं।

अन्ततः व्यक्ति का कायाकल्प होने लगता है। इसलिए आवश्यक है कि हम सावधानी पूर्वक प्रकृति में बिखरे पड़े, दिव्य शांति संतोष, पुण्य, तृप्ति से भरे तंरगो को ही अपनी जीवन आराधना का विषय बनायें।

ऋषियों ने जीवन को आध्यात्मिक व्यवहार से जोड़ने वाले ऐसे सूत्र देकर हमें धन्य किया है।

हम प्रकृति को किन भावों से स्वीकारते हैं, इस पर ध्यान दें। हम अंदर उठने वाली आवाजों को सुनें, निश्चित ही शांति और पवित्रता का भाव बढ़ेगा।

सभी गुरू निर्देशित आध्यात्मिक कर्म भी आंतरिक व वाह्य प्रकृति प्रवाह से ही तो जोड़ते हैंे हमें। यह मंत्र ही लें, जो प्रकृति के साथ हमारे तादात्म्य का ही संदेश देता हैै।


आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।।
देवा नो यथा सद्मिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।।


अर्थात् हे प्रभु! सब ओर से श्रेष्ठ ही संकल्प आएं। जो हीनता में दबने वाले न हों, जो किसी नकारात्मकता से घिरे हुए न हों, जो ऐस सत्य का उद्भेदन करने वाले हों, जिससे देवता हमारे लिए सदा उन्नति का अशीष दें और प्रतिदिन प्रमाद रहित होकर हमारे रक्षक बनें।

एक बात और कि हमारे देवता तब प्रमाद रहित होते हैं, जब हम अपने भाव-विचारों के दरवाजे प्रकृति के लिए खोल देते है। विराट पुरूष का ध्यान भी यही है।

इसके लिए हम श्रेष्ठ संकल्प, कल्याणकारी संकल्प करें। क्योंकि अभद्र संकल्प देवता स्वीकार नहीं करते, अतएव हमारे शुभ संकल्प ही आयें।

हाँ हमारे शुभ संकल्प बलवान भी होने चाहिए। किसी विरोधी शकित से दबने वाले न हों। सब गुत्थियों को सुलझाते हुए और सब बन्द किवाड़ों को खोलते हुए सफलता तक पहुंचाने वाले हों।

इसके लिए हमें अपने चित्त को संपूर्ण प्रकृति के शुभ प्रवाह पर ले जाना होगा। यही जीवन आराधना भी है। इस प्रकार कण-कण में समाये ईश्वरीय तत्व की अनुभूति से हम जुड़ें।

तब मंत्र जप, सिमरन, गुरूकृपा, ध्यान, देवदर्शन, दान, सेवा जैसे अध्यात्म बिन्दु भी हमारी श्रेष्ठ उन्नति करायेंगे।

व्यक्तित्व निर्माण के चार सोपान

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हर व्यक्ति जीवन में शांति-सुकून के साथ एक ऐसी बुलंदी चाहता है, जहाँ जीवन खुशियों से आबाद हो, उपलब्धियों से गुलजार हो, लेकिन इसका मार्ग ज्ञात न होने के कारण वह शाॅर्टकट्स के चक्करों में पड़ जाता है और पगडंडियों में भटक जाता है।

राजमार्ग की जानकारी के अभाव में तुरत-फुरत सफलता के सरंजाम शुरू में तो लुभावने आश्वासन देते हैं, लेकिन अपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण रास्ते में ही मोहभंग का दौर शुरू हो जाता है और अंततः हताशा-निराशा ही हाथ लगती है।

कितना अच्छा हुआ होता यदि उसे जीवन में समग्र सफलता प्राप्ति के राजमार्ग की प्रक्रिया ज्ञात होती, इसके विविध चरणों की बारीकियों का बोध होता।

स्वयं को गढ़ने की प्रक्रिया निश्चित रूप से विश्व का सबसे कठिन कार्य मानी जाती है, लेकिन इसके सोपानों का बोध इसे सरल एवं रोचक बना देता है।

इसके चार सोपान हैं- आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविश्वास।

आत्मनिरीक्षण– पहला चरण है। यह अपने जीवन का संगोपांग निरीक्षण है, जाँच-पड़ताल है। इसमें अपने व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन किया जाता है।

