महान गुरु गोरखनाथ (Guru Gorakhnath)


महान चमत्कारिक और रहस्यमयी गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर और एक जाति का नाम गोरखा है। गोरखपुर में ही गुरु गोरखनाथ समाधि स्थल है। यहां दुनियाभर के नाथ संप्रदाय और गोरखनाथजी के भक्त उनकी समाधि पर माथा टेकने आते हैं।


गुरु गोरखनाथ
या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे ( प्रमाण है राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत प्रथम शताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भर्तृहरि एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे ) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। उनका मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गोरखनाथ के शिष्य का नाम भैरोनाथ था जिनका उद्धार माता वैष्णोदेवी ने किया था। पुराणों के अनुसार भगवान शिव के अवतार थे।

नेपाल के गोरखा लोगों का ‘गोरखा’ नाम गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही सम्बन्ध रखता है। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे ‘रोट महोत्सव’ कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है। गुरू गोरक्ष नाथ जी का एक स्थान उच्चे टीले गोगा मेड़ी,राजस्थान हनुमानगढ़ जिले में भी है।इनकी मढ़ी सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नजदीक वेरावल में है। इनके साढ़े बारह पंथ होते हैं।

गुरु गोरखनाथ का जन्म

गुरु गोरखनाथ एक योग सिद्ध योगी थे, इन्होंने हठयोग परंपरा का प्रारंभ किया। इनको भगवान शिव का अवतार माना जाता है। गोरखनाथ को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का मानस पुत्र भी कहा जाता है। मान्यता के अनुसार एक बार गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा मांगने एक गांव गए। एक घर में भिक्षा देते हुए स्त्री बड़ी उदास दिखाई दी, तो गुरु ने पूछा क्या समस्या है?

स्त्री बोली- मेरी कोई संतान नहीं है। उस स्त्री को परेशान देख गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने उसको मंत्र पढ़कर एक चुटकी भभूत दी और पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देकर चले गए। लगभग बारह साल के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी गांव में फिर से आए और उस स्त्री के घर पहुंचे। दरवाजे के बाहर से आवाज लगाकर स्त्री को बुलाया और कहा, अब तो पुत्र बारह साल का हो गया होगा। असलियत में वह स्त्री गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की सिद्धियों से अनजान थी, इसलिए उसने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा दी भभूत को खाने की बजाय गोबर में फेंक दिया था। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की सिद्धि इतनी प्रबल थी कि भभूत बेकार नहीं जाती। स्त्री घबरा गई और सारी बात बताई कि मैंने भभूत को गोबर में फेंक दिया था।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा वह स्थान दिखाओ, वहां जाकर देखा तो एक गाय गोबर से भरे एक गड्ढे के ऊपर खड़ी है और अपना दूध उस गड्ढे में झलका रही है, तब गुरु ने उस स्थान पर बालक को आवाज लगाई। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की आवाज से उस गोबर वाली जगह से एक बारह वर्ष सुंदर आकर्षक बालक बाहर निकला और हाथ जोड़कर गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के सामने खड़ा हो गया।

इस प्रकार बाबा गोरखनाथ का जन्म स्त्री के गर्भ से नहीं, बल्कि गोबर और गो द्वारा की जाने वाली रक्षा से हुआ था। इसलिए इनका नाम गोरक्ष पड़ा। इस बालक को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ अपने साथ लेकर चले गए और आगे चलकर यही बालक गुरु गोरखनाथ बने। गोरक्षनाथ ने ही नाथ योग की परंपरा शुरू की और आज हम जितने भी आसन, प्राणायाम, षट्कर्म, मुद्रा, नादानुसंधान या कुण्डलिनी आदि योग साधनाओं की बात करते हैं, सब इन्हीं की देन है।

अन्य युगों में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा :-

  • त्रेता युग में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा

त्रेता युग में भी गुरु गोरखनाथ ने अवतार लिया था. ऐसा माना जाता है की जब श्री राम का राज्यभिषेक था. तब गुरु गोरखनाथ को भी आमंत्रण मिला था. और वह भगवान श्री राम के उत्सव में शामिल भी हुए थे.

  • द्रापर युग में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा

अब कई हिंदू ग्रंथो के अनुसार ऐसा भी माना जाता है. की द्रापर युग में भी गुरु गोरखनाथ ने अवतार लिया था. उस समय गुजरात में स्थित जूनागढ़(गिरनार)गोरखमढ़ी में तप किया था. इसी जगह पर श्री कृष्ण और रुक्मणि विवाह हुआ था. तब गुरु गोरखनाथ उनके विवाह में सम्मिलित हुए थे।

  • कलयुग में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा

अगर बात की जाए कलयुग की तो ऐसा माना जाता है. की एक समय बाप्पा रावल नाम के राजकुमार घूमते-घूमते बिच जंगल में पहुंच गए. तब उन्होंने जंगल में तेजस्वी साधू को तप करते हुए देखा. वह गुरु गोरखनाथ जी थे.

