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श्री गणेश स्त्रोत्रम (Shri Ganesh Stotram)

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|| श्रीगणेशभुजङगम् ||

रणत्क्षुद्रघंटानिनादाभिरामं चलत्ताण्डवोद्दण्डवत्पद्मतालम् |
लसत्तुन्दिलाङगोपरिव्यालहारं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ||१||

ध्वनिध्वंसवीणालयोल्लासिवक्त्रं स्फुरच्छुण्डदण्डोल्लसद्वीजपूरम |
गलद्दर्पसौगन्ध्यलोलालिमालम् गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ||२||

प्रकाशज्जपारक्तरत्नप्रसून- प्रवालप्रभातारूणज्योतिरेकम् |
प्रलम्बोदरं वक्रतुण्डैकदन्तं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ||३||

विचित्रस्फुरद्रत्नमालाकिरीटं किरीटोल्लसच्चन्द्ररेखाविभूषम् |
विभूषैकभूषं भवध्वंसहेतुं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ||४||

उदञ्चद्भुजावल्लरीदृश्यमूलो- च्चलध्भ्रूलताविभ्रमभ्राजदक्षम् |
मरुत्सुन्दरीचामरै: सेव्यमानं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ||५||

स्फुरन्निष्ठुरालोलपिङ्गाक्षितारं कृपाकोमलोद्धारलीलावतारम् |
कलाबिन्दुगं गीयते योगिवर्ये- र्गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ||६||

यमेकाक्षरं निर्मलं निर्विकल्पं गुणातीतमानन्दमाकारशून्यम् |
परं पारमोंकारमाम्नायगर्भम् वदन्ति प्रगल्भं पुराणं तमीडे ||७||

चिदानन्दसान्द्राय शान्ताय तुभ्यं नमो विश्वकर्त्रे च हर्त्रे च तुभ्यम् |
नमोऽनन्तलीलाय कैवल्यभासे नमो विश्वबीज प्रसीदेशसूनो ||८||

इमं सुस्तवं प्रातरुत्थाय भक्त्या पठेद्यस्तु मर्त्यो लभेत्सर्वकामान् |
गणेशप्रसादेन सिद्ध्यन्ति वाचो गणेशे विभौ दुर्लभं किं प्रसन्ने ||९||

Video Ganesh Stotram Ganesha Bhujanga Stotram

Sri Ganesh Stotram – Ganesha Bhujanga Stotram – Ganesh Mantra – With Lyrics – Sacred Chants Vol 7

आत्मसाक्षात्कार का उपाय

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एक शिष्य ने अपने आचार्य से आत्मसाक्षात्कार का उपाय पूछा।

पहले तो उन्होंने समझाया- “बेटा ! यह कठिन मार्ग है, कष्टसाध्य क्रियाएँ करनी पड़ती हैं।

तू कठिन साधनाएँ नहीं कर सकेगा, पर जब उन्होंने देखा कि शिष्य मानता नही तो उन्होंने देखा कि शिष्य मानता नहीं तो उन्होंने एक वर्ष तक एकांत में गायत्री मंत्र का निष्काम जप करके अंतिम दिन आने का आदेश दिया।

” शिष्य ने वही किया। वर्ष पूरा होने के दिन आचार्य ने झाडू देने वाली स्त्री से कहा कि अमुक शिष्य आए तब उस पर झाड़ू से धूल उड़ा देना।

स्त्री ने वैसा ही किया। साधक क्रोध में उसे मारने दौड़ा , पर वह भाग गई। वह पुनः स्नान करके आचार्य-सेवा में उपस्थित हुआ।

आचार्य ने कहा- “अभी तो तुम साँप की तरह काटने दौड़ते हो, अतः एक वर्ष और साधना करो।” साधक को क्रोध तो बहुत आया, परंतु उसके मन में किसी-न-किसी प्रकार आत्मदर्शन की तीव्र लगन थी, अतएव गुरू की आज्ञा समझकर वह चला गया।


दूसरा वर्ष पूरा करने पर आचार्य ने झाड़ू लगाने वाली स्त्री से उस व्यक्ति के आने पर झाडू़ छुआ देने को कहा। जब वह आया तो उस स्त्री ने वैसा ही किया, परंतु इस बार वह कुछ गालियाँ देकर ही स्नान करने चला गया और फिर आचार्य जी के समक्ष उपस्थित हुआ।

आचार्य ने कहा- “अब तुम काटने तो नहीं दौड़ते, पर फुफकारते अवश्य हो, अतः एक वर्ष और साधना करो।”


तीसरा वर्ष समाप्त होने के दिन आचार्य जी ने उस स्त्री को कूडे़ की टोकरी उडे़ल देने को कहा।

स्त्री के वैसा करने पर शिष्य को क्रोध नहीं आया, बल्कि उसने हाथ जोड़कर कहा-“ हे माता! तुम धन्य हो। तीन वर्ष से मेरे दोषों को निकालने के प्रयत्न में तत्पर हो।

” वह पुनः स्नान कर आचार्य-सेवा में उपस्थित हो उनके चरणों में गिर पड़ा। अब वह आत्मसाधना के पथ का सच्चा पथिक बन चुका था।

भीतर ही है हमारे आनंद का सरोवर

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अपार जनसमुदाय के बीच भी यदि कोई व्यक्ति स्वयं को अकेला महसूस करे तो यह विडंबना ही है। अकेलापान यानी स्वयं को सबसे अलग कर लेना, सबसे संबंध तोड़ लेना, किसी को अपना न मानना और न ही किसी से अपना नाता जोड़ना।

वर्तमान समय में मनुष्यों की इस भीड़ में अकेलापन एक विकराल समस्या हो गई हैं यह समस्या कुछ ईसी तरह से है, जैसे अथाह समुद्र हमारे सामने हो और हमें पीने के लिए एक बूँद पानी भी उपलब्ध नह हो सके। दुर्भाग्यवश आधुनिक जीवन की यही सच्चाई है।

वर्तमान में शहरों में रहने वाले 40 प्रतिशत लोग इसी अकेलेपन की बीमारी से ग्रस्त है। मनोवैज्ञानिक यह कहते हैं कि अकेलेपन से उतना ही नुकसान होता है, जितना रोज 15 सीगरेट पीने से होता है।

अमेरिका की चिकित्सा संबंधी शोध पत्रिका में डाॅ. विवेकमूर्ति के द्वारा किए गए शोध में वे कहते हैं कि ऐसा मत सोचो कि केवल बुजुर्गों को अकेलापन सालता है, बल्कि आजकल तो युवाओं मे भी अकेलेपन का भाव तेजी से देखने को मिल रहा है।

सोशल मीडिया का वर्तमान में फैला हुआ जाल एक तरह की मायावी दुनिया है। वह संबंधों का आभास निर्मित करती है।

यह जानते हुए कि इस मीडिया में जो मित्र बनते हैं, वे असली दोस्त नहीं होते, लेकिन फिर भी लोग उसमें खुद को भुलाने की कोशिश करते हैं, मगर इससे उनका अकेलापन नहीं जाता, बल्कि और बढ़ जाता है।

हम मूलतः सामाजिक प्राणी हैं। चिकित्सकों का यह कहना है कि अकेलेपन के इलाज के लिए महँगी गोलियाँ लेने के बजाय अन्य इन्सानों से अपना सुख-दुःख साझा करना चाहिए, क्योंकि आप अपने भावों को जिताना उँड़ेलेंगे, उतना ही भीतर से हलका महसूस करेंगे।

दरअसल अकेला व एकाकी होना- दो मिलते जुलते शब्द हैं, लेकिन इनके अर्थ भिन्न हैं। एकाकी यानी लोनलीनेस का अर्थ दूसरे का अभाव है और दूसरे की निकटता की चाहत है।

