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कुछ देते समय देने का अहंकार आ जाए तो उपहार देना भी अपमान जैसा होगा

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महावीर स्वामी से मिलने के लिए उनसे ज्ञान प्राप्त करने अमीर गरीब राजा रंक सभी जाया करते थे।

एक बार एक राजा की उनसे मिलने की इच्छा हुई।

चूंकि वह राजा थाए इसलिए भेंट में कोई किमती हीरों का एक हार लिया और पहुंच गया स्वामीजी से मिलने।


महावीरजी से मिलकर जैसे ही राजा ने वह हीरों का हार उनकी ओर बढ़ायाए महावीरजी ने कहा.गिरा दो इसे।

राजा ने उनकी बात तो मान लीए परंतु चौक गया कि इतनी महंगी वस्तु महावरी स्वामी ने इस तरह गिरवा दी! सोचने लगाए हो सकता है उन्हें पसंद न आई हो।


दूसरे दिन एक महंगा सा गुलदस्ता लेकर राजा फिर पंहुचा और स्वामीजी को भेंट किया। महावीर स्वामी फिर बोले.पटक दो इसके किसी कोने मेंकृ।

राजा ने उसे भी पटक दिया। लेकिन वह कुछ समझ नहीं पा रहा थाए सो दिनभर परेशान होता रहा।

शाम को अपने मंत्री को बुलाया और सारी घटना बताते हुए पूछा आखिर बात क्या हो सकती है ?


मंत्री थोड़ा समझदार था। बोला. महाराजए कल आप बिना कोई वस्तु लिए बिलकुल खाली हाथ जाइएगा।

राज ने कहाए मैं इतने विशाल साम्राज्य का अधिपति हूंए ऐसे कैसे खाली हाथ जा सकता हूँ जब तक महावरी स्वामी को कुछ उपहार दूंगा नहीं, मेरी राजशाही (अंहकार) को संतोष कैसे मिलेगा मंत्री बोला आप अपने आप में ही भेंट है महाराजए आप तो खाली हाथ ही पहुंच जाइएगा।

अगले दिन राजा खाली हाथ चल दिया। मन ही मन सोच रहा थाए देखता हूंए आज स्वामीजी क्या गिराने को कहते हैं।

वह राजा थाए इसलिए किसी के आगे झुक जाना तो उसके स्वभाव में ही नहीं था।

पंहुचा और महावीरजी के सामने तनकर खड़ा हो गया।

जैसे ही स्वामीजी की नजर पड़ीए ऊपर से नीचे तक देखा और बोले आज स्वयं को गिरा दो।

चूंकि वाणी महावरी जैसे सिद्ध-संत पुरूष की थी, इसलिए राजा के कलेजे में गहरे तक उतर गई।

समज में आ चुका था कि फकीर (संत पुरूष) मनुष्य की ‘खुदी‘ (अहंकार) को किस प्रकार गिरा देता है।

अगले ही क्षण राजा का मस्तक महावीर स्वामी के चरणों में था।

सीख : अहंकार सबसे बड़ा शत्रु है, यह जीवन में खुशियों के रास्ते रोक देता है। जिस दिन झुकना आ गया,आप सभी के लिए स्वीकार्य हो जाएंगे।

बाहर की परिस्थितियां हमारे भीतर खुशी कैसे पैदा करेंगी ?

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खुशी किस चीज़ से मिलेगी इसकी सूची में कई बार छोटी सी छोटी चीज़ तो कई बार बड़ी से बड़ी चीज होती है ।

लेकिन इस खुशी को प्राप्त करने के लिए कई बार हमें बहुत कुछ त्याग भी करना पड़ता है ।

आओ खुश होंगे तो मै खुश होऊंगी ये समीकरण ठीक है ।

अगर मान लो कि सामने वाला पहले से चिंता और तनाव में है तो वह खुश नही हो सकता है ।

अभी कुछ दिन पहले की बात है हमारे पड़ोसी के पास गाड़ी नही थी ।

उसकी पत्नी पति के जन्मदिन पर गिफ्ट देने के लिए बहुत मेहनत से एक शर्ट लेकर आई ।

जो पति को पसंद नही आई और उसने कहा कि मैं इसे रात में पहनकर सो जाऊंगा ।

पत्नी को यह बहुत बुरा लगा । उसने सोचा था कि पति खुश होगा तो उसे खुशी मिलेगी ।

लेकिन ऐसा हुआ नही कहीं न कहीं हमने यह समीकरण बाना लिया है कि जब मेरे आस पास के लोग खुश होंगे तब मैं खुश होऊंगी ।

मेरे आस पास के लोग बीमार रहे और मैं खुश रहूं , ऐसा हो सकता है , इसमें स्वार्थ जैसी कोई बात नही है ।

यह बात सही है कि जब मेरे आस पास के लोग बीमार है यर उसमे भी वे लोग जो मेरे नजदीकी संबंधी है ।

उनका ध्यान रखने से पहले मुझे स्वयं का ध्यान रखना होगा । औरो को खुश करने के लिए सिर्फ काम पर ध्यान रखना जरूरी नही है कि मैं ये करूँगा , मैं वो करूँगी तो वो खुश हो जाएंगे ।

इसका मूलमंत्र यही है कि मैं खुश रहूंगी तभी वे खुश होंगे । कितनी बार हम मानते भी है कि तुम मुझे खुश देख ही नही सकते हो । मन दूसरे की मां की स्थिति निर्भर कर रही है ।

सुबह मैं अच्छे मूड में थी लेकिन आपका मूड ठीक नही था और मैं परेशान हो गयी । फिर मैं इसका सारा दोष आपको देती हूं ।


आपका मूड ठीक नही है वो आपके मन की स्थिति है लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण नही रख पाई । ये मेरी गलती है ।

ये सब इसलिए हो रहा है कि हमारे जीवन का समीकरण ही व्यवस्थित नही है ।

जिसके कारण जीवन मे बहुत सारे विवाद और उलझने आती है ।

हमने सोचा था कि मैं ये करूँगी तो मैं खुश होऊंगी बच्चे के अच्छे नंबर आएंगे तो मैं खुश होऊंगी , नौकरी होगी , शादी हो जाएगी तब मैं खुश होऊंगी मैने ये सोचकर पिज़्ज़ा बनाया की उसे खाकर बच्चों को अच्छे लगेगा ।

बच्चे बहुत खुश है , उनको खुश देखकर आप भी खुश है । उसी समय बॉस का फोन आता है और वह किसी बात पर नाराज़ है ।

आप अचानक दुखी हो जाती हैं।। इस परिस्थिति में खुश गुम होने में समय तो नही लगा । माना मेरा जीवन परिस्थितियों पर निर्भर हो चुका है ।

लोगो के मूड , स्वभाव , संस्कार पर मेरी मानसिक स्थिति निर्भर हो चुकी है तो मैं कैसे खुश रह सकती हूं ।

ये सारी परिस्थितियां बाहर की है तो अब प्रश्न उठता है की बहार की परिस्थिति हमारे अंदर की खुशी कैसे पैदा करेगी ? जब मेरे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता ही कम है तब मुझे सभी प्रकार के संक्रमण हो जाते है ।

अगर मैं शरीर का अच्छे से ध्यान रखती हूं तो कोई वायरस अटैक नही कर सकता है । उसी प्रकार जब मैं अपने मन का अच्छे से ध्यान रखूंगी यो बाहर की परिस्थितियों का प्रभाव हमारे मन पर नही पड़ेगा

आंतरिक पवित्रता ईश्वर की पहली पंसद

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बहुत से लोग एक सवाल पूछते हैं कि भगवान कैसे मिलता है?