बाप्पा रावल ने उनके तेज और ध्यान से प्रभावित होकर वही रहना शुरू कर दिया. और उनकी सेवा करने लगे.और उनकी गैया भी चराया करते थे. इसी लिए बप्पा रावल कालभोज ग्वाल भी कहे जाते है ।गुरु गोरखनाथ का ध्यान टुटा तो वह बाप्पा रावल की सेवा से प्रसन्न हो गए. और उन्होंने एक तलवार बाप्पा रावल को आशीर्वाद के रूप में दी. बाद में बाप्पा रावल ने इसी तलवार से मलेच्छो को हराया. और चितोड़ राज्य की स्थापन की.

गोरखनाथजी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातन में तपस्या की थी। उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई। भारत के गोरखपुर में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पु‍नर्निर्माण कराया गया। 9वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया था लेकिन इसे 13वीं सदी में फिर मुस्लिम आक्रांताओं ने ढहा दिया था। बाद में फिर इस मंदिर को पुन: स्थापित कर साधुओं का एक सैन्यबल बनाकर इसकी रक्षा करने का कार्य किया गया। इस मंदिर के उपपीठ बांग्लादेश और नेपाल में भी स्थित है। संपूर्ण भारतभर के नाथ संप्रदाय के साधुओं के प्रमुख महंत हैं योगी आदित्यनाथ। कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता है कि आदित्यनाथ के पीछे कितना भारी जन समर्थन है। सभी दसनामी और नाथ संप्रदाय के लोगों के लिए गोरखनाथ का यह मंदिर बहुत महत्व रखता है।

महायोगी गोरखनाथ : माना जाता है कि जितने भी देवी-देवताओं के साबर मंत्र है उन सभी के जन्मदाता श्री गोरखनाथ ही है। नाथ और दसनामी संप्रदाय के लोग जब आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे से मिलते वक्त कहते हैं- आदेश और नमो नारायण।

नवनाथ की परंपरा की शुरुआत गुरु गोरखनाथ के कारण ही शुरु हुई थी। शंकराचार्य के बाद गुरु गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है। गोरखनाथ की परंपरा में ही आगे चलकर कबीर, गजानन महाराज, रामदेवरा, तेजाजी महाराज, शिरडी के साई आदि संत हुए। माता ज्वालादेवी के स्थान पर तपस्या करने उन्होंने माता को प्रसंन्न कर लिया था।

गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। उन्होंने योग के कई नए आसन विकसित किए थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

नवनाथ परंपरा : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं:- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव ( जालंधर या जालिंदरनाथ) आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। कुछ लोग नौ नाथ का क्रम ये बताते हैं:- मत्स्येन्द्र, गोरखनाथ, गहिनीनाथ, जालंधर, कृष्णपाद, भर्तृहरि नाथ, रेवणनाथ, नागनाथ और चर्पट नाथ।

।।मच्छिंद्र गोरक्ष जालीन्दराच्छ।। कनीफ श्री चर्पट नागनाथ:।।
श्री भर्तरी रेवण गैनिनामान।। नमामि सर्वात नवनाथ सिद्धान।। 

गोरखनाथ की परंपरा :

नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। कुछ लोग मानते हैं कि नाग शब्द ही बिगड़कर नाथ हो गया। भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है। नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई। आपने अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थलों के नाम सुने होंगे। आपने भोलेनाथ, भैरवनाथ आदि नाम भी सुने ही होंगे। साईनाथ बाबा (शिरडी) भी नाथ योगियों की परंपरा से थे। गोगादेव, बाबा रामदेव आदि संत भी इसी परंपरा से थे। तिब्बत के सिद्ध भी नाथ परंपरा से ही थे।

नौ नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुए। नौ नाथों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। सभी नाथ साधुओं का मुख्‍य स्थान हिमालय की गुफाओं में है। नागा बाबा, नाथ बाबा और सभी कमंडल, चिमटा धारण किए हुए जटाधारी बाबा शैव और शाक्त संप्रदाय के अनुयायी हैं, लेकिन गुरु दत्तात्रेय के काल में वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाओं का समन्वय किया गया था। नाथ संप्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जाएगी। यदि गौर से देखा जाए तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।

सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गुरु और शिष्य दोनों ही को 84 सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है।

नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।

भारत के 84 सिद्धों की परंपरा में से एक थे गुरु गोरखनाथ जिनका नेपाल से घनिष्ठ संबंध रहा है। नेपाल नरेश महेन्द्रदेव उनके शिष्य हो गए थे। उस काल में नेपाल के एक समूचे क्षेत्र को ‘गोरखा राज्य’ इसलिए कहा जाता था कि गोरखनाथ वहां डेरा डाले हुए थे। वहीं की जनता आगे चलकर ‘गोरखा जाति’ की कहलाई। यहीं से गोरखनाथ के हजारों शिष्यों ने विश्वभर में घूम-घूमकर धूना स्थान निर्मित किए। इन्हीं शिष्यों से नाथों की अनेकानेक शाखाएं हो गईं।

नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथजी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएं मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत-सी पारंपरिक कथाएं और किंवदंतियां भी समाज में प्रसारित हैं। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिन्ध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएं प्रचलित हैं। काबुल, गांधार, सिन्ध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और नाथ परंपरा को विस्तार किया था।

गोरखनाथ का साहित्य : गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया।

महायोगी गोरखनाथ के बारे में कुछ खास बातें:

गोरखनाथ को भारत के महाराष्ट्र में जाना जाता है. इन्हें मत्स्येंद्रनाथ का शिष्य माना जाता है. गोरखनाथ को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है. गोरखनाथ ने योग के कई नए आसन विकसित किए थे. गोरखनाथ ने नाथ साहित्य की शुरुआत की थी. गोरखनाथ ने समाधि तक पहुँचने के लिए योग, आध्यात्मिक अनुशासन, और आत्मनिर्णय का समर्थन किया. गोरखनाथ के अनुयायियों को जोगी, गोरखनाथी, दर्शनी, या कनफटा के नाम से जाना जाता है. गोरखनाथ ने नवनाथ की परंपरा की शुरुआत की थी. गोरखनाथ के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं. गोरखनाथ ने भगवती राप्ती के तट पर तपस्या की थी और उसी जगह पर अपनी समाधि ली थी. गोरखनाथ के विचार और उनके योगी ग्रामीण भारत में लोकप्रिय रहे हैं.

रचनाएँ

डॉ॰ बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ॰ बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को असंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परन्तु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है।पुस्तकें ये हैं-

1.सबदी

2.पद

3.शिष्यादर्शन

4.प्राण -सांकली

5.नरवै बोध

6.त्मबोध

7.अभय मात्रा जोग

8.पंद्रह तिथि

9.सप्तवार

10.मंछिद्र गोरख बोध

11.रोमावलीग्यान तिलक

13.ग्यान चौंतीसा

14.पंचमात्रा

15.गोरखगणेश गोष्ठी

16.गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)

17.महादेव गोरखगुष्टि

18.शिष्ट पुराण

19.दया बोध

20.जाति भौंरावली (छंद गोरख)

21.नवग्रह

22.नवरात्र

23.अष्टपारछ्या

24.रह रास

25.ग्यान -माला

26.आत्मबोध

27.व्रत

28.निरंजन पुराण

29.गोरख वचन

30.इंद्री देवता

31.मूलगर्भावली

32.खाणीवाणी

33.गोरखसत

34.अष्टमुद्रा

35.चौबीस सिद्ध

36.षडक्षरी

37.पंच अग्नि

38.अष्ट चक्र

39.अवलि सिलूक

40.काफिर बोध

गुरु गोरखनाथ का समय

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में भारत में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालन्धरनाथ और कृष्णपाद के सम्बन्ध में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं।

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे (प्रमाण भी हे राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की सुरुआत प्रथम सताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भरथरी एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे ‘रोट महोत्सव’ कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है।

गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी – संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ॰ प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनवअपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं, राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86। 1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्रगोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।

6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथउनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।

2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते

4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1100 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है।

वर्षा के देवता

एक अन्य कथा में कहा गया है कि जब गोरक्षनाथ नेपाल के पाटन में भ्रमण कर रहे थे, तो उन्होंने पाटन के सभी वर्षा करने वाले नागों को फँसा लिया और ग्रामीणों द्वारा उनकी माँग पर उन्हें कोई भी भिक्षा देने से मना करने पर निराश होकर ध्यान करना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप, पाटन में लंबे समय तक सूखा पड़ा। अपने सलाहकारों की सिफारिश पर, पाटन के राजा ने गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को पाटन आमंत्रित किया। एक बार जब गोरक्षनाथ को पता चला कि उनके गुरु पाटन में हैं, तो उन्होंने सभी वर्षा करने वाले नागों को बुलाया और उनसे मिलने के लिए निकल पड़े। वर्षा करने वाले नागों को मुक्त करने के बाद पाटन में हर साल भरपूर बारिश होती थी। उसके बाद, पाटन के लोगों ने मत्स्येन्द्रनाथ को वर्षा देवता के रूप में पूजा।