हमारी शक्तियाँ क्या हैं, विशेषताएँ क्या हैं, दुर्बलताएँ-दोष दुर्गुण क्या हैं, उपेक्षित क्षेत्र क्या हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है, हमें बनना क्या है; आदि।

संक्षेप में कहें तो यह जीवनरूपी भवन का नक्शा है, जिसका पूरा खाका तैयार किया जाता है। इसी के बाद जीवन-निर्माण का अगला चरण शुरू होता है, लेकिन यहीं पर प्रायः चूक हो जाती है। भवन-निर्माण में नक्शे के अनुरूप जमीन को तलाशा जाता है। यदि जमीन ऊबड़-खाबड़ है, या कहीं पहाड़ या गड्ढे से भरी है तो सबसे पहले उसको समतल किया जाता है और फिर भवन की नींव डाली जाती है।

जीवन-निर्माण के संबंध में प्रायः हम इन चरणों की उपेक्षा करते है और बिना अपनी दुर्बलताओं, कमजोरियों को दूर किए, बिना आदतों एवं स्वभाव में अपेक्षित परिमार्जन लाए, सफलताओं के स्वप्न देखने लगते हैं।

बिना उचित पात्रता विकसित किए अपेक्षित सफलता हासिल न होने पर निराशा ही हाथ लगती है और आत्म-विकास की प्रक्रिया में ही लोग आस्था खो बैठते हैं। जिस उत्साह के साथ खुद को साधने व जीवन को सँवारने के महत्तर उद्देश्य के पथ पर निकले थे, वह जोश बीच में ही ठंडा पड़ जाता है। आत्मसुधार का चरण इस हताशा-निराशा भरी त्रासदी से बचाता है।

आत्मसुधार- की प्रक्रिया के दूसरे महत्त्वपूर्ण चरण में खोदी खाई को पाटने का प्रयास-पुरूषार्थ किया जाता है। इसमें व्यक्तित्वरूपी छलनी में पड़े उन छिद्रों को बंद करने की चेष्टा रहती है, जिनके चलते अर्जित किया सारा दूध पात्र में ठहरने के बजाय बह निकलता है।

इसके अंतर्गत तन-मन-प्राण को साधना के साँचे में तपाया जाता है, जिससे संगृहीत ऊर्जा का नियोजन आत्म-परिष्कार के साथ लोक-कल्याण के हमत्तर उद्देश्य के लिए किया जा सके।

वास्तव में यही चरण सबसे कठिन रहता है, जो व्यक्ति के धैर्य, जीवट एवं आस्था की परीक्षा करता है।

अधीर व जल्दबाज व्यक्ति इसमें प्रायः चूक जाते हैं और असफलता की जिम्मेदारी खुद पर लेने के बजाय दूसरों को या भाग्य को कोसते रहते हैं, लेकिन यदि पूरे साहस व संकल्प को बटोरकर इस चरण को पूरा कर जाए तो अगला चरण स्वतः ही अनुसरित होता है, जो आत्मनिर्माण का है।

आत्मनिर्माण- के साथ गहरी नींव के ऊपर भव्य भवन का निर्माण शुरू होता है।

यह अपेक्षित योग्यता एवं सद्गुणों के अर्जन, अभिवर्द्धन के साथ आगे बढ़ता हैं। नित्य अभ्यास के साथ इसमें नित नए आयाम जुड़ते जाते हैं और व्यक्तित्व में अपेक्षित गरिमा एवं भव्यता का समावेश प्रारंभ होता है।

यहाँ समग्र सफलता की संतोषभरी झलक मिलना शुरू हो जाती है, जो बाहरी उपलब्धियों के साथ एक संतुष्टि का भाव देती है, लेकिन गहन स्थिरता-शांति के उद्देश्य से अभी भी यह दूर होती है, जो व्यक्तिगत जीवन की उपलब्धियों, विभूतियों एवं प्रतिभा केा परमार्थ में नियोजित करने के साथ आत्मविकास की प्रक्रिया के माध्यम से संपन्न होती है।

आत्मविकास- यह जीवन के भव्य भवन से एक महत्तर प्रयोजन को सिद्ध करने का चरण है, जिसमें अर्जित समय, श्रम, योग्यता, प्रतिभा, विभूति, धन, प्रभाव आदि का नियोजन लोकहित में, परमार्थ में किया जाता है।