जबकि अकेला होना यानी अलोननेस का अर्थ- जो खुद के साथ है, जो अपने अतंस् के साथ आंनदित है। शिवसूत्र में इसका सुंदर विवरण आया है कि जो अपने साथ स्थिर बैठा है, वह हृदय के सरोवर में सुखपूर्वक डूबता है।

हर मनुष्य के भीतर ही वह सरोवर मौजुद है, जिसके जल से उसकी प्यास बुझ सकती हैै, लेकिन वह दूसरों के अंदर यह सरोवर तलाशता है, जिसमें उसे तृप्ति मिल सके, लेकिन वह अतृप्त रहता है, क्योंकि उसे तृप्त करने वाली जलराशि तो उसकी के अंदर है, कहीं बाहर नहीं।

जिस तरह मृग अपनी ही नाभि में मौजूद कस्तूरी की सुगंध को जान नहीं पाता और उसे बाहर खोजता फिरता है, वही स्थिति मनुष्य की रहती है।

लोग दुःखी इसीलिए हैं, क्योंकि उन्हें अपने भीतर मौजूद आध्यात्मिक संपदा का भान नहीं है, उसका ख्याल नहीं है।

इस सुख व आनंद की तलाश में लोग अपनी पूरी जिंदगी गँवा देते हैं, जबकि इसके लिए कहीं और जाने की जरूरत ही नहीं है।

जब तक हम इस आनंद सरोवर तक नहीं पहुँच पाते, तब तक अतृप्त बने रहते हैं और दूसरों को भी तृप्ति नहीं दे पाते।

जब हम स्वयं इस आनंद-सरोवर के जल से तृप्त हो जाते हैं तो फिर जो भी हमारे पास आते हैं, वो भी एक तरह से आनंदरूपी तृप्ति को महसूस करते है।

हालाँकि हमारे भीतर मौजूद यह आनंद-सरोवर स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है। यह हमें अपनी स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता, बल्कि मन की सूक्ष्म आँखों से ही दृष्टिगोचर होता है, लेकिन इस सरोवर तक पहुँचने का मार्ग आसान नहीं है, इसके लिए हमे अपने अंदर मौजूद चित्तरूपी दरिया को पार करना पड़ता है।

यह चित्तरूपी दरिया हमारे ही पूर्वकर्मों के परिणामस्वरूप बना है, जिसे हमें पार करना होता है।

ज्ञानी जन कहते हैं कि स्वर्ग का रास्ता महानरक से होकर जाता है, यदि हमारे अंतर्मन में मौजूद आनंदरूपी सरोवर स्वर्ग है तो उसके मार्ग में आने वाला यह चित्तरूपी दरिया महानरक के समान है और यही कारण है कि लोग अपने अंतर्मन के द्वार में प्रवेश नहीं करना चाहते।

इसके द्वार पर कदम नहीं रखना चाहते, लेकिन जो साहसी होते हैं, दृढ़ संकल्पी होते हैं, कठिनतम साधना करने में रूचि रखते हैं और निर्भीक होते हैं, वे इस मार्ग पर अवश्य आगे बढ़ते है।

सदियों से हमारे देश में ऋषि-मुनियों ने जो भी अनुसंधान किए, वे अपने अंतर्मन, अंतर्जगत की भूमि पर ही किए और इस खोज-बीन की राह में कई नई विद्याओं, दिव्यमंत्रों, विभूतियों आदि को जानते हुए आत्मा के उस प्रकाश तक भी पहुँचे, जिसे आनंद का सरोवर कहा जाता है।

वर्तमान में मनुष्य अपने आप से ही दूर होता जा रहा है, स्वयं से ही कटता जा रहा है, उसे तो यह आभास ही नहीं है कि उसके अंदर दिव्यता मौजूद है।

उसने तो अपने इस हाड़-मांस के शरीर को ही सब कुछ समझ लिया है, विचारों व भावनाओं को ही जाना है, उनके आगे भी कुछ है, इनके पार भी जीवन का कुछ अस्तित्व है, इसे वह सिरे से नकार देता है, क्योंकि उसे यह सब दृष्टिगोचर नहीं है।

जिस तहर समुद्र में तैरते हुए विशाल हिमखंड का मात्र थोड़ा-सा हिस्सा ही दृष्टिगोचर होता है, शेष उससे भी बड़ा हिस्सा उस विशाल जलराशि में निमग्न होता है, उसी तरह हमारे जीवन का स्थूलस्वरूप् बहुत कम मात्रा में दिखता है और वह सूक्ष्मस्वरूप् जो नहीं दिखता है-वह अधिक बड़ा होता है, जिसे हम जानते भी नहीं है।

मनुष्य केवल एक ही जीवन नहीं जीता, उसके अनेक जन्म होते हैं। एक जीवन जीकर वह मर जाता है, फिर वह पुनः जन्म लेता है, यद्यपि मनुष्य अपने वर्तमान जीवन को ही देख सवकता है, भूतकाल की बातों को याद कर सकता है और भविष्य के बारे में सोच सकता है, उसका आकलन कर सकता है, उसके बारे में कल्पनाएँ कर सकता है, लेकिन इस जन्म से पहले जो जीवन वह जी चुका है, उसका स्मरण उसे नहीं रहता, पर उन सभी जन्मों में उसने जो कर्म किए हैं, उनका हिसाब-किताब उसके चित्त में मौजूद होता है।


मनुष्य का वर्तमान जीवन उसके भूतकाल के बीते हुए जन्मों व कर्मों के परिणामस्वरूप होता है और भविष्य का जीवन भी भूत व वर्तमान जीवन की नींव पर ही रखा जाता है।

यदि वर्तमान जीवन में मनुष्य द्वारा किए गए कर्म अत्यंत निकृष्ट हैं तो हो सकता है उसका अगला जन्म मनुष्य न होकर जीव-जंतु या वृक्ष-वनस्पतियों के रूप में हो, विभिन्न तरह की भोगयोनियो में हो।

इसी तरह यदि वर्तमान जीवन के कर्म उत्कृष्ट हैं, शुभ हैं तो इसके परिणामस्वरूप उसे अच्छे जन्म की प्राप्ति होती है और कभी-कभी तो कर्मशून्य हो जाने पर जन्म-जन्मांतर के चक्र से ही मुक्ति मिल जाती है, फिर वह जीवात्मा जीवनमुक्त हो जाती है।

मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी अच्छा या बुरा महसूस करता है, वह उसके मन में होता है। इस तरह उसके मन में ही स्वर्ग या नरक की सृष्टि होती है।

उसके शुभ कर्म उसे स्वर्गरूपी आनंद से आनंदित करते हैं और उसके अशुभ कर्म उसे नरकरूपी दुःख-कष्ट से पीड़ित करते है।

साधना का पूरा नाम है- जीवन-साधना, जीवन को सुव्यवस्थित बनाना। जीवन-संपदा को आत्मपरिष्कार और लोक-मंगल के पुण्य-परमार्थ के साथ जोड़कर, उसे सब प्रकार कृतकृत्य बनाना।

वर्तमान में यदि मनुष्य अकेलेपन से जूझ रहा है तो इसका तात्पर्य है कि वह अपनी देने की परंपरा भूल गया है, क्योंकि यदि वह देगा नहीं, तो उसे मिलेगा नहीं। मनुष्य को जो भी चाहिए, पहले उसे अन्य लोगों को देना होगा।

इसी कारण हमारे समाज में दान की पंरपरा का उद्भव हुआ, क्योंकि देने से हमें एक आंतरिक खुशी मिलती है और जिसे भी दिया जाता है, उसकी भी आवश्यकता पूरी होती है, उसे भी अच्छा लगता है।

यदि आज मनुष्य अकेला है तो इसका मतलब है कि उसने अपने आस-पड़ोस को अकेलापन दिया है, इसीलिए यही उसे मिल रहा है।