चूंकि इस संसार में लेागों ने परमात्मा को पाने के कई साधन अपना रखे हैं, इसलिए एक सामान्य भक्त भ्रमित हो जाता है कि क्या किया जाए जिससे कि भगवान मिल सकें?

दो रास्ते हैं इसके । पहले में कठिनाई, क्योंकि इसमें खूब जप-तप, कर्मकांड करना पड़ेगा।

दूसरा रास्ता साधारण सा है- अपने हृदय को शुद्ध करिए। आप भीतर से जितने पवित्र होंगे, परमात्मा उतना जल्दी मिल जाएगा, क्योंकि आंतरिक पवित्रता ईश्वर की पहली पंसद है।

पाप और परमात्मा कभी एक साथ नहीं रह पाएंगे।

आज लोग बाहर से तो बहुत साफ-सुथरे, पवित्र दिखते हैं, लेकिन भीतर कई तरह का कचरा लिए बैठे है, जो भगवान देख लेता है और फिर जीवन में नहीं उतरता।

जैसे ही भीतर से पवित्र होते हैं, आपका होश जाग जाता है।

दुनिया में दो प्राणी ऐसे हैं जो सोते हुए भी आंखें खुली रखते है- मछली और सांप।

मनुष्य को इन दोनों की तरह सोते और जागते में होश की आंख खुली रखना है।

जैसे ही होश जागेगा, आप समझ जाएंगे कि भीतर से सदैव पवित्र रहना है।

भीतर से पवित्रता रखना हो तो पांच काम करिएगा- क्रोध पर काबू पाएं, लोभ को दूर रखें, किसी से ईर्ष्या न करें, किसी भी वस्तु से अत्यधिक लगाव न रखें और इच्छा की अति न करें।

ये पांच बातें साध लीं तो आप भीतर से भी सदैव पवित्र रहेंगे।

मन पवित्र हो तो हर कर्म सत्कर्म बन जाता है और ऐसे लोगों के जीवन में परमात्मा सहर्ष चला आता है।

छत्रपति शिवाजी महाराज (Chhatrapati Shivaji Maharaj)

जब कभी मराठा साम्राज्य की बात आती है तो सबसे पहले शिवाजी महाराज का नाम सामने आता हैं. शिवाजी महाराज मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे।

वीर शिवाजी एक बहादुर, बुद्धिमान और निडर मराठा शासक थे. वे काफी धार्मिक थे. बचपन में उन्हें रामायण और महाभारत पढ़ने का बहुत शौक था।

छत्रपति शिवाजी महाराज पश्चिमी भारत में मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे। छत्रपति शिवाजी को महाराज के नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय योद्धा राजा और भोंसले मराठा वंश के सदस्य थे।

शिवाजी ने एक अनुशासित सैन्य और अच्छी तरह से संरचित प्रशासनिक संगठनों की मदद से एक सक्षम और प्रगतिशील नागरिक शासन की स्थापना की।उन्हें अपने समय के सबसे महान योद्धाओं में से एक माना जाता है और आज भी लोककथाओं के एक हिस्से के रूप में उनके कारनामों की कहानियां सुनाई जाती हैं।

अपनी वीरता और महान प्रशासनिक कौशल के साथ, शिवाजी ने बीजापुर के पतनशील आदिलशाही सल्तनत से एक एन्क्लेव बनाया।

छत्रपति शिवाजी भारत के सबसे बहादुर, सबसे प्रगतिशील और समझदार शासकों में से एक थे।यह अंततः मराठा साम्राज्य की उत्पत्ति बन गया।

शिवाजी ने अपना शासन स्थापित करने के बाद एक अनुशासित सैन्य और सुस्थापित प्रशासनिक व्यवस्था की मदद से एक सक्षम और प्रगतिशील प्रशासन लागू किया।

शिवाजी अपनी नवोन्मेषी सैन्य रणनीति के लिए जाने जाते हैं, जो गैर-पारंपरिक तरीकों के आसपास केंद्रित है, जो अपने अधिक शक्तिशाली दुश्मनों को हराने के लिए भूगोल, गति और आश्चर्य जैसे रणनीतिक कारकों का लाभ उठाते हैं।

उन्होंने सैन्य रणनीति का आविष्कार किया, गैर-पारंपरिक तरीकों का नेतृत्व किया, जिसने भूगोल, गति और आश्चर्य जैसे रणनीतिक कारकों का लाभ उठाया और अपने बड़े और अधिक शक्तिशाली दुश्मनों को हराने के लिए पिनपॉइंट हमलों पर ध्यान केंद्रित किया।

उन्होंने प्राचीन हिंदू राजनीतिक परंपराओं और अदालती सम्मेलनों को पुनर्जीवित किया और फारसी के बजाय मराठी और संस्कृत के उपयोग को बढ़ावा दिया

बचपन और प्रारंभिक जीवन

मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी भोसले का जन्म 19 फरवरी, 1630 को पुणे जिले के जुन्नार शहर के पास शिवनेरी के किले में शाहजी भोंसले और जीजाबाई के घर हुआ था।

शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुरी सल्तनत की सेवा में थे – बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा के बीच एक त्रिपक्षीय संघ, एक सामान्य के रूप में। उनके पास पुणे के पास एक जागीरदारी भी थी।

शिवाजी की मां जीजाबाई सिंधखेड नेता लाखुजीराव जाधव की बेटी और एक गहरी धार्मिक महिला थीं। शिवाजी विशेष रूप से अपनी मां के करीब थे जिन्होंने उन्हें सही और गलत की सख्त समझ दी।

शिवाजी महाराज को बचपन में उनके दादाजी मालोजी भोसले ने राजनीति और युद्ध के गुर सिखाए. माता जीजाबाई ने शिवाजी को धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान दिया।

जब शिवाजी भोसले 15 ़साल के थे तब वे अपने दोस्तों के साथ किला बंदी का खेल खेला करते थे.चूंकि शाहजी ने अपना अधिकांश समय पुणे के बाहर बिताया, शिवाजी की शिक्षा की देखरेख की जिम्मेदारी मंत्रियों की एक छोटी परिषद के कंधों पर थी, जिसमें एक पेशवा (शामराव नीलकंठ), एक मजूमदार (बालकृष्ण पंत), एक सबनीस (रघुनाथ बल्लाल) शामिल थे। एक दबीर (सोनोपंत) और एक मुख्य शिक्षक (दादोजी कोंडदेव)।

शिवाजी को सैन्य और मार्शल आर्ट में प्रशिक्षित करने के लिए कान्होजी जेधे और बाजी फंस पपासलकर को नियुक्त किया गया था। शिवाजी का विवाह 1640 में साईबाई निंबालकर से हुआ था।

शिवाजी बहुत कम उम्र से ही जन्मजात नेता बन गए। एक सक्रिय बाहरी व्यक्ति, उन्होंने शिवनेरी किलों के आस-पास सहयाद्री पर्वत की खोज की और अपने हाथों के पिछले क्षेत्र की तरह क्षेत्र को जाना।