यह विराट के हित संकीर्ण स्वार्थ एवं क्षुद्र अंहकार के विसर्जन की प्रक्रिया है। निष्काम भाव के साथ निस्स्वार्थ सेवा के रूप में यह आत्मविस्तार का परम पुरूषार्थ है।

मनुष्य जीवन में सार्थकता की अनुभूति इन्हीं पलों में अंतर से प्रस्फुटित होती है और जीवन की परिपूर्णता इन्हीं पलों में अनुभव होती है।

युगऋषि के अनुसार जीवन का लक्ष्य समाज की सच्ची सेवा करते हुए आत्मकल्याण करना है।

जब व्यक्ति को इस राजमार्ग की समझ आती है, इसके चरणों का बोध होता है तो वह पगडंडियों में भटके बिना राजमार्ग पर बढ़ चलता है और प्रकाश-पथ का रही बनकर जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।

स्वस्थ-निरोगी जीवन के स्वर्णिम सूत्र

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एक सुखी, संतुलित एवं सफल जीवन का आधार है स्वस्थ-निरोगी काया। सांसारिक सुख, प्रगति हो या आत्मिक विकास-बिना स्वस्थ शरीर के कुछ भी दूभर ही रहता है।

जीवन के चारों पुरूषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसी के बल पर संभव बनते है। शास्त्रों में कहा गया है कि शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्-अर्थात् शरीर सभी धर्मों(कर्तव्यो) को पूरा करने का साधन है। इसका ध्यान रखना हमारा पहला कर्तव्य है । सर्वसामान्य सूत्रों का पालन करते हुए हम स्वस्थ एवं निरोगी जीवन की नींव रख सकते हैं।

आज जितने शारीरिक रोग एवं विकृतियाँ मानव जीवन को आक्रांत किए है, उनमें अधिकांश विकृत जीवनशैली की ही देन है। सर्वसामान्य होते मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हदयाघात, मोटापा जैसे रोग इसके उदाहरण हैं।

आज के कुछ दशक पहले इनका गाँव-कस्बो में कोई नामोनिशान नही था, लेकिन आज तो ये जैसे आम जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में यदि व्यक्ति थोड़ी-सी सावधानी बरते और नियम-संयम से रहते हुए अपनी दिनचर्या को संतुलित कर ले वह कुछ अनुभूत सूत्रों का पालन करे, तो जीवन को बोझिल करते इन रोग-विकारों से बचा रह सकता है।

प्रस्तुत हैं ऐस ही कुछ स्वर्णिम सूत्र-

संयम- शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है संयम। हर तरह की अस्वस्थता एवं रोग का मुख्य कारण है असंयम। असंयम से ऊर्जा का क्षय होता है और शरीर-मन की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जाती है, जिसके फलस्वरूप छोटे-छोटे कारण रोग का माध्यम बन जाते हैं। असंयम में मुख्य रूप् से अहार-विहार और इंद्रियों का असंयम आता है।

अतः आहार-संयम स्वस्थ रहने का पहला सूत्र है, जिसकी आज-कल भरपूर अनदेखी होती है। जब चाहे, जो मन करे खा लेना, आज की जीवनशैली में शुमार है। पेट भर गया है, फिर भी इसमें स्वादु व्यंजन को ठूस रहे हैं।

शरीर की आवश्यकता क्या है, आहार की गुणवत्ता क्या है, शरीर की प्रकृति के अनुरूप वह लाभकारी है भी या नहीं, कुछ भी ध्यान में नहीं रहता।

भोजन की मात्रा कार्यशैली पर निर्भर करती है। खेत में 12 घंटे श्रम में लगे किसान और ऑफिस में 12 घंटे कुर्सी पर बैठकर काम करने वाले के आहार में अंतर होना स्वाभाविक है।

साधकों के लिए तो शास्त्रों में आधा पेट भोजन का निर्देश है। जो भी हो भोजन इतनी मात्रा में ही लें कि आपके कार्य को प्रभावित न करे और आलस्य हम पर हावी न हो सके। जब कड़़ी भूख लगे, तभी भोजन करें।

बिना भूख लगे या यों ही भोजन करना बिना आग की अँगीठी में लीकड़ियाँ झोंकने जैसा है, जिससे धुआँ ही उठने वाला है।

खुब चबा-चबाकबर भोजन करना चाहिए। इतना चबाएँ कि दाँत का काम आँत को न करना पड़े। जल्दबाजी में किया गया भोजन पेट के लिए बहुत भारी पड़ता है।