इसे दूर करने का एक ही तरीका है कि वह दूसरों के साथ मिल-जुलकर प्रेम के साथ रहने की आदत डाले और अपने आनंद व खुशी को सबमें बिखेरे, तभी वह अपने इस अकेलेपन को दूर कर सकेगा।

परमात्मा के साथ एकरूपता की अनुभूति है भक्ति

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ईश्वर प्राप्ति के यों तो अनेकों मार्ग हैं, पर उन सभी में भक्ति का मार्ग अवश्य ही अधिक सरल, सुगम व स्वाभाविक है।

अमीर, गरीब, मूर्ख, विद्वान, बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरूष आदि सबके लिए यह समान रूप से सहज, सुगम व सरल है। प्रेमयोग, समर्पणयोग, उपासनायोग आदि भक्तियोग के ही विविध नाम है।

भक्ति ‘भज्‘ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है ईश्वरसेवा। इस तरह से भक्ति का अर्थ स्वयं का ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है। जीवात्मा का परमात्मा में संपूर्ण समर्पण, विजसर्जन व विलय ही भक्ति है। यही भक्तियोग है।

जगत में जो सबसे महान और सर्वोपरि तत्व है, उसके प्रति नैसर्गिक श्रद्धा-समर्पण का भाव होना ही भक्तियोग है। नारद भक्तिसूत्र के अनुसार-सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा।

अर्थात् भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है। शांडिल्य सूत्र के अनुसार- सा परानुरक्तिरीश्वरे! अर्थात् ईश्वर के प्रति परम अनुराग ही भक्ति है।

युगऋषि परमपूज्य गुरूदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के अनुसार भक्ति अथवा प्रेमयोग परमात्मा के साथ एकरूपता की जीवंत अनुभूति है। स्वामी विवेकानंद का कहना है कि सच्चे व निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज करना ही भक्तियोग है।

भक्त की प्रकृति एवं भक्ति के उदृदेश्य के आधार पर भक्ति दो प्रकार की कही गई है-सकाम भक्ति व निष्काम भक्ति।

किसी कामनापूर्ति के उद्देश्य से की गई भक्ति ‘सकाम भक्ति‘ कहलाती है, पर बिना किसी कामना के निष्काम भाव से की गई भक्ति ‘निष्काम भक्ति‘ कहलाती है। निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है।

भोगो की कामना से की गई भक्ति अर्थात सकाम भक्ति से भोगों की प्राप्ति तो हो सकती है, पर भगवान की नहीं।

अस्तु सकाम भक्त भक्ति से प्राप्त पुण्य के कारण भोगों को प्राप्त कर लेते हैं, स्वर्ग भी प्राप्त कर लेते है, पर पुण्य क्षीण होने पर वे पुनः मृत्युलोक में अर्थात् जन्म-मरण के बंधन में पड़ जाते हैं, परंतु निष्काम भक्त को ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है।


योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता-7/16, 17, 18, 19 में निष्काम भक्ति, निष्काम भक्त व ज्ञानी भक्त की भूरि-भूरि प्रशंसा कुछ इस प्रकार कर रहे हैं-
चतुर्विंधा भजन्तजे मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव में मतम्।
आस्थितः स ही युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गातिम्।।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।

अर्थात्- हे अर्जुन! आत्र्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी-ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं, पर उनमें मुझमें नित्य एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है और मुझे अत्यंत प्रिय है।

अर्थार्थीं भक्त वह है-जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भक्ति करता है। आत्र्त भक्त वह है-जो कोई कष्ट, संकट आ जताने पर मुझे पुकारता है।

जिज्ञासु भक्त-संसार को अनित्य जानकर मुझको तत्त्व से जानने की जिज्ञासा व पाने के लिए भजन करता है, परंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। वह मुझे तत्त्व से जानता है।

ये सभी चारों प्रकार के भक्त उदार हैं, परंतु ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है, क्योंकि वह मुझमें ही अच्छी प्रकार से स्थित है। बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरूष यह भली भाँति समझकर कि सब कुछ ईश्वर ही है- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

ऐसे परम ज्ञानी भक्त के क्या-क्या लक्षण होते हैं, इसे प्रकाशित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण पुनः गीता-12/13, 14, 17, 18, 19 में कहते है- जो पुरूष द्वेष भाव से रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा आसक्ति व अंहकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है, जो निरंतर संतुष्ट है, मन इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है-वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मो का त्यागी है-वह भक्त मुझे प्रिय है।

जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी और सुख-दुःख में सम है और आसक्ति से रहित है, ऐसा भक्त मुझको प्रिय है।

जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरूष मुझको प्रिय है।

सच्ची भक्ति वही है, जिसमें याचना नहीं, जिसमें कामना नहीं, जिसमें गिड़गिड़ाना नहीं, जिसमें कुछ माँगना नहीं, बल्कि स्वयं मिट जाना है।

ईशचरणों में स्वयं को ही समर्पित कर देने का नाम भक्ति है। सच्ची भक्ति की आग यदि हृदय में धधक उठी तो वो फिर कभी किसी के बुझाए नहीं बुझती, पर ऐसी परम भक्ति विरलों में ही पाई जाती है। इस संदर्भ में संत कबीर ने भी क्या खूब कहा है-


भक्तिभाव भादों नदी, सबहि चली घहराय।
सरिता सोइ सराहिए, जेठ मास ठहराय।।


अर्थात्- भादों में नदियाँ उमड़ चलती हैं, परंतु उसी नदी की प्रशंसा है, जो ज्येष्ठ महीने में अधिक जलयुक्त हो। इसी प्रकार देखा-देखी थोड़े समय के लिए भक्ति-भाव उमड़ आना दूसरी बात है, परंतु जब आपत्तिकाल में भी भक्ति बनी रहे, तभी उसकी प्रशंसा है।

श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि लोग भोगों, कामनाओं के लिए घड़ों आँसू बहाते हैं, पर भगवान के लिए भला कौन रोता है? अस्तु भक्ति भोगों के लिए नहीं, वरण भगवान के लिए रोने का नाम है।

भक्ति संसार को पान का नहीं, ईश्वर को पाने का मार्ग है। सच्चे भक्त के हृदय में इसीलिए तो अनंत प्रेम की अजस्त्र धारा बहने लगती है। फिर वही धरा प्रभुप्रेम में सावन-भादों बनकर साधक के नेत्रों से भी बरसने लगती है।

साधक फिर उन्हीं आँसुओं से अपने इष्ट, अपने आराध्य, अपने प्रभु को प्रेम का अघ्र्य प्रदान करता है, उनका हर पल अभिषेक करता रहता है।


उन्ही आँसुओं से कई जन्मों से संचित चित्त के विकारों, संस्कारों का क्षय होने लगता है। तभी साधक के शुद्धचित्ताकाश में प्रभु का ज्योतिर्मय रूप् में अवतरण होता है।

तब सचमुच उपास्य एवं उपासक, भक्त व भगवान एक हो जाते हैं। तब सृष्टि के कण-कण में, चेतन-अचेतन, वृक्ष-पौधे वनस्तियों एवं समस्त जीवों प्राणियों में सिर्फ ईश्वर और ईश्वर का ही रूप व नूर दिखाई पड़ने लगता है।

तब साधक के लिए यह सारा विश्व, सारा ब्रह्यांड ही प्रभु का बनाया देवालय नजर आता है। तब हर जीव में शिव दिखने लगते हैं और जीवसेवा ही शिवसेवा जान पड़ती है।

ऐसे में सूर्य-चंद्र के रूप में उन्हीं प्रभु का जीवंत दीदार होने लगता है। धरती के तमाम सिंधु व सरिताएँ उन्हीं प्रभु के पाँव पखारते जान पड़ते हैं।