जब वह 15 वर्ष का था, तब तक उसने मावल क्षेत्र से वफादार सैनिकों का एक समूह जमा कर लिया था, जिसने बाद में उसकी प्रारंभिक विजय में सहायता की।

वैवाहिक जीवन

शिवाजी का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निंबाळकर के साथ लाल महल, पुणे में हुआ था।

उन्होंने कुल 8 विवाह किए थे। वैवाहिक राजनीति के जरिए उन्होंने सभी मराठा सरदारों को एक छत्र के नीचे लाने में सफलता प्राप्त की। शिवाजी की पत्नियाँ:

सईबाई निम्बालकर – (बच्चे: संभाजी)

सखुबाई राणूबाई (अम्बिकाबाई); सोयराबाई मोहिते – (बच्चे- दीपबै, राजाराम); पुतळाबाई पालकर (1653-1680), गुणवन्ताबाई इंगले; सगुणाबाई शिर्के, काशीबाई जाधव, लक्ष्मीबाई विचारे, सकवारबाई गायकवाड़ – (कमलाबाई) (1656-1680)।

राजमुद्रा

शिवाजी की राजमुद्रा

शिवाजी की राजमुद्रा संस्कृत में लिखी हुई एक अष्टकोणीय मुहर थी जिसका उपयोग वे अपने पत्रों एवं सैन्यसामग्री पर करते थे। उनके हजारों पत्र प्राप्त हैं जिन पर राजमुद्रा लगी हुई है।

माना जाता है कि शिवाजी के पिता शाहजीराजे भोसले ने यह राजमुद्रा उन्हें तब प्रदान की थी जब शाहजी ने जीजाबाई और तरुण शिवाजी को पुणे की जागीर संभालने के लिए भेजा था।

जिस सबसे पुराने पत्र पर यह राजमुद्रा लगी है वह सन १६३९ का है। मुद्रा पर लिखा वाक्य निम्नलिखित है-

प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता शाहसुनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते।

(अर्थ : जिस प्रकार बाल चन्द्रमा प्रतिपद (धीरे-धीरे) बढ़ता जाता है और सारे विश्व द्वारा वन्दनीय होता है, उसी प्रकार शाहजी के पुत्र शिव की यह मुद्रा भी बढ़ती जाएगी।)

धार्मिक नीति

शिवाजी एक धर्मपरायण हिन्दु शासक थे तथा वह धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में गैर हिन्दू को धार्मिक स्वतंत्रता थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया।

हिन्दू पण्डितों की तरह गैर हिन्दू सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में गैर हिन्दू सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संस्कृति को बढ़ावा देते थे।

पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। अपने अभियानों का आरम्भ वे प्रायः दशहरा के अवसर पर करते थे।

चरित्र

मेंशिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया।

इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव ऩजर आता है। उसेक बाद उन्होंने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसा कि अन्य सम्राट किया करते थे।

शाहजी राजे के मरने के बाद ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया हालांकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे।

उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी।

वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय कूटनीति से काम लिया था। लेकिन यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही।

शिवाजी महाराज की “गनिमी कावा” नामक कूटनीति, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियता से और आदरसहित याद किया जाता है।

शिवाजी महाराज के गौरव में ये पंक्तियां प्रसिद्ध हैं-

शिवरायांचे आठवावे स्वरुप। शिवरायांचा आठवावा साक्षेप।

शिवरायांचा आठवावा प्रताप। भूमंडळी ॥

महाराज शिवाजी की उपलब्धियां

सैनिक वर्चस्व का आरम्भ

उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले उन्होंने मावलों को बीजापुर के ख़िलाफ संगठित करने लगे।

मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुड़ा है और कोई 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर चौड़ा है। वे संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं।

इस प्रदेश में मराठा और सभी जाति के लोग रहते हैं। शिवाजी महाराज इन सभी जाति के लोगों को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभी को संगठित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए थे।

मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया था। मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ।

उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुग़लों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामन्तों के हाथ सौंप दिया था।

जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया।

शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई। सबसे पहला दुर्ग था तोरण का दुर्ग।

दुर्गों पर नियंत्रण

तोरण का दुर्ग पुणे के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था।

शिवाजी ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई की वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाये।

उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया।

उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया। इससे कोई 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था और शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।

शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा।

शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बन्द कर दिया।

राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर। औरंगजेब ने मिर्जाराजा जयसिंह को भेजकर 23 किलों पर कब्जा किया बाद में शिवाजी महाराज के मावला तानाजी मालुसरे ने कोंढाणा दुर्ग पर कब्जा कीया पर उस युद्ध में वह विरगती को प्राप्त हुआ उसकी याद में कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया।

रायगढ़ दुर्ग में सिंहासन पर विराजित शिवाजी

शाहजी राजे को पुणे और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी।

शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया।

इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बन्दी बना लिया।

इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। 1647 ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे।

अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई।

एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध एक सेना भेजी।

आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे।

लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के ख़िलाफ़़ युद्ध के लिए उकसाया।

शाहजी की बन्दी और युद्धविराम

बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया।

शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकोंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु।

बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे।

अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के ख़िलाफ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की।

प्रभुता का विस्तार

शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की।

पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी।

शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया।

चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे।

इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए।

मुगलों से पहली मुठभेड़

शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया।

इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया।

उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई।

इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहाँ के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया।

उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहाँ शाहजहाँ को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया।

कोंकण पर अधिकार

दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा।

पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया।

कल्याण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहाँ नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे।

बीजापुर से संघर्ष

इधर औरंगजेब के आगरा (उत्तर की ओर) लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली।

अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की।

शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खाँ) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे।

अफजल खाँ ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं।

साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई।

उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है।

अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खाँ ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खाँ को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया (10 नवम्बर 1659)।

अफजल खाँ की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खाँ के आक्रमण को विफल भी किया।

इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहाँ के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला।

इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया।

सन् 1662 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली। इसी सन्धि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के नियन्त्रण में आ गया। शिवाजी की सेना में इस समय तक 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार हो गए थे।

मुगलों से संघर्ष

उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खत्म होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया। वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियन्त्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया।

शाइस्का खाँ अपने 1,50,000 फ़ौज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया। उसने 3 साल तक मावल में लुटमार कि।

एक रात शिवाजी ने अपने 350 मवलो के साथ उनपर हमला कर दिया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बच निकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा। शाइस्ता खाँ के पुत्र अबुल फतह तथा चालीस रक्षकों और अनगिनत सैनिकों का कत्ल कर दिया गया।

यहॉ पर मराठों ने अन्धेरे मे स्त्री पुरूष के बीच भेद न कर पाने के कारण खान के जनान खाने की बहुत सी औरतों को मार डालाथा। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया।

सूरत में लूट

इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। 6 साल शाईस्ता खान ने अपनी 1,50,000 फ़ौज लेकर राजा शिवाजी का पुरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था।

इस लिए उस् का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरम्भ किया। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था।

यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ 1664 में छः दिनों तक सूरत के धनाड्य व्यापारियों को लूटा।