पेट की आधी ऊर्जा तो भोजन को पचाने में ही लग जाती है। भोजन सुपाच्य, यथासंभव मौसमी, सात्विक, शाकाहारी हो तो उचित है। व्यक्ति की प्रकृति के अनुरूप, देश, काल, परिस्थिति एवं कार्यशैली के अनुरूप इसमें हेर-फेर हो सकता है।

साधनाकाल में तो भोजन की मात्रा पर विशेष ध्यान रखना होता है। आधा पेट भोजन के लिए, एक-चैथाई पानी के लिए और एक-चैथाई हवा के लिए रहे।

भोजन तभी ग्रहण करें, जब मनःस्थिति शांत और प्रसन्न हो। तनावग्रस्त या चिंता की आवस्था में शरीर से विषाक्त जैवरसायन निकलते हैं, जिससे पाचन-प्रकिया बिगड़ती है और स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शांत-प्रसन्न अवस्था में पाचन तंत्र अपनी पूरी सक्रियता में रहता है।

आहार के साथ इंद्रिय-संयम अहम है। धर्म-मर्यादा के अंतर्गत इंद्रियभोग स्वास्थ्यकारी होता है। पशु-पक्षी प्रकृतिजन्य प्रेरणा के तहत आचरण करते हुए स्वस्थ तथा नीरोग बने रहते है।

मनुष्य प्रकृति की अवहेलना करते हएु अतिशय असंयम द्वारा अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारता है। इंद्रिय-संयम ऊर्जा क्षय के प्रमुख माध्यमों को कसकर ओजस्वी एवं निरोगी जीवन का आधार रखता है।

करें भरपूर श्रम- संयम के साथ श्रम का अनुपात महत्वपूर्ण है। श्रम के अभाव में भोजन के साथप ग्रहण की गई कैलोरीज संगृहीत होती रहती है। इससे शरीर का मोटापा बढ़ता है और साथ ही मधुमेह, हृदयघात जैसे रोगों के लिए उर्वर जमीन तैयार होती है।

नित्य व्यायाम के साथ कुछ आसन आदि को स्थान देते हुए शारीरिक श्रम की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

प्रातः भ्रमण इस संदर्भ में बहुत ही लाभकारी है। प्रातः की शुद्ध प्राणवायु में गहरी साँस लेते हुए की गई चहलकदमी दिलोदिमाग को नई स्फूर्ति से भर देती है।

इसके साथ हल्के व्यायाम-आसन आदि को भी जोड़ा जा सकता है। इस सब में नित्य आधा-पौन घंटा का भी समय निकालें तो पर्याप्त होगा।

अपने ऑफिस , स्कूल या कार्यक्षेत्र तक यदि दूरी बहुत ज्यादा नहीं है तो गाड़ी के बजाय पैदल चलकर कसरत की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

यदि दूरी कुछ अधिक है तो साइकिल का उपयोग किया जा सकता है। ये बस स्वास्थ्य लाभ के सामान्य से, लेकिन उपयोगी सूत्र हैं।

आज हम जिंदगी की भाग-दौड़ में कुछ ऐसा खो गए हैं कि इन सामान्य-सी चीजों को नजरअंदाज कर रहे हैं और आगे चलकर शरीर को रोगों का अड्डा बनाकर छोटी-सी उपेक्षाओं का भारी खामियाजा भुगतने के लिए अभिशप्त हैं।

इसके साथ कुशल मार्गदर्शन में प्राणायाम भी जोड़ सकते हैं, जो तन-मन के लिए बहुत लाभकारी हैै।

विश्राम के साथ गहरी नींद- थके-हारे तन-मन का टाॅनिक-भोजन, श्रम के साथ विश्राम का अनुपान महत्वपूर्ण हैं। इसमें नींद सबसे जरूरी है। नींद एक टाॅनिक का काम करती है।

कुछ देर की गहरी नींद तन-मन को तरोताजा कर देती है। दिनभर की भाग-दौड़ के दौरान हुई शारीरिक-मानसिक थकान-टूटन की भरपाई हो जाती है।

नींद के लिए नित्य 6 से 7 घंटे पर्याप्त हैं। बहुत कम या जरूरत से ज्यादा नींद, दोनों स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक ही हैं।