तमाम सुगंधित व खिले हुए पुष्प उन्हीं देव के चरणों में चढ़ते, खिलते व मुस्कराते दीख पड़ते है। शीतल, सुगंधित पवन प्रभु के चरणों में बयार बनकर बहने लगता है ओर सभी दिशाएँ प्रभु की पावन पोशाक जान पड़ती है।

तब साधक कभी-कभी नहीं, वरन हर पल ही प्रभु का स्मरण करता हुआ उन्ही के बनाए देवालय में उनकी अराधना, अभ्यर्थना करने लगता है।

साधक की ऐसी परम भक्ति को देखकर प्रभु भी भक्त के लिए विहृल व व्याकुल हो उठते है। प्रभु राम वनगमन के दौरान चित्रकूट में ठहरे थे। भरत जी प्रभु से मिलने को व्याकुल थे।

भक्त व भगवान के मिलन की इस अलौकिक घटना का चित्रण करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी गीतावली में लिखते हैं-

मन अगहुँड़, तनु पुलक सिथिल भयो, नलिन नयन भरे नीर।
गड़त गोड़ मानो सकुच-पंक महँ, कढ़त प्रेम-बल धीर।।
तुलसिदास दसा देखि भरत की उठि धाए अतिहि अधीर।
लिए उठाइ उर लाइ कृपानिधि बिरह-जनित हरि पीर।।


अर्थात्-प्रभु को देखकर भरत जी का मन तो आगे बढ़ने के लिए उतावला हो रहा है, किंतु शरीर रोमांचित होकर शिथिल हो गया है और नेत्रकमलों में जल भर आया है।

पैर मानो संकोचरूप दलदल में गड़े जाते हैं और उन्हें वे प्रेम के बल से धैर्यपूर्वक बाहर निकालते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं- भरत जी की यह दशा देखकर भगवान प्रेम से अधीर होकर उनकी ओर दौड़ पड़े और उनकी विरह-व्यथा को दूर कर प्रभु ने उन्हें उठाकर उनका आलिंगन किया व अपने हृदय से लगा लिया।


अस्तु यदि हमें भी अपने जीवन के चरम व परम लक्ष्य को पाना है, प्रभु को पाना है तो हमें भी हर पल प्रभु से बस वही प्रार्थना करनी चाहिए, जैसी भक्त प्रहलाद जी ने विष्णु पुराण (1-20-19) में की है-

या प्रीतिर विवेकानां विषयेष्वन पायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु।।

अर्थात्- हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इंद्रियों के भोग के नाशवान पदार्थो पर रहती है, उसकी प्रकार की प्रीति मेेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण मेरे हृदय से कभी दूर न होवे।

बौद्ध धर्म की नास्तिकवादी विचारधारा का खंडन करने की प्रतिज्ञा कुमारिल भट्ट ने की और उसे पूरा करने के लिए उन्होंने तक्षशिला के विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया।

उन दिनों की प्रथा के अनुसार, छात्रों को आजीवन बौद्ध धर्म के प्रति आस्थागत रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती, तभी उनको विद्यालय में प्रवेश मिलता था।

कुमारिल ने झूठी प्रतिज्ञा ली और शिक्षा समाप्त होने पर बौद्ध मत का खंडन और वैदिक धर्म का प्रसार आरंभ कर दिया। अपने प्रयत्न में उन्हें सफलता भी मिली।

शास्त्रार्थ की धूम पूरे भारत में मचाकर उन्होेंने शून्यवाद की निस्सारता सिद्ध करके लड़खड़ाती हुई वैदिक मान्यताएँ फिर मजबूत बनाई।

ऐसा होन पर भी कमारिल का अंतःकरण विक्षुब्ध ही रहा। गुरू के सामने की गई प्रतिज्ञा एवं उन्हें दिलाए हुए विश्वास का घात करने से उनकी अंतरात्मा दुःख महसूस करने लगी।

इसका प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अग्नि में जीवित जल जाने का निश्चय किया। इस करूण दृश्य को देखने देशभर से अनेक विद्वान पहुँचे, उन्हीं में से एक आदिगुरू शंकराचार्य भी थे।

वे उन्हें समझाते हुए बोले-‘‘आपने जो किया, जनहित के लिए किया, फिर प्रायश्चित कयों कर रहे हैं? इस पर कुमारिल भट्ट बोले-‘‘अच्छा कार्य भी अच्छे मार्ग से ही किया जाना चाहिए।

कुमार्ग पर चलकर श्रेष्ठ कार्य करने की परंपरा गलत है। वैदिक धर्म की सनातनता पर मेरा पूर्ण विश्वास है, पर मुझे अपनी आपत्ति छल के आधार पर व्यक्त नहीं करनी चाहिए थी।

दूसरे लोग मेरा अनुकरण करते हुए अनैतिक मार्ग पर चलते हुए अच्छे उददेश्य के लिए प्रयत्न करने लगें तो इससे धर्म की ही हानि होगी। तब प्राप्त हुए लाभ का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा।

इसलिए सदाचार की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित करने के लिए मेरा प्रायश्चित करना ही उचित है।‘‘ कुमारिल भले ही अग्नि में जल गए, पर उनकी प्रतिपादित आस्था सदा अमर रहेगी।

कर्मो के फल से न बचोगे

संपूर्ण वातावरण में एक अद्भुत नीरवता व्याप्त थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो समय ठहर सा गया हो।

कहने को तो वह आश्रम धरती की परिधि में ही अवस्थित था, तब भी वहां आकर ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी अन्य लोक में प्रवेश करने का सौभाग्य मिल गया हो।

वातावरण की सुरम्यता के पीछे का एक कारण तो वहाँ नैसर्गिक रूप से फैली हुई हरीतिमा थी तो वहीं दूसरी ओर, उस दिव्यता के पीछे कारण उस आश्रम के संरक्षक, महर्षि माण्डव्य का उस स्थान पर अनवरत तपस्या में लीन होना भी था।

घोषित तथ्य है कि भूमि विशेष पर किए गए कार्य, उस भूमि की ऊर्जा को तदनुरूप परिवर्तित कर देते है।

जिस स्थान पर निरपराधोें की हत्या होती है, वो भूमि उन कुसंस्कारों को पीढ़ियों तक ढोती है तो वहीं यह भी सत्य है कि जिसव स्थान पर पुण्य के, तप के बीज बोए जाते हैं, उस स्थान का वातावरण भी समय के साथ दिव्यता से सिक्त एवं पवित्रता युक्त हो जाता है।

महर्षि माण्डव्य की तपोभूमि में अनादिकालीन यह सिद्धांत ही साकार रूप लेता दिखाई पड़ रहा था।

तपस्या का स्वरूप एक समान होता है, परंतु उद्देश्य भिन्न हो जाते है। असुरों के लिए तपस्या शक्ति-अर्जन का स्त्रोत है तो ऋषियों के लिए परिष्कार का पथ।

अपनी आत्मचेतना को परमात्मचेतना से एकाकार करने का एकमात्र लक्ष्य महर्षि माण्डव्य की उस दुर्द्धर्ष तपस्या का भी था, परंतु शायद विधि को कुछ और ही मंजूर था।

प्रकृति उनके माध्यम से कुछ ऐसे कार्यो को संपादित करना चाहती थी, जिनको कर पाने का साहस संभवतया किसी अन्य में न हो पाता।

इसीलिए प्रकृति की प्रेरणावश एक दिन एक चरवाहा, अपनी गाय को चराता हुआ महर्षि के आश्रम में जा पहुँचा। वहां तक पहुँचने की यात्रा सरल न थी, सो उसे निकट के एक पेड़ के नीचे विश्राम करते-करते नींद आ गई।

