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परमात्मा के साथ एकरूपता की अनुभूति है भक्ति

ईश्वर प्राप्ति के यों तो अनेकों मार्ग हैं, पर उन सभी में भक्ति का मार्ग अवश्य ही अधिक सरल, सुगम व स्वाभाविक है।

अमीर, गरीब, मूर्ख, विद्वान, बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरूष आदि सबके लिए यह समान रूप से सहज, सुगम व सरल है। प्रेमयोग, समर्पणयोग, उपासनायोग आदि भक्तियोग के ही विविध नाम है।

भक्ति ‘भज्‘ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है ईश्वरसेवा। इस तरह से भक्ति का अर्थ स्वयं का ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है। जीवात्मा का परमात्मा में संपूर्ण समर्पण, विजसर्जन व विलय ही भक्ति है। यही भक्तियोग है।

जगत में जो सबसे महान और सर्वोपरि तत्व है, उसके प्रति नैसर्गिक श्रद्धा-समर्पण का भाव होना ही भक्तियोग है। नारद भक्तिसूत्र के अनुसार-सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा।

अर्थात् भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है। शांडिल्य सूत्र के अनुसार- सा परानुरक्तिरीश्वरे! अर्थात् ईश्वर के प्रति परम अनुराग ही भक्ति है।

युगऋषि परमपूज्य गुरूदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के अनुसार भक्ति अथवा प्रेमयोग परमात्मा के साथ एकरूपता की जीवंत अनुभूति है। स्वामी विवेकानंद का कहना है कि सच्चे व निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज करना ही भक्तियोग है।

भक्त की प्रकृति एवं भक्ति के उदृदेश्य के आधार पर भक्ति दो प्रकार की कही गई है-सकाम भक्ति व निष्काम भक्ति।

किसी कामनापूर्ति के उद्देश्य से की गई भक्ति ‘सकाम भक्ति‘ कहलाती है, पर बिना किसी कामना के निष्काम भाव से की गई भक्ति ‘निष्काम भक्ति‘ कहलाती है। निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है।

भोगो की कामना से की गई भक्ति अर्थात सकाम भक्ति से भोगों की प्राप्ति तो हो सकती है, पर भगवान की नहीं।

अस्तु सकाम भक्त भक्ति से प्राप्त पुण्य के कारण भोगों को प्राप्त कर लेते हैं, स्वर्ग भी प्राप्त कर लेते है, पर पुण्य क्षीण होने पर वे पुनः मृत्युलोक में अर्थात् जन्म-मरण के बंधन में पड़ जाते हैं, परंतु निष्काम भक्त को ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है।


योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता-7/16, 17, 18, 19 में निष्काम भक्ति, निष्काम भक्त व ज्ञानी भक्त की भूरि-भूरि प्रशंसा कुछ इस प्रकार कर रहे हैं-
चतुर्विंधा भजन्तजे मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव में मतम्।
आस्थितः स ही युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गातिम्।।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।

अर्थात्- हे अर्जुन! आत्र्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी-ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं, पर उनमें मुझमें नित्य एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है और मुझे अत्यंत प्रिय है।

अर्थार्थीं भक्त वह है-जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भक्ति करता है। आत्र्त भक्त वह है-जो कोई कष्ट, संकट आ जताने पर मुझे पुकारता है।

जिज्ञासु भक्त-संसार को अनित्य जानकर मुझको तत्त्व से जानने की जिज्ञासा व पाने के लिए भजन करता है, परंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। वह मुझे तत्त्व से जानता है।

ये सभी चारों प्रकार के भक्त उदार हैं, परंतु ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है, क्योंकि वह मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है। बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरूष यह भली भाँति समझकर कि सब कुछ ईश्वर ही है- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

ऐसे परम ज्ञानी भक्त के क्या-क्या लक्षण होते हैं, इसे प्रकाशित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण पुनः गीता-12/13, 14, 17, 18, 19 में कहते है- जो पुरूष द्वेष भाव से रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा आसक्ति व अंहकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है, जो निरंतर संतुष्ट है, मन इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है-वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मो का त्यागी है-वह भक्त मुझे प्रिय है।

जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी और सुख-दुःख में सम है और आसक्ति से रहित है, ऐसा भक्त मुझको प्रिय है।

जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरूष मुझको प्रिय है।

सच्ची भक्ति वही है, जिसमें याचना नहीं, जिसमें कामना नहीं, जिसमें गिड़गिड़ाना नहीं, जिसमें कुछ माँगना नहीं, बल्कि स्वयं मिट जाना है।

ईशचरणों में स्वयं को ही समर्पित कर देने का नाम भक्ति है। सच्ची भक्ति की आग यदि हृदय में धधक उठी तो वो फिर कभी किसी के बुझाए नहीं बुझती, पर ऐसी परम भक्ति विरलों में ही पाई जाती है। इस संदर्भ में संत कबीर ने भी क्या खूब कहा है-


भक्तिभाव भादों नदी, सबहि चली घहराय।
सरिता सोइ सराहिए, जेठ मास ठहराय।।


अर्थात्- भादों में नदियाँ उमड़ चलती हैं, परंतु उसी नदी की प्रशंसा है, जो ज्येष्ठ महीने में अधिक जलयुक्त हो। इसी प्रकार देखा-देखी थोड़े समय के लिए भक्ति-भाव उमड़ आना दूसरी बात है, परंतु जब आपत्तिकाल में भी भक्ति बनी रहे, तभी उसकी प्रशंसा है।

श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि लोग भोगों, कामनाओं के लिए घड़ों आँसू बहाते हैं, पर भगवान के लिए भला कौन रोता है? अस्तु भक्ति भोगों के लिए नहीं, वरण भगवान के लिए रोने का नाम है।

भक्ति संसार को पान का नहीं, ईश्वर को पाने का मार्ग है। सच्चे भक्त के हृदय में इसीलिए तो अनंत प्रेम की अजस्त्र धारा बहने लगती है। फिर वही धरा प्रभुप्रेम में सावन-भादों बनकर साधक के नेत्रों से भी बरसने लगती है।

साधक फिर उन्हीं आँसुओं से अपने इष्ट, अपने आराध्य, अपने प्रभु को प्रेम का अघ्र्य प्रदान करता है, उनका हर पल अभिषेक करता रहता है।


उन्ही आँसुओं से कई जन्मों से संचित चित्त के विकारों, संस्कारों का क्षय होने लगता है। तभी साधक के शुद्धचित्ताकाश में प्रभु का ज्योतिर्मय रूप् में अवतरण होता है।

तब सचमुच उपास्य एवं उपासक, भक्त व भगवान एक हो जाते हैं। तब सृष्टि के कण-कण में, चेतन-अचेतन, वृक्ष-पौधे वनस्तियों एवं समस्त जीवों प्राणियों में सिर्फ ईश्वर और ईश्वर का ही रूप व नूर दिखाई पड़ने लगता है।

तब साधक के लिए यह सारा विश्व, सारा ब्रह्यांड ही प्रभु का बनाया देवालय नजर आता है। तब हर जीव में शिव दिखने लगते हैं और जीवसेवा ही शिवसेवा जान पड़ती है।

ऐसे में सूर्य-चंद्र के रूप में उन्हीं प्रभु का जीवंत दीदार होने लगता है। धरती के तमाम सिंधु व सरिताएँ उन्हीं प्रभु के पाँव पखारते जान पड़ते हैं।

तमाम सुगंधित व खिले हुए पुष्प उन्हीं देव के चरणों में चढ़ते, खिलते व मुस्कराते दीख पड़ते है। शीतल, सुगंधित पवन प्रभु के चरणों में बयार बनकर बहने लगता है ओर सभी दिशाएँ प्रभु की पावन पोशाक जान पड़ती है।

तब साधक कभी-कभी नहीं, वरन हर पल ही प्रभु का स्मरण करता हुआ उन्ही के बनाए देवालय में उनकी अराधना, अभ्यर्थना करने लगता है।

साधक की ऐसी परम भक्ति को देखकर प्रभु भी भक्त के लिए विहृल व व्याकुल हो उठते है। प्रभु राम वनगमन के दौरान चित्रकूट में ठहरे थे। भरत जी प्रभु से मिलने को व्याकुल थे।

भक्त व भगवान के मिलन की इस अलौकिक घटना का चित्रण करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी गीतावली में लिखते हैं-