मछिंद्रनाथ यात्रा कार्यक्रम ने 1900 के दशक की शुरुआत में नेपाली राजपरिवार की भागीदारी के कारण प्रमुखता और सांस्कृतिक महत्व प्राप्त किया। अब यह उत्सव हर साल हज़ारों भक्तों और आगंतुकों को आकर्षित करता है, जिससे यह नेपाल में सबसे बड़ा औरबसे महत्वपूर्ण उत्सव बन गया है।

मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ गुरु शिष्य संबंध का एक उदाहरण:

लेकिन दृढ़ निश्चयी गार्गी के मन में बौद्धिक और आध्यात्मिक लक्ष्य अधिक थे। उसे वेद और पुराण सीखने में बहुत रुचि थी। वह महान बुद्धि से संपन्न थी और चारों वेदों के जटिल दर्शन में पारंगत थी।

यहां तक ​​कि जो पुरुष बुद्धि में उनके बराबर होने का प्रयास करते थे, वे भी इस क्षेत्र में उनके ज्ञान को पार नहीं कर सके। उन्हें ऋषि गार्गी के नाम से भी जाना जाता है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में भी किया गया है; इसके गृह सूत्र में। अपने गहन ध्यान के माध्यम से, उन्होंने ऋग्वेद के कुछ मंत्रों को प्रकट किया। दर्शन पर उनके विचार इतने उत्कृष्ट माने जाते हैं कि उनका उल्लेख छांदयोग उपनिषदों में मिलता है।

गोरखनाथ बाद में भारत के सबसे प्रसिद्ध योगियों में से एक बन गए। उन्हें योगियों में रत्न माना जाता है। उनके गुरु योगी मत्स्येंद्रनाथ थे जिन्हें स्वयं भगवान शिव माना जाता है। गोरखनाथ अपने गुरु के प्रति बहुत समर्पित थे। गुरु ने देखा कि उनका शिष्य अपनी भावनाओं और गुरु के प्रति प्रेम में बहुत उग्र हो रहा है; लगभग एक सैनिक की तरह और एक योगी की तरह नहीं। इसलिए गुरु ने गोरखनाथ को हिमालय जाकर अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए 14 साल तक साधना करने का आदेश दिया। लेकिन गोरखनाथ केवल अपने गुरु के प्रति प्रेम के कारण सहमत हुए, और कुछ नहीं।

अपनी साधना के 14 वर्षों के दौरान गोरखनाथ ने हर दिन के हर पल की गिनती की जब वह अपने गुरु के साथ एकाकार हो गए। इस लंबी साधना के कारण उन्हें कई शक्तियां प्राप्त हुईं, लेकिन उन्होंने उनका उपयोग नहीं किया, जबकि उन्हें उनके बारे में पता था।

निर्धारित 14 वर्ष पूरे होने के बाद गोरखनाथ हिमालय से नीचे उतरे और भूमि पार करके दक्कन के पठार में सह्याद्रि पर्वत की तलहटी में पहुंचे। उनके मन में केवल एक ही विचार था; अपने गुरु से मिलना।

जब वे उस गुफा के पास पहुंचे जहां मत्स्येंद्रनाथ ध्यान कर रहे थे, तो उन्हें गुफा के प्रवेश द्वार पर पहरा दे रहे एक अन्य योगी ने रोक दिया। गोरखनाथ क्रोधित हो गए और उन्होंने पहरेदार को धक्का देकर अंदर घुस गए। लेकिन जब वे अंदर गए, तो मत्स्येंद्रनाथ कहीं नहीं मिले। उनके गुरु कहां चले गए थे?