जब उसकी आँखे खुली तो उसने पाया कि उसके साथ चल रही गायों के झुंड में से कुछ गायें वहाँ नहीं है।


सामान्य व्यक्ति के मन में शंका-कुशंका तीव्रता से घर करती हैं। उसे लगा की किसी ने उसकी गायें चुरा ली हैं, परंतु उस निर्जन क्षेत्र में यह अपराध भला कौन करेगा? इधर-उधर ढूंढ़ने में उसे उसकी गायें महर्षि माण्डव्य की कुटिया के पीछे घूमती मिलीं।

मन में शक तो उसने पहले ही पाल लिया था, पर अब प्रमाण पाकर और यह देखकर कि वहाँ महर्षि ध्यानमग्न हैं-उसने यह विश्वास मन में दृढ़ कर लिया कि हो-न-हो यह ध्यानमग्न व्यक्ति ही अपराधी है।

मन तो कल्पनाएँ करने में चतुर होता ही है, पर मन ने चरवाहे को यह भी समझा दिया कि महर्षि गायों को चुराने के बाद ध्यान का अभिनय करने बैठ गए हैं, ताकि उन पर किसी का शक न जा सके।

बुद्वि हर ली जाए तो फिर कोई भी कल्पना, मन में इस प्रकार दृढ़ भाव ले लेती है, जैसे वो ही सत्य हो। उस चरवाहे के साथ भी ऐसा ही कुछ घटा।

मन में उसी भाव को लिए हुए वह उस राज्य के राजा के पास अपनी शिकायत को लेकर पहुँचा।

चरवाहे की शिकायत करने के तरीके में इतना बल था कि राजा ने भी बिना दूसरा पक्ष सुने महर्षि को चोर समझकर नगर कोतवाल को निर्णय सुनाया की जो सजा राज्य में चोर को सुनाई जाती है, वो ही इस चरवाहे के दोषी को भी सुनाई जाए।

उस राज्य में चोरी की सजा सूली पर चढ़ाने की थी, सो वो ही सजा नगर कोतवाल ने महर्षि के लिए भी निर्धारित कर दी।

महर्षि माण्डव्य के शिष्य उस राजा के कुलगुरू थे। उन्हें यह व्यथित कर देने वाला समाचार मिला तो वे भागते हुए राजा के पास पहुँचे व उन्हें चेताया कि कितना गंभीर अपराध उनके द्वारा घट गया है।

राजा ने महर्षि माण्डव्य व उनकी उत्कट तपस्या की कथा सुन रखी थी। वे स्वयं भी महर्षि के दर्शनों को लालायित रहते थे।

यह जानकर कि उन्होंने अनजाने में महर्षि को ही प्रणांत का दंड दे डाला है, उनका शरीर काँप उठा। वे तुरंत कुलगुरू को साथ लेकर सजा जिस स्थान पर दी जा रही थी वहाँ पहुँचे, पर देरी बहुत हो चुकी थी।

नगर कोतवाल ने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया था, वे प्राण त्यागने को थे। घबराए राजा ने महर्षि के पैर पकड़ लिए व उनसे क्षमा-याचना करने लगे। कुलगुरू के आँसू तो रूकने का नाम न लेते थे।

उनके शिष्य ने ही अपने गुरू को प्राणांत का दंड दे डाला था। उनके मुख से तो जैसे शब्द ही विदा हो गए थे। महर्षि माण्डव्य इन सबके बावजूद निर्द्वन्द , निश्चिंत थे।

शरीर छूटने का भी उन्हें जैसे भान न था। राजा के पैर पकड़ने पर वे बोले- “राजन्! आप निश्चिंत रहें, आप मेरे अपराधी नहीं हैं।

मेरे अपराधी तो वे हैं, जिन्होंने इस कर्मपरिणाम का निर्धारण किया है, अब मैं इसका हिसाब उन्हीं से लूँगा।” इतना कहते-कहते महर्षि माण्डव्य ने अपनी पार्थिव देह को त्याग दिया।

शरीर छूटने के उपरांत महर्षि माण्डव्य की आत्मा यमलोक को पहुँची। स्वयं धर्मराज यम उन्हें लेने के लिए यमलोक के द्वार पर पहुँचे।

उनसे भेंट होते ही महर्षि माण्डव्य ने उनसे प्रश्न किया-“यमराज! मेरे द्वारा कृत वह कौन-सा कर्म था, जिसके परिणामस्वरूप् मुझे सूली पर चढ़ने का घातक कष्ट भुगतना पड़ा़ ?”

यमराज ने उत्तर देने से पूर्व चित्रगुप्त के पास संगृहीत कर्मो के हिसाब की ओर दृष्टि दौड़ाई और फिर महर्षि माण्डव्य से बोले- “महर्षि! जब आप आठ वर्ष के थे, तो आपने एक कृमि की गरदन पर एक धारदार वस्तु से प्रहार कर दिया था। वही कर्म आपको सूली पर चढ़ने के रूप में चुकाना पड़ा”

महर्षि माण्डव्य ने पुनः प्रश्न किया-“यमराज! जब मैं आठ वर्ष का था, तो क्या मुझे किए जा रहे कर्म के शुभ-अशुभ होने का विवेकबोध था ? क्या मुझे इतनी समझ थी कि जो कर्म मैं कर रहा हूँ, उससे दूसरे प्राणी को कष्ट पहुँच रहा होगा।”

प्रत्युत्तर में यमराज के पास मौन रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष न था। महर्षि की जिज्ञासा निराधार नहीं थी। आठ वर्ष के बालक में इतनी समझ-बूझ नहीं होती है कि वो अपने कर्म के दूरगामी परिणामों को महसूस कर सके।

यमराज को निरूत्तर देख महर्षि माण्डव्य बोले-“उस स्थिति में इस कर्म का निर्धारण करने की जिम्मेदारी मेरी है। आज के उपरांत मैं यह नियम निर्धारित करता हूँ कि बारह वर्ष के नीचे के बालक अथवा बालिका को उनके द्वारा कृत कर्म का आधा अंश भुगतना पड़ेगा।

शेष आधे की जिम्मेदारी है कि वे अपने पुत्र अथवा पुत्री को शुभ अथवा अशुभ कर्म का बोध कराएँ।”

इतना कहकर महर्षि माण्डव्य थोड़ा ठहरे और पुनः बोले-“कर्म के निर्धारण की सम्यक जिम्मेदारी इस पद पर आसीन होने के कारण तुम्हारी थी यमराज, पर इस जिम्मेदारी को पूर्ण करने में तुम सफल नहीें रहे और इसलिए तुम्हें भी अपने कर्मदोष का परिणाम भुगतना होगा।

इसके परिणामस्वरूप तुम्हें धरती पर जन्म लेना होगा और तुम एक साथ दो व्यक्तियों के रूप में जन्म लोगे। एक रूप में तुम शासक बनोगे, परंतु अधिकार से शून्य रहोगे।”

महर्षि माण्डव्य द्वारा कहे गए उन वचनों के मिथ्या जाने का प्रश्न ही न था। यमराज को धरती पर दो रूपों में जन्म लेना पडा।

पहले रूप में वे युधिष्ठिर बने, जिसमें वे शासक तो थे, परंतु जीवनभर भटकते रहे और दूसरे रूप में वे सूतपुत्र विदुर के रूप में थे, जिसमें वे अधिकार से च्युत रहे।

स्पष्ट है कि कर्मों का परिणाम जब कर्मों का निर्धारण करने वाली शक्तियों को स्वीकारना पड़ता है तो प्रत्येक व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वह कर्मों को उनमें निहित शुभ-अशुभ की भावना को ध्यान में रखते हुए करे।