मन अगहुँड़, तनु पुलक सिथिल भयो, नलिन नयन भरे नीर।
गड़त गोड़ मानो सकुच-पंक महँ, कढ़त प्रेम-बल धीर।।
तुलसिदास दसा देखि भरत की उठि धाए अतिहि अधीर।
लिए उठाइ उर लाइ कृपानिधि बिरह-जनित हरि पीर।।


अर्थात्-प्रभु को देखकर भरत जी का मन तो आगे बढ़ने के लिए उतावला हो रहा है, किंतु शरीर रोमांचित होकर शिथिल हो गया है और नेत्रकमलों में जल भर आया है।

पैर मानो संकोचरूप दलदल में गड़े जाते हैं और उन्हें वे प्रेम के बल से धैर्यपूर्वक बाहर निकालते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं- भरत जी की यह दशा देखकर भगवान प्रेम से अधीर होकर उनकी ओर दौड़ पड़े और उनकी विरह-व्यथा को दूर कर प्रभु ने उन्हें उठाकर उनका आलिंगन किया व अपने हृदय से लगा लिया।


अस्तु यदि हमें भी अपने जीवन के चरम व परम लक्ष्य को पाना है, प्रभु को पाना है तो हमें भी हर पल प्रभु से बस वही प्रार्थना करनी चाहिए, जैसी भक्त प्रहलाद जी ने विष्णु पुराण (1-20-19) में की है-

या प्रीतिर विवेकानां विषयेष्वन पायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु।।

अर्थात्- हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इंद्रियों के भोग के नाशवान पदार्थो पर रहती है, उसकी प्रकार की प्रीति मेेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण मेरे हृदय से कभी दूर न होवे।

बौद्ध धर्म की नास्तिकवादी विचारधारा का खंडन करने की प्रतिज्ञा कुमारिल भट्ट ने की और उसे पूरा करने के लिए उन्होंने तक्षशिला के विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया।

उन दिनों की प्रथा के अनुसार, छात्रों को आजीवन बौद्ध धर्म के प्रति आस्थागत रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती, तभी उनको विद्यालय में प्रवेश मिलता था।

कुमारिल ने झूठी प्रतिज्ञा ली और शिक्षा समाप्त होने पर बौद्ध मत का खंडन और वैदिक धर्म का प्रसार आरंभ कर दिया। अपने प्रयत्न में उन्हें सफलता भी मिली।

शास्त्रार्थ की धूम पूरे भारत में मचाकर उन्होेंने शून्यवाद की निस्सारता सिद्ध करके लड़खड़ाती हुई वैदिक मान्यताएँ फिर मजबूत बनाई।

ऐसा होन पर भी कमारिल का अंतःकरण विक्षुब्ध ही रहा। गुरू के सामने की गई प्रतिज्ञा एवं उन्हें दिलाए हुए विश्वास का घात करने से उनकी अंतरात्मा दुःख महसूस करने लगी।

इसका प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अग्नि में जीवित जल जाने का निश्चय किया। इस करूण दृश्य को देखने देशभर से अनेक विद्वान पहुँचे, उन्हीं में से एक आदिगुरू शंकराचार्य भी थे।

वे उन्हें समझाते हुए बोले-‘‘आपने जो किया, जनहित के लिए किया, फिर प्रायश्चित कयों कर रहे हैं? इस पर कुमारिल भट्ट बोले-‘‘अच्छा कार्य भी अच्छे मार्ग से ही किया जाना चाहिए।

कुमार्ग पर चलकर श्रेष्ठ कार्य करने की परंपरा गलत है। वैदिक धर्म की सनातनता पर मेरा पूर्ण विश्वास है, पर मुझे अपनी आपत्ति छल के आधार पर व्यक्त नहीं करनी चाहिए थी।

दूसरे लोग मेरा अनुकरण करते हुए अनैतिक मार्ग पर चलते हुए अच्छे उददेश्य के लिए प्रयत्न करने लगें तो इससे धर्म की ही हानि होगी। तब प्राप्त हुए लाभ का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा।

इसलिए सदाचार की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित करने के लिए मेरा प्रायश्चित करना ही उचित है।‘‘ कुमारिल भले ही अग्नि में जल गए, पर उनकी प्रतिपादित आस्था सदा अमर रहेगी।

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