आपात् स्थिति की बात अलग है, सामान्यतया इतनी नींद लें कि उसके बाद तरोताजा अनुभव करें। शोध के आधार पर पाया गया है कि तीन दिन तक की आधी-अधूरी नींद शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को 60 प्रतिशत तक कम कर देती है।

अतः पर्याप्त नींद व विश्राम महत्त्वपूर्ण हैं। दोपहर भोजन के बाद भी कुछ पल केट नेप के रूप नींद-विश्राम के निर्धारित हो सकते है।

प्रसन्नचित्त, सादा जीवन-उच्च विचार– शांत-प्रसन्न जीवन भी स्वस्थ रहने का गुप्त राज है। चिंताग्रस्त एवं हैरान-परेशान व्यक्ति कितना ही खाए-पिए, उसका तंदुरूस्त रहना संदिग्ध ही है।

जबकि प्रसन्नचित व्यक्ति रूखा-सूखा खाकर भी नीरोग व वलिष्ठ रहता है। यहाँ सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धांत उपयोगी है। एक संतोष से भरा प्रमुदित जीवन एक वरदान से कम नहीं।

जबकि इच्छाओं-कामनाओं से ग्रसित असंतुष्ट जीवन दिन का चैन और रात की नींद सब छीन लेता है और सब कुछ होते हुए भी स्वस्थ जीवन के सुख से वंचित रहता है।

सुव्यवस्थित-संतुलित दिनचर्या- आधी चिंता एवं तनाव तो अस्त-व्यस्त दिनचर्या के कारण होते हैं; जबकि एक व्यवस्थित दिनचर्या जीवन को लयबद्ध करती है तथा मानसिक तनाव से मुक्त रखने का एक कारगर उपाय सिद्ध होती है।

इसका कारण यह है कि तनाव के कारण ही बहुत सारे रोग पनपते हैं; जबकि तनावमुक्त जीवन व्यक्ति को स्वस्थ रखता है। इसके लिए प्रकृति का संग-साथ बहुत ही उपयोगी साबित हो सकता है।

लाभकारी है प्रकृति का संग-साथ- स्वच्छ, शांत व शीतल प्रकृति की गोद स्वास्थ्य के लिए अति लाभकारी है। यहाँ की प्राणदायक वायु और शांति जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करती है।

अतः जंगल, झील, खेत, और पर्वत-वादियों की ओर भ्रमण एवं यात्रा के मौकों को तलाश्ते रहना चाहिए। यदि ऐसा वातावरण आस-पास ही है तो फिर तो कहना ही क्या। इसे स्वस्थ जीवन के लिए एक ईश्वरप्रदत्त उपहार कह सकते हैं।

आत्मिक सबलता-स्वस्थ जीवन का सुदृढ़ आधार- नित्य अपने आत्मिक कल्याण के लिए किया गया न्यूनतम पुरूषार्थ स्वस्थ जीवन के लिए संजीवनी के समान काम करता है।

आत्मचिंतन और ईश्वरभजन में बिताए कुछ पल जीवन में एक नई आशा व शक्ति का संचार करते हैं। ऐसे में जीवन का गहनतम स्तर पर सिंचन होता है।

इससे उपजा दैवीय विश्वास विषम परिस्थितियों में जीवट को बनाए रखता है, जो कि निरोगी जीवन का आधार बनता है; जबकि आस्थाहीन जीवन में निराशा एवं चिंता का घुन शरीर की जीवनशक्ति को धीरे-धीरे चूसता है।

इन सामान्य से सू़त्रों का अनुकरण करते हुए व्यक्ति एक स्वस्थ एवं निरोगी जीवन की नींव रख सकता है। ऐसे में जरूरत ही नहीं पडे़गी किसी डाॅक्टर के पास जाने की और व्यर्थ में अपना समय-धन को नष्ट करने की।

इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इन सूत्रों को थोड़ा ही सही, पर जीवन में निरंतर उतारने का प्रयत्न अवश्य करे, ताकि शरीररूपी इस मंदिर की आरोग्यरूपी आभूषण से सज्जा सतत बनाई रखी जा सके एवं जीवन निरोगी रखा जा सके।

जबकि इच्छाओं-कामनाओं से ग्रसित असंतुष्ट जीवन दिन का चैन और रात की नींद सब छीन लेता है और सब कुछ होते हुए भी स्वस्थ जीवन के सुख से वंचित रहता है।