माँ दुर्गा की आरती -Jai Ambe Gauri

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जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी,
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को,
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजै,
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी,
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती,
कोटिक चंद्र दिवाकर, सम राजत ज्योती॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती,
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे,
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी,
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैरों,
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता,
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

भुजा चार अति शोभित, खडग खप्पर धारी,
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती,
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे,
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे॥ ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी,
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी। ॥ॐ जय अम्बे गौरी…॥

Reference

Aarti

श्री शनि चालीसा Shri Shani Chalisa

॥ दोहा ॥

जय गणेश गिरिजा सुवन,मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुःख दूर करि,कीजै नाथ निहाल॥

जय जय श्री शनिदेव प्रभु,सुनहु विनय महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय,राखहु जन की लाज॥

॥ चौपाई ॥

जयति जयति शनिदेव दयाला।करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै।माथे रतन मुकुट छवि छाजै॥

परम विशाल मनोहर भाला।टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके।हिये माल मुक्तन मणि दमके॥

कर में गदा त्रिशूल कुठारा।पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥
पिंगल, कृष्णों, छाया, नन्दन।यम, कोणस्थ, रौद्र, दुःख भंजन॥

सौरी, मन्द, शनि, दशनामा।भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥
जा पर प्रभु प्रसन्न है जाहीं।रंकहुं राव करैं क्षण माहीं॥

पर्वतहू तृण होई निहारत।तृणहू को पर्वत करि डारत॥
राज मिलत वन रामहिं दीन्हो।कैकेइहुं की मति हरि लीन्हो॥

बनहूं में मृग कपट दिखाई।मातु जानकी गई चतुराई॥
लखनहिं शक्ति विकल करिडारा।मचिगा दल में हाहाकारा॥

रावण की गति मति बौराई।रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥
दियो कीट करि कंचन लंका।बजि बजरंग बीर की डंका॥

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा।चित्र मयूर निगलि गै हारा॥
हार नौलाखा लाग्यो चोरी।हाथ पैर डरवायो तोरी॥

भारी दशा निकृष्ट दिखायो।तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥
विनय राग दीपक महँ कीन्हों।तब प्रसन्न प्रभु हवै सुख दीन्हों॥

हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी।आपहुं भरे डोम घर पानी॥
तैसे नल पर दशा सिरानी।भूंजी-मीन कूद गई पानी॥

श्री शंकरहि गहयो जब जाई।पार्वती को सती कराई॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा।नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥

पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी।बची द्रोपदी होति उधारी॥
कौरव के भी गति मति मारयो।युद्ध महाभारत करि डारयो॥

रवि कहं मुख महं धरि तत्काला।लेकर कूदि परयो पाताला॥
शेष देव-लखि विनती लाई।रवि को मुख ते दियो छुड़ई॥

वाहन प्रभु के सात सुजाना।जग दिग्ज गर्दभ मृग स्वाना॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी।सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं।हय ते सुख सम्पत्ति उपजावै॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा।गर्दभ सिंद्धकर राज समाजा॥

जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै।मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी।चोरी आदि होय डर भारी॥

तैसहि चारि चरण यह नामा।स्वर्ण लौह चाँजी अरु तामा॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं।धन जन सम्पत्ति नष्ट करावै॥

समता ताम्र रजत शुभकारी।स्वर्ण सर्वसुख मंगल कारी॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै।कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥

अदभुत नाथ दिखावैं लीला।करैं शत्रु के नशि बलि ढीला॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई।विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत।दीप दान दै बहु सुख पावत॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा।शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥

॥ दोहा ॥

पाठ शनिश्चर देव को,की हों विमल तैयार।
करत पाठ चालीस दिन,हो भवसागर पार॥

Shani Chalisa (शनि चालीसा) – with Hindi lyrics

Reference
1. Shani Chalisa
2. Image

भगवान शिव के 108 नाम

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१- ॐ भोलेनाथ नमः
२-ॐ कैलाश पति नमः
३-ॐ भूतनाथ नमः
४-ॐ नंदराज नमः
५-ॐ नन्दी की सवारी नमः
६-ॐ ज्योतिलिंग नमः
७-ॐ महाकाल नमः
८-ॐ रुद्रनाथ नमः
९-ॐ भीमशंकर नमः
१०-ॐ नटराज नमः
११-ॐ प्रलेयन्कार नमः
१२-ॐ चंद्रमोली नमः
१३-ॐ डमरूधारी नमः
१४-ॐ चंद्रधारी नमः
१५-ॐ मलिकार्जुन नमः
१६-ॐ भीमेश्वर नमः
१७-ॐ विषधारी नमः
१८-ॐ बम भोले नमः
१९-ॐ ओंकार स्वामी नमः
२०-ॐ ओंकारेश्वर नमः
२१-ॐ शंकर त्रिशूलधारी नमः
२२-ॐ विश्वनाथ नमः
२३-ॐ अनादिदेव नमः
२४-ॐ उमापति नमः
२५-ॐ गोरापति नमः
२६-ॐ गणपिता नमः
२७-ॐ भोले बाबा नमः
२८-ॐ शिवजी नमः
२९-ॐ शम्भु नमः
३०-ॐ नीलकंठ नमः
३१-ॐ महाकालेश्वर नमः
३२-ॐ त्रिपुरारी नमः
३३-ॐ त्रिलोकनाथ नमः
३४-ॐ त्रिनेत्रधारी नमः
३५-ॐ बर्फानी बाबा नमः
३६-ॐ जगतपिता नमः
३७-ॐ मृत्युन्जन नमः
३८-ॐ नागधारी नमः
३९- ॐ रामेश्वर नमः
४०-ॐ लंकेश्वर नमः
४१-ॐ अमरनाथ नमः
४२-ॐ केदारनाथ नमः
४३-ॐ मंगलेश्वर नमः
४४-ॐ अर्धनारीश्वर नमः
४५-ॐ नागार्जुन नमः
४६-ॐ जटाधारी नमः
४७-ॐ नीलेश्वर नमः
४८-ॐ गलसर्पमाला नमः
४९- ॐ दीनानाथ नमः
५०-ॐ सोमनाथ नमः
५१-ॐ जोगी नमः
५२-ॐ भंडारी बाबा नमः
५३-ॐ बमलेहरी नमः
५४-ॐ गोरीशंकर नमः
५५-ॐ शिवाकांत नमः
५६-ॐ महेश्वराए नमः
५७-ॐ महेश नमः
५८-ॐ ओलोकानाथ नमः
५४-ॐ आदिनाथ नमः
६०-ॐ देवदेवेश्वर नमः
६१-ॐ प्राणनाथ नमः
६२-ॐ शिवम् नमः
६३-ॐ महादानी नमः
६४-ॐ शिवदानी नमः
६५-ॐ संकटहारी नमः
६६-ॐ महेश्वर नमः
६७-ॐ रुंडमालाधारी नमः
६८-ॐ जगपालनकर्ता नमः
६९-ॐ पशुपति नमः
७०-ॐ संगमेश्वर नमः
७१-ॐ दक्षेश्वर नमः
७२-ॐ घ्रेनश्वर नमः
७३-ॐ मणिमहेश नमः
७४-ॐ अनादी नमः
७५-ॐ अमर नमः
७६-ॐ आशुतोष महाराज नमः
७७-ॐ विलवकेश्वर नमः
७८-ॐ अचलेश्वर नमः
७९-ॐ अभयंकर नमः
८०-ॐ पातालेश्वर नमः
८१-ॐ धूधेश्वर नमः
८२-ॐ सर्पधारी नमः
८३-ॐ त्रिलोकिनरेश नमः
८४-ॐ हठ योगी नमः
८५-ॐ विश्लेश्वर नमः
८६- ॐ नागाधिराज नमः
८७- ॐ सर्वेश्वर नमः
८८-ॐ उमाकांत नमः
८९-ॐ बाबा चंद्रेश्वर नमः
९०-ॐ त्रिकालदर्शी नमः
९१-ॐ त्रिलोकी स्वामी नमः
९२-ॐ महादेव नमः
९३-ॐ गढ़शंकर नमः
९४-ॐ मुक्तेश्वर नमः
९५-ॐ नटेषर नमः
९६-ॐ गिरजापति नमः
९७- ॐ भद्रेश्वर नमः
९८-ॐ त्रिपुनाशक नमः
९९-ॐ निर्जेश्वर नमः
१०० -ॐ किरातेश्वर नमः
१०१-ॐ जागेश्वर नमः
१०२-ॐ अबधूतपति नमः
१०३ -ॐ भीलपति नमः
१०४-ॐ जितनाथ नमः
१०५-ॐ वृषेश्वर नमः
१०६-ॐ भूतेश्वर नमः
१०७-ॐ बैजूनाथ नमः
१०८-ॐ नागेश्वर नमः