आम आदमी को उन्होनें नहीं लूटा और फिर लौट गए। इस घटना का ज़िक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है। उस समय तक यूरोपीय व्यापारियों ने भारत तथा अन्य एशियाई देशों में बस गये थे।

नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (1739) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी।

सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया। और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई।

राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा। जून 1665 में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग मुग़लों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएँगे।

इन 23 दुर्गों से होने वाली आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी। बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे।

इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे। शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी। बीजापुर के ख़िलाफ़ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे।

आगरा में आमंत्रण और पलायन

शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। इसके ख़िलाफ़ उन्होंने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया।

औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नज़रकैद कर दिया और उनपर 5000 सैनिकों के पहरे लगा दिये। कुछ ही दिनों बाद (18 अगस्त 1666 को) राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा औरंगजेब का था।

लेकिन अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे 17 अगस्त 1666। सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी महाराज बनारस, गये, पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [2 सितम्बर 1666]। इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया।

औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली। जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार सन्धि की।

औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया।

पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुग़लों का अधिपत्य बना रहा। सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।

दी गई उपाधि:

शिवाजी को 6 जून, 1674 को रायगढ़ में मराठों के राजा के रूप में ताज पहनाया गया।

इन्होंने छत्रपति, शाककार्ता, क्षत्रिय कुलवंत और हैंदव धर्मोधारक की उपाधि धारण की थी।

शिवाजी द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य समय के साथ बड़ा होता गया और 18वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रमुख भारतीय शक्ति बन गया।

छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक

छत्रपति शिवाजी महाराज को भारत के महान राजाओं में से एक माना जाता है। यही वजह है कि उनके राज्याभिषेक के दिन को भी महाराष्ट्र समेत पूरे देश में याद किया जाता है।

महाराष्ट्र में तो उनके राज्याभिषेक को एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। वहीं, रायगढ़ में भी हर साल यह समारोह विशेष तौर पर धूमधाम से मनाया जाता है।

सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे।

पश्चिमी महारष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा,

परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध किया।क्योंकि मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी।

जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है.।

शिवाजी के निजी सचीव बालाजी आव जी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने ने काशी में गंगाभ नमक ब्राहमण के पास तीन दूतो को भेजा, किन्तु गंगा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे ,उसने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा |

बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़  के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया |

शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुय।

किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है।

तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसे कर सकते हैं।

हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशी का कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे।

वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें

भारतीय इतिहास की गौरवशाली गाथा हैं,शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक

रायगढ़ में ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी तदनुसार 6 जून 1674 को हुआ छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हिंदू इतिहास की सबसे गौरवशाली गाथाओं में से एक है।

सैकड़ों वर्ष विदेशियों के गुलाम रहने के पश्चात हिंदुओं को संभवतः महान विजयनगर साम्राज्य के बाद पहली बार अपना राज्य मिला था।

उस दिन, शिवाजी का राज्याभिषेक काशी के विद्वान महापंडित तथा वेद-पुराण-उपनिशदों के ज्ञाता पंडित गंगा भट्ट द्वारा किया गया। शिवाजी के क्षत्रिय वंश से सम्बंधित न होने के कारण उस समय के अधिकतर ब्राह्मण उनका राजतिलक करने में हिचकिचा रहे थे।

पंडित गंगा भट्ट ने शिवाजी की वंशावली के विस्तृत अध्ययन के बाद यह सिद्ध किया के उनका भोंसले वंश मूलतः मेवाड़ के वीरश्रेष्ठ सिसोदिया राजवंश की ही एक शाखा है। और यह मान लिया गया कि मेवाड़ के सिसोदिया क्षत्रिय कुल परंपरा के शुद्धतम कुलों में से थे।

क्यूंकि उन दिनों राज्याभिषेक से सम्बंधित कोई भी अबाध परंपरा देश के किसी हिस्से में विद्यमान नहीं थी, इसलिए विद्वानों के एक समूह ने उस समय के संस्कृत ग्रंथों तथा स्मृतियों का गहन अध्ययन किया ताकि राज्याभिषेक का सर्वोचित तरीका प्रयोग में लाया जा सके।

इसी के साथ-साथ भारत के दो सबसे प्राचीन राजपूत घरानों मेवाड़ और आम्बेर से भी जानकारियां जुटाई गई ताकि उत्तम रीति से राजतिलक किया जा सके।

 प्रातःकाल सर्वप्रथम शिवाजी महाराज ने प्रमुख मंदिरों में दर्शन-पूजन किया। उन्होंने तिलक से पूर्व लगातार कई दिनों तक माँ तुलजा भवानी और महादेव की पूजा-अर्चना की।

 6 जून 1674 को रायगढ़ के किले में मुख्य समारोह का आयोजन किया गया। उनके सिंहासन के दोनों ओर रत्न जडित तख्तों पर राजसी वैभव तथा हिंदू शौर्य के प्रतीक स्वरुप स्वर्णमंडित हाथी तथा घोड़े रखे हुए थे।

बायीं ओर न्यायादेवी कि सुन्दर मूर्ति विराजमान थी।

जैसे ही शिवाजी महाराज ने आसन ग्रहण किया, उपस्थित संतों-महंतों ने ऊंचे स्वर में वेदमंत्रों का उच्चारण प्रारंभ कर दिया तथा शिवाजी ने भी उन सब विभूतियों को प्रणाम किया।

सभामंडप शिवाजी महाराज की जय के नारों से गुंजायमान हो रहा था। वातावरण में मधुर संगीत की लहरियां गूँज उठी तथा सेना ने उनके सम्मान में तोपों से सलामी दी।

वाहन उपस्थित पंडित गंगा भट्ट सिंहासन की ओर बढे तथा तथा उन्होंने शिवाजी के सिंहासन के ऊपर रत्न-माणिक्य जडित छत्र लगा कर उन्हें ‘राजा शिव छत्रपति’ की उपाधि से सुशोभित किया।

इस महान घटना का भारत के इतिहास में एक अभूतपूर्व स्थान है। उन दिनों, इस प्रकार के और सभी आयोजनों से पूर्व मुग़ल बादशाहों से अनुमति ली जाती थी परन्तु शिवाजी महाराज ने इस समारोह का आयोजन मुग़ल साम्राज्य को चुनौती देते हुए किया।

उनके द्वारा धारण की गयी ‘छत्रपति’ की उपाधि इस चुनौती का जीवमान प्रतीक थी। वे अब अपनी प्रजा के हितरक्षक के रूप में अधिक सक्षम थे तथा उनके द्वारा किया गए सभी समझोते तथा संधियां भी अब पूर्व की तुलना मैं अधिक विश्वसनीय और संप्रभुता संपन्न थे।

शिवाजी महाराज द्वारा स्वतंत्र राज्य की स्थापना तथा संप्रभु शासक के रूप में उनके राज्याभिषेक ने मुगलों तथा अन्य बर्बर विधर्मी शासको द्वारा शताब्दियों से पीड़ित, शोषित, अपमानित प्रत्येक हिंदू का ह्रदय गर्व से भर दिया।  यह दिन भारत के इतिहास में अमर है क्योंकि यह स्मरण करता है हमारे चिरस्थायी गौरव, संप्रभुता और अतुलनीय शौर्य की संस्कृति का।

गौब्राह्मण प्रतिपालक, यवनपरपीडक, क्षत्रिय कुलावातंश, राजाधिराज, महाराज, योगीराज, श्री श्री श्री छत्रपति शिवाजी महाराज की जय !