सुव्यवस्थित-संतुलित दिनचर्या- आधी चिंता एवं तनाव तो अस्त-व्यस्त दिनचर्या के कारण होते हैं; जबकि एक व्यवस्थित दिनचर्या जीवन को लयबद्ध करती है तथा मानसिक तनाव से मुक्त रखने का एक कारगर उपाय सिद्ध होती है।

इसका कारण यह है कि तनाव के कारण ही बहुत सारे रोग पनपते हैं; जबकि तनावमुक्त जीवन व्यक्ति को स्वस्थ रखता है। इसके लिए प्रकृति का संग-साथ बहुत ही उपयोगी साबित हो सकता है।

लाभकारी है प्रकृति का संग-साथ- स्वच्छ, शांत व शीतल प्रकृति की गोद स्वास्थ्य के लिए अति लाभकारी है। यहाँ की प्राणदायक वायु और शांति जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करती है।

अतः जंगल, झील, खेत, और पर्वत-वादियों की ओर भ्रमण एवं यात्रा के मौकों को तलाश्ते रहना चाहिए। यदि ऐसा वातावरण आस-पास ही है तो फिर तो कहना ही क्या। इसे स्वस्थ जीवन के लिए एक ईश्वरप्रदत्त उपहार कह सकते हैं।

आत्मिक सबलता-स्वस्थ जीवन का सुदृढ़ आधार- नित्य अपने आत्मिक कल्याण के लिए किया गया न्यूनतम पुरूषार्थ स्वस्थ जीवन के लिए संजीवनी के समान काम करता है।

आत्मचिंतन और ईश्वरभजन में बिताए कुछ पल जीवन में एक नई आशा व शक्ति का संचार करते हैं। ऐसे में जीवन का गहनतम स्तर पर सिंचन होता है।

इससे उपजा दैवीय विश्वास विषम परिस्थितियों में जीवट को बनाए रखता है, जो कि निरोगी जीवन का आधार बनता है; जबकि आस्थाहीन जीवन में निराशा एवं चिंता का घुन शरीर की जीवनशक्ति को धीरे-धीरे चूसता है।

इन सामान्य से सू़त्रों का अनुकरण करते हुए व्यक्ति एक स्वस्थ एवं निरोगी जीवन की नींव रख सकता है।

ऐसे में जरूरत ही नहीं पडे़गी किसी डाॅक्टर के पास जाने की और व्यर्थ में अपना समय-धन को नष्ट करने की।

इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इन सूत्रों को थोड़ा ही सही, पर जीवन में निरंतर उतारने का प्रयत्न अवश्य करे, ताकि शरीररूपी इस मंदिर की आरोग्यरूपी आभूषण से सज्जा सतत बनाई रखी जा सके एवं जीवन निरोगी रखा जा सके।

पृथ्वी की ये 9 प्रकार की जानकारी

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पृथ्वी की ये 9 प्रकार की जानकारी आपको कहीं और न मिलेगा न कोई बताएगा:- 👇🏻

xxxxxxxxxx 01 xxxxxxxxxx
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

xxxxxxxxxx 02 xxxxxxxxxx
तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

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चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

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पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

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छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।

xxxxxxxxxx 06 xxxxxxxxxx
सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

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आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

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नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

xxxxxxxxxx 09 xxxxxxxxxx
दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।
Jay shree Ram

हनुमान जी की आरती Hanuman Ji Ki Aarti

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आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।।
जाके बल से गिरिवर कांपे। रोग दोष जाके निकट न झांके।।

अंजनि पुत्र महाबलदायी। संतान के प्रभु सदा सहाई।
दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारी सिया सुध लाए।

लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई।
लंका जारी असुर संहारे। सियारामजी के काज संवारे।

लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आणि संजीवन प्राण उबारे।
पैठी पताल तोरि जमकारे। अहिरावण की भुजा उखाड़े।

बाएं भुजा असुर दल मारे। दाहिने भुजा संतजन तारे।
सुर-नर-मुनि जन आरती उतारे। जै जै जै हनुमान उचारे।

कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई।
लंकविध्वंस कीन्ह रघुराई। तुलसीदास प्रभु कीरति गाई।

जो हनुमानजी की आरती गावै। बसी बैकुंठ परमपद पावै।
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।

Aarti Hanuman Lala Video

Reference
1. WebDuniya
2. Image