या देवी सर्वभूतेषु मंत्र जाप | Ya devi sarva bhuteshu mantra in hindi

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देवी दुर्गा संपूर्ण सृष्टि की जननी हैं। तीन नेत्रों से संपन्न, इस ब्रह्मांड में विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए देवी माँ ने हजारों रूपों में अवतार लिया है देवी भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल का प्रतिनिधित्व करती हैं।

माता के कुछ सबसे महत्वपूर्ण कार्य राक्षसों का नाश करना और पवित्र लोगों की रक्षा करना है। वह उन जगहों पर रहती है जहां उनके नाम का जाप भक्ति और विश्वास के साथ किया जाता है।

देवी मंत्र हमारे जीवन के अंत को सुरक्षित करने के लिए मां दुर्गा का आशीर्वाद जीतने के लिए शक्तिशाली जप हैं। सफलता और समृद्धि के लिए देवी मंत्रों का जाप अति आवश्यक है।।

माँ दुर्गा सबसे शुभ हैं और सभी दुनिया को समृद्धि और शुभ का आशीर्वाद देती हैं।

पवित्र और पवित्र माँ उन लोगों की रक्षा करती है जो उसके सामने आत्मसमर्पण करते हैं और वह गौरी के रूप में अवतार लेने पर पर्वत राजा की बेटी हैं। हम दिव्य माता को नमन करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।

देवी दुर्गा सर्वव्यापी हैं। वह सार्वभौमिक मां की पहचान है। वह सभी प्राणियों में शक्ति, शांति और बुद्धि का अवतार है।

माना जाता है कि हजारों साल पहले, एक युवा महिला ने एक ही अहसास के बाद परमानंद में नृत्य करना शुरू कर दिया था जिसने उसके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया: उसका जीवन अनंत चेतना से उत्पन्न हुआ जो निराकार और हर रूप में मौजूद है।

जो उभर कर आया वह उस चेतना की प्रशंसा में इस परमानंद की एक सहज अभिव्यक्ति थी जिसे आज हम ‘या देवी सर्व भुतेसु’ के नाम से जानते हैं।

संगीतकार ऋषि वाक ने मानव अस्तित्व के हर हिस्से पर कब्जा कर लिया है और इसका श्रेय देवी माँ को दिया है। ऋग्वेद में उत्पन्न होने वाला यह मंत्र दैनिक नवरात्रि की प्रार्थना और साधना का अंग बन गया है। सरल और गहरा।

प्राणियों में ऊर्जा स्फूर्ति, उल्लास व क्रियाशीलता बनकर परिलक्षित होता है दुर्गा मंत्र

अर्थात: यह अपने भीतर शक्ति के रूप में स्थित देवी की आराधना है। हमें अपने भीतर की शक्ति को पहचानना होगा और उसका सदुपयोग करना होगा।

शक्ति अथवा ऊर्जा प्रकृति के रूप में (बाहरी और हमारे भीतर की प्रकृति), उल्लास के रूप में, क्रियाशीलता के रूप में, प्रसन्नता आदि के रूप में अभिव्यक्त होती है। वासंतिक नवरात्रि का पदार्पण भी ऐसे समय में होता है, जब प्रकृति नई ऊर्जा से भरी होती है।

प्राणियों में भी यह ऊर्जा स्फूर्ति, उल्लास और क्रियाशीलता बनकर परिलक्षित होती है। लेकिन यदि हम उसे सकारात्मक रूप में क्रियान्वित नहीं कर पाते, तो शक्ति होने के बावजूद हाथियों की तरह निष्क्रिय होकर खूंटे से बंधे रहते हैं या फिर उस ऊर्जा को नकारात्मकता की ओर मोड़ देते हैं।

जिस शक्ति का उपयोग हम मदद में या सृजनात्मक कामों में कर सकते हैं, उसका उपयोग विध्वंसक कार्यों में करने लगते हैं। शक्ति के प्रवाह को सकारात्मकता की ओर लाने के लिए नौ दिन शक्ति की आराधना का प्रावधान किया गया होगा।

दुर्गा सप्तशती के अनुसार, मां दुर्गा समस्त प्राणियों में चेतना, बुद्धि, स्मृति, धृति, शक्ति, शांति श्रद्धा, कांति, तुष्टि, दया आदि अनेक रूपों में स्थित हैं। अपने भीतर स्थित इन देवियों को जगाना हमें सकारात्मकता की ओर ले जाता है।

भगवान श्रीराम ने शक्ति की उपासना कर बलशाली रावण पर विजय पाई थी। जबकि ‘देवी पुराण’ में उल्लेख है कि रावण शिव के साथ-साथ शक्ति का भी आराधक था। उसने मां दुर्गा से बलशाली होने का वरदान पा रखा था।

लेकिन शक्ति ने राम का साथ दिया, क्योंकि रावण अपने भीतर सद्गुण रूपी देवियों को जगा नहीं पाया। तुष्टि, दया, शांति आदि के अभाव में उसका अहंकार प्रबल हो गया।

इसलिए देवी की आराधना का एक अर्थ यह भी है कि आप एक ऐसे इंसान बनें, जिसमें शक्ति के साथ- साथ करुणा, दया, चेतना, बुद्धि, तुष्टि आदि गुण भी हों। देवी के रूपों में मां दुर्गा को राक्षसों से संघर्ष करते हुए दिखाया

या देवी सर्व सर्वभूतेषु मंत्र (Ya devi sarva bhuteshu meaning in hindi)

या  देवी सर्वभूतेषु देवी मंत्र, माँ दुर्गा का प्रमुख मंत्र है, देवी लक्ष्मी, सरस्वती, काली और नौदेवी सभी माता दुर्गा का ही रूप है। इस मंत्र के द्वारा माता के सभी रूपों की पूजा व स्तुति की जाती है।

माँ दुर्गा ही जीवन, बुद्धि, शक्ति, धन, शांति इत्यादि सभी प्रदान करने वाली देवी है| इस मंत्र के द्वारा माता की स्तुति कर उनको प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर व्यक्ति एक सफल और समृद्ध जीवन जी सकता है|

इस मंत्र के नियमित पाठ से व्यक्ति अपनी सभी इच्छाओं को पूरा कर सकता है।

या देवी सर्वभूतु मंत्र देवी स्तुति का हिस्सा है, या देवी दुर्गा को नमस्कार है। मां दुर्गा की स्तुति करने वाला मंत्र मुक्तिदायक रचना है।

मंत्र जीवन के अस्तित्व के लिए सर्वव्यापी चेतना को धन्यवाद देता है।

यह दुर्गा मां का आह्वान करता है और बिना किसी बाधा के सकारात्मक जीवन जीने के लिए उनसे आशीर्वाद मांगता है।