जय भवानी जय शिवराय !!

इस प्रकार के जयकारों से सारा वातावरण गूंज उठा

शिवाजी ने स्वराज्य मूल्यों और मराठा विरासत को कायम रखते हुए अपने प्रशासनिक कौशल से इतिहास में अपना एक शाही नाम स्थापित किया। वह अपनी बहादुरी और रणनीति के लिए जाने जाते थे जिसके साथ उन्होंने मुगलों के खिलाफ कई युद्ध जीते।

शिवाजी के बारे में कुछ रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य

अच्छे सेनानायक

वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय युद्ध से बच निकलने को प्राथमिकता दी थी।

यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही।

धर्मनिरपेक्ष शासक थे शिवाजी

शिवाजी एक समर्पित हिन्दू होने के साथ-साथ धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में गैर हिन्दू को पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया।

उनके मराठा साम्राज्य में हिन्दू पंडितों की तरह गैर हिन्दू संतों और फकीरों को भी पूरा सम्मान प्राप्त था। उन्होंने मुस्लिमों के साथ शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखा। उनकी सेना में 1,50,000 योद्धा थे जिनमें से करीब 66,000 मुस्लिम थे।

 आधुनिक नौसेना के पिता

शिवाजी पहले हिंदुस्तानी शासक थे जिन्होंने नौसेना की अहमियत को पहचाना और अपनी मजबूत नौसेना का गठन किया।

उन्होंने महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र की रक्षा के लिए तट पर कई किले बनाए जिनमें जयगढ़, विजयदुर्ग, सिंधुदुर्ग और अन्य स्थानों पर बने किले शामिल थे।

महिला सम्मान के कट्टर समर्थक

शिवाजी ने महिलाओं के प्रति किसी तरह की हिंसा या उत्पीड़न का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने अपने सैनिकों को सख्ती से निर्देश दे रखा था कि किसी गांव या अन्य स्थान पर हमला करने की स्थिति में किसी भी महिला को नुकसान नहीं पहुंचाया जाए।

महिलाओं को हमेशा सम्मान के साथ लौटा दिया जाता था। अगर उनका कोई सैनिक महिला अधिकारों का उल्लंघन करता पाया जाता था तो उसकी कड़ी सजा मिलती थी।

एक बार उनका एक सैनिक एक मुगल सूबेदार की बहु को ले आया था। उसने सोचा था कि उसे शिवाजी को भेंट करूंगा तो वह खुश होंगे।

लेकिन हुआ इसका उल्टा। शिवाजी ने उस सैनिक को खूब फटकारा और महिला को सम्मान के साथ उसके घर पहुंचा कर आने को कहा।

 यूं बच निकले थे पानहला के किले से

एक बार शिवाजी महाराज को सिद्दी जौहर की सेना ने घेर लिया था। उन्होंने वहां से बच निकलने के लिए एक योजना बनाई। उन्होंने दो पालकी का बंदोबस्त किया।

एक पालकी में शिवाजी के जैसा दिखने वाला शिवा नाह्वी था। उसकी पालकी किले के सामने से निकली। दुश्मन ने उसे ही शिवाजी समझकर पीछा करना शुरू कर दिया। उधर दूसरे रास्ते से अपने 600 लोगों के साथ शिवाजी निकल गए।

  गुरिल्ला युद्ध के जनक

शिवाजी को माउंटेन रैट भी कहकर पुकारा जाता था क्योंकि वह अपने क्षेत्र को बहुत अच्छी तरह से जानते थे और कहीं से कहीं निकल कर अचानक ही हमला कर देते थे और गायब हो जाते थे।

उनको गुरिल्ला युद्ध का जनक माना जाता है। वह छिपकर दुश्मन पर हमला करते थे और उनको काफी नुकसान पहुंचाकर निकल जाते थे।

गुरिल्ला युद्ध मराठों की रणनीतिक सफलता का एक अन्य अहम कारण था। इसमें वे छोटी टुकड़ी में छिपकर अचानक दुश्मनों पर आक्रमण करते और उसी तेजी से जंगलों और पहाड़ों में छिप जाते।

अफजल खान की हत्या

साल 1659 में आदिलशाह ने एक अनुभवी और दिग्गज सेनापति अफजल खान को शिवाजी को बंदी बनाने के लिए भेजा। वो दोनों प्रतापगढ़ किले की तलहटी पर एक झोपड़ी में मिले।

दोनों के बीच यह समझौता हुआ था कि दोनों केवल एक तलवार लेकर आएंगे। शिवाजी को पता था कि अफजल खान उन पर हमला करने के इरादे से आया है।

शिवाजी भी पूरी तैयारी के साथ गए थे। अफजल खां ने जैसे ही उन पर हमले के लिए कटार निकाली, शिवाजी ने अपना कवच आगे कर दिया। अफजल खां कुछ और समझ पाता, इससे पहले ही शिवाजी ने हमला कर दिया और उसका काम तमाम कर दिया।

समर्पित सेना का गठन

शिवाजी से पहले उनके पिता और पूर्वज सूखे मौसम में आम नागरिकों और किसानों को लड़ाई के लिए भर्ती करते थे। उनलोगों ने कभी भी संगठित सेना का गठन नहीं किया।

शिवाजी ने इस परंपरा को बदलकर समर्पित सेना का गठन किया जिनको साल भर प्रशिक्षण और वेतन मिलता था।

 आगरा के किले से बच निकलना

शिवाजी को औरंगजेब ने मुलाकात का न्योता दिया था। जब शिवाजी औरंगजेब से मिलने पहुंचे तो औरंगजेब ने उन्हें छल से बंदी बना लिया।

औरंगजेब की योजना शिवाजी को जान से मारने या कहीं और भेजने की थी लेकिन शिवाजी उससे काफी होशियार निकले। वह वहां से मिठाई की टोकरियों में निकल गए।

गैर धर्म विरोधी नहीं थे शिवाजी

 शिवाजी पर गैर धर्म विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता रहा है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक गैर धर्म नायक एवं सेनानी थे ही, अनेक गैर धर्म सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे।

वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था।

 छत्रपति शिवाजी की वंशावली

शिवाजी महाराज मेवाड़ के सूर्यवंशी क्षत्रीय सिसोदिया राजपूतों के वंशज थे। चित्तौड़गढ़ के अजय सिंह सिसोदिया , ने अपने भतीजे राणा हम्मीर सिंह सिसोदिया को अपना उत्तराधिकारी बनाया, इसके कारण निराश होकर सज्जनसिंह और क्षेमसिंह भाग्य की तलाश में दक्कन (महाराष्ट्र) चले गए ।

बड़े भाई सज्जनसिंह, शिवाजी के पूर्वज हैं। हिंडुआ सूरज महाराणा संग्राम सिंह सिसोदिया और महाराणा प्रताप सिंह भी सूर्यवंशी क्षत्रीय सिसोदिया राजपूत थे।

सज्जनसिंह के पुत्र राणा दिलीप सिंह ने दिल्ली के मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ बहमनी सुल्तान की स्थापना और विद्रोह करने में मदद की,इसके कारण सुलतान खुश हो कर, राणा दिलीप सिंह को देवगिरी (दौलताबाद) क्षेत्र में 10 गाँव दिए गए।

