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जीवन एक्सप्रेस-वे नहीं है, इसे प्रतिस्पर्धा का रूप कभी न दें

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मन की गति को अगर हम धीमा नहीं करते हैं तो इसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ने लगता है।

जब डाॅक्टर आपको रोज एक घंटा पैदल चलने को कहते हैं तभी हम ऐसा करते हैं।

कई बार तो हम उसको भी गंभीरता से नहीं लेते और कहते हैं हमारे पास इसके लिए वक्त नहीं है।

हम कभी अपने आपसे यह नहीं पूछते हैं कि हम अपने साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं?

किस चीज के लिए भाग रहे हैं, इसका क्या कारण है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि सब भागा रहे हैं तो हम भी भाग रहे हैं।

हम सभी ने जीवन को एक प्रतिस्पर्धा बना दिया है।

आप एक बार सोचो, हमारे बच्चों की प्रतिस्पर्धा है, हम भी मुकाबला ही कर रहे हैं, रिश्तेदारी में भी होड़ है, बिजनेस में भी काॅम्पीटिशन है।

आपने खाने में कितनी सब्जियां बनाई, आप जब अगली बार मेरे घर पर आओगे तो मैं कितनी सब्जियां बनाऊंगी उसमें भी होड़ हैं स्पर्धा का कोई स्तर नहीं होता।

जितनी ज्यादा स्पर्धा होती है उतना ही चिड़चिड़ापन होने लगता है।


मान लो कि मुंबई से पुणे हम अपनी-अपनी गाड़ी लेकर चलते हैं एक्सप्रेस-वे पर।

हमें अपनी गाड़ी की क्षमता मालूम है। अपनी गाड़ी की स्पीड हमें मालूम है लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कार चलाने का तरीका।

कुछ लोगों को गाड़ी 50, 80, 100 की स्पीड पर और कुछ लोगों को तो इससे भी अधिक स्पीड पर चलाना अच्छा लगता है।

यह हमारे जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण समय है जब हम अपनी गाड़ी में अपने परिवार के साथ हंसते-खेलते, खाते-पीते, गाने सुनते हुए अपनी यात्रा पर जा रहे हैं।

थोडी देर एक गाड़ी हमारी गाड़ी से आगे निकलती है।

उसी समय हम सोचते हैं कि चलो रेस लगाते हैं।

रेस थी नहीं लेकिन हमारी एक सोच ने इसे रेस बना दिया।

हम भी उसी सड़क पर थे, दूरी भी वही थी लेकिन हमारी एक सोच के बाद अब हमारी यात्रा कैसी होगी?


अब हमारा ध्यान परिवार से हटकर गाड़ी की स्पीड पर चला जाएगा।

अब पत्नी या बच्चे कुछ बोलेंगे तो उनको डांट पड़ जाएगी।

क्योंकि पहले हमारा ध्यान गाड़ी की स्पीड के बजाए परिवार पर था।

अब सारा ध्यान रेस पर चला गया। अब हो सकता है कि उनकी गाड़ी की क्षमता हमारी गाड़ी से कई गुना ज्यादा हो।

हमारी गाड़़ी मारूति हो और उनकी गाड़ी मर्सिडीज हो।

मैंने मारूति की सारी गति को पार कर लिया फिर भी उनकी गाड़ी से आगे नहीं जा पाए।

फिर आता है एक चैराहा और उस पर ट्रैफिक सिग्नल। नियम और तरीके।

अब यही मौका है उनसे आगे जाने का। जहां हम अपने सिद्धांत से समझौता करना शुरू कर देते हैं।

अब यात्रा रेस बन जाती है। यदि मैं पहले नहीं पहुंचता हंू तो वह पहुंच जाएगा।

पहंुचेंगे तो दोनों ही लेकिन यात्रा कैसी रहेगी इस सबके बीच?

उस यात्रा के दौरान हमने गति जरूरत से ज्यादा भी की होगी, गलत साइड से ओवरटेक भी किया होगा।

कहीं एक आथ एक्सीडेंट भी हुआ होगा। यह सब सिर्फ एक सोच के कारण।

जीवन दूसरों को देखकर न जीएं इसे अपनी क्षमता के हिसाब से प्लान करें।

जीवन को कभी भी प्रतिस्पर्धा का रूप न दें ।