मंत्र देवी के गहरे पहलुओं को दर्शाता है जो अक्सर छूट जाते हैं।

गुरुदेव श्री श्री रविशंकर के अनुसार, मंत्र पूरे ब्रह्मांड और समय में देवी की उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करता है। मंत्र के द्वारा हमें पता लगता है कि मां देवी सभी जगह विद्यमान है

सर्वव्यापी: देवी सभी में चेतना के रूप में मौजूद हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां देवी न हों।

सभी रूपों में: प्रकृति और उसकी विकृतियां सभी देवी के रूप हैं। सुंदरता, शांति सभी देवी के रूप हैं। क्रोध आए तो भी देवी हैं। तुम लड़ते हो तो वह भी देवी है।

प्राचीन और नवीन : हर क्षण चेतना के साथ जीवंत है। हमारी चेतना ‘निथ नूतन’ एक ही समय में प्राचीन और नई है। वस्तुएं या तो पुरानी हैं या नई, लेकिन प्रकृति में आप पुराने और नए को एक साथ विद्यमान पाएंगे।

सूरज पुराना भी है और नया भी। एक नदी में हर पल ताजा पानी बहता है, लेकिन फिर भी बहुत पुराना है। इसी तरह मानव जीवन बहुत प्राचीन है लेकिन साथ ही नया भी है। तुम्हारा मन वही है।

निम्न मंत्र से देवी दुर्गा का स्मरणकर प्रार्थना करने मात्र से देवी प्रसन्न होकर अपने भक्तों की इच्छापूर्ण करती हैं।

समस्त देव गण जिनकी स्तुति प्राथना करते हैं। माँ दुर्गा अपने भक्तो की रक्षा कर उन पर कृपा दृष्टी की वर्षा करती है और उसको उन्नती के शिखर पर जाने का मार्ग प्रसस्त करती हैं।

इस लिये ईश्वर में श्रद्धा विश्वास रखने वाले सभी मनुष्य को देवी की शरण में जाकर देवी से निर्मल हृदय से प्रार्थना करनी चाहिये।

या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेना संस्थित ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥

भावार्थ

हे सर्वव्यापी देवी दुर्गा जिन्होंने एक माँ के रूप में सभी प्राणियों का पालन-पोषण किया है

 मैं आपको नमन करता हूं, मैं आपकी प्रशंसा करता हूं, मैं आपका पुन: सम्मान करता हूं आपको बारंबार नमस्कार है।

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में शान्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

 भावार्थ :

जो देवी सब प्राणियों में दया रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है

या देवी सर्वभुतेषु बुद्धि रूपेण थिथिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥

भावार्थ

जो देवी सभी प्राणियों में बुद्धि के रूप में विद्यमान हैं, उनको नमस्कार ,उनको नमस्कार ,उनको बारंबार नमस्कार है।

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

अर्थात जो देवी सभी प्राणियों में चाहत के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है.

 या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

अर्थात जो देवी समस्त प्राणियों में भूख के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है.

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टि-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

जो देवी सब प्राणियों में सन्तुष्टि के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है.

या देवी सर्वभूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

यानी जो देवी सभी प्राणियों में आराम, नींद के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है.

या देवी सर्वभूतेषु सरस्वती मंत्र

या देवी सर्वभूतेषु विद्या-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावर्थ

यानी जो देवी सब प्राणियों में विद्या के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है.

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

जो देवी समस्त प्राणियों में श्रद्धा, आदर, सम्मान के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥

अर्थात हे नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगल मयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को) सिद्ध करने वाली हो. शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो. हे नारायणी, तुम्हें नमस्कार है.

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

सर्वव्यापी देवी मां गौरी जिन्होंने एक माँ के रूप में सभी प्राणियों का पालन-पोषण किया है मैं आपको नमन करता हूं, मैं आपकी प्रशंसा करता हूं, मैं आपका पुन: सम्मान करता हूं आपको बारंबार नमस्कार है।

या देवी सर्वभूतेषु सृष्टि रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

जो देवी संपूर्ण सृष्टि में विद्यमान है और रचयिता उनको मैं नमस्कार करता हूं बारंबार उनको नमन करता हूं।

या देवी सर्वभूतेषु भक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

जो देवी सब प्राणियों में भक्ति, निष्ठा, अनुराग के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है। आपको मेरा बार-बार प्रणाम है।

या देवी सर्वभूतेषू क्षान्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

जो देवी सब प्राणियों में सहनशीलता, क्षमा के रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।

या देवी सर्वभूतेषू जाति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

भावार्थ

जाति – जन्म, सभी वस्तुओ का मूल कारण जो देवी सभी प्राणियों का मूल कारण है, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।

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या देवी सर्वभूतेषू कान्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

भावार्थ

जो देवी सभी प्राणियों में तेज, दिव्यज्योति, उर्जा रूप में विद्यमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।

या देवी सर्वभूतेसु विष्णुमयति सबदिता।
नमस्तसयै, नमस्तसयै, नमस्तसयै, नमो नमः।

भावार्थ

विष्णु माया (मोह) शब्द को जानने वाली हे देवी, आपको नमस्कार , आपको नमस्कार है , आपको बार -बार नमस्ते है ||

या देवी सर्वभूतेषु मंत्र को सुनने के लाभ (ya devi sarva bhuteshu shlok)

या देवी सर्वभूतु मंत्र दुर्गा मां का आह्वान करता है जो बुराई का नाश करने वाली हैं और अपने भक्तों के दुखों को दूर करती हैं।

सभी प्रकार के भय और मानसिक कष्टों को दूर करता है और व्यक्ति को जीवन में सही निर्णय लेने में सक्षम बनाता है।

दुश्मनों और बुरी आत्माओं के डर को दूर करता है और घरों और व्यक्तियों के जीवन में समग्र शांति और समृद्धि को बढ़ावा देता है।

घर में सकारात्मक स्पंदन को बढ़ाता है और घर के सभी लोगों के जीवन में खुशी और सफलता को बढ़ावा देता है।घर में व्याप्त बुरी ऊर्जाओं को दूर करता है और घर के समग्र विकास के लिए सभी रूपों में शुभता को बढ़ावा देता है। किसी के मार्ग

में आने वाली बाधाओं को दूर करता है और सफलता लाता है।

कैसे करें इन मंत्रों का जाप

मां दुर्गा के इन मंत्रों का जाप करने के लिए प्रातःकाल स्नान करने के बाद घर में बने पूजा स्थान पर बैठे. दीपक जलाएं और मां दुर्गा को नमन करते हुए किसी भी एक मंत्र का जाप 108 बार करें|

मान्यता है कि इन मंत्रों का जाप करने से मन को शांति मिलती है और दिमाग में कई ऊर्जा का संचार होता है. ऐसा कहा जाता है कि मां दुर्गा के इन मंत्रों का जाप नवरात्रि के अलावा बाकि दिनों में किया जाए तो मनुष्य के जीवन से सभी कष्ट मिट जाते हैं|

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श्री राम और उनके पूर्वज

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श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?
नहीं तो जानिये-
1 – ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,
2 – मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,
3 – कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,
4 – विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,
5 – वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |
6 – इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,
7 – कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,
8 – विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,
9 – बाण के पुत्र अनरण्य हुए,
10- अनरण्य से पृथु हुए,
11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,
12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,
13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,
14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,
15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,
16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,
17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,
18- भरत के पुत्र असित हुए,
19- असित के पुत्र सगर हुए,
20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,
21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,
22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,
23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |
24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |
25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,
26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,
27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,
28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,
29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,
30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,
31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,
32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,
33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,
34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,
35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,
36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,
37- अज के पुत्र दशरथ हुए,
38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ | शेयर करे ताकि हर हिंदू इस जानकारी को जाने..।