मराठों और मराठी लोगो के साथ रहने और उनके साथ वैवाहिक संबंध बनाने के कारण सज्जनसिंह के वंशज(भोसले), सांस्कृतिक रूप से भोसले मराठा के हिस्सा बन गए। 96 कुल मराठे, भी राजपूतों के वंशज होने का दावा करते हैं।

राणा दिलीप सिंह के पुत्र सिद्धोजी सिसोदिया थे, सिद्धोजी के पुत्र का नाम भोसाजी/भैरव सिंह सिसोदिया था , कहा जाता है कि शिवाजी के वंश को भोसले का उपनाम अपने पूर्वज भोसाजी सिसोदिया से मिला था। भैरोजी के 2 पुत्र थे- उग्रसेन सिंह भोसले, राणा देवराज सिंह भोसले। राणा उग्रसेन के 2 बेटे थे- करणसिंह भोसले और सुभा कृष्णा। राणा करनसिंह (सुभा कृष्णा के बड़े भाई), जो मुधोल के शासक थे उनको अपना उपनाम ‘घोरपडे’ , खलना के बड़े विशाल गढ़ किले पर गोह(iguana, मराठी में घोरपड) की मदद से चढ़ने, के कारण मिला. घोरपड़े, भोसले(सिसोदिया) की वरिष्ठ शाखा हैं।

सुभा कृष्ण भोसले (सिसोदिया) के उत्तराधिकारी देवगिरि में रहते रहे। सुभा कृष्णा के उत्तराधिकारी- रूपसिंह, भुमेंद्रजी, डोपाजी, बारहटजी, खेलोजी, परसोजी और बाबाजी,तथा मालोजी राजे भोसले। मालोजीराजे, शाहजी भोंसले के पिता थे,तथा शिवाजी के दादा थे।

मालोजी भोसले (1552–1597) अहमदनगर सल्तनत के एक प्रभावशाली जनरल थे, पुणे चाकन और इंदापुर के देशमुख थे।[4][5] मालो जी के बेटे शहाजी भी बीजापुर सुल्तान के दरबार में बहुत प्रभावशाली राजनेता थे। शाहजी अपने पत्नी जीजाबाई से शिवाजी का जन्म हुआ था।

समकालीन सबूत

आजकल के कुछ लोग ने अपने राजनीतिक कारणों के लिए शिवाजी के क्षत्रिय होने पर सवाल उठाया है उनके लिए हमने यहां पर कुछ समकालीन सबूत जुटाए हैं।

कवि जयराम का राधा माधव विलासा चंपू (बैंगलोर में शाहजी के दरबार में लिखा गया, 1654) भोंसले का वर्णन चित्तौड़ के क्षत्रिय सिसोदिया राजपूतो के वंशज के रूप में किया गया है।

शिवाजी के राज्याभिषेक से बहुत पहले जयराम की कविता रची गई थी। जयराम ने उल्लेख किया कि शाहजी चित्तौड़ के दलीप सिंह सिसोदिया के वंशज है, उन्होंने राणा के परिवार में जन्म लिया जो पृथ्वी के सभी राजाओं में सबसे महान और शूरवीर थे। दलीप सिंह, चित्तौड़ के राणा लक्ष्मणसेन के पोते थे,

परमानंद की शिवभारत मैं कहा गया है कि शिवाजी और शाहजी दोनों सूर्यवंशी क्षत्रिय सिसोदिया वंशी थे।

शाहजी ने सुल्तान आदिल शाह को लिखे अपने पत्र में कहा कि वह एक राजपूत है।

मुगल इतिहासकार खफी खान ने शिवाजी को चित्तौड़ के राणाओं के वंशज के रूप में वर्णित किया है। खफी खान शिवाजी के बहुत कठोर आलोचक थे।

सभासद बखर, शिवाजी के मंत्री कृष्ण भास्कर द्वारा रचित(1694), मैं भोंसले को सूर्यवंशी क्षत्रीय सिसोदिया बताया गया है।

शिवाजी महाराज की मृत्यु

50 साल की उम्र में शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य के बाहर भी अपना राज्य स्थापित कर रखा था. उनके पास 1680 में 300 किले और एक लाख सैनिक की फ़ौज थी।

1680 की शुरुआत में शिवाजी का स्वास्थ कुछ ठीक नहीं था। वे बुखार और पेचिश से पीड़ित थे।

अचानक शिवाजी भोसले की 5 अप्रैल 1680 को मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु का कारण बुखार और पेचिश को माना जाता है।

परन्तु ऐसा भी माना जाता है की उन्ही के मंत्रियों द्वारा उनकी हत्या की साजिश रची गयी थी क्योंकि मंत्रियों को शिवाजी के कुछ निर्णय पसंद नहीं आये थे।

प्रमुख तिथियां और घटनाएं

19 फरवरी 1630 : शिवाजी महाराज का जन्म।

14 मई 1640 : शिवाजी महाराज और साईबाई का विवाह

1646 : शिवाजी महाराज ने पुणे के पास तोरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

1656 : शिवाजी महाराज ने चन्द्रराव मोरे से जावली जीता।

10 नवंबर, 1659 : शिवाजी महाराज ने अफजल खान का वध किया।

5 सितंबर, 1659 : संभाजी का जन्म।

1659 : शिवाजी महाराज ने बीजापुर पर अधिकार कर लिया।

6 से 10 जनवरी, 1664 : शिवाजी महाराज ने सूरत पर धावा बोला और बहुत सारी धन-सम्पत्ति प्राप्त की।

1665 : शिवाजी महाराज ने औरंगजेब के साथ पुरन्धर शांति सन्धि पर हस्ताक्षर किया।

1666 : शिवाजी महाराज आगरा कारावास से भाग निकले।

1667 : औरंगजेब राजा शिवाजी महाराज के शीर्षक अनुदान। उन्होंने कहा कि कर लगाने का अधिकार प्राप्त है।

1668 : शिवाजी महाराज और औरंगजेब के बीच शांति सन्धि

1670 : शिवाजी महाराज ने दूसरी बार सूरत पर धावा बोला।

1674 : शिवाजी महाराज ने रायगढ़ में ‘छत्रपति’की पदवी मिली और राज्याभिषेक करवाया । 18 जून को जीजाबाई की मृत्यु।

1680 : शिवाजी महाराज की मृत्यु।

मस्तिष्क काम न करे तो योग का सहारा लें

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प्रकृति के चमत्कार भी बड़े गजब के हैं।

जैसे- विज्ञान मानता है कि समझदार से समझदार, घोर प्रतिभाशाली व्यक्ति भी जीवन में अपने मस्तिष्क का आधा हिस्सा ही उपयोग में ले पाता है।

बाकी आधा भाग जीवनभर अनुपयोगी ही रह जाता है।

जब तक आधे हिस्से से काम करेंगे, कितने ही योग्य हों, हम जिंदगी की कुद घटनाएं पकड़ नहीं पाएंगे।

श्रीराम-रावण युद्ध में मेघनाद माया फैला रहा था। ऐसा दृश्य उपस्थित कर दिया था कि दसों दिशाओं में बाण छा गए।

यहां तुलसीदासजी ने लिखा-

‘धरू धरू मारू सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना।।‘

चारों ओर पकड़ो पकड़ो…, मारो… मारो… सुनाई दे रहा था, पर जो मार रहा था, उसे कोई नहीं जान पाता।

हमारी जिंदगी में भी कई बार ऐसे दृश्य बन जाते है।

आज जिस प्रकार का वातावरण है, उसमें हल्ला तो बहुत है, अत्याचार-दुराचार हो रहे हैं, लेकिन फिर भी हम पकड़ नहीं पाते कि यह कौन कर रहा है?