वह बाहर आया और योगी से अपने गुरु का पता पूछा। योगी ने उसे बताने से मना कर दिया, “जब मैंने तुम्हें अंदर जाने से रोका तो तुम मुझे धक्का देकर अंदर घुस गए। मैं तुम्हें वह जानकारी नहीं दूंगा जो तुम मांग रहे हो”। योगी ने कहा।

गोरखनाथ ने तब अपनी 14 साल की कठोर साधना के दौरान अर्जित गुप्त शक्तियों का इस्तेमाल किया और योगी के मन में जो कुछ भी चल रहा था, उसे जान लिया। इस ज्ञान के साथ, वे मत्स्येंद्रनाथ के छिपे हुए स्थान पर पहुँचे। लेकिन जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्होंने पाया कि उनके गुरु पहले ही एक सहयोगी को निर्देश देकर जा चुके थे कि गोरखनाथ को 14 साल और साधना करनी है। ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने पिछली साधना की शक्तियों का दुरुपयोग किया था जो उन्हें उनके गुरु द्वारा दी गई थीं। एक योगी को कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति के मन में जबरन प्रवेश नहीं करना चाहिए।

यह सुनकर गोरखनाथ ने अपने गुरु से प्रार्थना की कि वे उनकी सज़ा की अवधि कम कर दें और कुछ नरमी बरतें। मत्स्येंद्रनाथ ने शर्त रखी कि अगर वे असंभव रूप से कठिन आसन पर बैठेंगे, तो उनकी तपस्या की अवधि आधी हो जाएगी। गोरखनाथ सहमत हो गए और अपने गुरु के साथ फिर से मिलने के लिए इतने उत्सुक थे कि वे अपने बाएं पैर के अंगूठे पर संतुलन बनाकर बैठे रहे और अपने शरीर को अपनी दाहिनी एड़ी से मलाशय में टिकाए रखा और 1 साल तक बैठे रहे!!

आज यह कठिन आसन गोरखनाथ आसन के नाम से जाना जाता है। जरा सोचिए, उन्होंने यह सब अपने गुरु के प्रेम के लिए किया था!!

मत्स्येन्द्रनाथ अपने शिष्य की क्षमताओं को जानते थे और उसकी भावनाओं को नियंत्रित करने का प्रयास करते थे। गुरु जानते थे कि गोरखनाथ में बहुत क्षमता है और उन्होंने उसे अपने मन को नियंत्रित करने और स्थिरता की शिक्षा दी।

नाथ सम्प्रदाय:

अपने गुरु के निधन के बाद, गोरखनाथ ने अपने मिशन को फैलाने के लिए पूरे भारत में यात्रा की। गोरखनाथ ने नाथ पारंपरिक आंदोलन के सबसे बड़े विस्तार का मार्गदर्शन और प्रेरणा दी। उनके द्वारा लिखी गई कई रचनाएँ हैं। पूरे भारत में, कई गुफाएँ हैं जिन पर मंदिर बनाए गए हैं और कहा जाता है कि मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ ने यहीं ध्यान लगाया था। उनके नाम पर गोरखपुर शहर में गोरख मठ है, जो नाथ परंपराओं के मठवासी पंथ के लिए एक मठ है।

गोरखनाथी जो गोरखनाथ के भक्त हैं, उनकी पहचान एक बड़ी हड्डी या धातु की अंगूठी से होती है, जिसे वे अपने कान में पहनते हैं और इसलिए उन्हें कनफड़ी के नाम से जाना जाता है। वे अपने कंधों पर एक स्वस्थ, काले रंग का कुत्ता और एक छड़ी भी रखते हैं। वे कुत्तों से बहुत प्यार करते हैं और उन्हें सैकड़ों मील तक पैदल चलने और उन्हें ढोने की अनुमति नहीं देते हैं।

गोरखनाथ साधकों का एक दीर्घकालिक संप्रदाय है जो आज भी प्राचीन परंपराओं का पालन करता है।

हठ योग:

गोरखनाथ जी हठ योग के संस्थापक भी थे, जो भारतीय दर्शन का एक स्कूल है जो आध्यात्मिकता प्राप्त करने के लिए शारीरिक क्रियाओं पर महारत हासिल करने का प्रतिपादन करता है। उन्होंने योग को पूरे भारत में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने उस समय हठ योग में प्रचलित कामुक और रहस्यमय प्रथाओं को भी बदल दिया और इसे आज के कठोर अभ्यास में बदल दिया।

गोरखनाथ बाबा का प्रभाव:

भले ही गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे, लेकिन नाथ योगियों द्वारा उन्हें अपने शिक्षण उत्तराधिकार में पहला आध्यात्मिक गुरु माना जाता है, जिन्होंने मानव रूप धारण किया था। गोरखनाथ ने तांत्रिक प्रथाओं और अनुष्ठानों की गूढ़ प्रथाओं में महत्वपूर्ण बदलाव लाए। उन्होंने संस्कृत में गोरख संहिता लिखी, जिसमें कीमिया और हठ योग पर विस्तार से चर्चा की गई है।

गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने अपने इस प्रबल शिष्य की असीम शक्तियों को निखारने और विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कारण गोरखनाथ बाबा प्राचीन भारत के सबसे महान और सबसे प्रभावशाली योगियों में से एक बन गए।

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