आसपास का वातावरण ऐसा हो जाए कि मस्तिष्क पूरी तरह से काम नहीं करे तो योग का सहारा लीजिए।

कहते हैं कि जब मनुष्य अपने आज्ञा चक्र (दोनों भौहों के बीच) पर काम करता है तो उसका निष्क्रिय पड़ा आधा मस्तिष्क भी काम करने लगता है।

मतलब विज्ञान जिस चिंता में है, योग उसे मिटा देता है।

और जैसे ही यह फिक्र मिटी, आसपास के वो सारे दृश्य दिखने लग जाएंगे तो हमें गलत की ओर धकेलते हैं….।

फिर आप सजग होकर स्वयं को भी बचा पाएंगे और दूसरों को भी…।

मन का वर्तमान पर टिकना ही एकाग्रता

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एक विद्यार्थी अपनी पढ़ाई-लिखाई के जितने भी प्रयास करे, उसे एक काम और करना चाहिए-मन को वर्तमान पर टिकाने का अभ्यास।

विद्यार्थी जीवन में तो मदद करता है, इस उम्र-इस दौर में आत्मा की अधिक बात न की जाए, लेकिन विद्यार्थी मन उसे बहुत भटकाता है।

इस मन को यदि वर्तमान पर टिका दे तो वह अतीत से कट जाएगा, भविष्य में छलांग मारना छोड़ देगा और यहीं से जीवन में एकाग्रता आ जाती है।

मन का वर्तमान पर टिकना ही एकाग्रता है। जो लोग कम्प्यूटर का उपयोग करते हैं, उन्होंने की-बोर्ड भी चलाया होगा।

जब की-बोर्ड सीखना शुरू करते हैं तो ध्यान से देख-देखकर अक्षरों पर अंगुलियां चलाना पड़ती हैं।

लेकिन, धीरे-धीरे अपनें आप अंगुली अक्षरों पर जाने लगती है।

ऐसे ही साइकिल चलाना सीखते समय पहली बार तो लगता है जीवन में इससे कठिन काम कोई नहीं।

लेकिन, दो-चार-दस बार बार पैडल लगे कि संतुलन अपने आप बनने लगता है।

मन के साथ ऐसा ही प्रयोग करना पड़ता है।

इसे अभ्यास में डाल देंगे तो जैसा आप कहेंगे, वह वैसा करने लग जाएगा।

जैसे अभ्यास होने के बाद की-बोर्ड पर जहां अंगुली रखना चाहते हैं, वहीं जाएगी, जिधर साइकल का हैंडल मोड़ना चाहेंगे, उधर मुड़ने लगेगा। मन भी वैसा ही हो जाएगा, लेकिन उसे अतीत और भविष्यकाल से काटने के लिए योग का सहारा लेना पड़ेगा।

विद्यार्थी कितना ही व्यस्त हो, थोड़ा समय ध्यान-प्राणायाम और योग को जरूर दें।

दुख और समस्या से घबराने की बजाय धैर्य रखे , समय के साथ खत्म होगी दिक्कत

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सीख-जिंदगी में दुख व समस्याओं का आना कोई नई बात नहीं है।

लेकिन , समस्या आने पर घबराने की बजाय, अगर हम धैर्य से समस्या की वजह के खत्म होने का इंतजार करते हैं तो हम फिर से सफलता के रास्ते पर बढ़ जाते है।

इस कहानी से समझे –


भगवान बु़द्ध अपने शिष्यों के साथ अलग-अलग नगरों में घूमते थे।

उनके शिष्य मार्ग में उनसे अपनी जिज्ञासाओं पर भी बात करते रहते थे।

कई बार भगवान बुद्ध खुद शिष्यों की परीक्षा लेते थे और उन्हे शिक्षा भी देते थे।

गर्मी में एक दिन जब वे कहीं जा रहे थे , तो वे विश्राम करने लिए एक वृक्ष की छाया में बैठ गए।

उन्होने एक शिष्य से कहा कि वह उनके लिए नदी से जल लेकर आए।

वह शिष्य जब नदी के पास पहुंचा तो नदी का जल अत्यंत ही गंदा था। उसमे पत्ते तैर रहे थे और मिट्टी व कीचड़ की वजह से पानी काला नजर आ रहा था ।

शिष्य बिना पानी लिए तत्काल लौट आया। उसने गुरूदेव को पूरी बात कह सुनाई।

गुरूजी ने दुसरे शिष्य से कहा कि वह उसी नदी से पानी लेकर आए। वह पात्र लेकर चला गया।

लेकिन वह नदी से कुछ देर के बाद वापस आया। लेकिन, जब वह लौटा तो पानी लेकर आया था और पानी पूरी तरह से साफ था ।

गुरूजी ने उससे पूछा कि वह पानी कहां से लेकर आया । उसने बताया कि वह उसी नदी से जल लेकर आया है।

गुरूजी ने पूछा कि उस नदी का जल तो गंदा था, लेकिन यह पानी तो साफ है।

शिष्य ने कहा कि गुरूजी कुछ जंगली जानवरों के नदी से गुजरने की वजह से जल गंदा हो गया था।

मैने कुछ देर तक इंतजार किया। कुछ ही समय में पीछे से आने वाला पानी बहती गंदगी को अपने साथ बहा ले गया और पानी में घुली मिट्टी भी धीरे-धीरे करके नीचे बैठ गई।

इससे जल स्वच्छ हो गया और मैंने उसे पात्र में भर लिया। भगवान बुद्ध उसका जवाब सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने कहा कि ऐसे ही जीवन में दुख व समस्याएं हैं। लेकिन इन्हें देखकर हमें अपना धैर्य व साहस नहीं खोना चाहिए, बल्कि ऐसे मौकों पर दोगुनी ताकत से काम करना चाहिए।

इससे समय के साथ गंदगी रूपी दुख व समस्याएं स्वतः ही नीचे बैठे जाएंगी।

संकट को देखकर भागने से नहीं , बल्कि सामना करने से ही मिलती है सफलता

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स्वामी विवेकानंद बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे | उनकी संगीत, खेलकूद सहित तमाम गतिविधियों में रुचि थी ।

अध्यात्म में खास रुचि होने की वजह से वे खेल खेल में ही ध्यान करने लगते थे और घंटो तक उसमे रम जाते थे ।

इनकी माँ उन्हें हमेशा रामायण व महाभारत की कहानियां सुनाती थी जिसे वे खूब चाव से सुनते थे ।

ज्ञानार्जन व नई नई चीज़ों को जानने के किये वे देशभर में भ्रमण करते थे । एक बार वे बनारस में थे ।

गंगा स्नान करके माँ दुर्गा के मंदिर गए । वहां दर्शन के बाद जब प्रसाद लेकर बाहर जाने लगे तो वहां पहले से मौजूद बहुत सारे बंदरो ने उन्हें घेर लिया ।

वे प्रसाद छिनने के लिए उनके नजदीक आने लगे । बंदरी की अपनी तरफ आरे देखकर स्वामी विवेकानंद भयभीत हो गए और खुद को बचाने के लिए भागने लगे पर बंदर उनका पीछा छोड़ने को तैयार ही नही थे ।

वहां पर खड़े एक बुजुर्ग संन्यासी उन्हें देख रहे थे ।

उन्होंने स्वामी जी को रोका ओर कहा के वे भागे नही , बल्कि उनका सामना कर ओर देखे की क्या होता है ।

बुजुर्ग संन्यासी की सलाह पारवे रुक गए । उनके रुकते ही बंदर भी खड़े हो गए ।

यह देखकर स्वामी जी की हिम्मत बढ़ गयी और वे पलटकर बंदरो की ओर बढ़े ।

स्वामी जी को अपनी तरफ बढ़ता देखकर बंदर पीछे हटने लगे और थोड़ी ही देर में भाग खड़े हुए ।

स्वामी जी ने कई वर्षों बाद एक सभा मे इस घटना का जिक्र किया ।

उन्होंने श्रोताओ से कहा कि इस घटना से उन्हें यह शिक्षा मिली है कि समस्या का समाधान उससे भागने से नही ,

बल्कि डटकर उसका सामना करने से ही हो सकता हूं ।

इसलिए वे कभी भी किसी संकट से विचलित नही हुए और बिना डरे उसका सामना करने की तैयार रहे ।

सबसे महत्वपूर्ण यह है संकट और समस्याओं का हल ही सफल बनाता है ।

जान ले कि आहार आपके रास्ते में कोई समस्या नही आ रही है तो यह रास्ता आपको सफलता की ओर नही ले जा सकता है ।


सिख : हम लोग किसी काम में व्यवधान या संकट को देखकर उसे शुरू करने से पहले ही उससे भागने लगते है, जबकि संकट का डटकर सामना करने से ही सफलता मिल सकती है |

श्री राम चालीसा (Shri Ram Chalisa)

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श्री रघुवीर भक्त हितकारी। सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥
निशिदिन ध्यान धरै जो कोई। ता सम भक्त और नहिं होई॥1॥

ध्यान धरे शिवजी मन माहीं। ब्रह्म इन्द्र पार नहिं पाहीं॥
दूत तुम्हार वीर हनुमाना। जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना॥2॥

तब भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला। रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥
तुम अनाथ के नाथ गुंसाई। दीनन के हो सदा सहाई॥3॥

ब्रह्मादिक तव पारन पावैं। सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥
चारिउ वेद भरत हैं साखी। तुम भक्तन की लज्जा राखीं॥4॥

गुण गावत शारद मन माहीं। सुरपति ताको पार न पाहीं॥
नाम तुम्हार लेत जो कोई। ता सम धन्य और नहिं होई॥5॥

राम नाम है अपरम्पारा। चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥
गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो। तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो॥6॥

शेष रटत नित नाम तुम्हारा। महि को भार शीश पर धारा॥
फूल समान रहत सो भारा। पाव न कोऊ तुम्हरो पारा॥7॥

भरत नाम तुम्हरो उर धारो। तासों कबहुं न रण में हारो॥
नाम शक्षुहन हृदय प्रकाशा। सुमिरत होत शत्रु कर नाशा॥8॥

लखन तुम्हारे आज्ञाकारी। सदा करत सन्तन रखवारी॥
ताते रण जीते नहिं कोई। युद्घ जुरे यमहूं किन होई॥9॥

महालक्ष्मी धर अवतारा। सब विधि करत पाप को छारा॥
सीता राम पुनीता गायो। भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो॥10॥

घट सों प्रकट भई सो आई। जाको देखत चन्द्र लजाई॥
सो तुमरे नित पांव पलोटत। नवो निद्घि चरणन में लोटत॥11॥

सिद्घि अठारह मंगलकारी। सो तुम पर जावै बलिहारी॥
औरहु जो अनेक प्रभुताई। सो सीतापति तुमहिं बनाई॥12॥

इच्छा ते कोटिन संसारा। रचत न लागत पल की बारा॥
जो तुम्हे चरणन चित लावै। ताकी मुक्ति अवसि हो जावै॥13॥

जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा। नर्गुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा॥
सत्य सत्य जय सत्यव्रत स्वामी। सत्य सनातन अन्तर्यामी॥14॥

सत्य भजन तुम्हरो जो गावै। सो निश्चय चारों फल पावै॥
सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीं। तुमने भक्तिहिं सब विधि दीन्हीं॥15॥

सुनहु राम तुम तात हमारे। तुमहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे॥
तुमहिं देव कुल देव हमारे। तुम गुरु देव प्राण के प्यारे॥16॥

जो कुछ हो सो तुम ही राजा। जय जय जय प्रभु राखो लाजा॥
राम आत्मा पोषण हारे। जय जय दशरथ राज दुलारे॥17॥

ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा। नमो नमो जय जगपति भूपा॥
धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा। नाम तुम्हार हरत संतापा॥18॥

सत्य शुद्घ देवन मुख गाया। बजी दुन्दुभी शंख बजाया॥
सत्य सत्य तुम सत्य सनातन। तुम ही हो हमरे तन मन धन॥19॥

याको पाठ करे जो कोई। ज्ञान प्रकट ताके उर होई॥
आवागमन मिटै तिहि केरा। सत्य वचन माने शिर मेरा॥20॥

और आस मन में जो होई। मनवांछित फल पावे सोई॥
तीनहुं काल ध्यान जो ल्यावै। तुलसी दल अरु फूल चढ़ावै॥21॥

साग पत्र सो भोग लगावै। सो नर सकल सिद्घता पावै॥
अन्त समय रघुबरपुर जाई। जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥22॥

श्री हरिदास कहै अरु गावै। सो बैकुण्ठ धाम को पावै॥23॥

॥ दोहा॥

सात दिवस जो नेम कर, पाठ करे चित लाय।
हरिदास हरि कृपा से, अवसि भक्ति को पाय॥

राम चालीसा जो पढ़े, राम चरण चित लाय।
जो इच्छा मन में करै, सकल सिद्घ हो जाय॥

Ram Chalisa I with Hindi English Lyrics By Shekhar Sen 

Reference
1. Ram Chalisa
2 Image

श्री गणेश जी की आरती|| जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा

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आरती श्री गणेश जी की (aarti shri ganesh ji ki) जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा

गणेश जी की आरती । जय गणेश देवा Aarti Ganesh Ji Ki  Jai Ganesh jai Ganesh Deva
Aarti Ganesh Ji Ki Jai Ganesh jai Ganesh Deva

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा ॥ जय…

एक दंत दयावंत चार भुजा धारी।
मस्तक सिंदूर सोहे मूसे की सवारी ॥ जय…

अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया ॥ जय…

पान चढ़े फल चढ़े और चढ़े मेवा।
लड्डुअन का भोग लगे संत करें सेवा ॥ जय…

सूर श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ॥ जय…

दीनन की लाज राखो, शंभु सुतवारी 
कामना  को पूरा करो, जग बलिहारी ॥ जय…

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माँ दुर्गा की आरती -Jai Ambe Gauri

गणेश